Saturday 6 July 2019

हमारा भोजन .....

10 hrs
हमारा भोजन .....
---------------
हम जो भी भोजन करते हैं वह हम स्वयं नहीं करते बल्कि वैश्वानर के रूप में स्थित परमात्मा को अर्पित करते हैं| हमारा हर आहार स्वयं भगवान ग्रहण कर रहे हैं, इसी भाव से खाना चाहिए, और वही खाना चाहिए जो भगवान को प्रिय है| गीता में भगवान कहते हैं .....
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्||१५:१४||"
अर्थात् ... मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ||
भगवान ही पेट में रहने वाले जठराग्नि होकर वैश्वानर के रूप में प्राण और अपान वायु से संयुक्त हुए (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य) चार प्रकार के अन्नों को पचाते हैं| वैश्वानर अग्नि खानेवाला है और सोम खाया जानेवाला अन्न है| इस प्रकार देखनेवाला मनुष्य अन्नके दोषसे लिप्त नहीं होता| सार की बात यह है कि What so ever we eat, it is an offering to the Divine presence within.
.
भोजन करना भी एक यज्ञ है जो परमात्मा को अर्पित है| परमात्मा ही हवि हैं, वे ही अग्नि हैं, वे ही आहुति हैं, और भोजन करना भी एक ब्रह्मकर्म है| गीता में भगवान कहते हैं ....
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||"
यानि अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
.
भगवान को अर्पित नहीं कर के इन्द्रियों की तृप्ति के लिए स्वयं खाने वाला चोर है, यह गीता में भगवान का कथन है ....
"इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः| तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः||३:१२||"
.
अकेला खाने वाला पापी है और बिना भगवान को अर्पित किये कुछ भी खाना पाप है| बिना भगवान को अर्पित किये खाना पाप का भक्षण है| अति धन्य श्रुति भगवती कहती है ....
"मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य |
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी || (ऋग्वेदः सूक्तं १०.११७.६)
अर्थात् मन में दान की भावना न रखनेवाला व्यर्थ ही अन्न प्राप्त करता है| यह यथार्थ कहता हूँ ... इस प्रकार का भोजन उसकी मृत्यु ही है| वह न तो अर्यमा (पित्तरों के देवता) आदि देवों को पुष्ट करता है और न तो मित्र (वेदों में मित्र ही सर्वप्रधान आदित्य माने गए है) को ही| स्वयं भोजन करनेवाला केवल पापी होता है|
.
मनु स्मृति कहती है .... "अघं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात् |"
{ मनुस्मृति ३ / ११८ }
अर्थात् जो देवता आदि को न देकर केवल अपने लिए अन्न पकाकर खाता है, वह केवल पाप खाता है|
.
हे प्रभु, मैं तुम्हारी शरण में हूँ| तुम्हारे समान परम हितकारी कोई अन्य नहीं है| तुम्हारे से पृथक मेरा कोई अस्तित्व नहीं है| मुझे अपने साथ एक करो| Reveal Thyself unto me.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१९

भगवान के लिए ही सारे कार्य करना .....

भगवान के लिए ही सारे कार्य करना .....
.
मत्कर्मपरायणता यानी भगवान के लिए ही सारे कार्य करना, अपने आप में एक बहुत बड़ी साधना है| गीता में भगवान कहते हैं .....
"अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव| मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि||१२:१०||"
अर्थात् यदि तूँ अभ्यासमें भी असमर्थ है तो मेरे लिये कर्म करने में तत्पर हो| अभ्यासके बिना केवल मेरे लिये कर्म करता हुआ भी तूँ परमसिद्धि प्राप्त कर लेगा|
.
यदि कोई अभ्यास में भी असमर्थ हो तो मत्कर्म परायण बन कर यानि भगवान के लिये ही सारे कर्म करे|
.
पर इस से भी बहुत अधिक ऊँची एक स्थिति है जहाँ साधक स्वयं निमित्तमात्र बनकर यानि भगवान का एक उपकरण बन कर भगवान को ही अपने माध्यम से कार्य करने दे| भगवान कहते हैं .....
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्वजित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||११:३३||"
अर्थात् .... इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो, शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो| ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं| हे सव्यसाचिन् तुम केवल निमित्त ही बनो||
(दोनों हाथों से धनुष चलाने में निष्णात होने के कारण अर्जुन सव्यसाची कहलाता है)

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जुलाई २०१९

भारत एक महाशक्ति बनेगा, चाहे इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की हो .....

