Wednesday, 15 August 2018

भगवान की लीला को समझना असंभव है .....

भगवान की लीला को समझना असम्भव है| हर युग के हर कालखंड में, हर राष्ट्र, हर समाज, और हर मनुष्य के सम्मुख चुनौतियाँ रही हैं| क्या उचित है और क्या अनुचित है, इसे समझना बड़ा कठिन है| उलझनें, चुनौतियाँ और समस्याएँ मेरे सम्मुख भी हैं| वैचारिक व बौद्धिक स्तर पर मैं किसी भी निर्णय पर पहुँचने में असमर्थ हूँ|
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मुझे सुख, शांति, सुरक्षा और संतुष्टि ..... विशुद्ध आध्यात्मिक और वेदान्तिक चिंतन में ही मिलती है| यह कोई पलायन नहीं बल्कि समस्या का सही समाधान है जिसे बौद्धिक स्तर पर नहीं समझा जा सकता|
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मनुष्य को जब अपने "स्वधर्म" और "आत्म-तत्व" की अनुभूतियाँ होने लगती है तब उसे अनात्म विषयों से स्वयं को शनै शनै पृथक कर लेना चाहिये| गुरुकृपा से अब आत्म-तत्व की अनुभूतियाँ और एक प्रबल आकर्षण क्षण-प्रतिक्षण अपनी ओर आकर्षित कर रहा है|
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इस मायावी विश्व में अब अधिक दिन मेरा निभाव होना असंभव होता जा रहा है| अब धारा के विपरीत तैरना आरम्भ हो गया है| इस संसार से अब मोह समाप्त होने लगा है| इस जीवन के साथ वो ही होगा जैसी हरिइच्छा होगी| मेरी कोई इच्छा/कामना/अपेक्षा नहीं है|
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अगस्त २०१८

क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हैं? .....

क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हैं? .....
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नहीं, बिलकुल नहीं| वास्तविक स्वतन्त्रता तो परमात्मा में है| परमात्मा से पृथकता ही परतंत्रता है| परमात्मा से पृथकता का कारण है ... हमारा राग-द्वेष, अहंकार, भय और क्रोध| अन्यथा परमात्मा तो नित्यप्राप्त है| सब प्रकार की कामनाओं से मुक्त हो, स्थितप्रज्ञ होकर हम परमात्मा में स्थित हों, तभी हम वास्तव में स्वतंत्र हैं|
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जब परमात्मा के लिए "परमप्रेम" और "अभीप्सा" जागृत होती है तब मार्गदर्शन भी प्राप्त होता है| राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति वीतरागता है| हम वीतराग कैसे बनें? महर्षि पतञ्जलि कहते हैं ..... 'वीतराग विषयं वा चित्तम्' (योगसूत्र १/३७)| वीतराग पुरुषों का चिंतन कर, उन्हें चित्त में धारण कर, उनके निरंतर सत्संग से भी हम वीतराग हो जाते हैं|
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हम "स्थितप्रज्ञ" कैसे हों? यह भगवान श्रीकृष्ण गीता में बताते हैं .....

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः| वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते||२:५६||
इस श्लोक की विवेचना करते हैं .....
दुःख तीन प्रकार के होते हैं .... "आध्यात्मिक", "आधिभौतिक" और "आधिदैविक"| इन दुःखों से जिनका मन उद्विग्न यानि क्षुभित नहीं होता उसे "अनुद्विग्नमना" कहते हैं|
सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा यानि तृष्णा नष्ट हो गयी है (ईंधन डालने से जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे ही सुख के साथ साथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती) वह "विगतस्पृह" कहलाता है|
राग, द्वेष और अहंकार से मुक्ति वीतरागता है| जो वीतराग है और जिसके भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह "वीतरागभयक्रोध" कहलाता है|
ऐसे गुणोंसे युक्त जब कोई हो जाता है तब वह "स्थितधी" यानी "स्थितप्रज्ञ" और मुनि या संन्यासी कहलाता है|
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वह "स्थितप्रज्ञता" ही वास्तविक "स्वतन्त्रता" है|
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व्यवहारिक मार्गदर्शन किसी स्थितप्रज्ञ, श्रौत्रीय, ब्रह्मनिष्ठ महात्मा से प्राप्त करें| ऐसे महात्माओं से मिलना भी हरिकृपा से ही होता है| हरिकृपा प्राप्त होती है .... परमात्मा से परमप्रेम और अभीप्सा से|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अगस्त २०१८

अखंड भारत संकल्प दिवस .....

