Sunday 25 August 2024

आज "भारत-विभाजन विभीषिका दुःखद स्मृति दिवस" और "अखंड भारत संकल्प दिवस" है ---

 जो विभा में रत है, जहाँ से ज्योति की अति सूक्ष्म रेखाओं का प्रवाह सम्पूर्ण सृष्टि को ज्योतिर्मय बना रहा है, वह भारत है। भारत एक ऊर्ध्वमुखी चेतना है जो निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त कर रही है। भारत की चेतना सम्पूर्ण सृष्टि को परमात्मा की चेतना में रत कर रही है। परमात्मा का प्रकाश यहाँ से चारों ओर फैल रहा है। भारत अखंड हो, और असत्य का अंधकार यहाँ से सदा के लिए दूर हो। भगवान भारत भूमि में फिर से अवतरित होंगे।

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अखंड भारत कोई कल्पना नहीं, हमारा विचारपूर्वक किया हुआ संकल्प है, जिसे फलीभूत करने को प्रकृति की प्रत्येक शक्ति बाध्य होगी। हमारी श्रद्धा, विश्वास और आस्था कभी विफल नहीं हो सकती। कोई हमारे विचारों से सहमत हो या नहीं हो, लेकिन हम अपने विचारों पर दृढ़ हैं। भारत की आत्मा एक है, अतः भारत का अखंड होना निश्चित है। हम भारत के प्राचीन वैभव को दुबारा प्राप्त करेंगे। हम हर दृष्टिकोण से शक्तिशाली बन कर, अपने संकल्प को साकार करेंगे। केवल भारत की आत्मा ही इस देश को एक कर सकती है, जिसके साथ हम एक हैं।
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भारत माँ अपने द्विगुणित परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर बिराजमान हो रही हैं, और अपने भीतर और बाहर छाए हुए असत्य के अंधकार को दूर कर अपने शत्रुओं का विनाश कर रही है। भारत अखंड होगा, धर्म की पुनःस्थापना और वैश्वीकरण भी होगा। भारत के बिना धर्म नहीं है, और धर्म के बिना भारत नहीं है। धर्म की रक्षा स्वयं भगवान करते हैं ---
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥" (श्रीमद्भगवद्गीता ४:७ व ४:८).
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१४ अगस्त का दिन शोक का दिन है, मातम का, इस अपराध बोध का कि हमने इस दिन पाकिस्तान नाम के एक राक्षस को जन्म दिया था। इसके लिए मनुष्यता का इतिहास भारत के तत्कालीन राजनीतिक-तंत्र को कभी क्षमा नहीं करेगा। भारत का सत्ता-हस्तांतरण हुआ, तो भी किस मूल्य पर? भारत माता की दोनों भुजाएँ पकिस्तान के रूप में काट दी गईं, लाखों परिवार विस्थापित हुए, लाखों निर्दोष लोगों की हत्याएँ हुईं, लाखों निर्दोष असहाय महिलाओं का बलात्कार हुआ, और लाखों असहाय लोगों का बलात् धर्मांतरण हुआ। क्या इन सब बातों को भुलाया जा सकता है? यह विश्व के इतिहास का सबसे बड़ा सामूहिक नरसंहार था।
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एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति के बल पर भारत अखंड होगा। हमारे निज जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो। वन्दे मातरम्॥ भारत माता की जय॥
कृपा शंकर
१४ अगस्त २०२४
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हे जन्म भूमि भारत, हे कर्म भूमि भारत,
हे वन्दनीय भारत, अभिनंदनीय भारत।
जीवन सुमन चढ़ाकर, आराधना करेंगे,
तेरी जनम-जनम भर, हम वंदना करेंगे।
हम अर्चना करेंगे ॥१॥
महिमा महान तू है, गौरव निधान तूँ है,
तू प्राण है हमारा, जननी समान तूँ है।
तेरे लिए जियेंगे, तेरे लिए मरेंगे,
तेरे लिए जनम भर, हम साधना करेंगे |
हम अर्चना करेंगे ||२||
जिसका मुकुट हिमालय, जग जग मगा रहा है,
सागर जिसे रतन की, अंजुली चढा रहा है।
वह देश है हमारा, ललकार कर कहेंगे,
इस देश के बिना हम, जीवित नहीं रहेंगे।
हम अर्चना करेंगे ||३||
जो संस्कृति अभी तक दुर्जेय सी बनी है,
जिसका विशाल मंदिर, आदर्श का धनी है।
उसकी विजय-ध्वजा ले हम विश्व में चलेंगे,
सुर संस्कृति पवन बन हर कुंज में बहेंगे।
हम अर्चना करेंगे ॥४॥
शाश्वत स्वतंत्रता का, जो दीप जल रहा है,
आलोक का पथिक जो, अविराम चल रहा है।
विश्वास है कि पल भर, रूकने उसे न देंगे।
उस दीप की शिखा को, ज्योतित सदा रखेंगे॥"
हम अर्चना करेंगे ॥५॥
भारत माता की जय !!

🌹🌹🌹 सभी भक्तों और साधकों के लिए :--- (प्रश्न) : सारी भक्ति और साधना कौन कर रहा है?

