Sunday, 14 January 2018

हमारा जीवन उत्तरायण, धर्मपरायण व राममय हो .....

हमारा जीवन उत्तरायण, धर्मपरायण व राममय हो .....
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जीवन में हमारे परम आदर्श आराध्य देव भगवान श्रीराम हैं| उनसे बड़ा कोई दूसरा आदर्श नहीं है| हमारा जीवन राममय हो, यह बड़ी से बड़ी प्रार्थना है| राममय बनकर ही हम अपनी चेतना में अनंत, सर्वव्यापक, असम्बद्ध, अलिप्त व शाश्वत हैं| समझने वाले इसे समझ सकते हैं|
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मकर संक्रांति के दिन संगम स्नान का महत्व है| आध्यात्मिक दृष्टी से संगम स्नान क्या है इस पर विचार करते हैं .....
तंत्र आगमों के अनुसार 'इड़ा' भगवती गंगा है, 'पिंगला' यमुना नदी है और उनके मध्य में 'सुषुम्ना' सरस्वती है| इस त्रिवेणी का संगम तीर्थराज है जहाँ स्नान करने से सर्व पापों से मुक्ति मिलती है| वह तीर्थराज त्रिवेणी प्रयाग का संगम कहाँ है? वह स्थान ... तीर्थराज त्रिवेणी का संगम हमारे भ्रूमध्य में है| अपनी चेतना को भ्रूमध्य में और उससे ऊपर रखना ही त्रिवेणी संगम में स्नान करना है|
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अपनी व्यक्तिगत साधना/उपासना में एक नए संकल्प और नई ऊर्जा के साथ गहनता लायें .....
> रात्रि को सोने से पूर्व भगवान का ध्यान कर के निश्चिन्त होकर जगन्माता की गोद में सो जाएँ|
> दिन का प्रारम्भ परमात्मा के प्रेम रूप पर ध्यान से करें|
>पूरे दिन परमात्मा की स्मृति रखें| यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः स्मरण करते रहें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०१८

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पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में स्थित हम भारतवासियों के लिए जीवन में तृप्ति, अंतर्ज्ञान, और अनन्त परम पूर्णता को पाने का समय उत्तरायण है| हमारा सम्पूर्ण जीवन ही उत्तरायण हो|
उत्तरायण काल में आज्ञा और सहस्रार चक्रों में ऊर्जा प्रबल रहती है| गुरु-प्रदत्त विधि से कूटस्थ सूर्यमण्डल में जो अनन्य दिव्य परम पुरुष हैं, उन्हीं का अखण्डवृत्ति द्वारा निरंतर ध्यान करते हुए हम उन्हीं को प्राप्त हों|
शुभ कामनाएँ और सप्रेम नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०१८

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अब कोई कामना नहीं है .....


अब कोई कामना नहीं है .....
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इस जीवन का अधिकांश भाग व्यर्थ में ही नष्ट हो चुका है| अब जो अति अति अति अल्प शेष भाग इस जीवन का बचा है, उसे गीता के स्वाध्याय और भगवान के ध्यान में ही व्यतीत करने का आतंरिक आदेश मिल रहा है| अन्य किसी ग्रन्थ के स्वाध्याय और अन्य विषयों के अध्ययन-मनन, और अन्य गतिविधियों के लिए अब समय नहीं रहा है| अपने पूर्व जन्मों के कर्मों का फल भोगने के लिए ही यह जन्म मिला था| पिछले जन्मों में कोई अच्छे कर्म नहीं किये थे इसलिए इस जन्म में इतने उतार-चढ़ाव देखे| किसी से कोई शिकायत नहीं है| सब कुछ अपने अपने स्वयं के ही कर्मों का ही भोग था| मुझे नहीं लगता कि इस जन्म में भी मैनें कोई अच्छे कर्म किये हैं| भगवान ने ही अपनी परम कृपा कर के मेरे हृदय में अपने प्रति परम प्रेम और अभीप्सा जागृत कर दी है| यह उन्हीं की महिमा है, मेरी नहीं| अब कोई कामना नहीं है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !! कृपा शंकर //१३ जनवरी २०१८
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भगवान कहते हैं .....
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||८.५||
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प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ||८.१०||
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ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||८.१३||
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अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः |
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ||८.१४||
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मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् |
नाप्नुवन्ति महत्मानः संसिद्धिं परमां गताः ||८.१५||
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आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन |
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ||८.१६||
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जो कुछ भी कहना था वह भगवान ने कह दिया है| मेरे पास कहने को अब कुछ भी नहीं है| हे प्रभु, आपकी जय हो| ॐ ॐ ॐ !!

