Tuesday 26 March 2024

भ्रामरी-गुफा का रहस्य ---

गुरु की आज्ञा से हम जब भ्रूमध्य पर ध्यान करते हैं, तब बंद आँखों के अंधकार के पीछे शनैः शनैः गुरुकृपा से एक दिन विद्युतप्रभा के सदृश एक ब्रहमज्योति ध्यान में प्रकट होती है। उस ब्रह्मज्योति के सर्वव्यापी प्रकाश को हम 'ज्योतिर्मय ब्रह्म' कहते हैं जिसका ध्यान किया जाता है। उसमें सारी सृष्टि समाहित होती है। उसे "कूटस्थ" कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने इस शब्द का प्रयोग श्रीमद्भगवद्गीता में अनेक बार किया है। कूटस्थ पर ध्यान करते करते आरंभ में धीरे-धीरे भ्रमर-गुंजन की सी एक ध्वनि सुनाई देने लगती है। उस ध्वनि को 'अनाहत नाद' कहते हैं, जिसे सुनते हुए गुरु-प्रदत्त बीजमंत्र का मानसिक जप करते हैं। अनाहत-नाद की ध्वनि का रूप भी हर चक्र पर पृथक-पृथक होता है। यह आध्यात्मिक साधना, गुरु की आज्ञा से गुरु के निर्देशन में ही की जाती है।

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वह प्रकाश-पुंज, भ्रमर की तरह डोलता है जिसके मध्य के स्थित बिन्दु को प्रतीकात्मक रूप से 'भ्रामरी गुफा' कहते हैं। उसमें स्वाभाविक रूप से प्रवेश करते हैं, तब बड़ी दिव्य अनुभूतियाँ और आनंद की प्राप्ति होती है। भगवान की माया भी उस समय अति सक्रिय हो जाती है। माया के दो अस्त्र होते हैं -- एक तो है आवरण, और दूसरा है विक्षेप। आवरण कहते हैं अज्ञान के उस पर्दे को जो सत्य का बोध नहीं होने देता। जब हम किसी बिन्दु पर मन को एकत्र करते हैं, तब अचानक ही कोई दूसरा विचार आकर हमें भटका देता है। उस भटकाव को जो हमें एकाग्र नहीं होने देता, विक्षेप कहते हैं। जब तक हमारे मन में किसी भी तरह का कोई लोभ और अहंकार हैं, तब तक यह माया उसी अनुपात में हमें आवरण और विक्षेप के रूप में बाधित करती रहेगी। इस से पार जाने के लिए भक्ति और समर्पण का आश्रय लेना पड़ता है। बिना भक्ति के कोई प्रगति नहीं हो सकती। यह शाश्वत नियम है जो भ्रामरी गुफा का रहस्य है।
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माया को महाठगिनी कहा गया है जो आवरण और विक्षेप के रूप में हमें ठगती रहती है। हमारे मन में जितना अधिक लोभ और अहंकार है, माया भी उसी अनुपात में हमें उतना ही दुःखी करती है। अतः भगवान की भक्ति का आश्रय लें। अपने लोभ, अहंकार और राग-द्वेष पर जिसने विजय पा ली, वह वीतराग ही वास्तव में सच्चा विजयी है। इससे भी आगे की अवस्था -- स्थितप्रज्ञता है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ मार्च २०२४

Saturday 21 January 2023

हमारा 'लोभ' और 'अहंकार' -- हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं ---

 हमारा 'लोभ' और 'अहंकार' -- हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं; हमारी 'भक्ति' और 'सत्यनिष्ठा' -- हमारे सबसे बड़े मित्र हैं --- (यह बहुत अधिक महत्वपूर्ण और गंभीर लेख है)