भारत एक महाशक्ति बनेगा, चाहे इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की हो| यह एक चमत्कार से कम नहीं होगा| विश्व में अनेक चमत्कार हुए हैं| यहाँ मैं पिछले १५० वर्षों में ही हुए कुछ चमत्कारों की बात कर रहा हूँ|
.
क्या किसी ने कभी कल्पना की थी कि १९०५ में जापान जैसा छोटा सा देश रूस जैसे विशाल शक्तिशाली देश को हराकर रूस से मंचूरिया छीन लेगा, त्सूशीमा जलडमरूमध्य में रूस की सारी विशाल नौसेना को डूबो देगा, और कोरिया व रूसी सुदूर-पूर्व पर अधिकार कर लेगा? यदि रूस नहीं हारता तो कोरिया भी रूस का ही एक भाग होता, जैसे मंचूरिया था|
.
क्या किसी ने कभी कल्पना भी की थी कि अक्टूबर १९१७ में वोल्गा नदी में खड़े रूसी नौसेना के एक युद्धपोत "अरोरा" से आरम्भ हुआ एक नौसैनिक विद्रोह, बोल्शेविक क्रांति में परिवर्तित हो जाएगा और एक अति क्रूर साम्यवादी सता का सोवियत संघ के रूप में जन्म होगा ?
.
ऐसे ही चीन में माओ का लॉन्ग मार्च माओ की लोकप्रियता से नहीं, बल्कि रूसी सेना की सहायता से सफल हुआ था| माओ सत्ता में रूस की सैनिक सहायता से आया, न कि अपनी लोकप्रियता से| इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी| यह भी एक चमत्कार ही था|
.
क्या किसी ने कभी कल्पना भी की थी कि सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) बिखर जायेगी और ख़िलाफ़त का अंत हो जाएगा| तुर्की में बुर्के व फैज़ टोपी पर और अरबी भाषा पर प्रतिबन्ध एक चमत्कार से कम नहीं था|
.
क्या किसी ने कल्पना भी की थी कि अँगरेज़ लोग भारत के क्रांतिकारियों से, आज़ाद हिन्द फौज व नौसेना विद्रोह से डर कर, और भारतीय सैनिकों द्वारा अँगरेज़ अधिकारियों के आदेश न मानने से उत्पन्न हुई परिस्थिति से डर कर भारत छोड़ने को विवश हो जायेंगे? यह भी एक चमत्कार ही था| अँगरेज़ लोग भारत में अहिंसा व चरखे से डर कर नहीं गए थे| वे भारतीय सिपाहियों द्वारा अँगरेज़ अधिकारियों के आदेश नहीं मानने के कारण उत्पन्न हुई परिस्थिति से डर कर गए थे|
.
क्या कभी किसी ने कल्पना भी की थी कि सोवियत संघ टूट कर बिखर जाएगा? यदि अफगानिस्तान में सोवियत सेनाएँ, अमेरिका के मानस पुत्रों .... तालिबान व छद्म वेश में लड़ रहे पाकिस्तानियों से नहीं हारतीं तो सोवियत संघ कभी नहीं बिखरता| मैं तत्कालीन पूरी परिस्थितियों से अवगत हूँ, इसलिए ऐसा लिख रहा हूँ| सोवियत संघ मुख्यतः अमेरिका की सफल कूटनीति से बिखरा था, न कि अन्य किसी कारण से|
.
भारत में कांग्रेस की पराजय और भाजपा का सत्ता में आना भी एक चमत्कार था| भारत में ऐसे ही कई चमत्कार होंगे और भारत अंततः एक आध्यात्मिक राष्ट्र होगा| भारत में छायी हुई असत्य और अन्धकार की शक्तियाँ पराभूत होंगी| ॐ तत्सत् !!
.
कृपा शंकर
४ जुलाई २०१९

भगवान श्रीकृष्ण परम परात्पर परमेष्ठी आत्मगुरु विश्वगुरु और साक्षात् पारब्रह्म हैं ....

