हमारा 'लोभ' और 'अहंकार' -- हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं; हमारी 'भक्ति' और 'सत्यनिष्ठा' -- हमारे सबसे बड़े मित्र हैं --- (यह बहुत अधिक महत्वपूर्ण और गंभीर लेख है)
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जीवन में जरा सी भी आध्यात्मिक प्रगति के लिए शत-प्रतिशत अनिवार्य आवश्यकता 'भक्ति' यानि परमात्मा के प्रति परमप्रेम है --
"मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किए जोग, तप, ज्ञान विरागा।"
दूसरी आवश्यकता -- सत्यनिष्ठा (Sincerity) है।
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हम क्या सोचते हैं, और कैसे लोगों के साथ रहते हैं, इसका सबसे अधिक प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता है। जैसे लोगों के साथ रहेंगे, बिल्कुल वैसा ही हमारा चिंतन हो जाएगा, और हम वैसे ही हो जायेंगे। यही सत्संग की महिमा है।
"महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च" -- यानि महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य तथा अमोध है। इसलिए हमें सर्वदा सत्संग करना चाहिये।
संगति का असर पड़े बिना रहता नहीं है। जैसा हमारा चिंतन होता है, यानि जैसा भी हम सोचते हैं, वैसे ही बन जाते हैं।
योगसूत्रों में एक सूत्र आता है -- "वीतराग विषयं वा चित्तः"।
अर्थात् - किसी वीतराग व्यक्ति का निरंतर चिंतन हमारे चित्त को भी वीतराग (राग-द्वेष-अहंकार से परे) बना देता है।
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किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग करना चाहिए। "दुस्सङ्गः सर्वथैव त्याज्यः" -- क्योंकि कुसंग से ही काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश और अंततः सर्वनाश हो जाता है। "कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशकारणत्वात्"।
जो पतनोन्मुख है, और जो गलत लोगों का संग करता है, उसका साथ छोड़ देना चाहिए, चाहे वह स्वयं का गुरु ही क्यों ना हो।
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परमात्मा हमारे पिता हैं, तो माता भी हैं। रात्रि में परमात्मा का चिंतन करते करते उसी तरह सोयें जैसे एक छोटा बालक निश्चिंत होकर अपनी माँ की गोद में सोता है। सिर के नीचे तकिया नहीं, माँ का वरद-हस्त होना चाहिए।
दिन का आरंभ भगवान के ध्यान से करें, और पूरे दिन उन्हें अपनी स्मृति में रखें। हमारे बारे में कौन क्या कहता है, और क्या सोचता है, यह उसकी समस्या है, हमारी नहीं। इस पर थोड़ा गंभीरता से विचार करें।
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सभी को अनंत मंगलमय शुभ कामनाएँ। आप सबकी जय हो।
ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
६ जनवरी २०२३
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