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जीवन में जरा सी भी आध्यात्मिक प्रगति के लिए शत-प्रतिशत अनिवार्य आवश्यकता 'भक्ति' यानि परमात्मा के प्रति परमप्रेम है --
"मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किए जोग, तप, ज्ञान विरागा।"
दूसरी आवश्यकता -- सत्यनिष्ठा (Sincerity) है।
यदि भक्ति और सत्यनिष्ठा हमारे में है, तो बाकी सारे सद्गुण हमारे में स्वतः ही आ जायेंगे।
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हम क्या सोचते हैं, और कैसे लोगों के साथ रहते हैं, इसका सबसे अधिक प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता है। जैसे लोगों के साथ रहेंगे, बिल्कुल वैसा ही हमारा चिंतन हो जाएगा, और हम वैसे ही हो जायेंगे। यही सत्संग की महिमा है।
"महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च" -- यानि महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य तथा अमोध है। इसलिए हमें सर्वदा सत्संग करना चाहिये।
संगति का असर पड़े बिना रहता नहीं है। जैसा हमारा चिंतन होता है, यानि जैसा भी हम सोचते हैं, वैसे ही बन जाते हैं।
योगसूत्रों में एक सूत्र आता है -- "वीतराग विषयं वा चित्तः"।
अर्थात् - किसी वीतराग व्यक्ति का निरंतर चिंतन हमारे चित्त को भी वीतराग (राग-द्वेष-अहंकार से परे) बना देता है।
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किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग करना चाहिए। "दुस्सङ्गः सर्वथैव त्याज्यः" -- क्योंकि कुसंग से ही काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश और अंततः सर्वनाश हो जाता है। "कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशकारणत्वात्"।
जो पतनोन्मुख है, और जो गलत लोगों का संग करता है, उसका साथ छोड़ देना चाहिए, चाहे वह स्वयं का गुरु ही क्यों ना हो।
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परमात्मा हमारे पिता हैं, तो माता भी हैं। रात्रि में परमात्मा का चिंतन करते करते उसी तरह सोयें जैसे एक छोटा बालक निश्चिंत होकर अपनी माँ की गोद में सोता है। सिर के नीचे तकिया नहीं, माँ का वरद-हस्त होना चाहिए।
दिन का आरंभ भगवान के ध्यान से करें, और पूरे दिन उन्हें अपनी स्मृति में रखें। हमारे बारे में कौन क्या कहता है, और क्या सोचता है, यह उसकी समस्या है, हमारी नहीं। इस पर थोड़ा गंभीरता से विचार करें।
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सभी को अनंत मंगलमय शुभ कामनाएँ। आप सबकी जय हो।
ॐ तत्सत्॥ 🌹🙏🕉🕉🕉🙏🌹
कृपा शंकर
६ जनवरी २०२३

भारत निश्चित रूप से विजयी होगा ---

असत्य और अंधकार की आसुरी/राक्षसी शक्तियों से सनातन-धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए हमें -- आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, मानसिक, आर्थिक, व भौतिक -- हरेक दृष्टिकोण से सशक्त व संगठित होना होगा।

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देश में जो विदेशी समाचार/प्रचार तंत्र हैं, उनसे देश को मुक्त करना पड़ेगा। राष्ट्र भक्ति का वातावरण बनाना होगा। आने वाला समय कुछ अच्छा नहीं प्रतीत हो रहा है। भगवान से भी प्रार्थना करते रहें और निज विवेक से काम लें। भारत निश्चित रूप से विजयी होगा।
वास्तव में सनातन धर्म ही भारत है, और भारत ही सनातन धर्म है।
६ जनवरी २०२३

आत्मा का धर्म है -- परमात्मा की अभीप्सा, पूर्ण प्रेम और पूर्ण समर्पण ---

 आत्मा का धर्म है -- परमात्मा की अभीप्सा, पूर्ण प्रेम और पूर्ण समर्पण।

हम ये नश्वर देह, अन्तःकरण, इंद्रियाँ, और उनकी तन्मात्राओं से परे शाश्वत आत्मा हैं। अपने स्वधर्म का पालन निरंतर करते रहें।
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यह संसार परमात्मा की रचना है। विश्व में जो कुछ भी हो रहा है, उससे विचलित न हों; और कूटस्थ-चैतन्य / ब्राह्मी-स्थिति में निरंतर रहने कि साधना करते रहें। परमात्मा भी हमारे प्रेम के भूखे/प्यासे हैं, और हमसे मिलने को तरस रहे हैं। हम कब तक उनसे प्रतीक्षा करवायेंगे?
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तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ जनवरी २०२३