 (उत्तर) : सारी साधना और भक्ति -- भगवान स्वयं कर रहे हैं। हम केवल एक निमित्त साक्षी मात्र हैं। भगवान स्वयं ही कर्ता और भोक्ता हैं। हमारी भूमिका अधिक से अधिक उतनी ही है जितनी यज्ञ में एक यजमान की होती है।

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हरेक साँस के साथ हम उन्हें याद करें, जिनके कारण हम जीवंत हैं। भगवान श्रीकृष्ण हमें हर समय मूर्धा में ओंकार का स्मरण करने को कहते हैं। मूर्धा में हर समय ओंकार का जप, और हर आती-जाती साँस के साथ अजपा-जप (हँसः योग, हंसवतीऋक) चलता रहे। हर युवा को चाहिए कि वह खेचरी मुद्रा का अभ्यास करे। भगवान की स्मृति निरंतर बनी रहे। सारी साधना खेचरी या अर्ध-खेचरी मुद्रा में करें।
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हमारे माध्यम से कौन जी रहे है? हमारे जन्म से पूर्व, और मृत्यु के पश्चात कौन हमारे साथ रहेंगे? कौन हमारे माँ-बाप, भाई-बहिन, सगे-संबंधी, और शत्रु-मित्र बनकर आये? कौन हमारे हृदय में धडक रहे हैं? कौन हमारी इस देह की सारी गतिविधियों को संचालित कर रहे हैं? वे कौन हैं, जो यह सम्पूर्ण अस्तित्व है? उन्हें हम हर समय अपनी स्मृति में रखें।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ अगस्त २०२४

एक परम गोपनीय सत्य --- .

भगवान की प्राप्ति एक सरल से सरल कार्य है। इससे अधिक सरल अन्य कुछ भी नहीं है। इस अति अति गोपनीय रहस्यों के रहस्य को जनहित में बता देना ही उचित है। भगवान की कृपा को प्राप्त करना कोई बड़ी बात नहीं है। भगवान की कृपा प्राप्त करने के लिए हमें सिर्फ सत्यनिष्ठा और परमप्रेम ही चाहिए। अन्य सारे गुण अपने आप ही खींचे चले आते हैं। भगवान सत्य-नारायण हैं, वे सत्य-नारायण की कथा से नहीं, हमारे स्वयं के सत्यनिष्ठ बनने से ही प्राप्त होते हैं। हमें स्वयं को ही सत्य-नारायण बनना होगा।

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किसी भी तरह का कोई असत्य, छल-कपट हमारे जीवन में नहीं होना चाहिए। भगवान की प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक हमारा लोभ और अहंकार है। किसी भी तरह की कोई कामना या आकांक्षा हमारे हृदय में नहीं हो, केवल अभीप्सा हो। अभीप्सा कहते हैं एक अतृप्त गहन प्यास और तड़प को। "भगवान हर समय हमारे साथ हैं", वे कहीं दूर नहीं, हर समय निरंतर हमारे आज्ञा-चक्र में हैं। एक साधक का आज्ञाचक्र ही उसका हृदय है। आज्ञाचक्र के बिलकुल सामने भ्रूमध्य है। गुरु की आज्ञा से हम भ्रूमध्य में ध्यान करते हैं। इसका परिणाम अपने अनुभव से ही प्राप्त करें। भगवान की प्राप्ति के अतिरिक्त अन्य कोई भावना हृदय में नहीं होनी चाहिए। यदि हमारे में सत्यनिष्ठा नहीं है तो हमारी कोई भी प्रार्थना कभी भी नहीं सुनी जाएगी। हर समय निरंतर यह भाव रहे कि हम भगवान में, और भगवान हमारे में हैं।
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मैं साकार उपासक हूँ। साकार से ही निराकार में प्रवेश किया जा सकता है। निराकार का अर्थ है -- सारे आकार जिसके हों। इससे अतिरिक्त कुछ भी निराकार नहीं है सम्पूर्ण सृष्टि में। हमारी मनुष्य देह भगवान का मंदिर है। हमारा मेरु-दण्ड भगवान की वेदी है। भगवान शिव हमारे गुरु हैं। उनका ध्यान आज्ञाचक्र में कीजिये। जैसे जैसे आपको सिद्धि प्राप्त होगी, उनका स्थान शनैः शनैः बदल जाएगा। यह बहुत बाद की बात है। वे सर्वव्यापी हैं।
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साथ साथ आरंभ में मूलाधारचक्र में गणपति का ध्यान उनके मंत्र से कीजिये। यदि सत्यनिष्ठा होगी तो उनका मंत्र उनकी कृपा से अपने आप ही प्राप्त हो जायेगा। मूलाधारचक्र के त्रिभुज में एक शिवलिंग है, जिसके चारों ओर एक शक्ति लिपटी हुई है। जब तक आपकी सांसें चल रही हैं, आप को वहाँ आकर उनको नमन करना ही होगा। उस शक्ति के बीजमंत्र भी उस त्रिभुज के तीनों ओर लिखे हुए हैं।
मैंने जो कहा है यह बड़े रहस्य की बात है। जो भगवान की कृपा से ही समझ में आएगी। सर्वव्यापी शिव को मैं परमशिव कहता हूँ। यह एक अनुभूति है। जो कुछ भी मैंने लिखा है यह अनुभूत सत्य है। इसकी अनुभूति प्रत्येक जीवात्मा को करनी होगी।
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मेरे पास समय नहीं है। जो समय भगवान ने दिया है वह उनका है, मेरा नहीं। मैं किसी के लिए भी उपलब्ध नहीं हूँ। अतः मेरे से संपर्क साधने का प्रयास न करें। यदि संपर्क ही करना है तो भगवान से करें, वे निरंतर हर समय उपलब्ध हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ अगस्त २०२४

