Friday, 2 February 2018

आपके सिवाय मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए .....

हे प्रभु, आपके सिवाय मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए|
भगवान ने इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य लाने, मन में अहंकार न रखने, और जन्म, मृत्यु, ज़रा, व्याधि, आदि में दोष देखने का आदेश दिया है|
भगवान कहते हैं .....
"इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च | जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्" || १३:९ ||
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अब यह कैसे किया जाए इसका चिंतन हर मनुष्य को स्वयं करना चाहिए| एक छोटा सा उपाय अपनी अल्प व सीमित बुद्धि से लिख रहा हूँ .....
१).दोनों समय संध्या वंदन और कम से कम ३ माला गायत्री की अवश्य करें |
२).साधना से पहले अपने इष्ट से आकुल भाव से साधना की सम्पन्नता के लिए प्रार्थना करें |
३).अधिक से अधिक नामजप (अजपा) व ध्यान करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०२ फरवरी २०१८

मनुष्य की सोच ही उसके पतन व उत्थान का कारण है .....

मनुष्य की सोच ही उसके पतन व उत्थान का कारण है .....
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मनुष्य के सोच-विचार और उसकी संगती ही उसके पतन व उत्थान का कारण है, अन्य कोई कारण नहीं हैं| बचपन से अब तक यही सुनते आये हैं कि कामिनी-कांचन की कामना ही मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगति में बाधक हैं, पर यह आंशिक सत्य है, पूर्ण सत्य नहीं| जैसे एक पुरुष एक स्त्री के प्रति आकर्षित होता है वैसे ही एक स्त्री भी किसी पुरुष के प्रति होती है, तो क्या स्त्री की प्रगति में पुरुष बाधक हो गया?
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कांचन के बिना यह लोकयात्रा नहीं चलती| मनुष्य को भूख भी लगती है, सर्दी-गर्मी भी लगती है, बीमारी में दवा भी आवश्यक है, और रहने को निवास की भी आवश्यकता होती है| हर क़दम पर पैसा चाहिए| जैसे आध्यात्मिक दरिद्रता एक अभिशाप है वैसे ही भौतिक दरिद्रता भी एक महा अभिशाप है| वनों में साधू-संत भी हिंसक प्राणियों के शिकार हो जाते हैं, उन्हें भी भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और बीमारियाँ लगती है, उनकी भी कई भौतिक आवश्यकताएँ होती हैं, जिनके लिए वे संसार पर निर्भर होते हैं| पर जो वास्तव में भगवान से जुड़ा है, उसकी तो हर आवश्यकता की पूर्ति स्वयं भगवान ही करते हैं|
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एक आदमी एक महात्मा के पास गया और बोला कि मुझे संन्यास चाहिए, मैं यह संसार छोड़ना छाह्ता हूँ| महात्मा ने इसका कारण पूछा तो उस आदमी ने कहा कि मेरा धन मेरे सम्बन्धियों ने छीन लिया, स्त्री-पुत्रों ने लात मारकर मुझे घर से बाहर निकाल दिया, और सब मित्रों ने भी मेरा त्याग कर दिया, अब मैं उन सब का त्याग करना चाहता हूँ| महात्मा ने कहा कि तुम उनका क्या त्याग करोगे, उन्होंने ही तुम्हे त्याग दिया है|
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भौतिक समृद्धि ...... आध्यात्मिक समृद्धि का आधार है| एक व्यक्ति जो दिन-रात रोटी के बारे में ही सोचता है , वह परमात्मा का चिंतन नहीं कर सकता| पहले भारत में बहुत समृद्धि थी| एक छोटा-मोटा गाँव भी हज़ारों साधुओं को भोजन करा सकता था और उन्हें आश्रय भी दे सकता था| पर अब वह परिस्थिति नहीं है|
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सबसे महत्वपूर्ण तो व्यक्ति के विचार और भाव हैं, उन्हें शुद्ध रखना भी एक साधना है| मनुष्य के भाव और उसके सोच-विचार ही उसके पतन का कारण है, कोई अन्य कारण नहीं| अपने विचारों के प्रति सजग रहें| कोई बुरा विचार आता है तो तुरंत उसे अपनी चेतना से बाहर करें| सदा सकारात्मक चिंतन करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ फरवरी २०१८

देश की वर्तमान आर्थिक व्यवस्था के बारे में मेरी सोच .....

देश की वर्तमान आर्थिक व्यवस्था के बारे में एक सामान्य से सामान्य राष्ट्रवादी नागरिक की सोच .....
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(१) भारत के वर्तमान शासन की घोषित आर्थिक नीतियाँ पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद सिद्धान्त के अनुकूल ही होनी चाहिए| कई क्षेत्रों में हम चीन पर पूर्णतः निर्भर हैं| विगत सरकारों की नीतियों के कारण उद्योगपतियों ने स्वयं उत्पादन न कर, चीन से आयात कर के विक्रय करना अधिक लाभप्रद समझा| इसीलिए चीनी सामान इतना सस्ता और अच्छा आता है| चीनी सामान का बहिष्कार असंभव है| इलेक्ट्रॉनिक्स व मशीनों के पुर्जों के लिए हम चीन पर पूरी तरह निर्भर हैं| बिना चीनी कल पूर्जों के हमारा काम चल ही नहीं सकता| हमें अपनी आवश्यकता का सामान स्वयं उत्पादित करना चाहिए, ताकि चीन से आयात न करना पड़े|
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(२) शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य होने चाहियें जो वर्तमान में नहीं हो रहे हैं| वामपंथियों का प्रभाव न्यूनतम या शून्य किया जाना चाहिए| शैक्षणिक संस्थानों से मैकॉले के मानसपुत्रों को बाहर करना चाहिए| देश का असली विकास देश के नागरिकों का चरित्रवान और निष्ठावान होना है| शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो जिस से देश का नागरिक ईमानदार बने, चरित्रवान और देशभक्त बने| पढाई का स्तर विश्व स्तरीय हो|
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(३) भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन पर पूरा अंकुश होना चाहिए| बाजार में अच्छे से अच्छा सामान उपलब्ध होना चाहिए| देशी उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए| कश्मीरियों को दी जा रही वर्तमान आर्थिक छूट बंद की जानी चाहिए|
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(४) भारत में नौकरशाही द्वारा हर कार्य करवाने की बजाय उस क्षेत्र के विशेषज्ञों को रखा जाय| हर क्षेत्र में उस क्षेत्र के विशेषज्ञ ही हों| मंत्रीगण भी अपने क्षेत्रों के विशेषज्ञ हों| संविधान में संशोधन कर के ऐसी व्यवस्था की जाए| मेरे विचार से देश के वित्तमंत्री डॉ.सुब्रह्मण्यम स्वामी और रक्षामंत्री जनरल वी के सिंह को बनाना चाहिए था| पर यह तो प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है कि वे किसे क्या बनाएँ और किसे क्या नहीं| वे भी उसी को बनायेंगे जो उनके अनुकूल हो|
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वन्दे मातरम् ! भारतमाता की जय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ फरवरी २०१८

मेरा यह शरीर महाराज .....

