हमारी उपासना तेलधारा की तरह अखंड हो ---
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भक्ति के बिना तो कोई उपासना हो ही नहीं सकती| भक्ति से ही ज्ञान और वैराग्य का प्राकट्य होता है| भक्ति सूत्रों के अनुसार हमारी भक्ति वैसी ही हो, जैसी बृज की गोपिकाओं की थी (यथा व्रजगोपिकानाम्)| मेरे लिए तो भक्ति के सबसे बड़े आदर्श --- श्रीहनुमान जी और श्रीराधा जी हैं| रामचरितमानस व भागवत जैसे ग्रंथ भक्ति की ही महिमा गाते हैं| शांडिल्य व नारद भक्ति-सूत्रों में भक्ति को बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है| हमारी चेतना में भगवान की निरंतर उपस्थिती बनी रहे, और हमारा अन्तःकरण भगवान को समर्पित हो, यही उपासना का उद्देश्य है| भगवान हमारे से हमारा प्रेम ही माँगते हैं| प्रेम के अतिरिक्त हमारे पास है ही क्या? सब कुछ तो उन्हीं का दिया हुआ है| प्रकृति में कुछ भी निःशुल्क नहीं है| हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है| भगवान की प्राप्ति के लिए अपना परमप्रेम व अपना अन्तःकरण तो भगवान को समर्पित करना ही होगा| भगवान कहते हैं ---
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
""मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"
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हमारी उपासना "तेलधारा" के समान अखंड होनी चाहिए| तेल को एक पात्र से जब दूसरे में डालते हैं तब उसकी धार अखंड रहती है, बीच बीच में टूटती नहीं है, वैसी ही हमारी उपासना होनी चाहिए| योग साधकों के लिए आज्ञाचक्र ही उन का आध्यात्मिक-हृदय होता है| आज्ञाचक्र के एकदम सामने भ्रूमध्य होता है, जहाँ गुरु की आज्ञा से ध्यान करते हैं| वहाँ ध्यान करते करते गुरुकृपा से एक न एक दिन एक दिव्य ज्योति के दर्शन होने लगते हैं और अनाहत नाद की ध्वनि सुनाई देने लगती है| वह दिव्य ज्योति ही कूटस्थ है, और उसमें निरंतर स्थिति कूटस्थ-चैतन्य है| भगवान कहते हैं ---
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते| सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्||१२:३||"
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः| ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः||१२:४||"
भावार्थ :-- जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं, इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं||
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आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में 'उपासना' को 'तैलधारा' के समान बताया है| उपासना का शाब्दिक अर्थ है --- समीप बैठना| हमें अपनी चेतना में सदा भगवान के समक्ष ही बैठना चाहिए| शंकर भाष्य के अनुसार --- "उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बनाकर, उसके समीप पहुँचकर, तैलधारा के सदृश समान वृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थिर रहने को उपासना कहते हैं|"
यहाँ उन्होंने "तैलधारा" शब्द का प्रयोग किया है जो अति महत्वपूर्ण है|
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तैलधारा के सदृश समानवृत्तियों का प्रवाह क्या हो सकता है? पहले इस पर विचार करना होगा| योगियों के अनुसार ध्यान साधना में जब प्रणव यानि अनाहत नाद की ध्वनी सुनाई देती है तब वह तैलधारा के सदृश अखंड होती है| प्रयोग के लिए एक बर्तन में तेल लेकर उसे दुसरे बर्तन में डालिए| जिस तरह बिना खंडित हुए उसकी धार गिरती है, वैसे ही अनाहत नाद यानि प्रणव की ध्वनी सुनाई देती है| प्रणव को परमात्मा का वाचक यानि प्रतीक कहा गया है| यह प्रणव ही कूटस्थ अक्षर ब्रह्म है|
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समानवृत्ति का अर्थ जो मुझे समझ में आता है, वह --- श्वास-प्रश्वास और वासनाओं की चेतना से ऊपर उठना है| चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है| अतः समानवृत्ति शब्द का यही अर्थ हो सकता है|
मेरी सीमित अल्प बुद्धि के अनुसार "उपासना" का अर्थ --- हर प्रकार की चेतना से ऊपर उठकर ओंकार यानि अनाहत नाद की ध्वनी को सुनते हुए उसी में लय हो जाना है| मेरी दृष्टी में यह ओंकार ही गुरु रूप ब्रह्म है|