कहीं पर भी हमें रुकना नहीं चाहिए। जहाँ भी रुकते हैं, वहीं से हमारा पतन आरंभ हो जाता है।

 

🙏🌹💐🌷🪷🥀🌾🌺🕉️🌺🌾🥀🪷🌷💐🌹🙏
भगवान की परम कृपा से पिछले अनेक वर्षों में अनेक संत-महात्माओं का सत्संग, और अनेक आध्यात्मिक साधनाओं के अनुभव लिये हैं। गुरुकृपा से सार रूप में यही कह सकता हूँ कि --
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(१) कहीं पर भी हमें रुकना नहीं चाहिए। जहाँ भी रुकते हैं, वहीं से हमारा पतन आरंभ हो जाता है। अपनी चेतना का निरंतर विस्तार करते रहना चाहिये, अन्यथा विनाश आरंभ होने लगता है।
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(२) हमारे एकमात्र स्थायी साथी स्वयं परमात्मा हैं। अन्य सब साथ छोड़ देते हैं, लेकिन वे कभी हमारा साथ नहीं छोड़ते। उन्हें पकड़ कर रखना चाहिए। पकड़ में भी वे ही आ सकते हैं, अन्य कोई नहीं। उनमें अपने अस्तित्व का पूर्ण विलय कर दें। यही साधना का उद्देश्य है, और यही सफलता का भी मापदंड है।
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(३) शास्त्रों के अध्ययन मात्र से ही "वेदान्त" आदि दर्शन समझ में नहीं आ सकते। उन्हें समझने के लिए सिद्ध महात्माओं के साथ सत्संग और उनकी कृपा प्राप्त करनी पड़ती है।
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(४) कोई भी आध्यात्मिक साधना हो उसका आरंभ "अकिंचन" भाव से होता है। लेकिन एक दीर्घकाल के गहन अभ्यास के पश्चात शिवकृपा से उसकी परिणिती शनैः शनैः "परमशिव" भाव में हो जाती है। "परमशिव" एक अनुभूति है जो अवर्णनीय और अपरिभाष्य है। उसके आगे अन्य सब अनुभूतियाँ गौण हैं।
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(५) क्रियायोग और ध्यान आदि की सारी साधनाएँ अनंत सर्वव्यापी परमशिव भाव में स्थित होकर ही करनी चाहियें। कहीं पर भी कर्ताभाव न आने पाये। भगवान अपनी साधना स्वयं कर रहे हैं, हम तो एक निमित्त साक्षी मात्र हैं -- यही भाव बना रहे।
इससे आगे मुझे और कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं है। अपना सब कुछ मैंने यहाँ उंडेल दिया है।
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सभी को मंगलमय शुभ कामना और नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ गुरु !! गुरु ॐ !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ अगस्त २०२४
🙏🌹💐🌷🪷🥀🌾🌺🕉️🌺🌾🥀🪷🌷💐🌹🙏

प्रति वर्ष २१ अगस्त को "वरिष्ठ नागरिक दिवस" (Senior Citizens' Day) मनाया जाता है ---

 प्रति वर्ष २१ अगस्त को "वरिष्ठ नागरिक दिवस" (Senior Citizens' Day) मनाया जाता है। मैं स्वयं ७८ वर्षीय अति वरिष्ठ नागरिक हूँ। सभी वरिष्ठ नागरिकों को मेरा अभिनंदन !!

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जीवन में प्रसन्न रहने के लिए भगवान पर श्रद्धा, विश्वास और आस्था रखें। नित्य व्यायाम करें और भगवान का ध्यान हर समय करें। सकारात्मक सोच रखें। सबसे खराब चीज जो एक वरिष्ठ नागरिक के लिए हो सकती है, वह है "नशा"। किसी भी तरह का नशा न करें, शराब की ओर तो देखें भी नहीं। जीवन में प्रसन्नता कहीं बाहर से नहीं, भीतर से मिलती है, अतः किसी से कोई अपेक्षा न रखें। इस समय परिस्थितियाँ अति प्रतिकूल हैं, विपरीतताओं में ही अनुकूलता ढूंढें। कोई भी ऐसा कार्य न करें जिससे समाज और राष्ट्र का अहित हो।
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अति वरिष्ठ नागरिकों (७५ वर्ष की आयु से अधिक) को आय कर से पूर्ण मुक्ति मिले। बैंकों, डाकघरों व सरकारी कार्यालयों में कर्मचारियों का व्यवहार सभ्य व सम्मानजनक हो। सरकारी कर्मचारी उन से किसी भी परिस्थिति में घूस न लें। कम से कम इतनी तो अपेक्षा हम रखते ही हैं।
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सभी का मंगल हो। सभी के प्रति शुभ कामनाएँ।
कृपा शंकर

आज श्रावण पूर्णिमा को हमारा उपाकर्म का दिन है, जो ब्राह्मणों के लिए विशेष है

अब तक की सारी सरकारी गलत शिक्षा नीतियों और गलत संवैधानिक नियमों ने पूरे हिन्दू समाज को वैदिक शिक्षा से वंचित रखा है। इस कारण विदेशी फिरंगी संस्कृति हम सब पर हावी हो गई है, और हम अपनी प्राचीन परंपराओं को भूल गए हैं। स्थिति इतनी अधिक खराब है कि ईश्वर ही हमारा उद्धार कर सकते हैं।