जैसे जैसे इस शरीर महाराज की आयु बढ़ती जाती है, हम अपने अनेक लौकिक प्रिय जनों का वैकुण्ठ गमन देखने को बाध्य होते रहते हैं| फिर बोध होता है कि सभी दीपकों का तेल तो शनैः शनैः समाप्त हो रहा है, पता नहीं वे कब बुझ जाएँ| अतः जो भी समय अवशिष्ट है उसका अधिकतम सदुपयोग कर लिया जाए| मुझे स्वयं के इस दीपक का भी पता नहीं है कि कितना तेल इसमें बाकी है और भरोसा नहीं है कि यह कब बुझ जाए| पर आश्वस्त हूँ कि मेरा शाश्वत मित्र निरंतर मेरे साथ है और वह मेरा साथ कभी नहीं छोड़ेगा| ॐ स्वस्ति ! ॐ ॐ ॐ !!
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अब मुझे लगता है कि मुझे स्वयं को यह "शरीर महाराज" कह कर ही संबोधित करना चाहिए| सभी का परिचय इस "शरीर महाराज" से ही है, इस आत्मा से नहीं| मैं स्वयं ही स्वयं को नहीं जानता, फिर अन्य तो क्या जानेंगे? जब इस शरीर महाराज का जन्म हुआ था तब इसके माता-पिता ने इसका नाम कृपा शंकर रख दिया था| पर यह मैं नहीं हूँ, और इस शरीर महाराज का साथ भी शाश्वत नहीं है| शाश्वत तो वह परम शिव है जिसका कभी जन्म ही नहीं हुआ| आध्यात्मिक दृष्टी से तो उस परम शिव के अतिरिक्त अन्य कोई है भी नहीं| उसी की चेतना में मैं भी कह सकता हूँ ....
"एकोSहं द्वितीयोनाSस्ति" | शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
०१ फरवरी २०१८ 
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पुनश्चः :---
मेरी यह देह ही अयोध्या नगरी है| यही मेरा देवालय है| यहीं पर मेरे भगवान निवास करते हैं| ओंकार और सोSहं मन्त्रों के जाप से यह पवित्र है| जैसे भी मेरे भगवान चाहें वे इसका प्रयोग करें, मेरी कोई इच्छा नहीं है| कोई इच्छा कभी उत्पन्न भी न हो| वे ही इन पैरों से चल रहे हैं, वे ही इन हाथों से कार्य कर रहे हैं, इस हृदय में वे ही धड़क रहे हैं, इन फेफड़ों से वे ही सांस ले रहे हैं, और इस मष्तिष्क में भी वे ही क्रियाशील है| वास्तव में यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी मेरी देह ही है|
ॐ ॐ ॐ !!
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अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या, तस्यां हिरण्यय: कोश: स्वर्गो ज्योतिषावृत:|| (अथर्ववेद १०.०२.३१)

संत रविदास जयंती .....

आज रविदास जयंती पर सभी का अभिनन्दन और अनंत कोटि शुभ कामनाएँ .....
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संत रविदास को संत रैदास भी कहा जाता है| वे स्वामी रामानंद के प्रमुख बारह शिष्यों में से एक थे| स्वामी रामानंद ने एक ऐसे समय में जन्म लिया था जब सनातन धर्म और भारतवर्ष विदेशी आक्रान्ताओं से पददलित था और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा था| स्वामी रामानंद ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए उत्तरी भारत में भक्तियुग का आरम्भ कर रामभक्ति का द्वार सबके लिए सुलभ कर दिया| उन्होंने अनंतानंद, भावानंद, पीपा, सेन, धन्ना, नाभा दास, नरहर्यानंद, सुखानंद, कबीर, रैदास, सुरसरी, और पदमावती जैसे बारह लोगों को अपना प्रमुख शिष्य बनाया, जिन्हे द्वादश महाभागवत के नाम से जाना जाता है| इनमें कबीर दास और रैदास आगे चलकर बहुत प्रसिद्ध हुए जिन्होनें निर्गुण राम की उपासना की| स्वामी रामानंद का कहना था कि "जात-पात पूछे न कोई, हरि को भजे सो हरि का होई"|
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स्वामी रामानंद के शिष्य संत कवि रविदास (रैदास) का जन्म वाराणसी के पास एक गाँव में माघ पूर्णिमा के दिन रविवार को हुआ था| रविवार को जन्म लेने के कारण इनके माता-पिता ने इनका नाम रविदास रखा| चर्मकार का काम उनका पैतृक व्यवसाय था जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया| अपने कार्य को ये बहुत लगन से किया करते थे| इनका व्यवहार बहुत ही मधुर था| उनकी भक्ति इतनी प्रखर थी कि मेवाड़ की महारानी भक्तिमती महान संत मीराबाई ने भी उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु माना|
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संत रविदास को जीवन में अनेक बड़े से बड़े प्रलोभन और भय दिए गए पर वे अपनी निष्ठा पर सदा अडिग रहे| इनके ज्ञान और तेजस्विता से तत्कालीन समाज बहुत अधिक लाभान्वित हुआ| गुरु ग्रन्थ साहिब में भी उन की अनेक वाणियाँ संकलित हैं|
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उनका एक भजन यहाँ उदधृत कर रहा हूँ .....
"प्रभुजी तुम चंदन हम पानी |
जाकी अंग अंग वास समानी ||
प्रभुजी तुम घन वन हम मोरा |
जैसे चितवत चन्द्र चकोरा ||
प्रभुजी तुम दीपक हम बाती |
जाकी जोति बरै दिन राती ||
प्रभुजी तुम मोती हम धागा |
जैसे सोनहि मिलत सुहागा ||
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा |
ऐसी भक्ति करै रैदासा" ||
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ऐसे महान संत को कोटि कोटि नमन !
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ जनवरी २०१८

"प्रत्यभिज्ञा" ......