भगवान श्रीकृष्ण परम परात्पर परमेष्ठी आत्मगुरु विश्वगुरु और साक्षात् पारब्रह्म हैं ....
.
गुरु आदेशानुसार यह जीवात्मा परमात्मा की विराट अनंतता का ध्यान कूटस्थ में ज्योतिर्मयब्रह्म और नादश्रवण के रूप में परमशिव की ही करती है| आकाश-तत्व और प्राण-तत्व सदा चेतना में रहते हैं| सारे संशयों का निवारण गुरुकृपा से भगवद्गीता के माध्यम से ही हुआ है| पर साकार रूप में जो भी छवि परमात्मा की मेरे समक्ष आती है वह बिल्कुल जीवंत भगवान श्रीकृष्ण की ही आती है| जब जीवन में कभी निराशा आती है, तब भगवान श्रीकृष्ण के ये वचन ध्यान में आते हैं...
"क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते| क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप||२:३||"
अर्थात् "हे पार्थ, क्लीव (कायर) मत बनो| यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है| हे परंतप, हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ||"
ये शब्द जीवन में एक नए उत्साह का संचार कर देते हैं| यही भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षाओं का सार है|
.
"वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूरमर्दनं| देवकी परमानंदं कृष्णं वंदे जगद्गुरुं||"
"वंशी विभूषित करान्नवनीर दाभात् , पीताम्बरा दरुण बिंब फला धरोष्ठात् |
पूर्णेन्दु सुन्दर मुखादरविंद नेत्रात् , कृष्णात परम किमपि तत्वमहंनजाने ||"
"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने| प्रणत: क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:||"
"नमो ब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मण हिताय च| जगत् हिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः||"
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्| यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्||"
"हरे मुरारे मधुकैटभारे, गोविन्द गोपाल मुकुंद माधव |
यज्ञेश नारायण कृष्ण विष्णु, निराश्रयं मां जगदीश रक्षः ||"
.
ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ जुलाई २०१९

परमात्मा के अतिरिक्त संसार में अन्य कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है ....

घर, परिवार व समाज का वातावरण यदि नकारात्मक हो तो आध्यात्मिक साधक को उन्हें तुरंत त्याग कर एकांत में ही साधना करनी चाहिए| संसार से कुछ भी अपेक्षा, आसक्ति और स्पृहा अति निराशाजनक व दुःखदायी है| संसार हमें आनन्द का प्रलोभन देकर कष्ट और पीड़ाएँ ही देता है|
.
परमात्मा इसी क्षण यहीं हैं और नित्य हैं, उनके प्रति श्रद्धा, विश्वास, परमप्रेम और अभीप्सा हो तो आगे के सारे द्वार स्वतः ही खुल जाते हैं; कहीं अन्धकार नहीं रहता| सर्वप्रथम हम परमात्मा को प्राप्त करें| कूटस्थ में परमात्मा की उपस्थिति गहनतम प्रेम के साथ हो| अन्य कोई भी आसक्ति व स्पृहा न रहे| परमात्मा के अतिरिक्त संसार में अन्य कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है| परमात्मा मिल गए तो सब कुछ मिल गया|
कृपा शंकर
१७ जून २०१९

जिसमें कर्ताभाव नहीं है... ऐसा व्यक्ति यदि पूरे संसार को भी नष्ट कर दे यानि मार दे, तो भी उसे कोई पाप नहीं लगता .....