वेदांगों और वेदों का स्वाध्याय, चिंतन, मनन और आचरण नहीं होने से हमारी आध्यात्मिक उन्नति ठप्प हो गई है। हम अपनी आध्यात्मिक उन्नति करें, यही श्रावणी-पर्व जिसे हम रक्षा-बंधन कहते हैं का प्रयोजन है। इस समय तो हमें केवल भगवान का ही सहारा है, और हमारा कोई नहीं है। हम भगवान को न भूलें। अपनी पीड़ा ही यहाँ व्यक्त कर रहा हूँ।
. राष्ट्र और धर्म की रक्षा स्वयं भगवान कर रहे हैं, और वे ही करेंगे। हम तो निमित्त मात्र ही हो सकते हैं। लेकिन जब राष्ट्र और धर्म की रक्षा का संकल्प ले ही लिया है, तो अपने समर्पण, भक्ति और साधना में और अधिक दृढ़ता लायेंगे। हमारी एकमात्र पूँजी और संपत्ति स्वयं परमात्मा हैं, उन से अधिक और कुछ भी हमारे पास नहीं है। अब राष्ट्र का निर्माण स्वयं भगवान करेंगे।
पवित्र श्रावण मास के अंतिम सोमवार को आप में, भगवान परमशिव को नमन करता हूँ। आज श्रावणी उपाकर्म और रक्षाबंधन भी था। इन उत्सवों का प्रयोजन -- "आध्यात्मिक उन्नति" है। वैदिक और पौराणिक जो भी साधना आप करते हैं, वह पूर्ण निष्ठा से करें।
आध्यात्मिक साधना का उद्देश्य अपनी स्वयं की पृथकता के बोध यानि स्वयं के अस्तित्व को परमात्मा में पूर्ण विलीन करना है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ अगस्त २०२४

रक्षाबंधन पर्व की मंगलमय शुभ कामनाएँ ---

समाज को स्नेह सूत्र व प्रेम में बांधने वाले आत्मशुद्धि के रक्षाबंधन पर्व पर मैं सभी का अभिनंदन करता हूँ। रक्षा-बंधन वह बंधन है जो रक्षा के लिए बांधा जाता है।