"प्रत्यभिज्ञा" ...... कश्मीर के अद्वैत शैव दर्शन में प्रयुक्त यह शब्द बहुत प्यारा है| इसका अर्थ है किसी ज्ञात विषय को दुबारा ठीक से समझना| कश्मीर का अद्वैत शैव दर्शन वहाँ की एक महानतम परम्परा रही है| वही वास्तविक कश्मीरियत है जो दुर्भाग्य से लुप्त हो गयी है| कश्मीरी शैव दर्शन अब पुस्तकों में ही सीमित होकर रह गया है| उसके जानकार कुछ गिने चुने लोग ही हैं, जिनके बाद यह ज्ञान सिर्फ ग्रंथों में ही मिलेगा| आज कश्मीर को एक "प्रत्यभिज्ञा" की आवश्यकता है| कश्मीर के अद्वैत शैव दर्शन के तीन मुख्य भाग हैं ...... (१) प्रत्यभिज्ञा दर्शन. (२) स्पंदशास्त्र. और (३) त्रिक प्रत्यभिज्ञा |
उपरोक्त पंक्तियों को लिखने की आवश्यकता इसलिए पड़ गयी क्योंकि आज एक विजातीय विचारधारा को कश्मीरियत बताया जा रहा है| कश्मीर की राजधानी श्रीनगर को सम्राट अशोक ने बसाया था| चीनी यात्री ह्वैन्सांग ने उसके आसपास २५०० से अधिक प्राचीन मठों के अवशेष देखे थे| पूरा कश्मीर ही कभी वेदविद्या का केंद्र था|
इस धरा पर अनेक बार असुरों का अधिकार हुआ है,पर अंततः विजय देवत्व की ही हुई है| भारत निश्चित रूप से परम वैभव को प्राप्त करेगा, और भारत का ही भाग कश्मीर भी अपने गौरवशाली अतीत को पुनश्चः देखेगा| होगा वही जो परमात्मा का संकल्प होगा|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ जनवरी २०१८

जब से मेरे हृदय में मेरे परम प्रिय आये हैं .....

जब से मेरे हृदय में मेरे परम प्रिय परब्रह्म परमशिव आये हैं, मेरा हृदय उन्हीं का हो गया है| अब तो वे स्वयं ही मेरे हृदय बन गए हैं| मैं स्वयं को सभी दर्शन शास्त्रों, मत-मतान्तरों, सम्प्रदायों, विवादों, धारणाओं, तर्क-वितर्को, कामनाओं, व अपेक्षाओं से इसी क्षण मुक्त कर रहा हूँ| मैं वैसे भी कुछ भी नहीं हूँ, मेरा कोई अस्तित्व नहीं है| जो भी हैं वे मेरे परमप्रिय मेरे प्रभु ही हैं, सिर्फ उन्हीं का अस्तित्व है|
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भारत के भविष्य के प्रति मैं पूर्णतः आशावान व आश्वस्त हूँ| सब अपना अपना कार्य निष्ठापूर्वक यानि ईमानदारी से करेंगे तो सब सही होगा, जो भी होगा वह अच्छा ही होगा| वर्तमान सही है तो भविष्य भी सही ही होगा|
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हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरि नाम| सब को शुभ कामनाएँ और नमन!
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
३१ जनवरी २०१८ 

गाँधी जी की पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि .....

युगपुरुष राजनेता मोहनदास करमचंद गाँधी जी की पुण्यतिथि पर मैं उनको पूर्ण सम्मान के साथ श्रद्धांजलि देता हूँ| इस तरह के युग पुरुष पृथ्वी पर बहुत कम जन्म लेते हैं| साथ साथ पुणे के उन छः हज़ार के लगभग निर्दोष ब्राह्मणों को भी मैं श्रद्धांजलि देता हूँ जिनकी ह्त्या गाँधी जी की ह्त्या की प्रतिक्रया स्वरुप अगले तीन दिनों में कोंग्रेसियों द्वारा कर दी गयी थी| पुणे की गलियों में चारपाई डालकर सो रहे निर्दोष ब्राह्मणों पर किरोसिन तेल डालकर उन्हें जीवित जला दिया गया| पुणे में ब्रहामणों को घरों से निकाल निकाल कर सड़कों पर घसीट घसीट कर उनकी सामूहिक हत्याएँ की गयी| लगभग छः हज़ार निर्दोष ब्राह्मणों की ह्त्या की गयी| उस घटना की कोई जाँच नहीं हुई और घटना को दबा दिया गया| उन ब्राह्मणों का दोष इतना ही था नाथूराम गोड़से एक ब्राह्मण थे वह भी पुणे के|
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उस जमाने के लोग कहते थे कि गाँधी जी कांग्रेस को भंग करना चाहते थे जिसके लिए जवाहरलाल नेहरु सहमत नहीं थे| गाँधी जी की आर्थिक नीतियाँ भी नेहरू की नीतियों के विरुद्ध थीं| गाँधी की सुरक्षा व्यवस्था क्यों हटा ली गयी थी? क्या इसीलिए कि वे उस समय किसी के लिए किसी काम के नहीं रह गए थे? नाथूराम गोडसे को पिस्तौल और गोलियाँ किसने दीं? किसने उसे ह्त्या करने के लिए उकसाया? गांधीजी की ह्त्या के बाद उनके शरीर का पोस्ट मार्टम क्यों नहीं करवाया गया? ऐसे कई अनुत्तरित प्रश्न हैं|
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क्या किसी ने एक तीर से कई शिकार तो नहीं किये ....गांधी जी को भी मार्ग से हटवा दिया, और आरएसएस पर भी प्रतिबन्ध लगवा दिया, पुणे के राजनीति में सक्रीय ब्राह्मणों को भी मरवा दिया, और हिन्दुओं को भी बदनाम करवा दिया? क्या इसके पीछे कोई बहुत बड़ा षडयंत्र तो नहीं था?
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गाँधी की नीतियों व विचारों से महर्षि श्रीअरविन्द बिलकुल भी सहमत नहीं थे| उन्होंने गाँधी के बारे में लिखा था कि गाँधी की नीतियाँ एक बहुत बड़े भ्रम और विनाश को जन्म देंगी, जो सत्य सिद्ध हुआ| महर्षि श्रीअरविद के वे लेख नेट पर उपलब्ध हैं| कृपया उन्हें पढ़ें|
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गाँधी द्वारा आरम्भ खिलाफत आन्दोलन जो तुर्की के खलीफा को बापस गद्दीनशीन करने के लिए था, का क्या औचित्य था? क्या यह तुष्टिकरण की पराकाष्ठा नहीं थी? क्या इससे पकिस्तान की नींव नहीं पड़ी? राजनितिक व सामाजिक रूप से गांधीजी का पुनर्मूल्यांकन क्या आवश्यक नहीं है? गांधीजी भारत के तो नहीं पर पाकिस्तान के राष्ट्रपिता अवश्य थे| पाकिस्तान की नींव ही उनके खिलाफत आन्दोलन से पड़ी|
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गांधीजी द्वारा किया गया सबसे महान कार्य था ..... नेतृत्वहीन भारत का नेतृत्व करना और बिहार में चंपारण का सत्याग्रह| गांधीजी एक राजनेता थे, कोई महात्मा नहीं| उनमें अत्यधिक कामुकता जैसी सभी मानवी दुर्बलताएँ थीं| वे आदर्श नहीं हो सकते| उनको राष्ट्रपिता कहना गलत है, क्या गाँधीजी से पूर्व भारत एक राष्ट्र नहीं था? आजकल पढ़ाया जाता है कि अंग्रेजों से पूर्व भारत नहीं था, छोटे छोटे राज्य थे| यह गलत है| सम्राट अशोक व समुद्रगुप्त जैसे राजाओं के राज्य में भारत की सीमाएँ अंग्रेजों द्वारा शासित भारत से भी अधिक विशाल थीं|
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श्रद्धांजली | वन्दे मातरं | भारत माता की जय |
कृपा शंकर
३० जनवरी २०१७

हम जो सुखी और दुःखी होते हैं, यह हमारी ही सृष्टि है .....