जिसकी चेतना परमात्मा में है, जिसकी कोई आसक्ति नहीं है, जो विगतस्पृह है, , ...जिसमें कर्ताभाव नहीं है... ऐसा व्यक्ति यदि पूरे संसार को भी नष्ट कर दे यानि मार दे, तो भी उसे कोई पाप नहीं लगता .....
.
(१) गीता में भगवान कहते हैं .....
"असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः| नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति||१८:४९||"
जो सर्वत्र असक्तबुद्धि है, जो जितात्मा है (जिसका आत्मा यानी अन्तःकरण जीता हुआ है), जो स्पृहारहित है सब कर्मोंको मनसे छोड़कर न करता हुआ और न करवाता हुआ रहता है|
.
(२) भगवान कहते हैं ....
"ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः| लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा||५:१०||"
जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता||
.
(३) भगवान कहते हैं ....
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते||18.17||"
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है||
.
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ जून २०१९

एक बहुत पुरानी स्मृति .....

एक बहुत पुरानी स्मृति .....
.
पूर्व सोवियत संघ के वे ५ गणराज्य जो मध्य एशिया में हैं, और जहाँ सुन्नी इस्लाम का पूरा प्रभाव था .... काज़ाख़स्तान, किरगिज़स्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज़बेकिस्तान, ..... व वर्तमान रूस में ही स्थित एक छोटा सा अर्ध-स्वशासित गणराज्य तातारस्तान ..... वहाँ के लोगों में मैनें यह पाया है कि उन में भारत के बारे में जानने की बहुत अधिक जिज्ञासा है| ५२ वर्ष पूर्व मैनें रूसी भाषा जिस अध्यापिका से सीखी थी वह एक तातार सुन्नी मुसलमान महिला थी जो बाद में कम्युनिष्ट हो गयी| बहुत ही दयालू और अच्छे स्वभाव की महिला थी जिसने जी-जान लगाकर पूर्ण मनोयोग से मुझे ही नहीं, अनेक भारतीयों को रूसी भाषा सिखाई| मेरा रूस व युक्रेन में कई तातार मुसलमान परिवारों से व मध्य एशिया के कई लोगों से मिलना हुआ है| वहाँ की कई लड़कियाँ हिंदी और भारतीय नृत्य भी सीखती हैं| उस क्षेत्र के अधिकाँश लोग सुन्नी मुसलमान हैं जिनकी रूचि अब अपने मत से लगभग समाप्त ही होती जा रही है| वहाँ की भाषा तुर्क भाषा से मिलती जुलती है पर सभी को रूसी आती है| तातारस्तान की राजधानी का नाम काज़ान है जो वोल्गा और काज़ानका नदियों के संगम पर स्थित है| रूस में दो-तीन और भी मुस्लिम बहुल क्षेत्र हैं जिनके बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं है|
.
भारत में आक्रमणकारी लुटेरा बाबर उज्बेकिस्तान से आया था| उज्बेकिस्तान के कई प्रसिद्ध नगर .... बुखारा, समरकंद, व ताशकंद .... भारत के मुग़ल काल में भारत में लूटे हुए धन से बहुत अधिक समृद्ध हो गए थे|
.
युक्रेन के ओडेसा नगर में मुझे एक बार एक अति विदुषी तातार मुस्लिम बृद्धा महिला ने अपने घर पर निमंत्रित किया| वे वास्तव में बड़ी विदुषी थीं| कई भाषाओं पर उनका जबरदस्त अधिकार था| वे एक राजनीतिक बंदी के रूप में चीन की जेलों में दस वर्षों तक रह चुकी थीं| उन्होंने मुझ से भारत के बारे में, और हिन्दू धर्म के बारे में अनेक प्रश्न पूछे| जितना मैं बता सकता था उतना उन्हें बताया| उनकी इच्छा ज्योतिष के बारे में भी जानने को थी पर ज्योतिष का मुझे कोई ज्ञान नहीं था| उन्होंने मुझे बताया कि पूरे मध्य एशिया में इस्लाम से पूर्व बौद्ध धर्म था| बौद्ध धर्म मध्य एशिया से भी परे तक था| बाद में मुसलमानों ने उस क्षेत्र को जीतकर सबको मुसलमान बना दिया|
.
बाद में कभी उस क्षेत्र में जाने का काम नहीं पड़ा| अब तो कहीं जाने की इच्छा ही समाप्त हो गयी है|

हमारा लक्ष्य .....