शुक्ल-यजुर्वेदी ब्राह्मणों के श्रावणी-उपाकर्म पर भी सभी ब्राह्मणों को नमन !!
जब तक इस तन में प्राण हैं, तब तक मैं अपनी क्षमतानुसार अपने धर्म और संस्कृति के मान-सम्मान की रक्षा करूंगा। मैं उन सभी बहिनों को शुभ आशीर्वाद देता हूँ जिन्होंने मुझे राखियाँ भेजी हैं।
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रक्षाबंधन एक वैदिक परंपरा है जिसके वैदिक मंत्र भी हैं, और पौराणिक भी। यज्ञ आरंभ से पूर्व रक्षासूत्र का विधान आता है जो कर्मकाण्ड का एक प्रमुख अंग है। श्रावणी और उपाकर्म दोनों अलग-अलग विषय हैं। श्रावणी को ही रक्षाबन्धन कहते हैं। श्रावण मास में श्रवण नक्षत्र की पूर्णिमा को जो कृत्य होता है, वह रक्षाबंधन, श्रावणी कहलाता है।
उपाकर्म -- वेद पठन-पाठन से सम्बंधित है, जो --
(१) ऋग्वेदियों का श्रावण शुक्ल पंचमी को, (२) शुक्ल यजुर्वेदियों का श्रावण पूर्णिमा को, (३) आपस्तम्ब तैत्तरीय शाखा वालों का श्रावण प्रतिपदायुत पूर्णिमा को, (४) सामवेदियों का भाद्रपद शुक्लपक्ष के हस्त नक्षत्र में, और (५) अथर्ववेदाध्ययन करने वालों का भाद्रपद पूर्णिमा को होता है।
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रक्षाबंधन के बारे में अनेक कथाएँ हैं। एक कथा के अनुसार एक कल्पांत में वेदों का ज्ञान लुप्त हो गया था। मधु और कैटभ नाम के राक्षसों ने ब्रह्मा जी से वेदों को छीन लिया और रसातल में छिप गए। ब्रह्मा जी ने वेदोद्धार के लिए भगवान विष्णु की स्तुति की। स्तुति सुन कर भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लिया। हयग्रीव अवतार में उनकी देह मनुष्य की थी, लेकिन सिर घोड़े का था। भगवान हयग्रीव ने फिर से वेदों का ज्ञान ब्रह्माजी को दिया। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा थी। भगवान हयग्रीव बुद्धि के देवता है। शुक्ल यजुर्वेदीय ब्राह्मण उस दिन को उपाकर्म मनाते हैं, जिसमें रक्षासूत्र भी बांधा जाता है।
हयग्रीव नाम का एक राक्षस भी था, उसका वध भगवान विष्णु ने हयग्रीवावतार में किया।
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देवासुर संग्राम में देवताओं की असुरों द्वारा सदा पराजय ही पराजय होती थी। एक बार इन्द्राणी ने इन्द्र के हाथ पर विजय-सूत्र बांधा और विजय का संकल्प कराकर रणभूमि में भेजा। उस दिन युद्ध में इंद्र विजयी रहे|
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राजा बली का सारा साम्राज्य भगवान विष्णु ने वामन अवतार के रूप में दान में प्राप्त कर लिया था और सिर्फ पाताल लोक ही उसको बापस दिया। अपनी भक्ति से राजा बलि ने विष्णु को वश में कर के उन्हें अपने पाताल लोक के महल में ही रहने को बाध्य कर दिया। लक्ष्मी जी ने बड़ी चतुरता से राजा बली को रक्षासूत्र बांधकर एक वचन लिया और विष्णु जी को वहाँ से छुड़ा लाईं। तब से रक्षासूत्र बांधते समय --
"येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चलः॥" -- मन्त्र का पाठ करते हैं।
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महाभारत में शिशुपाल वध के समय भगवान श्रीकृष्ण की अंगुली में चोट लग गयी थी और रक्त बहने लगा। तब द्रोपदी वहीं खड़ी थी, उसने अपनी साड़ी का एक पल्लू फाड़कर भगवान श्रीकृष्ण की अंगुली में एक पट्टी बाँध दी। चीर-हरण के समय भगवान श्रीकृष्ण ने द्रोपदी की लाज की रक्षा की।
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महाभारत के युद्ध में यह रक्षासूत्र माता कुंती ने अपने पोते अभिमन्यु को बाँधा था। जब तक यह रक्षासूत्र अभिमन्यु के हाथ में बंधा था तब तक उसकी रक्षा हुई। रक्षासूत्र टूटने पर ही अभिमन्यु की मृत्यु हुई।
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मध्यकाल में विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा हिन्दू नारियों पर अत्यधिक अमानवीय क्रूरतम अत्याचार होने लगे थे। तब से महिलाऐं अपने भाइयों को राखी बाँधकर अपनी रक्षा का वचन लेने लगीं, तब से रक्षासूत्र बांधकर रक्षाबंधन मनाने की यह परम्परा चल पड़ी।
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भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में पेशवा नाना साहब और और रानी लक्ष्मीबाई के मध्य राखी का ही बंधन था। रानी लक्ष्मीबाई ने पेशवा को रक्षासूत्र भिजवा कर यह वचन लिया था कि वे ब्रह्मवर्त को अंग्रेजों से स्वतंत्र करायेंगे।
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बंग विभाजन के विरोध में रविन्द्रनाथ टैगोर की प्रेरणा से बंगाल के अधिकाँश लोगों ने एक-दूसरे को रक्षासूत्र बांधकर एकजूट रहने का सन्देश दिया।
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक इस दिन परम पवित्र भगवा ध्वज को राखी बांधते हैं, और हिन्दू राष्ट्र की रक्षा का संकल्प लेते हैं।
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श्रावण पूर्णिमा के दिन भगवान शिव धर्मरूपी बैल पर बैठकर अपनी सृष्टि में भ्रमण करने आते हैं। हमारे घर पर भी उनकी कृपादृष्टि पड़े, और वे कहीं नाराज न हो जाएँ, इस उद्देश्य से राजस्थान और आसपास के क्षेत्रों में महिलाऐं अपने घर के दरवाजों पर रक्षाबंधन के पर्व से एक दिन पहिले "सूण" मांडती हैं।
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इस पावन पर्व पर भगवान से मेरी प्रार्थना है कि धर्म की रक्षा, पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण हो, भारत अपने द्वीगुणित परम वैभव को प्राप्त हो, अखंड हो, और असत्य व अन्धकार की शक्तियाँ पराभूत हों। सब तरह के बुरे विचारों और बुरे संकल्पों से हमारी स्वयं की रक्षा भी हो।
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"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।
प्रणत क्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नम:॥"
"ॐ नमो ब्रह्मण्य देवाय,गो ब्राह्मण हिताय च।
जगद्धिताय कृष्णाय, गोविन्दाय नमो नमः॥" ॐ तत्सत्॥ ॐ स्वस्ति॥
कृपा शंकर
१८ अगस्त २०२४
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पुनश्च: पाठ्य पुस्तकों में रानी कर्णावती और हुमायूं की एक झूठी और कपोल-कल्पित कहानी पढ़ाई जाती है जिसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है| यह एक कपोलकल्पित पूर्णतः झूठी कहानी है।