हम जो सुखी और दुःखी होते हैं, यह हमारी ही सृष्टि है .....
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातीति कुबुद्धिरेषा |
अहं करोमीति वृथाभिमानः, स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ||
(आध्यात्म रामायण / २/६/६)
आध्यात्म रामायण में लक्ष्मण जी ने निषादराज गुह को उपरोक्त उपदेश दिया है| सुख-दुःखको देनेवाला दूसरा कोई नहीं है| दूसरा सुख-दुःख देता है ..... यह समझना कुबुद्धि है| मैं करता हूँ ..... यह वृथा अभिमान है| सब लोग अपने अपने कर्मोंकी डोरीसे बँधे हुए हैं|
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में कहा है ....
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता | निज कृत करम भोग सबु भ्राता ||
(२/९२/२)
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हम दूसरों पर दोषारोपण करते हैं यह हमारी अज्ञानता है| दुखों से हम न तो कहीं भाग कर अपनी रक्षा कर सकते हैं, और न ही आत्महत्या कर के, क्योंकि आत्महत्या करने वालों का पुनर्जन्म उन्हीं परिस्थितियों में होता है जिन परिस्थितियों में उन्होंने आत्महत्या की है| उनका सामना कर के ही हम उन परिस्थितियों को दूर कर सकते हैं|
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मेरा मानना है कि स्वयं की मुक्ति का प्रयास वेदविरुद्ध है| इस पर कोई मुझसे विवाद न करे| विवाद करने का समय मेरे पास नहीं है| हम क्या समष्टि से पृथक हैं? हम समष्टि के साथ एक हैं, हम शाश्वत आत्मा हैं और नित्यमुक्त हैं| बंधन एक भ्रम है| सब कुछ तो परमात्मा है, फिर मुक्ति किस से? मुक्ति सिर्फ अज्ञान से ही हो सकती है| भागवत में भी यह बात बड़े विस्तार से कई बार बताई गयी है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० जनवरी २०१८

शैतान क्या है ?

शैतान क्या है ?
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शैतान (Satan या Devil) की परिकल्पना इब्राहिमी (Abrahamic) मजहबों (यहूदी, इस्लाम और ईसाईयत) की है| भारत में उत्पन्न किसी भी मत में शैतान की परिकल्पना नहीं है| शैतान .... इब्राहिमी मज़हबों में सबसे दुष्ट हस्ती का नाम है, जो दुनियाँ की सारी बुराई का प्रतीक है| इन मज़हबों में ईश्वर को सारी अच्छाई प्रदान की जाती है और बुराई शैतान को|
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हिन्दू परम्परा में शैतान जैसी चीज़ का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि हिन्दू मान्यता कहती है कि मनुष्य अज्ञान वश पाप करता है जो दुःखों की सृष्टि करते हैं| इब्राहिमी मतों के अनुसार शैतान पहले ईश्वर का एक फ़रिश्ता था, जिसने ईश्वर से ग़द्दारी की और इसके बदले ईश्वर ने उसे स्वर्ग से निकाल दिया| शैतान पृथ्वी पर मानवों को पाप के लिये उकसाता है|
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ईसाई मत में शैतान बुराई की व्यक्तिगत सत्ता का नाम है, जिसको पतित देवदूत. ईश्वर विरोधी दुष्ट, प्राचीन सर्प आदि कहा गया है| जहाँ ईसा मसीह अथवा उनके शिष्य जाते थे वहाँ वह अधिक सक्रिय हो जाता था क्योंकि ईसा मसीह उसको एक दिन पराजित करेंगे और उसका प्रभुत्व मिटा देंगे| अंततोगत्वा वह सदा के लिए नर्क में डाल दिया जाएगा|
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जिन हिन्दू संतों और विद्वानों ने ईसा मसीह और उनकी शिक्षाओं पर लेख लिखे हैं, उन्होंने मनुष्य की "काम वासना" को ही शैतान बताया है|
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सार की बात यह है कि अपना भटका हुआ, अतृप्त अशांत मन ही शैतान है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० जनवरी २०१८

मैं हम सब के भविष्य के प्रति पूर्णतः आशावान हूँ .....

मैं हम सब के भविष्य के प्रति पूर्णतः आशावान हूँ| धीरे धीरे मनुष्य की ऊर्ध्वमुखी चेतना भी बढ़ रही है और विवेक भी जागृत हो रहा है ... कुछ में अधिक व कुछ में कम| मनुष्य का भौतिक ज्ञान तो निरंतर बढ़ ही रहा है, आध्यात्मिक चेतना भी बढ़ेगी ही| जो भविष्यवक्ता विनाश की भविष्यवाणियाँ कर रहे हैं, मैं उनमें विश्वास नहीं रखता, वे असत्य बोल कर हमें डरा रहे हैं| सन १९७० के दशक से अब तक की गईं सभी भविष्यवाणियाँ मैंने पढ़ी थीं, वे सब झूठी सिद्ध हुई हैं| अधिकांश भविष्यवाणियाँ ईसाई जगत से आई थीं| इस समय जो असत्य और अन्धकार की पैशाचिक शक्तियाँ हैं, वे निश्चित रूप से क्षीण होंगी| यह सृष्टि परमात्मा के संकल्प से चल रही है, असुरों के संकल्प से नहीं| 
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निरंतर विकसित हो रही आधुनिक उपग्रह संचार प्रणाली और सूचना प्रोद्योगिकी ने मनुष्य की सोच में बहुत बड़ा परिवर्तन किया है और निरंतर कर रही है| इसके दोनों ही परिणाम हमें मिल रहे हैं, सकारात्मक भी और नकारात्मक भी| मनुष्य का विवेक भी परमात्मा की कृपा से निरंतर धीरे धीरे बढ़ रहा है, जो इस संसार की रक्षा करेगा| मनुष्य के भौतिक ज्ञान में भी बहुत अधिक वृद्धि हुई है और हर नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से अधिक बुद्धिमान है| यह एक अच्छा संकेत है|
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स्वयं में देवत्व जागृत करें और स्वयं के संकल्प को परमात्मा के संकल्प से जोड़ें| आने वाला भविष्य अच्छा ही अच्छा होगा| स्वयं में आस्था रखें, भगवान हमारे साथ हैं|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर 
२९ जनवरी २०१८

कुछ भी मुझ से परे नहीं है, मेरे मन से ही मेरी यह सृष्टि है .....