अखंड भारत संकल्प दिवस पर हम विचारपूर्वक संकल्प करते हैं कि भारत माता अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बिराजमान हों, सम्पूर्ण भारतवर्ष से असत्य और अन्धकार की शक्तियों का नाश हो, और सनातन धर्म की सर्वत्र पुनर्प्रतिष्ठा हो|
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श्रीअरविन्द के शब्दों में भारतवर्ष एक भूमि का टुकड़ा, मिटटी, पहाड़, और नदी नाले नहीं है| न ही इस देश के वासियों का सामूहिक नाम भारत है| भारतवर्ष एक जीवंत सत्ता है| भारतवर्ष हमारे लिए साक्षात माता है जो मानव रूप में भी प्रकट हो सकती है|
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भारतवर्ष का अखंड होना उसकी नियति है|
वर्तमान में भारतवर्ष के अनेक टुकड़े हो गए हैं जिनमें से सबसे बड़ा टुकड़ा India है, फिर बाकि अनेक|
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पर भारत की आत्मा एक है अतः भारत का अखंड होना निश्चित है|
भारतवर्ष दो विपरीत ध्रुवों के समन्वय का देश है| भारतीय मानस आध्यात्मिक, नीतिपरक, बौद्धिक और कलात्मक है|
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भारत का पतन इसलिए हुआ कि लोगों का जीवन अधार्मिक, अहंकारी, स्वार्थपरक और भौतिक हो गया| एक ओर अत्यधिक बाह्याचार, कर्मकांड, यंत्रवत भक्तिभावरहित पूजापाठ में हम लोग भटक गए, दूसरी ओर अत्यधिक पलायनवादी वैराग्य वृत्ति में उलझ गये, जिसने समाज की सर्वोत्तम प्रतिभाओं को अपनी ओर आकृष्ट कर लिया| जो लोग आध्यात्मिक समाज के अवलम्ब और ज्योतिर्मय जीवनदाता बन सकते थे वे समाज के लिए मृत हो गए| फिर हमें कोई सही मार्गदर्शक नहीं मिले|
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श्रीमद् भगवद्गीता हमारी राष्ट्रीय धरोहर है अतः इससे प्रेरणा लेकर हमें शक्ति की साधना और देशभक्ति की भावना बढानी चाहिए|
केवल भारत की आत्मा ही इस देश को एक कर सकती है| भारत की आत्मा को व्यक्त करने और राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने के लिए ..... हमें राष्ट्रभाषा के रूप में संस्कृत को अपनाना होगा और वन्दे मातरम को राष्ट्रगीत बनाना होगा|
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आओ हम सब दृढ़ निश्चय कर यह संकल्प करें कि भारत माँ अपने परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर बैठ रही है और अपने भीतर और बाहर के शत्रुओं का विनाश कर रही है|
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भारतवर्ष अखंड होगा, होगा, और होगा| धर्म की पुनर्स्थापना होगी और अन्धकार, असत्य व अज्ञान की शक्तियों का नाश होगा|
वन्दे मातरम| भारत माता की जय|
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वन्दे मातरम्।
सुजलां सुफलां मलय़जशीतलाम्,
शस्यश्यामलां मातरम्। वन्दे मातरम् ।।१।।

