Wednesday, 1 October 2025

मेरी एक उलझन है जिसे मैं व्यक्त नहीं कर सकता ---

 मेरी एक उलझन है जिसे मैं व्यक्त नहीं कर सकता ---

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मेरी एक उलझन है जिसे मैं व्यक्त नहीं कर सकता इसलिए केवल आत्म-संतुष्टि के लिए ही इन पंक्तियों को लिखना आरंभ कर दिया। इस उलझन का एकमात्र कारण स्वयं का अज्ञान है। अवचेतन और अचेतन मन में छिपी हुई पूर्व जन्मों की कुछ अज्ञानमय भावनाएं, स्मृतियाँ, व आदतें जब जागृत हो जाती हैं, तब वे ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देती हैं।
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कोई बात नहीं। परमात्मा की समस्त अनंतता व विस्तार मैं ही हूँ। जब परमात्मा को समर्पित होने की भावना और संकल्प है तो इन सीमितताओं से भी ऊपर उठूँगा। इस समय मेरा लक्ष्य है -- "वीतरागता" और "स्थितप्रज्ञता"। और कुछ भी नहीं। फिर आगे केवल परमात्मा है।
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अब पीछे मुड़कर देखने को कुछ भी नहीं है। जो वीतराग और स्थितप्रज्ञ है, वह परमात्मा को उपलब्ध हो गया है। उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है। वह कृतार्थ और कृतकृत्य है। ऐसा व्यक्ति इस पृथ्वी पर मनुष्य रूप में देवता है। उसे पाकर यह पृथ्वी सनाथ और धन्य है।
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ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! शिवोहं शिवोहं !! अहं ब्रह्मास्मि !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ अक्तूबर २०२५

गोद में रखो हे माँ काली, न जाने दो मृत्यु द्वार पर .....

 गोद में रखो हे माँ काली, न जाने दो मृत्यु द्वार पर .....

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जिसको सूर्य, चन्द्र और तारागण भी प्रकाशित नहीं कर सकते, अति भयंकर रूप से कड़कड़ाती हुई तीब्र चमकती हुई बिजली की रोशनी भी नहीं, फिर अग्नि की तो बात ही क्या है? ये सब तो उसी के तेज से ही प्रकाशमान हैं|
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जिस माँ के प्रकाश से समस्त नक्षत्रमंडल और ब्रह्मांड रोशन हैं, उस माँ की महिमा के बारे में इस अकिंचन का कुछ भी लिखना, सूर्य को दीपक दिखाने का प्रयास मात्र सा है, जिसके लिए यह अकिंचन क्षमा याचना करता है| पता नहीं जिनकी देह से समस्त सृष्टि प्रकाशित है, उनका नाम "काली" क्यों रख दिया?
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सृष्टि की रचना के पीछे जो आद्यशक्ति है, जो स्वयं अदृश्य रहकर अपने लीला विलास से समस्त सृष्टि का संचालन करती हैं, समस्त अस्तित्व जो कभी था, है, और आगे भी होगा वह शक्ति माँ काली ही है| सृष्टि, स्थिति और संहार उसकी अभिव्यक्ति मात्र है| यह संहार नकारात्मक नहीं है, यह वैसे ही है जैसे एक बीज स्वयं अपना अस्तित्व खोकर एक वृक्ष को जन्म देता है|
सृष्टि में कुछ भी नष्ट नहीं होता है, मात्र रूपांतरित होता है| यह रूपांतरण ही माँ का विवेक, सौन्दर्य और करुणा है| माँ प्रेम और करुणामयी है|
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माँ के वास्तविक सौन्दर्य को तो गहन ध्यान में तुरीय चेतना में ही अनुभूत किया जा सकता है| उसकी साधना जिस साकार विग्रह रूप में की जाती है वह प्रतीकात्मक ही है|
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माँ के विग्रह में चार हाथ है| अपने दो दायें हाथों में से एक से माँ सृष्टि का निर्माण कर रही है और एक से अपने भक्तों को आशीर्वाद दे रही है| माँ के दो बाएँ हाथों में से एक में कटार है, और एक में कटा हुआ नरमुंड है जो संहार और स्थिति के प्रतीक है| ये प्रकृति के द्वंद्व और द्वैत का बोध कराते हैं|
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माँ के गले में पचास नरमुंडों कि माला है जो वर्णमाला के पचास अक्षर हैं| यह उनके ज्ञान और विवेक के प्रतीक हैं|
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माँ के लहराते हुए काले बाल माया के प्रतीक हैं| माँ के विग्रह में उनकी देह का रंग काला है क्योंकि यह प्रकाशहीन प्रकाश और अन्धकारविहीन अन्धकार का प्रतीक हैं, जो उनका स्वाभाविक काला रंग है| किसी भी रंग का ना होना काला होना है जिसमें कोई विविधता नहीं है|
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माँ की दिगंबरता दशों दिशाओं और अनंतता की प्रतीक है|
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उनकी कमर में मनुष्य के हाथ बंधे हुए हैं वे मनुष्य कि अंतहीन वासनाओं और अंतहीन जन्मों के प्रतीक हैं|
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माँ के तीन आँखें हैं जो सूर्य चन्द्र और अग्नि यानि भूत भविष्य और वर्तमान की प्रतीक हैं|
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माँ के स्तन समस्त सृष्टि का पालन करते हैं|
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उनकी लाल जिह्वा रजोगुण की प्रतीक है जो सफ़ेद दाँतों यानि सतोगुण से नियंत्रित हैं|
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उनकी लीला में एक पैर भगवान शिव के वक्षस्थल को छू रहा है जो दिखाता है कि माँ अपने प्रकृति रूप में स्वतंत्र है पर शिव यानि पुरुष को छूते ही नियंत्रित हो जाती है|
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माँ का रूप डरावना है क्योंकि वह किसी भी बुराई से समझौता नहीं करती, पर उसकी हँसी करुणा की प्रतीक है|
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माँ इतनी करुणामयी है कि उसके प्रेमसिन्धु में मेरी हिमालय सी भूलें भी कंकड़ पत्थर से अधिक नहीं है| माँ से मैंने उनके चरणों में आश्रय माँगा था तो उन्होनें अपने ह्रदय में ही स्थान दे दिया है| माँ कि यह करुणा और अनुकम्पा सब पर बनी रहे|
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जब तक मैं उनकी गोद में हूँ, तब तक ही जीवित हूँ| उनकी गोद से परे जो कुछ भी है वह मृत्यु का द्वार है| माँ, अपनी गोद में ही रखो, मृत्यु के द्वार पर मत जाने दो, अन्य कुछ भी मुझे नहीं चाहिए
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|| ॐ ॐ ॐ ||
२ अक्तूबर २०१६