जैसे जैसे मैं अपने आध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ रहा हूँ, निज चेतना से द्वैत की भावना शनैः शनैः समाप्त हो रही है| जड़ और चेतन में अब कोई भेद नहीं दिखाई देता| अब तो कुछ भी जड़ नहीं है, सारी सृष्टि ही परमात्मा से चेतन है| कण कण में परमात्मा की अभिव्यक्ति है| इस भौतिक संसार की रचना जिस ऊर्जा से हुई है, उस ऊर्जा का हर कण, हर खंड और हर प्रवाह परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है| 
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वर्त्तमान में संसार के जितने भी मत-मतान्तर व मज़हब हैं, उन सब से परे श्रुति भगवती का कथन है ..... "सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत | अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत ||छान्दोग्योपनिषद्.३.१४.१||
अर्थात यह ब्रह्म ही सबकुछ है| यह समस्त संसार उत्पत्तिकाल में इसी से उत्पन्न हुआ है, स्थिति काल में इसी से प्राण रूप अर्थात जीवित है और अनंतकाल में इसी में लीन हो जायेगा| ऐसा ही जान कर उपासक शांतचित्त और रागद्वेष रहित होकर परब्रह्म की सदा उपासना करे| जो मृत्यु के पूर्व जैसी उपासना करता है, वह जन्मांतर में वैसा ही हो जाता है|
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कुछ भी मुझ से परे नहीं है| मेरे मन से ही मेरी यह सृष्टि है| मेरा मन ही मेरे बंधन का कारण है और यही मेरे मोक्ष का कारण होगा| उस चैतन्य की सत्ता के साथ मैं एक हूँ, उस से परे सिर्फ माया है| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ जनवरी २०१८

उस चैतन्य की सत्ता के साथ मैं एक हूँ, उस से परे सिर्फ माया है .....

जैसे जैसे मैं अपने आध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ रहा हूँ, निज चेतना से द्वैत की भावना शनैः शनैः समाप्त हो रही है| जड़ और चेतन में अब कोई भेद नहीं दिखाई देता| अब तो कुछ भी जड़ नहीं है, सारी सृष्टि ही परमात्मा से चेतन है| कण कण में परमात्मा की अभिव्यक्ति है| इस भौतिक संसार की रचना जिस ऊर्जा से हुई है, उस ऊर्जा का हर कण, हर खंड और हर प्रवाह परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है| 
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वर्त्तमान में संसार के जितने भी मत-मतान्तर व मज़हब हैं, उन सब से परे श्रुति भगवती का कथन है ..... "सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत | अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत ||छान्दोग्योपनिषद्.३.१४.१||
अर्थात यह ब्रह्म ही सबकुछ है| यह समस्त संसार उत्पत्तिकाल में इसी से उत्पन्न हुआ है, स्थिति काल में इसी से प्राण रूप अर्थात जीवित है और अनंतकाल में इसी में लीन हो जायेगा| ऐसा ही जान कर उपासक शांतचित्त और रागद्वेष रहित होकर परब्रह्म की सदा उपासना करे| जो मृत्यु के पूर्व जैसी उपासना करता है, वह जन्मांतर में वैसा ही हो जाता है|
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कुछ भी मुझ से परे नहीं है| मेरे मन से ही मेरी यह सृष्टि है| मेरा मन ही मेरे बंधन का कारण है और यही मेरे मोक्ष का कारण होगा| उस चैतन्य की सत्ता के साथ मैं एक हूँ, उस से परे सिर्फ माया है| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!


कृपा शंकर
२९ जनवरी २०१८

बिना कोई युद्ध किये, अपनी हार न मानें ....... चित्त सदा शांत हो, पर निरंतर क्रियाशील हो ... निष्क्रियता मृत्यु है .....

बिना कोई युद्ध किये, अपनी हार न मानें ....... चित्त सदा शांत हो, पर निरंतर क्रियाशील हो ... निष्क्रियता मृत्यु है .....
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व्यष्टि द्वारा जो समष्टि को दिया जाता है वही दान है और वही क्रिया है| इस बात को समझाना थोड़ा कठिन है पर जो लोग भगवान का ध्यान करते हैं वे इसे अपने अनुभव से समझ सकते हैं|
करुणा और प्रेममयी माँ भगवती का विग्रह देखिये, वे असुरों का संहार कर रही हैं, उनका चेहरा शांत है, किसी भी तरह का क्रोध उनके मुखमंडल पर नहीं है, पर वे निरंतर क्रियाशील हैं|
भगवान नटराज एक पैर पर खड़े होकर नृत्य कर रहे हैं, पर उनका मुखमंडल पूरी तरह शांत है, वे निरंतर क्रियाशील हैं|
हमारी कमी यह है कि हम गीता का अध्ययन और मनन नहीं करते| गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी इस सत्य को बहुत अच्छी तरह समझाया है| भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म के उस स्वरूप का निरूपण किया गया है जो बंधन का कारण नहीं होता| भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार योग का अर्थ है "समत्व" की प्राप्ति .... समत्वं योग उच्यते| जो कर्म निष्काम भाव से ईश्वर के लिए जाते हैं वे बंधन नहीं उत्पन्न करते|
शांत चित्त से की हुई क्रिया से कोई थकान नहीं होती| सृष्टिकर्ता की चेतना के साथ सामंजस्य स्थापित कर के ही हम सुख शांति और सुरक्षा प्राप्त कर कोई सकारात्मक कार्य कर सकते हैं| निराश न हों| यह बहाना नहीं चलेगा कि कलियुग आ गया है और आसुरी शक्तियाँ बढ़ रही हैं| आसुरी शक्तियाँ बढ़ रही हैं तो हमें भी देवत्व की शक्तियों को बढ़ाना होगा| बिना कोई युद्ध किये, अपनी हार न मानें|
आप सब को सादर नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ जनवरी २०१८

जीवन में स्वयं का उत्साह वर्धन कैसे किया जाए ? ....

जीवन में स्वयं का उत्साह वर्धन कैसे किया जाए ? जब लक्ष्य सामने हो, मार्ग में कोई बाधा न हो, फिर भी उत्साह मंद पड़ जाए तब क्या करना चाहिए? यह मेरी ही नहीं, अनेक साधकों की समस्या है|

पिछले कुछ समय से उत्साह की कमी अनुभूत कर रहा हूँ| बहुत सोच-विचार कर कुछ निर्णय लिए हैं, जिन का कोई समझौता किये बिना बड़ी कठोरता से पालन करना ही पड़ेगा|

(१) जीवन का जो लक्ष्य है उसे निरंतर सामने रखते हुए, समय समय पर नित्य स्वयं को याद दिलाते हुए, भगवान से सहायता प्राप्त करना, जिसकी कोई कमी नहीं है|

(२) उन सब स्त्रोतों को बंद करना जो नकारात्मकता मन में ला सकते हैं| भगवान की परम कृपा से पूरा मार्गदर्शन प्राप्त हो रहा है कि क्या करना चाहिए|

(३) अन्य कामों में कम से कम समय देकर, अधिकाँश समय भगवान के ध्यान में ही व्यतीत करना|
भगवान की तो पूरी ही कृपा है| जो भी कमियाँ हैं वे स्वयं की ही सृष्टि है जिनका विसर्जन भी स्वयं को ही करना होगा| पूरा मार्गदर्शन प्राप्त हो रहा है|

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विचारों में स्पष्टता और हृदय में भगवान की निरंतर उपस्थिति ..... भगवान की परम कृपा का ही फल है| जब ह्रदय में भगवान स्वयं ही प्रत्यक्ष रूप से आकर बिराजमान हैं तो अन्य कोई अपेक्षा या कामना नहीं रहनी चाहिए| सारे कष्टों का कारण ये अपेक्षाएँ और कामनाएँ ही हैं, जिनका पूर्ण विसर्जन भगवान में ही हो जाना चाहिए| जब मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि समक्ष है तब अन्य किसी भी ओर ध्यान जाना ही नहीं चाहिए|


ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२८ जनवरी २०१८

भक्ति एक अवस्था है.....