शुभ्रज्योत्स्ना पुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्,
सुखदां वरदां मातरम् । वन्दे मातरम् ।।२।।
कोटि-कोटि कण्ठ कल-कल निनाद कराले,
कोटि-कोटि भुजैर्धृत खरकरवाले,
के बॉले माँ तुमि अबले,
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीम्,
रिपुदलवारिणीं मातरम्। वन्दे मातरम् ।।३।।
तुमि विद्या तुमि धर्म,
तुमि हृदि तुमि मर्म,
त्वं हि प्राणाः शरीरे,
बाहुते तुमि माँ शक्ति,
हृदय़े तुमि माँ भक्ति,
तोमारेई प्रतिमा गड़ि मन्दिरे-मन्दिरे। वन्दे मातरम् ।।४।।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,
कमला कमलदलविहारिणी,
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्,
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्,
सुजलां सुफलां मातरम्। वन्दे मातरम् ।।५।।
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्,
धरणीं भरणीं मातरम्। वन्दे मातरम् ।।६।।
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१४ अगस्त २०१८
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पुनश्चः :--

"भारतभूमि .... आसेतु हिमालय पर्यन्त एक 'सिद्ध कन्या' ही नहीं साक्षात माता है|"
मूलाधार चक्र कन्याकुमारी' है, जहाँ का त्रिकोण शक्ति का स्त्रोत है| इसी मूलाधार से इड़ा पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियाँ प्रस्फुटित होती हैं| कैलाश पर्वत सहस्त्रार है|
ॐ अहं भारतोऽस्मि ॐ ॐ ॐ !! मैं ही भारतवर्ष हूँ, मैं ही सनातन धर्म हूँ, और समस्त सृष्टि मेरा ही विस्तार है| ॐ ॐ ॐ ||
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"मैं भारतवर्ष, समस्त भारतवर्ष हूँ, भारत-भूमि मेरा अपना शरीर है। कन्याकुमारी मेरा पाँव है, हिमालय मेरा सिर है, मेरे बालों में श्रीगंगा जी बहती हैं, मेरे सिर से सिन्धु और ब्रह्मपुत्र निकलती हैं, विन्ध्याचल मेरा कमरबन्द है, कुरुमण्डल मेरी दाहिनी और मालाबार मेरी बाईं जंघाएँ है। मैं समस्त भारतवर्ष हूँ, इसकी पूर्व और पश्चिम दिशाएँ मेरी भुजाएँ हैं, और मनुष्य जाति को आलिंगन करने के लिए मैं उन भुजाओं को सीधा फैलाता हूँ। आहा ! मेरे शरीर का ऐसा ढाँचा है ! यह सीधा खड़ा है और अनन्त आकाश की ओर दृष्टि दौड़ा रहा है। परन्तु मेरी वास्तविक आत्मा सारे भारतवर्ष की आत्मा है। जब मैं चलता हूँ तो अनुभव करता हूँ कि सारा भारतवर्ष चल रहा है। जब मैं बोलता हूँ तो मैं भान करता हूँ कि यह भारतवर्ष बोल रहा है। जब मैं श्वास लेता हूँ, तो अनुभव करता हूँ कि भारतवर्ष श्वास ले रहा है। मैं भारतवर्ष हूँ, मैं शंकर हूँ, मैं शिव हूँ और मैं सत्य हूँ|" --- स्वामी रामतीर्थ ---

१५ अगस्त के दिन राष्ट्रध्वज का पूर्ण सम्मान करें, और यह भी चिंतन करें कि हमें स्वतन्त्रता किसने दिलाई .....

१५ अगस्त के दिन राष्ट्रध्वज का पूर्ण सम्मान करें, और यह भी चिंतन करें कि हमें स्वतन्त्रता किसने दिलाई .....
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कुछ निजी कारणों से मैं १५ अगस्त का उत्सव स्थानीय श्रीअरविन्द आश्रम में ही मनाता हूँ जहाँ पढने वाले बच्चे बहुत सुन्दर भजन कीर्तन करते हैं| कल वहीं एक कार्यक्रम में गया था जहाँ बच्चों ने कार्यक्रम का आरम्भ ऋग्वेद के अग्निसूक्त के पाठ से किया| हर कार्यक्रम का समापन "वन्दे मातरं" के सामूहिक गान से होता है|
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मेरा सभी से अनुरोध है कि इस दिन राष्ट्रध्वज का पूर्ण सम्मान करें और श्रीअरविंद के उत्तरपाड़ा में दिए गए भाषण को एक बार अवश्य पढ़ें| यह भाषण मूल अंग्रेजी में और इसका हिंदी अनुवाद अंतर्जाल यानि इन्टरनेट पर उपलब्ध है| गूगल पर ढूंढ़ते ही मिल जाएगा|
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स्वतन्त्रता दिवस के बारे में मेरी कुछ व्यक्तिगत व्यथाएँ/पीड़ाएँ हैं जो आप सब से साझा कर रहा हूँ|

