हमारा भोजन .....
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हम जो भी भोजन करते हैं वह हम स्वयं नहीं करते बल्कि वैश्वानर के रूप में स्थित परमात्मा को अर्पित करते हैं| हमारा हर आहार स्वयं भगवान ग्रहण कर रहे हैं, इसी भाव से खाना चाहिए, और वही खाना चाहिए जो भगवान को प्रिय है| गीता में भगवान कहते हैं .....
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्||१५:१४||"
अर्थात् ... मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ||
भगवान ही पेट में रहने वाले जठराग्नि होकर वैश्वानर के रूप में प्राण और अपान वायु से संयुक्त हुए (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य) चार प्रकार के अन्नों को पचाते हैं| वैश्वानर अग्नि खानेवाला है और सोम खाया जानेवाला अन्न है| इस प्रकार देखनेवाला मनुष्य अन्नके दोषसे लिप्त नहीं होता| सार की बात यह है कि What so ever we eat, it is an offering to the Divine presence within.
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भोजन करना भी एक यज्ञ है जो परमात्मा को अर्पित है| परमात्मा ही हवि हैं, वे ही अग्नि हैं, वे ही आहुति हैं, और भोजन करना भी एक ब्रह्मकर्म है| गीता में भगवान कहते हैं ....
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||"
यानि अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
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भगवान को अर्पित नहीं कर के इन्द्रियों की तृप्ति के लिए स्वयं खाने वाला चोर है, यह गीता में भगवान का कथन है ....
"इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः| तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः||३:१२||"
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अकेला खाने वाला पापी है और बिना भगवान को अर्पित किये कुछ भी खाना पाप है| बिना भगवान को अर्पित किये खाना पाप का भक्षण है| अति धन्य श्रुति भगवती कहती है ....
"मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य |
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी || (ऋग्वेदः सूक्तं १०.११७.६)
अर्थात् मन में दान की भावना न रखनेवाला व्यर्थ ही अन्न प्राप्त करता है| यह यथार्थ कहता हूँ ... इस प्रकार का भोजन उसकी मृत्यु ही है| वह न तो अर्यमा (पित्तरों के देवता) आदि देवों को पुष्ट करता है और न तो मित्र (वेदों में मित्र ही सर्वप्रधान आदित्य माने गए है) को ही| स्वयं भोजन करनेवाला केवल पापी होता है|
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मनु स्मृति कहती है .... "अघं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात् |"
{ मनुस्मृति ३ / ११८ }
अर्थात् जो देवता आदि को न देकर केवल अपने लिए अन्न पकाकर खाता है, वह केवल पाप खाता है|
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हे प्रभु, मैं तुम्हारी शरण में हूँ| तुम्हारे समान परम हितकारी कोई अन्य नहीं है| तुम्हारे से पृथक मेरा कोई अस्तित्व नहीं है| मुझे अपने साथ एक करो| Reveal Thyself unto me.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१९
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हम जो भी भोजन करते हैं वह हम स्वयं नहीं करते बल्कि वैश्वानर के रूप में स्थित परमात्मा को अर्पित करते हैं| हमारा हर आहार स्वयं भगवान ग्रहण कर रहे हैं, इसी भाव से खाना चाहिए, और वही खाना चाहिए जो भगवान को प्रिय है| गीता में भगवान कहते हैं .....
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्||१५:१४||"
अर्थात् ... मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ||
भगवान ही पेट में रहने वाले जठराग्नि होकर वैश्वानर के रूप में प्राण और अपान वायु से संयुक्त हुए (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य) चार प्रकार के अन्नों को पचाते हैं| वैश्वानर अग्नि खानेवाला है और सोम खाया जानेवाला अन्न है| इस प्रकार देखनेवाला मनुष्य अन्नके दोषसे लिप्त नहीं होता| सार की बात यह है कि What so ever we eat, it is an offering to the Divine presence within.
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भोजन करना भी एक यज्ञ है जो परमात्मा को अर्पित है| परमात्मा ही हवि हैं, वे ही अग्नि हैं, वे ही आहुति हैं, और भोजन करना भी एक ब्रह्मकर्म है| गीता में भगवान कहते हैं ....
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||"
यानि अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
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भगवान को अर्पित नहीं कर के इन्द्रियों की तृप्ति के लिए स्वयं खाने वाला चोर है, यह गीता में भगवान का कथन है ....
"इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः| तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः||३:१२||"
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अकेला खाने वाला पापी है और बिना भगवान को अर्पित किये कुछ भी खाना पाप है| बिना भगवान को अर्पित किये खाना पाप का भक्षण है| अति धन्य श्रुति भगवती कहती है ....
"मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य |
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी || (ऋग्वेदः सूक्तं १०.११७.६)
अर्थात् मन में दान की भावना न रखनेवाला व्यर्थ ही अन्न प्राप्त करता है| यह यथार्थ कहता हूँ ... इस प्रकार का भोजन उसकी मृत्यु ही है| वह न तो अर्यमा (पित्तरों के देवता) आदि देवों को पुष्ट करता है और न तो मित्र (वेदों में मित्र ही सर्वप्रधान आदित्य माने गए है) को ही| स्वयं भोजन करनेवाला केवल पापी होता है|
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मनु स्मृति कहती है .... "अघं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात् |"
{ मनुस्मृति ३ / ११८ }
अर्थात् जो देवता आदि को न देकर केवल अपने लिए अन्न पकाकर खाता है, वह केवल पाप खाता है|
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हे प्रभु, मैं तुम्हारी शरण में हूँ| तुम्हारे समान परम हितकारी कोई अन्य नहीं है| तुम्हारे से पृथक मेरा कोई अस्तित्व नहीं है| मुझे अपने साथ एक करो| Reveal Thyself unto me.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१९