भक्ति एक अवस्था है जिसे उपलब्धि भी कह सकते हैं, पर यह कोई क्रिया तो बिलकुल नहीं है| भगवान के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है| जिसको भगवान से परम प्रेम है, वह ही भक्त है| भगवान् में हेतुरहित, निष्काम एक निष्ठायुक्त, अनवरत प्रेम ही भक्ति है। यही हमारा परम धर्म है| भगवान की भक्ति अनेकानेक जन्मों के अत्यधिक शुभ कर्मों की परिणिति है जो प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती है| स्वाध्याय, सत्संग, साधना, सेवा और प्रभु चरणों में समर्पण का फल है --- भक्ति| यह एक अवस्था है जो प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती है|
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अवचेतन मन को संस्कारित किये बिना हम भगवान की भक्ति, धारणा, ध्यान, समर्पण आदि कुछ भी नहीं कर सकते|
बार बार हम परमात्मा से अहैतुकी प्रेम का चिंतन करेंगे तो अवचेतन मन में गहराई से बैठकर यह हमारा स्वभाव बन जाएगा| परमात्मा से प्रेम तभी हो सकता है जब यह हमारा स्वभाव बन जाए|
निरंतर सत्संग और प्रार्थना ... ये दोनों ही बल देती हैं|

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सभी प्रभु प्रेमियों को मेरा प्रणाम और चरण वन्दन|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ जनवरी २०१८

क्या हम बीते हुए कल से आज अधिक आनन्दमय और प्रसन्न हैं ? ....

क्या हम बीते हुए कल से आज अधिक आनन्दमय और प्रसन्न हैं ? यदि उत्तर हाँ में है तो हम उन्नति कर रहे हैं, अन्यथा अवनति कर रहे हैं| आध्यात्मिक प्रगति का यही एकमात्र मापदंड है| हमें मिला हुआ एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाए| हमारा हर क्षण अति अति गहन, विराट और रहस्यों का रहस्य है| इसी क्षण हम देशकाल से परे अनन्त असीम परमात्मा के साथ एक हैं| परमात्मा की पूर्णता और उनका प्रेम ही हमारा स्वभाव है| हम यह देह नहीं, शाश्वत आत्मा हैं|
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जन्म-जन्मान्तरों में जो कष्ट मैनें भोगे हैं वे संसार में अन्य किसी भी प्राणी को नहीं मिलें| संसार में सभी सुखी रहें, सब निरोग रहें|संसार की सारी पीड़ाएँ और सारे ताप-दाह .... इस देह और मन को हैं, मुझे नहीं| मैं यह मन और देह नहीं हूँ|मेरी निंदा करने वाले सज्जन लोग मेरे कर्मों का भार अपने ऊपर ले कर मेरा उपकार कर रहे हैं| मैं उन सब को साभार धन्यवाद देता हूँ क्योंकि वे मेरे पापों को मुझ से छुटा कर स्वयं ग्रहण कर रहे हैं|
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आध्यात्म में ध्यान साधना द्वारा प्रत्यक्ष अनुभूति और निरंतर प्रगति आवश्यक है| इधर-उधर से कुछ पढने या बुद्धि-विलास से सिर्फ अहंकार बढ़ता है, कोई ज्ञान नहीं प्राप्त होता| सही ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभूतियों द्वारा ईश्वर की कृपा से ही मिलता है| जो निष्ठावान साधक हैं वे नित्य नियमित रूप से ईश्वर के अनंत प्रेम रूप पर ध्यान करें| 
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मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये मात्र एक उपकरण की तरह हमारे पास हैं, हम ये नहीं हैं| इनसे ऊपर उठना हमारी प्राथमिक आवश्यकता है| मन को समझा-बुझा कर या भुला कर भगवान में लगाना पड़ता है| अपने आप मन कभी भगवान में नहीं लगता| इसके लिए सत्संग आवश्यक है| भगवान का ध्यान सबसे अच्छा सत्संग है| 
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
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कृपा शंकर
२७ जनवरी २०१८ 
ॐ ॐ ॐ !!

मेरे विचार जो मेरे जीवन के निष्कर्ष हैं .....