पूर्ण समर्पण ---

 पूर्ण समर्पण ---

वर्तमान क्षण, आने वाले सारे क्षण, और यह सारा अवशिष्ट जीवन परमात्मा को समर्पित है। वे स्वयं ही यह जीवन जी रहे हैं। यह भौतिक, सूक्ष्म और कारण शरीर, इन के साथ जुड़ा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार), सारी कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेंद्रियाँ व उनकी तन्मात्राएँ, पृथकता का बोध, और सम्पूर्ण अस्तित्व -- परमशिव को समर्पित है। वे ही पुरुषोत्तम हैं, वे ही वासुदेव हैं, और वे ही श्रीहरिः हैं। सारे नाम-रूप और सारी महिमा उन्हीं की है। इस देह से ये सांसें भी वे ही ले रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, और इस हृदय में भी वे ही धडक रहे हैं।
सर्वत्र समान रूप से व्याप्त (वासुदेव) भगवान गीता में कहते हैं --
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
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जो सन्मार्ग के पथिक हैं, उन्हें उनके उपदेशों (गीता) का यह सार नहीं भूलना चाहिए -- (वर्तमान क्षणों में मेरी चेतना में यह पुरुषोत्तम-योग, गीता का सार है)
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥
ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
(पुरुषोत्तम-योग के उपरोक्त उपदेशों के भावार्थ व उन के अनेक भाष्यों का स्वाध्याय और निदिध्यासन इस लेख के जिज्ञासु पाठक स्वयं करेंगे)
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श्रुति भगवती यह बात बार-बार अनेक अनेक स्थानों पर कहती है --
"प्रणवो धनु: शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत॥"
भावार्थ -- प्रणव धनुष है, आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधानी पूर्वक वेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए।
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श्रुति भगवती के उपदेशों का सार उपनिषदों व गीता में है। जिस के भी हृदय में परमात्मा को पाने की अभीप्सा है, वह इनका स्वाध्याय अवश्य करेगा॥
मैंने जो कुछ भी लिखा है, वह परमात्मा से प्राप्त प्रेरणा से ही लिखा है। मेरा इसमें कुछ भी नहीं है। सारा श्रेय व सारी महिमा परमात्मा की है।
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मेरे इस भौतिक शरीर का स्वास्थ्य अधिक लिखने की अनुमति नहीं देता है। इस जीवन के जितने भी अवशिष्ट क्षण हैं, वे सब परमात्मा परमशिव को समर्पित है।
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'परमशिव' एक गहरे ध्यान में होने वाली अनुभूति है जो बुद्धि का विषय नहीं है। अपनी आत्मा में रमण ही परमात्मा का ध्यान है। भक्ति का जन्म पहले होता है। फिर सारा ज्ञान अपने आप ही प्रकट होकर भक्ति के पीछे पीछे चलता है।
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इसी तरह परा-भक्ति के साथ साथ जब सत्यनिष्ठा हो, तब भगवान का ध्यान अपने आप ही होने लगता है। जब भगवान का ध्यान होने लगता है, तब सारे यम-नियम -- भक्त के पीछे-पीछे चलते हैं। भक्त को यम-नियमों के पीछे भागने की आवश्यकता नहीं है। यम-नियम ही भगवान के भक्त से जुड़कर धन्य हो जाते हैं।
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ॐ तत्सत् !! किसको नमन करूँ? सर्वत्र तो मैं ही मैं हूँ। जहाँ मैं हूँ, वहीं भगवान हैं। जहाँ भगवान हैं, वहाँ अन्य किसी की आवश्यकता नहीं है।
कृपा शंकर
८ जनवरी २०२३