एक तो मुझे निश्चित रूप से यह नहीं पता कि भारत में सता का हस्तांतरण हुआ था या पूर्ण स्वतन्त्रता मिली थी|
दूसरी मेरी यह व्यथा है कि भारत को स्वतंत्रता मिली भी तो किस मूल्य पर? भारत माता की दोनों भुजाएँ पकिस्तान के रूप में काट दी गईं, लाखों परिवार विस्थापित हुए, लाखों निर्दोष लोगों की हत्याएँ हुईं, लाखों निर्दोष असहाय महिलाओं का बलात्कार हुआ, और लाखों असहाय लोगों का बलात् धर्मांतरण हुआ| क्या इन सब बातों को भुलाया जा सकता है ? यह विश्व के इतिहास का एक बहुत बड़ा सामूहिक नरसंहार था|
वे लाखों हिन्दू धन्य हैं जिन्होंने अपना सब कुछ छोड़कर शरणार्थी बनना स्वीकार किया पर अपना धर्म नहीं छोड़ा| मैं उन सब को नमन करता हूँ|
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भारत के इतिहास का एक गौरवशाली सत्य भी है जिसे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से व्यक्तिगत द्वेष और घृणा के कारण तत्कालीन शासकों ने भारत की जनता से छिपा दिया था| नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज ने जापानी सेना की सहायता से ३० दिसंबर १९४३ को भारत के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह को अंग्रेजों के अधिकार से मुक्त करा लिया था| उसी दिन यानि ३० दिसंबर १९४३ को ही पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना मैदान में नेताजी सुभाष बोस ने सर्वप्रथम तिरंगा फहराया था| नेताजी ने अंडमान व निकोबार का नाम बदल कर शहीद और स्वराज रख दिया था| स्वतंत्र भारत की घोषणा कर के स्वतंत्र भारत की सरकार भी नेता जी ने बना दी थी|
उसके पश्चात वहाँ पूरे एक वर्ष से अधिक समय तक आजाद हिन्द फौज का शासन रहा| नेताजी की संदेहास्पद तथाकथित मृत्यु के पश्चात अंग्रेजों ने आजाद हिन्द फौज से वहाँ का शासन बापस छीन लिया| अब सोचिये की हमें स्वतन्त्रता किसने दिलाई ?
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यह हमारा दुर्भाग्य है कि जिन्होंने लाखों भारतीयों की ह्त्या की उन अँगरेज़ जनरलों नील और हेवलॉक के सम्मान में रखे गए द्वीपों के नाम Neil Island और Havelock Island अभी तक वैसे के वैसे ही हैं| और भी वहाँ ऐसे कई टापू होंगे जिनके नाम अत्याचारी अँगरेज़ सेनानायकों के सम्मान में रखे गये थे| उनके नाम बदलने चाहिएँ| भारत का सबसे दक्षिणी भाग इंदिरा पॉइंट है जो ग्रेट निकोबार के दक्षिण में है| पहले इसका नाम पिग्मेलियन पॉइंट था| यहाँ का लाइट हाउस बड़ा महत्वपूर्ण है|
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भारत माता की जय ! वन्दे मातरं ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ अगस्त २०१८

चीन ने तिब्बत पर बलात् अधिकार क्यों किया ? भारत-चीन के मध्य तनाव का असली कारण क्या है ?