मेरे विचार जो मेरे जीवन के निष्कर्ष हैं .....
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(१) सृष्टिकर्ता को जानने की मनुष्य की जिज्ञासा शाश्वत है, वह सभी युगों में थी, अभी भी है और भविष्य में भी सदा रहेगी| जन्म-जन्मान्तरों में भटकता हुआ प्राणी अंततः यह सोचने को बाध्य हो जाता है कि मैं क्यों भटक रहा हूँ, मैं कौन हूँ, और मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? तब मनुष्य के जीवन की दिशा बदलने लगती है|
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(२) मनुष्य की चेतना कभी तो बहुत अधिक उन्नत हो जाती है, और कभी बहुत अधिक अधम हो जाती है, इसके पीछे कोई अतिमानसी अज्ञात ज्योतिषीय कारण है जिसके आधार पर युगों की रचना हुई है| जैसे हमारा पृथ्वी ग्रह अपने उपग्रह चन्द्रमा के साथ सूर्य की परिक्रमा करता है, वैसे ही अपना यह सूर्य भी निश्चित रूप से पृथ्वी आदि अपने सभी ग्रहों के साथ सृष्टि में किसी ना किसी बिंदु से सम्बंधित परिक्रमा अवश्य करता है| जब अपना सूर्य उस बिंदु के निकटतम होता है वह सत्ययुग का चरम होता है, और उस बिन्दु से दूरी कलियुग का चरम होता है| यह क्रम सुव्यवस्थित रूप से चलता रहता है| सृष्टि में कुछ भी अव्यवस्थित नहीं है, सब कुछ व्यवस्थित है, पर हमारी चेतना में हमें उसका ज्ञान नहीं है| काश! हमें वह ज्ञान होता!
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(३) जिस कालखंड में मनुष्य की जैसी समझने की बौद्धिक क्षमता होती है और जैसी चेतना होती है उसी के अनुसार प्रकृति जिसे हम जगन्माता भी कह सकते हैं, वैसा ही ज्ञान और वैसे ही ग्रंथ हमें उपलब्ध करवा देती है| जब मनुष्य की चेतना उच्चतम स्तर पर थी तब वेद थे, जिनमे समस्त ज्ञान था| वे प्राचीन भारत में कभी लिखे नहीं गए थे| हर पीढ़ी में एक वर्ग उन्हें कंठस्थ रखकर अगली पीढ़ी को प्रदान कर देता था| जब मनुष्य की स्मृति मंद हुई तब ही वे लिखे गए|
फिर उनके ज्ञान को समझाने के लिए पुराणों की रचना हुई| उनका उद्देश्य वेदों के ज्ञान को ही बताना था| पुराणों के शब्दों का अर्थ लौकिक नहीं, आध्यात्मिक है| उनका आध्यात्मिक अर्थ बताने वाले आचार्य मिलने अब दुर्लभ हैं, अतः वे ठीक से समझ में नहीं आते|
फिर मनुष्य की चेतना और भी नीचे गिरी तो आगम ग्रंथों की रचना हुई, जिन्होंने हमारी आस्था को बचाए रखा|
जब हमारे धर्म और संस्कृति पर आतताइयों के मर्मान्तक प्रहार हुए तब एक भक्तिकाल आया और अनगिनत भक्तों ने जन्म लिया| उन्होंने भक्ति द्वारा हमारी आस्थाओं की और धर्म की रक्षा की|
अब मुझे लगता है कि जितना पतन हो सकता था उतना हो चुका है, और अब आगे उत्थान ही उत्थान है| इसका प्रमाण है कि पिछले कुछ वर्षों से पूरे विश्व में 'गीता' क्रमशः बहुत अधिक लोकप्रिय हो रही है| उपनिषदों के ज्ञान को जानने की जिज्ञासा भी पूरे विश्व में बढ़ रही है| परमात्मा को जानने की जिज्ञासा, योग साधना, ध्यान और भक्ति का प्रचार प्रसार भी निरंतर हो रहा है|
रूस जैसे पूर्व साम्यवादी देशों में जहाँ साम्यवाद जब अपने चरम पर था तब भगवान में आस्था रखना भी अपनी मृत्यु को निमंत्रित करना था| पर अब वहाँ की स्थिति उस से विपरीत है| अब से पचास वर्ष पूर्व जब साम्यवाद अपने चरम शिखर पर था, उस समय में मैं रूस में लगभग दो वर्ष रहकर एक प्रशिक्षण ले रहा था| चीन, उत्तरी कोरिया, युक्रेन, लाटविया, रोमानिया आदि पूर्व साम्यवादी देशों का भ्रमण भी मैं कर चुका हूँ| विश्व के अनेक देशों की मैं यात्राएँ कर चुका हूँ, और पूरी पृथ्वी की परिक्रमा भी एक बार की है| अतः पूरे अधिकार से यह बात कह रहा हूँ कि अब आने वाला समय बहुत अच्छा होगा, सनातन धर्म की सारे विश्व में पुनर्स्थापना होगी, और असत्य व अन्धकार की शक्तियाँ क्षीण होंगी|
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(४) यह सृष्टि, ज्ञान रूपी प्रकाश और अज्ञान रूपी अन्धकार के संयोग से बनी है अतः कुछ न कुछ अज्ञान रूपी अन्धकार तो सदा ही रहेगा| हमारा कार्य उस प्रकाश में वृद्धि करना है|
हमारे जीवन का प्रथम, अंतिम और एकमात्र उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है| जब तक हम ईश्वर को यानि परमात्मा को प्राप्त नहीं करते तब तक इस दुःख रूपी महासागर के जीवन में यों ही भटकते रहेंगे|
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ये मेरे अनुभवजनित दृढ़ निजी विचार हैं, अतः जिनके विचार मुझ से नहीं मिलते उन्हें आहत और उत्तेजित होने की आवश्यकता नहीं है| मैं मेरे विचारों पर दृढ़ हूँ| भगवान सदा मेरे साथ हैं|
सभी को मेरी शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ जनवरी २०१८

जैसे लोगों के साथ हम रहते हैं वैसे ही बन जाते हैं .....

जैसे लोगों के साथ हम रहते हैं वैसे ही बन जाते हैं| अच्छा साथ न मिले तो एकान्त में ईश्वर के साथ रहना अधिक अच्छा है|
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कौन क्या सोचता है यह उसकी समस्या है| एक साधे सब सधै, सब साधे सब खोय| वाद-विवाद में समय नष्ट न करो| कुसंग का सर्वदा त्याग करो और जो भी समय मिलता है उसमें प्रभु की उपासना करो|
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ध्यान में हमें जितनी अधिक शांति अनुभूत होती है उतने ही हम परमात्मा के समीप हैं|

हम लोग दिन-रात परमात्मा के बारे में तरह तरह के सिद्धांतों पर चर्चा करते हैं| वह निरर्थक है| परमात्मा तो हमारे समक्ष ही है| उसी को खाओ, उसी को पीओ, उसी में डूब जाओ, उसी का आनंद लो, और उसी में स्वयं को लीन कर दो| हमारे समक्ष कोई मिठाई रखी हो या कोई फल रखा हो, तो बुद्धिमानी उसको खाने में है, न कि उसकी विवेचना करने में| उसी तरह परमात्मा का भक्षण करो, उसका पान करो, उससे साँस लो और उसी में रहो|

हम भगवान को क्यों भजें ? .....