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उपासना का उद्देश्य उपास्य के साथ एकाकार होना है| व्यवहारिक रूप से किस व्यक्ति में कौन सा गुण प्रधान है, उस से वैसी ही उपासना होगी| मनुष्य जैसा चिंतन करता है वैसी ही उपासना करता है| तमोगुण की प्रधानता अधिक होने पर मनुष्य परस्त्री/परपुरुष व पराये धन की उपासना करता है जो उसके और भी अधिक पतन का कारण बनती है| चिंतन चाहे परमात्मा का हो या परस्त्री/पुरुष या पराये धन का, होता तो उपासना ही है| रजोगुण प्रधान व्यक्ति सांसारिक उपलब्धियों की उपासना करता है| सतोगुण प्रधान व्यक्ति परमात्मा के विभिन्न रूपों की उपासना करता है|
अंततः हमें इन तीनों गुणों से भी ऊपर उठना पड़ता है| भगवान हमें निःस्त्रेगुण्य, नित्यसत्वस्थ, निर्योगक्षेम और आत्मवान होने का आदेश देते हैं ---
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन| निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्||२:४५||"
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नारद भक्तिसूत्रों के अनुसार उपासक को सर्वदा सत्संग करना चाहिए और किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग करना चाहिए क्योंकि संगति का असर पड़े बिना रहता नहीं है| मनुष्य जैसे व्यक्ति का चिंतन करता है वैसा ही बन जाता है| महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य तथा अमोध है (महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च), लेकिन किसी भी परिस्थिति में हमें कुसंग का त्याग करना चाहिए (दुस्सङ्गः सर्वथैव त्याज्यः)| ( कुसंग) काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवा सर्वनाश का कारण है (कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशकारणत्वात्)|
जो पतनोन्मुख है, और जो गलत लोगों का संग करता है, उसका साथ छोड़ देना चाहिए, चाहे वह स्वयं का गुरु ही क्यों ना हो| कुसंग सर्वदा त्याज्य है|
योगसूत्रों में एक सूत्र आता है --- "वीतराग विषयं वा चित्तः", इस पर गंभीरता से विचार करें| किसी वीतराग व्यक्ति का निरंतर चिंतन हमारे चित्त को भी वीतराग (राग-द्वेष-अहंकार से परे) बना देता है|
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नर्क की अग्नि से भी भयावह वासना की अग्नि है| इस से बच कर ही रहना चाहिए| इसकी कल्पना भी नर्क की अग्नि में गिरा देती है| अज्ञानग्रंथि का भेदन कर अपने परम शिवत्व को व्यक्त करना ही उपासना का लक्ष्य है| जब ह्रदय में परमप्रेम उदित होता है तब भगवान किसी गुरु के माध्यम से मार्गदर्शन देते हैं| हमें भगवान को ही इस देहरूपी नौका का कर्णधार बनाना चाहिए| गीता और सारे उपनिषद ओंकार की महिमा से भरे पड़े हैं| अतः कूटस्थ अक्षरब्रह्म का ध्यान में तैलधारा के सदृश निरंतर श्रवण, और कूटस्थ ब्रह्मज्योति का निरंतर दर्शन ही उपासना है| यह कूटस्थ ही गुरुरूप ब्रह्म है, और यह कूटस्थ ही हम स्वयं हैं|
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मैंने जो लिखा है उस में कुछ गलत हो तो मनीषीगण मुझे क्षमा करें| मेरी अति अल्प और अति सीमित बुद्धि इतना ही काम करती है, इस से अधिक नहीं|
भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति, आप सब को नमन !!
ॐ गुरुभ्यो नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ दिसंबर २०२०
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पुनश्च: :---
नारद भक्तिसूत्रों के अनुसार कौन तरता व तारता है? ---
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(१) कस्तरति कस्तरति मायाम् यः सङ्गं त्यजति यो महानुभाव् सेवते निर्ममो भवति |
कौन तरता है कौन तरता है, माया से? जो सब संगों का त्याग करता है, जो महापुरुषों की सेवा करता है, जो ममता रहित होता है|
(२) यो विविक्तस्थानं सेवते यो लोकबन्धमुनमूनयति निस्त्रैगुण्यो भवति योगक्षेमं त्यजति|
जो निर्जन स्थान का सेवन करता है, लौकिक बन्धनों को तोड़ देता है, तीनों गुणों से पार हो जाता है तथा जो योग-क्षेम का त्याग कर देता है|
(जो प्राप्त न हो उसकी प्राप्ती को योग, और जो प्राप्त हो उसके संरक्षण को क्षेम कहा जाता है).
(३) यः कर्मफलं त्यजति कर्माणि सन्नयस्स्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति|
जो कर्म फल का त्याग करता है, (वह) कर्मों का भी त्याग कर देता है, तथा निर्द्वन्द्व हो जाता है|
(४) यो वेदानपि सन्नयस्यति केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते|
जो वेदों का भी त्याग कर देता है, केवल तथा अविच्छिन्न अनुराग ही रह जाता है|
(५) स तरति स तरति स लोकांस्तारयति|
वह तरता है, वह तरता है, वह इस लोक को भी तारता है|
४ दिसंबर २०२०