Friday, 26 November 2021

भोजन एक यज्ञ है ---

भोजन एक यज्ञ है जिसमें हर आहुति भगवान को दी जाती है। भोजन करने या जल पीने से पूर्व -- कुछ क्षणों तक उसे निहारें, और मानसिक रूप से भगवान को अर्पित करें। उनका सेवन बड़े प्रेम से धीरे-धीरे इस भाव से करें कि हमारे माध्यम से स्वयं भगवान ही इसे ग्रहण कर रहे हैं, और पूरी सृष्टि का इस से पालन-पोषण हो रहा है। गीता में भगवान कहते हैं --

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥१५:१४॥"
अर्थात् -- "मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ॥"
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गीता में भगवान ने भोजन को एक ब्रह्मकर्म बताया है --
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
अर्थात् -- "अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है॥"
२७ नवंबर २०२१

किसी वन में घूमते हुए अचानक ही जब सिंह सामने आ जाये तो क्या करेंगे ? ---

 यह बात मैंने पहले भी अनेक बार लिखी है कि यदि हम किसी वन में घूमने जाएँ और सामने से अचानक कोई सिंह आ जाये तो हम क्या करेंगे? हम कुछ भी नहीं कर सकेंगे, क्योंकि जो कुछ भी करना है वह तो सिंह ही करेगा। उस से बचकर हम कहीं भाग नहीं सकते।

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ऐसे ही यह संसार है। भगवान जब स्वयं हमारे समक्ष आ गए हैं, तब कहीं अन्य जाने को कोई स्थान ही नहीं है, क्योंकि वे तो सर्वत्र हैं। समर्पण के अतिरिक्त हम कर भी क्या सकते हैं? जो कुछ भी करना है, वह तो भगवान स्वयं ही करेंगे। उनके समक्ष हमारी कुछ भी नहीं चल सकती। उनका दिया हुआ सामान जिसे हम मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार कहते हैं, -- पूरा का पूरा उन्हें बापस समर्पित कर दो। हमारा भला इसी में है। बस इतना ही पर्याप्त है। फिर वे हमारा कल्याण ही कल्याण करेंगे। उन के दिये हुये सामान का आज तक कोई भाड़ा हमने नहीं चुकाया है। उनका मूलधन ही बापस कर दो। इसी से वे संतुष्ट हो जाएँगे।
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उन की प्रेममय सर्वव्यापकता और अनंत विस्तार से भी परे एक परम ज्योतिर्मय लोक है, जहाँ वे स्वयं बिराजमान हैं। जहाँ वे हैं, वहीं "मैं" हूँ -- इसी भाव से उन्हीं का ध्यान होना चाहिए। कोई भी साधना हो, वह अपनी गुरु-परंपरा में ही करनी चाहिए, क्योंकि किसी भी तरह की भूल-चूक हो जाने पर गुरु-परंपरा ही उस भूल का शोधन कर साधक की रक्षा करती है। एक बात बार-बार लिखूँगा कि भगवान से प्रेम करो, खूब प्रेम करो, और अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें समर्पित कर के उन का खूब ध्यान करो। दिन का आरंभ और समापन भगवान के ध्यान से ही करो।
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन ! सब का मंगल ही मंगल, शुभ ही शुभ, और कल्याण ही कल्याण हो ! ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२६ नवंबर २०२१

गुरु-कृपा .....

 गुरु-कृपा .....

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एक ज्योति ऐसी है जो कभी भी बुझाई नहीं जा सकती| वह ज्योति हम स्वयं हैं| हमारा मौन और एकाग्रता ही परमात्मा का सिंहासन है| लक्ष्य स्पष्ट हो, दृढ़ आत्मविश्वास और उत्साह हो, संतुलित वाणी हो, आजीविका का पवित्र साधन हो, स्वस्थ देह और मन हो, परमात्मा से प्रेम हो, फिर और क्या चाहिए?
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चेतना में जब गुरु रूप ब्रह्म निरंतर कर्ता और भोक्ता के रूप में बिराजमान हों, उनके श्रीचरणों में आश्रय मिल गया हो, अनाहत नाद की ध्वनी अंतर में निरंतर सुन रही हो, ज्योतिर्मय ब्रह्म निरंतर कूटस्थ में हों, परमात्मा की सर्वव्यापकता का निरंतर आभास हो, सम्पूर्ण चेतना परम प्रेममय हो गयी हो, तब और कौन सी उपासना या साधना बाकी बची है?
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हे गुरु रूप ब्रह्म आपकी जय हो| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवंबर २०२०