हम भगवान को क्यों भजें ? भगवान को हम इसलिए भजें क्योंकि यह उनका ही आदेश है| भगवान कहते हैं ....
"किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा|
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ||९:३३||
स्वामी रामसुखदास जी ने इसका अनुवाद ऐसे किया है ....
जो पवित्र आचरण वाले ब्राह्मण और ऋषि स्वरूप क्षत्रिय भगवान के भक्त हों, वे परमगतिको प्राप्त हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है, इसलिये इस अनित्य और सुखरहित शरीरको प्राप्त करके तू मेरा भजन कर|
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स्वामी चिन्मयानंद जी ने इसकी यों व्याख्या की है .....
यदि पूर्व श्लोक में वर्णित गुणहीन और साधनहीन लोग भी भक्ति के द्वारा ईश्वर को प्राप्त हो सकते हैं? तो फिर साधन सम्पन्न व्यक्तियों के लिए परमार्थ की प्राप्ति कितनी सरल होगी? यह कहने की आवश्यकता नहीं है। ये साधनसम्पन्न लोग हैं ब्राह्मण अर्थात् शुद्धान्तकरण का व्यक्ति? तथा राजा माने उदार हृदय और दूर दृष्टि का बुद्धिमान व्यक्ति। जिस राजा ने बुद्धिमत्तापूर्वक अपनी राजसत्ता एवं धनवैभव का उपयोग किया हो? वह आत्मानुसंधान के द्वारा वास्तविक शान्ति का अनुभव प्राप्त करता है। ऐसे राजा को ही राजर्षि कहते हैं।सब प्रकार के सम्भावित बुद्धि और हृदय के लोगों का वर्णन करके? और आत्मज्ञान के लिए सबको उपयुक्त साधना का विधान करने के पश्चात्? अब? भगवान् इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए कहते हैं? इस अनित्य और सुखरहित लोक को प्राप्त करके अब तुम मेरा भजन करो। अर्जुन के निमित्त दिया गया उपदेश हम सबके लिए ही है क्योंकि यदि श्रीकृष्ण आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं? तो अर्जुन उस मनुष्य का प्रतिनिधि है? जो जीवन संघर्षों की चुनौतियों का सामना करने में अपने आप को असमर्थ पाता है।असंख्य विषय? इन्द्रियाँ और मन के भाव इनसे युक्त जगत् में ही हमें जीवन जीना होता है। ये तीनों ही सदा बदलते रहते हैं। स्वाभाविक ही? इन्द्रियों के द्वारा विषयोपभोग का सुख अनित्य ही होगा। और दो सुखों के बीच का अन्तराल केवल दुखपूर्ण ही होगा।आशावाद का जो विधेयात्मक और शक्तिप्रद ज्ञान गीता सिखाती है? उसी स्वर में? भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि यह जगत् केवल दुख का गर्त या निराशा की खाई या एक सुखरहित क्षेत्र है।भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि इस अनित्य और सुखरहित लोक को प्राप्त होकर अब उसको नित्य और आनन्दस्वरूप आत्मा की पूजा में प्रवृत्त होना चाहिए। इस साधना में अर्जुन को प्रोत्साहित करने के लिए भगवान् ने यह कहा है कि गुणहीन लोगों के विपरीत जिस व्यक्ति में ब्राह्मण और राजर्षि के गुण होते हैं? उसके लिए सफलता सरल और निश्चित होती है। इसलिए भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करो।
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२५ जनवरी २०१८

स्वयं के साथ ही एक सत्संग और मनोरंजन .....


मैं जो कुछ भी भगवान के बारे में सोचता हूँ और लिखता हूँ, वह मेरा स्वयं के साथ ही एक सत्संग और मनोरंजन है| जीवन में इस मन ने बहुत अधिक भटकाया है| अब यह पूरी तरह भगवान में लग गया है, और निरंतर लगा रहे इसी उद्देश्य से लिखना होता रहता है| मैं किसी अन्य के लिए नहीं, स्वयं के लिए ही लिखता हूँ| किसी को अच्छा लगे तो ठीक है, नहीं लगे तो भी ठीक है| किसी को अच्छा नहीं लगे तो उनके पास मुझे Unfriend और Block करने का विकल्प है| सभी को सप्रेम सादर नमन! 
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  1. जिन्हें परमात्मा से प्यार नहीं है ऐसे लोगों से मुझे भी कोई लेना देना नहीं है| उन से मैं किसी भी तरह का कोई संपर्क नहीं रखना चाहता| आजकल के ध्यान साधक, ध्यान साधना का इसलिए अभ्यास करते हैं कि इस से उन्हें तनाव से मुक्ति, अच्छा स्वास्थ्य और शांति मिलेगी| मेरा ऐसे साधकों से भी कोई लेना देना नहीं है, और न ही उन्हें सिखाने वाले योग गुरुओं से|
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    मेरा लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति है, अन्य कुछ भी नहीं| यह शरीर रहे या न रहे, इस से भी कोई मतलब नहीं है| बस अंत समय में परमात्मा की चेतना में सचेतन देह-त्याग हो|
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    कुछ पाने की इच्छा नहीं है जब पूर्ण रूप से परमात्मा को समर्पित ही होना है| सिर्फ ऐसे ही लोगों का साथ चाहिए जिनके ह्रदय में परमात्मा को पाने की एक गहन अभीप्सा है|

    आगे का मार्गदर्शन मुझे गुरुकृपा से प्राप्त है| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
    कृपा शंकर
    २४ जनवरी २018

भगवान सबके ह्रदय में हैं, ढूँढने से वहीं मिलते हैं .....

भगवान सबके ह्रदय में हैं, ढूँढने से वहीं मिलते हैं .....
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भगवान सभी प्राणियों के हृदय में बिराजमान हैं, अपनी माया से इस देह रूपी यन्त्र पर आरूढ़ हो कर सभी प्राणियों को (उनके स्वभावके अनुसार) भ्रमण कराते रहते हैं| निज हृदय को छोड़कर हम भगवान को बाहर ढूँढ़ते हैं, पर अंततः उन्हें निज हृदय में ही पाते हैं| 
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जो इस हृदय में धड़क रहे हैं, जो इन फेफड़ों से साँस ले रहे हैं, जो इन आँखों से देख रहे हैं, जो इन पैरों से चल रहे हैं, जो इस मन से सोच रहे हैं, वे और कोई नहीं, मेरे प्रियतम ही हैं, वही यह मैं हूँ |
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भगवान कहते हैं ....
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति|
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया |१८:६१||
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
२४ जनवरी २०१८

भगवान हैं, यहीं हैं, अभी हैं, और सदा ही रहेंगे .....

भगवान हैं, यहीं हैं, अभी हैं, और सदा ही रहेंगे .....
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भगवान का और मेरा साथ शाश्वत है| वे निरंतर मेरे साथ हैं, पल भर के लिए भी कभी मुझ से पृथक नहीं हुए हैं| सारी सृष्टि ही भगवान से अभिन्न है, मैं भी भगवान से अभिन्न हूँ| भगवान ही है जो यह "मैं" बन गए हैं| मैं यह देह नहीं बल्कि एक सर्वव्यापी शाश्वत आत्मा हूँ, भगवान का ही अंश और अमृतपुत्र हूँ| अयमात्मा ब्रह्म| जैसे जल की एक बूँद महासागर में मिल कर स्वयं भी महासागर ही बन जाती है, कहीं कोई भेद नहीं होता, वैसे ही भगवान में समर्पित होकर मैं स्वयं भी उनके साथ एक हूँ, कहीं कोई भेद नहीं है|
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जिसे मैं सदा ढूँढ रहा था, जिसको पाने के लिए मैं सदा व्याकुल था, जिसके लिए मेरे ह्रदय में सदा एक प्रचंड अग्नि जल रही थी, जिस के लिए एक अतृप्त प्यास ने सदा तड़फा रखा था, वह तो मैं स्वयं ही हूँ| उसे देखने के लिए, उसे अनुभूत करने के लिए और उसे जानने या समझने के लिए कुछ तो दूरी होनी चाहिए| पर वह तो निकटतम से भी निकट है, अतः उसका कुछ भी आभास नहीं होता, वह मैं स्वयं ही हूँ|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ जनवरी २०१८