हे "पुरोहितो", इस राष्ट्र में जागृति लाओ और इस राष्ट्र की रक्षा करो ---

 हे "पुरोहितो", इस राष्ट्र में जागृति लाओ और इस राष्ट्र की रक्षा करो ---

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प्राचीन भारत में राष्ट्र का दूरगामी हित देखने वाले ब्राह्मणों को "पुरोहित" कहते थे। वे राष्ट्र के दूरगामी हितों को समझ कर उनकी प्राप्ति की व्यवस्था करते थे। "पुरोहित" में चिन्तक और साधक दोनों के गुण होते हैं। "पुरोहित" शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है। "पुरोहित" शब्द का अर्थ है जो इस पुर यानि इस राष्ट्र का हित करता है, और जो सही परामर्श दे सकें।
एक वैदिक मंत्र है -- "वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः॥" (यजुर्वेद ९:२३)
अर्थात् "हम पुरोहित राष्ट्र को जीवंत ओर जाग्रत बनाए रखेंगे"।
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ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र है --
"अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥"
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उपरोक्त मंत्र का आध्यात्मिक अर्थ तो मैं नहीं लिख सकता क्योंकि वह बहुत गहन और लंबा है और उसे कोई पढ़ेगा भी नहीं। लेकिन भौतिक अर्थ आंशिक रूप से समझाया जा सकता है --
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इस पृथ्वी के देवता अग्नि हैं। भूगर्भ में जो अग्नि रूपी ऊर्जा (geothermal energy) है, उस ऊर्जा, और सूर्य की किरणों से प्राप्त ऊर्जा से ही पृथ्वी पर जीवन है। वह अग्नि ही हमें जीवित रखे हुए है। इस पृथ्वी से हमें जो भी धातुएं और रत्न प्राप्त होते हैं, वे इस भूगर्भीय अग्नि रूपी ऊर्जा से ही निर्मित होते हैं। अतः यह ऊर्जा यानी अग्निदेव ही इस पृथ्वी के "पुरोहित" हैं।
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ऊर्जा को ही अग्नि का नाम दिया हुआ है। हमारे विचारों और संकल्प के पीछे भी एक ऊर्जा है। ऐसे ऊर्जावान व्यक्तियों को ही हम "पुरोहित" कह सकते हैं, जो अपने संकल्पों, विचारों व कार्यों से हमारा हित करने में समर्थ हों। ऐसे लोगों से ही मैं निवेदन करता हूँ कि वे इस राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा करें।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० अगस्त २०२४
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पुनश्च: --- पुराने जमाने में भारत में ऐसे ही "राज-ज्योतिषी" भी होते थे। वे अपने राज्य का हित ज्योतिषीय दृष्टिकोण से देखते थे, और राजा को उचित सलाह देते थे।

परमात्मा का नाम ही हमारा कवच है, जो निरंतर हमारी रक्षा करता है​।

 परमात्मा का नाम ही हमारा कवच है, जो निरंतर हमारी रक्षा करता है​।

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जब तक हमारे अन्तःकरण (मन बुद्धि चित्त अहंकार) से परमात्मा प्रवाहित है, तब तक कोई भी हमारा कुछ भी अहित नहीं कर सकता। जिस क्षण हम परमात्मा को भूलकर वासनात्मक विचारों में डूब जाते हैं, उसी क्षण हम आसुरी शक्तियों के शिकार हो कर गलत काम करने लगते हैं। भौतिक जगत पूर्ण रूप से सूक्ष्म जगत के अंतर्गत है।
अगर हम संसार में कोई अच्छा कार्य करना चाहते हैं तो उसका एक ही उपाय है कि हम परमात्मा को निरंतर स्वयं के भीतर प्रवाहित होने दें, उसके उपकरण बन जाएँ। अन्य कोई उपाय नहीं है।
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अपनी युवावस्था में मैंने अनेक साम्यवादी देशों (रूस, लातविया, यूक्रेन, रोमानिया, चीन और उत्तरी-कोरिया) का भ्रमण किया है, जहाँ किसी भी प्रकार से भगवान की भक्ति की सजा गिरफ्तारी और मृत्युदंड थी। वहाँ के लोगों की पीड़ा देखी है। अब तो समय बदल गया है। उत्तरी कोरिया में तो अभी भी भगवान की भक्ति की सजा मृत्युदंड है। सऊदी अरब जैसे देशों में तो इस्लाम के अतिरिक्त अन्य किसी भी आस्था पर प्रतिबंध है।
ऐसे देश साक्षात नर्ककुंड हैं। पूर्वजन्मों में हमने कोई अच्छे कर्म किए थे, इसलिए भारतवर्ष में हमारा जन्म हुआ है। अतः भारत की अस्मिता की रक्षा, और भारत का हित हमारे लिए सर्वोपरी हो।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ अगस्त २०२४

'देवो भूत्वा देवं यजेत्' --- ('शिवो भूत्वा शिवं यजेत्') -

 'देवो भूत्वा देवं यजेत्' --- ('शिवो भूत्वा शिवं यजेत्') -

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जिसका जैसा स्वभाव है वह वैसा ही लिखेगा। मेरा स्वभाव भक्ति है तो मैं भक्ति पर ही लिखूंगा। मुझ अकिंचन के पास परमात्मा को छोड़कर अन्य कुछ है भी नहीं।
नदी का विलय जब महासागर में हो जाता है, तब नदी का कोई नाम-रूप नहीं रहता, सिर्फ महासागर ही महासागर रहता है। वैसे ही हमारा भी विलय जब परमात्मा में हो जाता है, तब सिर्फ परमात्मा ही रहते हैं, हम नहीं।
हमारा समर्पण पूर्ण हो। 🕉🕉🕉 ‼️
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सारी शाश्वत जिज्ञासाओं का समाधान, सभी प्रश्नों के उत्तर, पूर्ण संतुष्टि, पूर्ण आनंद और सभी समस्याओं का निवारण -- सिर्फ और सिर्फ परमात्मा में है। अपनी चेतना को सदा कूटस्थ में रखो और निरंतर परमात्मा का स्मरण करते हुए अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें दीजिये। आगे का पूरा मार्गदर्शन स्वयं परमात्मा करेंगे।
ॐ तत्सत् । ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
२१ अगस्त २०२४