हमारा लक्ष्य .....
.
परमात्मा सदा मौन है| यही उसका स्वभाव है| परमात्मा ने कभी अपना नाम नहीं बताया| उसके सारे नाम ज्ञानियों व् भक्तों के रचे हुए हैं| यह परमात्मा का स्वभाव है जो हमारा भी स्वभाव होना चाहिए| मौन ही सत्य और सबसे बड़ी तपस्या है| जो मौन की भाषा समझता है और जिसने मौन को साध लिया वह ही मुनि है| वास्तव में परमात्मा अपरिभाष्य और अचिन्त्य है| उसके बारे में जो कुछ भी कहेंगे वह सत्य नहीं होगा| सिर्फ श्रुतियाँ ही प्रमाण है, बाकि सब अनुमान| सबसे बड़ा प्रमाण तो आत्म-साक्षात्कार है| जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि कामनाओं पर विजय है| पूर्ण निष्काम भाव मनुष्य का देवत्व है|
.
सीमित व अशांत मन ही सारे प्रश्नों को जन्म देता है| जब मन शांत व विस्तृत होता है तब सारे प्रश्न तिरोहित हो जाते हैं| चंचल प्राण ही मन है| प्राणों में जितनी स्थिरता आती है, मन उतना ही शांत और विस्तृत होता है| प्राणों में स्थिरता आती है प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान से| अशांत चित्त ही वासनाओं को जन्म देता है| अहंकार एक अज्ञान है| ह्रदय में भक्ति (परम प्रेम) और शिवत्व की अभीप्सा आवश्यक है| शिवत्व एक अनुभूति है| उस अनुभूति को उपलब्ध होकर हम स्वयं भी शिव बन जाते हैं| शिव है जो सब का कल्याण करे| हमारा भी अस्तित्व समष्टि के लिए वरदान होगा| हमारा अस्तित्व भी सब का कल्याण ही करेगा| हम उस शिवत्व को प्राप्त हों| ॐ तत्सत् !
कृपाशंकर
१६ जून २०१९

'योग' क्या है ? .....