प्रेम होता है, किया नहीं जाता ......

प्रेम होता है, किया नहीं जाता ......
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मैं सदा परमात्मा से परम प्रेम की बात करता रहा हूँ, पर अब मुझे लगता है कि मैंने अपनी भाषा में या शब्द-रचना में अपनी नासमझी से सदा एक बहुत बड़ी भूल की है| उसी भूल को सुधारने का यह प्रयास है| यदि फिर भी भूल रह जाती है तो क्षमा चाहूँगा|
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परम प्रेम कोई क्रिया नहीं है, यह तो चित्त की एक स्थिति है| प्रेम होता है, किया नहीं जाता| प्रेम हमारा अस्तित्व है| हम किसी को प्रेम कर नहीं सकते, पर स्वयं प्रेममय हो कर उस प्रेम को अनुभूत कर सकते हैं| भावों से वह व्यक्त हो सकता है| स्वयं प्रेममय होना ही प्रेम की अंतिम परिणिति है| यही परमात्मा के प्रति अहैतुकी प्रेम है जहाँ कोई माँग नहीं है| जहाँ माँग होती है, वह व्यापार होता है| प्रेम एक समर्पण है, माँग नहीं|
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जब हम कहते हैं कि मैं किसी को प्रेम करता हूँ तो यहाँ अहंकार आ जाता है| मैं कौन हूँ करने वाला? मैं कौन हूँ कर्ता? कर्ता तो सिर्फ और सिर्फ परमात्मा ही है| "मैं" शब्द में अहंकार और अपेक्षा आ जाती है|
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हम स्वयं प्रेममय यानि साक्षात "प्रेम" बन कर परमात्मा के सचेतन अंश बन जाते हैं क्योंकि भगवान स्वयं अनिर्वचनीय परम प्रेम हैं| फिर हमारे प्रेम में सम्पूर्ण समष्टि समाहित हो जाती है| जैसे भगवान भुवन-भास्कर अपना प्रकाश बिना किसी शर्त के सब को देते हैं वैसे ही हमारा प्रेम पूरी समष्टि को प्राप्त होता है| फिर पूरी सृष्टि ही हमें प्रेम करने लगती है क्योंकि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रया होती है| हम स्वयं ही परमात्मा के प्रेम हैं जो अपनी सर्वव्यापकता में सर्वत्र समस्त सृष्टि में सब रूपों में व्यक्त हो रहे हैं| परमात्मा का प्रेम जब अनुभूत होता है तब उसका एक एक कण परम आनंदमय होता है|
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परम प्रेम जहाँ है वहाँ कोई अज्ञान, असत्य और अन्धकार टिक नहीं सकता| परम प्रेम .... परमात्मा की पूर्णता की अभिव्यक्ति है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०१८

अभ्यासयोगयुक्त अनन्यगामी चित्तद्वारा दिव्य परम पुरुष का हम चिंतन करें ....