(संशोधित व पुनर्प्रेषित लेख).
प्रश्न :-- चीन ने तिब्बत पर बलात् अधिकार क्यों किया ? भारत-चीन के मध्य तनाव का असली कारण क्या है ?
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चीन ने तिब्बत पर अधिकार किया इसके पीछे उसकी भू लिप्सा नहीं, कारण कुछ और है| चीन के अपने उन सभी पड़ोसियों से जिनसे उसका विवाद है, का कारण भी भूमि का लालच नहीं, कारण कुछ और है| चीन ने बंगाल की खाड़ी में म्यान्मार (बर्मा) से कोको द्वीप लीज पर क्यों लिया उसके भी कारण हैं| भारत को घेरने की नीति चीन ने क्यों बनाई ? इसके पीछे भी कारण हैं|
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इस बात को माओ बहुत अच्छी तरह समझता था, पर जवाहलाल नेहरु नहीं समझ पाये| माओ ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया, अक्सा चान (अक्साई चिन) भारत से छीन लिया| भारत का नेतृत्व इस बात को बहुत देरी से समझा, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी| यदि जवाहरलाल नेहरु इस बात को समय पर समझ जाते तो तिब्बत पर कभी भी चीन का अधिकार नहीं होने देते| बहुत देरी से समझे तो बिना किसी तैयारी के १९६२ में चीन से युद्ध आरम्भ कर दिया, जिसमें हम बहुत बुरी तरह हारे| चीन से १९६२ का युद्ध हमने ही शुरू किया था बिना किसी तैयारी के| दक्षिणी चीन सागर को लेकर चीन का अन्य पड़ोसी देशों से विवाद क्यों है ? इसका भी कारण है|
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उत्तर :-- चीन ने तिब्बत पर अधिकार किया इसका असली कारण है वहाँ की अथाह जल राशि, और भूगर्भीय संपदा है, जिसका अभी तक दोहन नहीं हुआ है| तिब्बत में कई ग्लेशियर हैं और कई विशाल झीलें हैं| भारत की तीन विशाल नदियाँ ..... ब्रह्मपुत्र, सतलज, और सिन्धु ..... तिब्बत से आती हैं| गंगा में आकर मिलने वाली कई छोटी नदियाँ भी तिब्बत से आती हैं| चीन इस विशाल जल संपदा पर अपना अधिकार रखना चाहता है इसलिए उसने तिब्बत पर अधिकार कर लिया| हो सकता है भविष्य में वह इस जल धारा का प्रवाह चीन की ओर मोड़ दे| इस से भारत में तो हाहाकार मच जाएगा पर चीन का एक बहुत बड़ा क्षेत्र हरा भरा हो जाएगा|
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चीन का सीमा विवाद उन्हीं पड़ोसियों से रहा है जहाँ सीमा पर कोई नदी है, अन्यथा नहीं|
रूस से उसका सीमा विवाद उसूरी और आमूर नदियों के जल पर था| ये नदियाँ अपना मार्ग बदलती रहती हैं, कभी चीन में कभी रूस में| उन पर नियंत्रण को लेकर दोनों देशों की सेनाओं में एक बार झड़प भी हुई थी| अब तो दोनों में समझौता हो गया है और कोई विवाद नहीं है|
वियतनाम में चीन से युआन नदी आती है जिस पर हुए विवाद के कारण चीन और वियतनाम में सैनिक युद्ध भी हुआ है| उसके बाद समझौता हो गया था|
चीन को पता था कि भारत से एक न एक दिन उसका युद्ध अवश्य होगा अतः उसने भारत को घेरना शुरू कर दिया| बंगाल की खाड़ी में कोको द्वीप इसी लिए उसने म्यांमार से लीज पर लिया|
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भारत को तिब्बत पर अपना अधिकार नहीं छोड़ना चाहिए था| अंग्रेजों का वहाँ अप्रत्यक्ष अधिकार था| आजादी के बाद भारत ने भारत-तिब्बत सीमा पर कभी भौगोलिक सर्वे का काम भी नहीं किया जो बहुत पहिले कर लेना चाहिए था| बिना तैयारी के चीन से युद्ध भी नहीं करना चाहिए था| जब युद्ध ही किया तो वायु सेना का प्रयोग क्यों नहीं किया? चीन की तो कोई वायुसेना तिब्बत में थी ही नहीं|
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भारत-चीन में सदा तनाव बना रहे इस लिए अमेरिका की CIA ने भारत में दलाई लामा को घुसा दिया| वर्त्तमान में तनाव तो दलाई लामा को लेकर ही है| दलाई लामा चीन की दुखती रग है| दलाई लामा आदतन बछड़े का मांस खाते हैं| सारे तिब्बती गाय का और सूअर का मांस खाते हैं| सनातन हिन्दू धर्म से उनका कोई लेना देना नहीं है|
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चीन भारत से लड़ाई इसलिए नहीं कर रहा है क्योंकि भारत से व्यापार में उसे बहुत अधिक लाभ हो रहा है| वह भारत से व्यापार बंद नहीं करना चाहता| भारत भी अपनी आवश्यकता के बहुत सारे सामानों के लिए चीन पर निर्भर है| भारत-चीन के बीच असली लड़ाई तो पानी की लड़ाई है| पीने के पानी की दुनिया में दिन प्रतिदिन कमी होती जा रही है| भारत और चीन में युद्ध होगा तो वह पानी के लिए ही होगा|
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दक्षिणी चीन सागर में उसका अन्य देशों से विवाद भूगर्भीय तेल संपदा के कारण है जो वहाँ प्रचुर मात्रा में है| अन्य कोई कारण नहीं है|
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धन्यवाद ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१३ अगस्त २०१८
(मूल लेख दो भागों में एक वर्ष पूर्व पोस्ट किये थे)