'योग' क्या है ? .....
-------------
भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निकली हुई पूरी भगवद्गीता ही "योग" का सर्वश्रेष्ठ प्रामाणिक ग्रन्थ है| उनसे पूर्व 'कृष्ण यजुर्वेद' के श्वेताश्वतर उपनिषद में योग साधनाओं का विस्तृत वर्णन है| उपनिषद समाधि भाषा में हैं जिन्हें कोई सिद्ध ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य ही समझा सकता है| अतः सामान्य जन के लिए भगवद्गीता ही श्रेष्ठ है| गीता में भगवान कहते हैं .....
"तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः| कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन||६:४६||"
भावार्थ :--- क्योंकि योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है और (केवल शास्त्र के) ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है तथा कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है इसलिए हे अर्जुन तुम योगी बनो||
.
यहाँ यह जानना आवश्यक है कि योग क्या है| अधिकाँश लोग हठयोग को ही योग समझते हैं, पर गीता के अनुसार इसका क्या अर्थ है, यह हमें समझना चाहिए| गीता में भगवान कहते हैं....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||"
अर्थात् हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो| यह समभाव ही योग कहलाता है||
गीता के अनुसार 'समत्व' ही योग है| समत्व में अधिष्ठित होना ही समाधि है|
.
हमें जीवन का हर कार्य केवल ईश्वर के लिये करना चाहिए| यह भावना भी नहीं होनी चाहिए कि "ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों"| इस आशारूप आसक्ति को भी छोड़ कर, फलतृष्णारहित कर्म किये जाने पर अन्तःकरण की शुद्धि से उत्पन्न होने वाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है, और उससे विपरीत (ज्ञानप्राप्ति का न होना) असिद्धि है| ऐसी सिद्धि और असिद्धि में भी सम होकर, अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म करना चाहिए| यही जो सिद्धि और असिद्धि में समत्व है इसीको योग कहते हैं।
.
योगसुत्रों में ऋषि पतंजलि कहते हैं .... "योगश्चित्त वृत्ति निरोधः"|| उन्होंने चित्तवृत्तियों के निरोध को योग बताया है| चित्त तो अंतःकरण का ही एक भाग है| चित्त क्या है, इसे समझना पड़ेगा| चित्त स्वयं को दो रूपों .... वासनाओं व श्वाश-प्रश्वाश के रूप में व्यक्त करता है| वासनाएँ तो अति सूक्ष्म हैं जो पकड़ में नहीं आतीं| अतः आरम्भ में गुरु-प्रदत्त बीज मन्त्रों के साथ श्वाश पर ध्यान किया जाता है| इससे मेरुदंड में प्राण शक्ति का आभास होता है जिसकी चंचलता शनैः शनैः शांत होने से वासनाओं पर नियंत्रण होता है| सूक्ष्म शक्तियों का जब जागरण होता है तब आचार-विचार में पवित्रता बड़ी आवश्यक है, अन्यथा लाभ की अपेक्षा हानि होती है| इसीलिये यम और नियम योग साधना के भाग हैं| इस मार्ग पर साधक गुरुकृपा से अग्रसर होता ही रहता है| पर पर चित्तवृत्ति निरोध वाला अष्टांग योग एक साधन ही है, साध्य नहीं| साध्य तो परमशिवभाव यानि परमशिव हैं|
.
तंत्र शास्त्रों के अनुसार योग साधना का उद्देश्य है --- परम शिवभाव को प्राप्त करना ..... जिसकी सिद्धि अपनी सूक्ष्म देह में अवस्थित कुण्डलिनी महाशक्ति यानि घनीभूत प्राण-चेतना को जागृत कर उसको परम शिव से एकाकार करना है|
.
योगी वही हो सकता जो स्वभाव से ही योगी हो| सिद्ध योगी गुरु की कृपा के बिना कभी कोई योगी नहीं बन सकता है| वास्तविक आध्यात्मिक जीवन को पाने के लिए हरेक साधक को हर क्षण गुरु प्रदत्त साधना के सहारे जीना आवश्यक है| जब एक बार स्वभाव में योग साधना बस जाये तब गुरुशक्ति ही साधक को साधना के चरम उत्कर्ष पर पहुँच देती है| इसके लिए आवश्यक है गुरु पर अटल विश्वाश और पूर्ण आत्मसमर्पण| सबसे बड़ी चीज है "भगवान से परमप्रेम यानि भक्ति"| भगवान की कृपा हो जाए तो और कुछ भी नहीं चाहिए|
.
"वसुदेव सुतं देवं, कंस चाणूर मर्दनं| देवकी परमानन्दं, कृष्णं वन्दे जगत्गुरुम्||"
"वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात् | पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् || पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात् | कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जून २०१९

हिंदुत्व क्या है और हिन्दू कौन है ? .....

हिंदुत्व क्या है और हिन्दू कौन है ? .....
.
सौभाग्य से इस विषय पर मुझे बड़े बड़े स्वनामधन्य विचारक मनीषियों के विचार पढ़ने को मिले हैं| मेरा स्वतंत्र चिंतन भी है| अब तक के जीवन में जो भी स्वाध्याय किया है और जो भी अनुभव प्राप्त किये हैं, उनके आधार पर मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि हिंदुत्व के चार आधार हैं....
.
(१) परमात्मा से अहैतुकी परमप्रेम (Total and Unconditional love of the Divine).
(२) आत्मा की शाश्वतता.
(३) कर्मफलों का सिद्धांत.
(४) पुनर्जन्म.
.
उपरोक्त चार सिद्धांत ही हिंदुत्व के प्राण हैं|
अन्य भी कुछ सिद्धांत हैं पर वे परमात्मा के परमप्रेम में ही समाहित हो जाते हैं|
.
सामान्यतः भारतवर्ष को अपनी पुण्यभूमि और पितृभूमि मानने को ही हिंदुत्व कहते हैं| पर विश्व की वर्तमान परिस्थितियों में हिंदुत्व को खंडित व सिकुड़े हुए भारत तक ही सीमित नहीं कर सकते| हिंदुत्व एक जीवन पद्धति है, कोई व्यवस्थित औपचारिक पंथ, मत, मज़हब या Religion नहीं|
.
आज के परिप्रेक्ष्य में विश्व का वह हर व्यक्ति हिन्दू है जिसे परमात्मा से परमप्रेम है, और जो आत्मा की शाश्वतता, कर्मफल और पुनर्जन्म को मानता है|
.
आप सब निजात्मगण, परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं, आप सब को नमन ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जून २०१९

