भोजन एक यज्ञ है जिसमें हर आहुति भगवान को दी जाती है। भोजन करने या जल पीने से पूर्व -- कुछ क्षणों तक उसे निहारें, और मानसिक रूप से भगवान को अर्पित करें। उनका सेवन बड़े प्रेम से धीरे-धीरे इस भाव से करें कि हमारे माध्यम से स्वयं भगवान ही इसे ग्रहण कर रहे हैं, और पूरी सृष्टि का इस से पालन-पोषण हो रहा है। गीता में भगवान कहते हैं --
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥१५:१४॥"
अर्थात् -- "मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ॥"
.
गीता में भगवान ने भोजन को एक ब्रह्मकर्म बताया है --
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
अर्थात् -- "अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है; ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है॥"
२७ नवंबर २०२१