सभी मित्रों से एक प्रश्न .....
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जब अच्छे कर्मों का फल मिलता है तब तो हम कहते हैं कि भगवान की कृपा से ऐसा हुआ| पर जब बुरे कर्मों का फल मिलता है तब हम इसे भगवान की कृपा क्यों नहीं मानते ? तब हम इसे अपना दुर्भाग्य क्यों मानते हैं?
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उपरोक्त प्रश्न का उत्तर मेरी बुद्धि से तो यही हो सकता है कि हमारी बुद्धि और मन दोनों ही परमात्मा को अर्पित नहीं हैं, तभी ऐसा विचार मन में आया| यदि हम अपने मन और बुद्धि दोनों को ही परमात्मा को समर्पित कर दें तब ऐसा प्रश्न ही नहीं उठेगा| भगवान को प्रिय भी वही व्यक्ति है जिसने अपना मन और बुद्धि दोनों ही भगवान को अर्पित कर दिए हैं|
भगवान कहते हैं ....
"सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ||१२.१४||
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इससे पहले भगवान कह चुके हैं ........
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः |
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते" ||६.२२||
परमात्मा को प्राप्त करके योगस्थ व्यक्ति परमानंद को प्राप्त होकर इससे अधिक अन्य कोई सुख नहीं मानता हुआ भारी से भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है|
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हम परमात्मा को प्राप्त नहीं हुए इसी लिए दुःखों से विचलित हैं| अन्यथा दुःख और सुख दोनों ही भगवान के प्रसाद हैं| अभ्यास द्वारा हम ऐसी आनंदमय स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं जो सुख और दुःख दोनों से परे है|
भगवान कहते हैं .....
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना |
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्" ||८.८||
इसका अति गहन अर्थ जो मुझे समझ में आया है वह है ......
"अभ्यासयोगयुक्त अनन्यगामी चित्तद्वारा दिव्य परम पुरुष का हम चिंतन करें"|
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Note: ---
विजातीय प्रतीतियों के व्यवधानसे रहित प्रतीतिकी आवृत्तिका नाम अभ्यास है|
वह अभ्यास ही योग है|
जहाँ अन्य कोई नहीं है, वहाँ मैं अनन्य हूँ|
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"उस अभ्यासरूप योगसे युक्त चित्त द्वारा परमात्मा का आश्रय लेकर, विषयान्तर में न जाकर, गुरु महाराज के उपदेशानुसार कूटस्थ सूर्यमण्डल में जो अनन्य दिव्य परम पुरुष हैं, उन्हीं का अखण्डवृत्ति द्वारा निरंतर ध्यान करते हुए हम उन्हीं को प्राप्त हों| अन्य कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है| यही परमात्मा की प्राप्ति है|"
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मुझे तो मेरे गुरु महाराज का यही आदेश और उपदेश है| बाकी सब इसी का विस्तार है| सब विभूतियाँ परमात्मा की हैं, हमारी नहीं| हम परमात्मा को उपलब्ध हों| इधर उधर फालतू की गपशप में समय नष्ट न कर सदा भगवान का स्मरण करें| दुःख और सुख आयेंगे और चले भी जायेंगे, पर हम उन से विचलित न हों| भगवान में आस्था रखें| वे सदा हमारी रक्षा कर रहे हैं|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जनवरी २०१८

कुछ विचार ....

कुछ विचार ....
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हम इसी क्षण से यह सोचना छोड़ दें कि कौन हमारे बारे में क्या सोच रहा है| ध्यान सिर्फ इसी बात का सदा रहे कि स्वयं जगन्माता यानी माँ भगवती हमारे बारे में क्या सोचेंगी| भगवान माता भी है और पिता भी| माँ का रूप अधिक ममता और प्रेममय होता है| भगवान के मातृरूप पर ध्यान अधिक फलदायी होता है|
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जितना अधिक हम भगवान का ध्यान करते हैं, उतना ही अधिक हम स्वयं का ही नहीं, पूरी समष्टि का उपकार करते हैं| यही सबसे बड़ी सेवा है जो हम कर सकते हैं|
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जब हम परमात्मा की चेतना में होते हैं तब हमारे से हर कार्य शुभ ही शुभ होता है|
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जिस के हृदय में परमात्मा के प्रति कूट कूट कर प्रेम भरा पड़ा है वह संसार में सबसे अधिक सुन्दर व्यक्ति है, चाहे उस की भौतिक शक्ल-सूरत कैसी भी हो|
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भगवान से हमें उनके प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं माँगना चाहिए| प्रेम ही मिल गया तो सब कुछ मिल गया|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जनवरी २०१८