गीता के अनुसार क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म .....

गीता के अनुसार क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म .....
.
गीता में भगवान कहते हैं .....
"शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्| दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्||१८:४३||"
अर्थात् शौर्य, तेज, धृति, दाक्ष्य (दक्षता), युद्ध से पलायन न करना, दान और ईश्वर भाव (स्वामी भाव) ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं|
.
क्षत्रिय को क्षत्रिय इसलिये कहते हैं .... "क्षतात् त्रायत इति" कहीं भी किसी की क्षति हो रही तो वह उसे बचाता है| क्षत्रिय की स्वाभाविक प्रवृत्ति सदा दूसरे की रक्षा के लिये ही है|
"शौर्य" का अर्थ है .....चाहे जितना शक्तिशाली विरोधी हो, बिना घबराये उसके साथ युद्ध करने की तत्परता "शूरवीरता" है, केवल लड़ाई करना मात्र नहीं| जिसमें शूरवीरता नहीं है, वह क्षत्रिय नहीं हो सकता|
"तेज" अर्थात् प्रगल्भता, किसी भी परिस्थिति में दूसरे से पराभूत नहीं होना, यानि दूसरे से दबना नहीं|
"धृति" यानी धैर्य, यानि कभी भी उदास नहीं होना|
"दाक्ष्यम्" यानि दक्षता|
"युद्धे चाप्यपलायनं" .... युद्ध से कभी भागना नहीं|
"दानम्," यानि दान देने में मुक्तहस्तता|
"ईश्वरभावः" ..... जो अधर्म का आचरण करते हैं उनको दण्ड देते समय अपनी प्रभुता को प्रकट करना, अर्थात् दण्ड देने में कभी पीछे नहीं हटना| जिनके ऊपर शासन करना है उन्हें अपराध करने पर दण्ड देना ईश्वरभाव है| जैसे भगवान पापियों को पाप का दण्ड देते हैं, पुण्यात्मा को पुण्य का पुरस्कार देते हैं इसी प्रकार ईश्वर का भाव होने के कारण जो क्षत्रिय होता है वह अधर्माचरण करने वाले को दण्ड देता ही है|
ये क्षत्रिय जाति के स्वभावज कर्म हैं|
.
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जून २०१९

ब्राह्मण कौन ? ....