अपने स्वभाव के अनुकूल उपासना करें ---

 अपने स्वभाव के अनुकूल उपासना करें --- (संशोधित )

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एक बात तो यह न भूलें कि इस पृथ्वी पर हम एक अदृश्य आसुरी और दैवीय जगत से घिरे हुये हैं। सूक्ष्म जगत में अनेक महा असुर हैं जो हमारे चारों ओर हैं। वे हमारे पर अपना अधिकार करना चाहते हैं। सूक्ष्म जगत में अनेक देवता भी हैं और अनेक असुर भी हैं, जो किसी किसी को तो दिखाई देते हैं, लेकिन अधिकांश को नहीं। उनकी अनुभूतियाँ तो सभी को होती हैं।
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भगवान का नाम ही हमारा रक्षा-कवच है जो हमारी रक्षा कर सकता है। लेकिन यह विडम्बना है कि हम में से अधिकांश लोग तो उन असुरों का शिकार बनने के लिए ही भगवान से प्रार्थना करते हैं।
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हमारा तमोगुण ही असुरों को निमंत्रित करता है ---
जब भी पराये स्त्री/पुरुष की, या पराये धन की, या अपने दो पैसों के लाभ के लिए दूसरों का लाखों रुपयों का नुकसान करने की, या चोरी रिश्वत आदि की भावना/कामना हमारे मन में आती है, उसी क्षण हम आसुरी जगत के शिकार हो जाते हैं।
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कर्मफल किसी को छोड़ता नहीं है ---
स्वर्ग-नर्क आदि भी सत्य हैं। भगवान के चरणों में आश्रय मिले, इससे कम कुछ भी हमें नहीं चाहिये। हमारे मन में इंद्रियों की वासना के विचार आते हैं, वे ही नर्क के द्वार हैं। वासना ही हो तो भगवान के चरण-कमलों में आश्रय पाने की हो या वेदान्त-वासना हो।
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भगवान का जो भी रूप प्रिय लगता है उसी की उपासना करें। आप भगवान श्रीराम की, भगवान श्रीकृष्ण की, श्रीहनुमान जी की, शिव की, या भगवती की, या उनके किसी भी रूप की उपासना करें। सब कुछ अपना सर्वस्व उन्हें समर्पित कर दें। आप भी उनके साथ एक हो जाओगे। साधना का उद्देश्य भगवान को समर्पण है, न कि कुछ प्राप्ति की।
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रात्रि को सोने से पूर्व कुछ देर तक भगवान का कीर्तन और ध्यान करें। फिर ऐसे सो जाएँ जैसे एक शिशु अपनी माँ की गोद में सोता है। दूसरे दिन प्रातःकाल भगवान ही आपके माध्यम से उठेंगे। उठते ही कुछ देर कीर्तन और ध्यान करो।
फिर पूरे दिन उन्हें अपनी स्मृति में रखो। किसी से छल-कपट मत करो।
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यदि आप में सत्यनिष्ठा और भक्ति (परमप्रेम) है तो भगवान की कृपा निश्चित रूप से होगी। भगवान की कृपा भी सत्यनिष्ठ भक्तों पर ही होती है। अंत में यही कहूँगा -- 'देवो भूत्वा देवं यजेत्' -- ('शिवो भूत्वा शिवं यजेत्')॥
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर​
२२अगस्त २०२४

इसी जन्म में ही परमात्मा की प्राप्ति क्यों आवश्यक है?

 

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इसी जन्म में ही परमात्मा की प्राप्ति क्यों आवश्यक है?
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इस भौतिक शरीर की मृत्यु हमारा अंतिम पड़ाव नहीं है। मृत्यु के समय जैसी भी हमारी भावनाएँ और अनुभूतियाँ होती हैं, सूक्ष्म शरीर में और अगले जन्म में भी वे ही रहती हैं। जब मृत्यु का हम वरण करते हैं, या जब भी हमें मृत्यु प्राप्त होती है, उस समय जिस आनन्द में हम रहते हैं, या जो भी पीड़ा हमें रहती है, वह आनन्द या पीड़ा अगले जन्म तक हमारे सूक्ष्म शरीर में भी रहेगी, और अगले जन्म में जो शरीर हमें प्राप्त होगा, उसमें भी रहेगी। यदि हम असहनीय पीड़ा से मरते हैं तो हमारा यह शरीर तो मर जाएगा लेकिन वह पीड़ा सूक्ष्म शरीर में भी रहेगी और अगले जन्म में भी रहेगी। यदि हम आनंदमय होकर यह शरीर छोडते हैं तो वह आनन्द सूक्ष्म देह में भी और अगले जन्म में भी रहेगा। इसलिए मृत्यु की तैयारी करना हमारा परम धर्म है। मृत्यु के समय हम प्रेम और आनन्द से भरे हों, और ईश्वर के साथ एक हों।
परमात्मा की चेतना में यदि हम आनंदमय होकर इस देह का त्याग करते हैं, तो सूक्ष्म शरीर में भी और अगले जन्म में भी जन्म के समय से ही हम परमात्मा की चेतना में रहेंगे। भगवान से हम प्रार्थना करें कि वे भारतवर्ष की और सत्य सनातन धर्म की रक्षा तो करें ही, इस भौतिक देह में भी हमारे इस जीवन को वे ही जीयें।
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"मैं नहीं, स्वयं परमात्मा ही यह जीवन जी रहे हैं, और वे ही इस देह में स्वयं को व्यक्त कर रहे हैं।" -- यह भाव सदा निरंतर रहना चाहिए। अंत समय में केवल परमात्मा ही हमारे समक्ष हों। किसी भी तरह की घृणा या क्रोध हम में न हो।
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मंगलमय शुभ कामनाएँ ॥ ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ अगस्त २०२४

जब तुम ही सर्वस्व हो, फिर यह विक्षेप और आवरण क्यों है?