ब्राह्मण समाज के समारोहों में सर्वप्रथम और सर्वाधिक सम्मान -- "कर्मकांडी ब्राह्मणों" का होना चाहिए ---

 ब्राह्मण समाज के समारोहों में सर्वप्रथम और सर्वाधिक सम्मान -- "कर्मकांडी ब्राह्मणों" का होना चाहिए। इसके निम्न कारण हैं --

कर्मकांडी ब्राह्मण -- सनातन हिन्दू धर्म के रक्षक हैं। वे सभी धर्माचार्यों के प्रतिनिधि हैं। वे सभी का हित चाहते हैं, कभी किसी का बुरा नहीं सोचते। वे चाहते है कि सभी हिंदुओं के घरों में मंगल कार्य और शुभ अनुष्ठान हों। किसी भी मंगल कार्य करने से पूर्व हमें शुभ मुहूर्त आदि का समय ये ही बताते हैं, और सारे धार्मिक अनुष्ठान भी ये ही करवाते हैं। इन्हें दक्षिणा देने में हमें उदारता बरतनी चाहिए।

भारत में सत्य-धर्मनिष्ठ क्षत्रिय राजाओं का धर्मपरायण राज्य पुनश्च स्थापित हो ---

 मेरी पूर्ण हृदय से भगवान से प्रार्थना है कि भारत में सत्य-धर्मनिष्ठ क्षत्रिय राजाओं का धर्मपरायण राज्य पुनश्च स्थापित हो ---

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वर्तमान शासन व्यवस्था सनातन हिन्दू धर्म के विरुद्ध है। धर्मनिष्ठ क्षत्रिय राजाओं के राज्य में
(१) गोहत्या नहीं होती थी, गोसंवर्धन होता था। गोचर भूमियों पर किसी का अवैध अधिकार नहीं होता था, गायों के चरने के लिए भूमि छोड़ी जाती थी, जिनमें गायों के लिए चारे और पानी की व्यवस्था होती थी।
(२) हिन्दू मंदिरों की सरकारी लूट नहीं थी। बड़े बड़े मंदिरों के साथ -- पाठशाला, अन्नक्षेत्र, सदावर्त, गोशाला और यज्ञशाला होती थी। पाठशाला में निःशुल्क धार्मिक शिक्षा दी जाती थी। अन्नक्षेत्र में विद्यार्थियों को अन्नदान दिया जाता था। सदावर्त में विरक्त साधुओं को उनकी आवश्यकता का सामान दिया जाता था। गोशाला में गोसंवर्धन का कार्य होता था। यज्ञशाला में धार्मिक अनुष्ठान होते थे। हिन्दू मंदिरों की सरकारी लूट के साथ उपरोक्त सब बंद होगए।
(३) विद्वान तपस्वी संत-महात्माओं का संरक्षण होता था।
(४) सब को न्याय मिलता था। किसी के साथ अन्याय नहीं होता था।
(५) उच्च शिक्षा के लिए गुरुकुलों की व्यवस्था थी।
(६) वर्णाश्रम धर्म का पालन होता था।
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आलोचना करने वाले तो यों ही आलोचना करते रहेंगे। सबसे खराब कोई शासन प्रणाली, और सबसे अधिक खराब कोई सिद्धांत हो सकता है तो वह मार्क्सवाद है। यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूँ। मार्क्सवाद जब अपने चरम शिखर पर था, उस समय के सोवियत संघ, चीन, उत्तरी कोरिया, और रोमानिया में भ्रमण का व्यक्तिगत अनुभव है मुझे। विश्व में जहाँ जहाँ मार्क्सवादियों का प्रभाव था, वहाँ वहाँ विनाश ही विनाश हुआ है।
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सत्य-सनातन-धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण हो। भारत अपने द्विगुणित परम वैभव के साथ एक सत्यनिष्ठ धर्मावलम्बी राष्ट्र बने। असत्य का अंधकार दूर हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जनवरी २०२३
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