. ब्राह्मण कौन ?
ब्राह्मण वह है जो अपने स्वाभाविक कर्मों में रत है| मनुस्मृति में मनु महाराज ने ब्राह्मणों के तीन स्वाभाविक कर्म बताए हैं, वहीं गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों के नौ स्वाभाविक कर्म बताये हैं|
.
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च | ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||१८:४२||
अर्थात् शम? दम? तप? शौच? क्षान्ति? आर्जव? ज्ञान? विज्ञान और आस्तिक्य ये ब्राह्मण के स्वभाविक कर्म हैं||
और भी सरल शब्दों में ब्राह्मण के स्वभाविक कर्म हैं ..... मनोनियन्त्रण, इन्द्रियनियन्त्रण, शरिरादि के तप, बाहर-भीतर की सफाई, क्षमा, सीधापन यानि सरलता, शास्त्र का ज्ञान और शास्त्र पर श्रद्धा|
.
मनु महाराज ने ब्राह्मण के तीन कर्म बताए हैं ....."वेदाभ्यासे शमे चैव आत्मज्ञाने च यत्नवान्"| अर्थात अन्य सारे कर्मों को छोड़कर भी वेदाभ्यास, शम और आत्मज्ञान के लिए निरंतर यत्न करता रहे|
.
इनके अतिरिक्त ब्राह्मण के षटकर्म भी हैं, जो उसकी आजीविका के लिए हैं| पर यहाँ हम उन स्वभाविक कर्मों पर ही विचार कर रहे हैं जो भगवान श्रीकृष्ण ने और मनु महाराज ने कहे हैं|
.
ब्राह्मण के लिए संध्या और गायत्री मन्त्र का जप भी अनिवार्य है| संधिकाल में की गयी साधना को संध्या कहते हैं| चार मुख्य संधिकाल हैं..... प्रातः, सायं, मध्याह्न और मध्यरात्रि| पर भक्तों के लिए दो साँसों के मध्य का संधिकाल सर्वाधिक महत्वपूर्ण है| हर सांस के साथ आत्म-तत्व का अनुसंधान होना चाहिए| इसे हंस-गायत्री और अजपा-जप भी कहते हैं| ब्राह्मण के लिए गायत्रीमंत्र की कम से कम दस आवृतियाँ अनिवार्य हैं|
*****जो ब्राह्मण दिन में एक बार भी गायत्रीमंत्र का पाठ नहीं करता उसका ब्राह्मणत्व से उसी समय पतन हो जाता है और वह शुद्र हो जाता है|*****
.
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जून २०१९
.
(पुनश्चः :-- यह एक संक्षिप्त लेख है जिसमें कम से कम शब्दों में अपने भावों को व्यक्त किया है)

प्रत्येक सूर्योदय परमात्मा की ओर से एक सन्देश है .....

प्रत्येक सूर्योदय परमात्मा की ओर से एक सन्देश है .....
.
प्रत्येक सूर्योदय परमात्मा की ओर से एक सन्देश है, और प्रत्येक सूर्यास्त परमात्मा का हस्ताक्षर है| ब्रह्ममुहूर्त में जगन्माता की गोद से उठकर अपने दिन का आरम्भ परमात्मा के गहनतम ध्यान से करें| पूरे दिन परमात्मा की स्मृति बनाए रखें| जब भी समय मिले परमात्मा का ध्यान करें| रात्री को सोने से पूर्व पुनश्चः परमात्मा का गहनतम ध्यान कर के जगन्माता की गोद में ही निश्चिन्त होकर एक छोटे बालक की तरह सो जाएँ| हम बिस्तर पर नहीं, माँ भगवती की गोद में सोते हैं, सिर के नीचे कोई तकिया नहीं, माँ भगवती का वरद हस्त होता है| जिसने सारी सृष्टि का भार उठा रखा है वह हम अकिंचन की देखभाल करने में समर्थ है| सारी चिंताएँ उन्हें सौंप दें| एकमात्र कर्ता वे ही हैं|
गीता में भगवान कहते हैं ....
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||
अर्थात् "अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ||"
इस से बड़ा आश्वासन और क्या हो सकता है?
.
उन्हें हृदय के गहनतम भावों से नमन है .....
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च|
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते||११:३९||"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व|
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः||११:४०||
.
भजन .....
मैं नहीं, मेरा नहीं, यह तन किसी का है दिया।
जो भी अपने पास है, वह धन किसी का है दिया।
देने वाले ने दिया, वह भी दिया किस शान से।
"मेरा है" यह लेने वाला, कह उठा अभिमान से
"मैं", ‘मेरा’ यह कहने वाला, मन किसी का है दिया।
मैं नहीं......
जो मिला है वह हमेशा, पास रह सकता नहीं।
कब बिछुड़ जाये यह कोई, राज कह सकता नहीं।
जिन्दगानी का खिला, मधुवन किसी का है दिया।
मैं नहीं......
जग की सेवा खोज अपनी, प्रीति उनसे कीजिये।
जिन्दगी का राज है, यह जानकर जी लीजिये।
साधना की राह पर, यह साधन किसी का है दिया।
जो भी अपने पास है, वह सब किसी का है दिया।
मैं नहीं......
(प्रचलित भजन)
.
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जून २०१९