 जब तुम ही सर्वस्व हो, फिर यह विक्षेप और आवरण क्यों है?

सब कुछ तो तुम ही हो, समस्त अस्तित्व और उससे परे जो कुछ भी है, वह तुम ही हो। तुम्हारे से पृथक कुछ भी नहीं है। फिर यह अतृप्त प्यास, तड़प और वेदना क्यों है?
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उपरोक्त प्रश्न शाश्वत प्रश्न हैं।
"स्वयं को भोक्ता, संसार को भोग्य और परमात्मा को भोग-प्रदाता के रूप में देखना -- हमारी समस्त पीड़ाओं का कारण है।"
दूसरे शब्दों में परमात्मा से पृथकता ही हमारे सब कष्टों का कारण है।
यह अविद्या है। ब्रह्म का ज्ञान पराविद्या है, और सांसारिक ज्ञान अपराविद्या।
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सांसारिक विद्या से जो प्राप्त होता है वह कभी हमारा होता नहीं है, मृत्यु के साथ साथ वह छिन जाता है। ब्रह्मज्ञान यानि परमात्मा का ज्ञान स्थायी होता है। अतः हमें सिर्फ परमात्मा की ही इच्छा करनी चाहिए। उपनिषदों ने जिस परम पुरुष का प्रतिपादन किया है उस को जानने के पश्चात जानने योग्य अन्य कुछ भी नहीं है।
॥इति॥

वह कौन सी मुख्य शक्ति है जो हमें बंधन में डालती है?

 (उत्तर) : बंधन में डालने वाली बहुत सी चीजें हैं, लेकिन उनमें से मुख्य है -- हमारा अहङ्कार। जब तक स्वयं को हम यह भौतिक शरीर मानते हैं तब तक हम बंधन में हैं। साधना द्वारा जब हमारी चेतना ब्रह्ममय हो जाती है, तब हम मुक्त हैं। वास्तव में ब्रह्म ही हमारा अस्तित्व है। जब तक पराविद्या की प्राप्ति नहीं होती तब तक सारे बन्धनों का कारण यह अहङ्कार है। इसलिये अहङ्कार ही बन्धन और मोक्ष दोनों का कारण है।

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आज की अधिकांश संतति कामज है, धर्मज नहीं। काम-वासना से जन्य संतति काम-वासना की ओर ही दौड़ेगी। कामज-संतति द्वारा प्रश्न यह होता है कि "क्या करने से हम को मजा आयेगा?"
धर्मज-संतति के मन में ही यह प्रश्न आ सकता है कि "मेरा कर्तव्य क्या है?" और "मुझे क्या करना चाहिये?"
साधना द्वारा चेतना का रूपान्तरण हो सकता है। लेकिन यह भगवान की असीम कृपा से ही होता है। अभी उचित वातावरण नहीं है। अतः इस विषय की और अधिक चर्चा नहीं की जा सकती।
अभी तो प्रश्न यही है कि बंधनों से मुक्त कैसे हों? इसके लिए उपासना/साधना करनी होगी।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२३ अगस्त २०२४

धर्म-रक्षा और राष्ट्र-रक्षा के लिए यदि हमारा कर्तव्य हो जाता है, तो हम इस सारी सृष्टि का विनाश कर के भी पाप के भागी नहीं होते ---

 जिसका अहंकृतभाव नहीं है, और जिसकी बुद्धि कभी कहीं भी लिप्त नहीं होती, वह संसार के सम्पूर्ण प्राणियों को मारकर भी न तो मारता है और न बँधता है। गीता में भगवान कहते हैं ---

"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥"
अर्थात् -- जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मारता है और न (पाप से) बँधता है॥
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जो कर्म का कर्ता होता है वही फल का भोक्ता भी होता है। लेकिन आत्मज्ञान के पश्चात हम शुभाशुभ कर्मों के कर्ता नहीं रहते। आत्मज्ञानी पुरुष का अहंकार अर्थात् जीवभाव ही समाप्त हो जाता है। तब उसकी बुद्धि विषयों में आसक्त, और गुण-दोषों से दूषित नहीं होती। वह पुरुष इन लोकों को मारकर भी, वास्तव में न तो किसी को मारता है, और न किसी बंधन में बंधता है।
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कर्तृत्वाभिमान के अभाव में मनुष्य को किसी भी कर्म का बन्धन नहीं हो सकता। वैसे ही जैसे एक हत्यारे व्यक्ति को तो मृत्युदण्ड दिया जाता है, और रणभूमि में शत्रु का संहार करने वाले वीर सैनिक का सम्मान किया जाता है। जिसका अहंकार पूर्णतया नष्ट हो जाता है, ऐसे ज्ञानी पुरुष को किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं होता।
He who has no pride, and whose intellect is unalloyed by attachment, even though he kill these people, yet he does not kill them, and his act does not bind him.
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ अगस्त २०२४
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