हर दृश्य एक ऊर्जाखंड, और विभिन्न आवृतियों पर स्पन्दन मात्र हैं .....

ध्यान साधना में धीरे धीरे हर दृश्य के पीछे सिर्फ .... (१) ऊर्जा (Energy), (२) आवृति (Frequency), और (३) स्पंदन (Vibration) की ही अनुभूतियाँ होने लगती हैं| जो दिखाई दे रहा है वह सत्य नहीं है, जो सत्य है वह दिखाई नहीं दे रहा है|

यह शरीर रूपी वाहन जो भगवान ने लोकयात्रा के लिए दिया है, वह अलग अलग आवृतियों पर हो रहा ऊर्जा का एक स्पंदन मात्र ही है| सारी भौतिक सृष्टि ही ऊर्जा का अलग अलग आवृतियों पर स्पंदन है| इसके पीछे एक चेतना है, और उस चेतना के पीछे एक विचार है| वह विचार “एकोहं बहुस्याम” ही परमात्मा का संकल्प है| हम यह देह नहीं परमात्मा का एक संकल्प, और परमात्मा के साथ एक हैं| ॐ ॐ ॐ !!

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ अगस्त २०१८

परमात्मा से पृथकता का बोध ही मेरी एकमात्र पीड़ा है .....

परमात्मा से पृथकता का बोध ही मेरी एकमात्र पीड़ा है, वही एकमात्र दुःख है| अन्य कोई कारण नहीं है|
परमात्मा से एकत्व का बोध ही मेरा आनंद है, वही एकमात्र सुख है| अन्य कहीं भी कोई सुख या आनंद नहीं मिलता|
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गहरे ध्यान में ही मुझे परमात्मा का बोध होता है, वही मेरा एकमात्र मनोरंजन है| जब कभी विक्षेप हो जाता है और परमात्मा की चेतना नहीं रहती तब जीने की इच्छा ही समाप्त हो जाती है| परमात्मा ही मेरा जीवन है|
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परमात्मा की अखण्डता, अनंतता और पूर्णता पर ध्यान से ही चैतन्य में आत्मस्वरूप की अनुभूति होती है| उस आत्मानुभव की निरंतरता ही मुक्ति है, वही जीवन है और उससे अन्यत्र सब कुछ मृत्यु है|
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आत्मानुभव ही दिव्य विलक्षण आनंद है| एक बार उस आनंद की अनुभूति हो जाने के पश्चात उस से वियोग ही सबसे बड़ी पीड़ा और मृत्यु है| उस आत्मानुभव का स्वभाव हो जाना ही हमारे मनुष्य जीवन की सार्थकता है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अगस्त २०१८

कूटस्थ चैतन्य और भ्रामरी गुफा .......

कूटस्थ चैतन्य और भ्रामरी गुफा .....
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जिन साधकों को कूटस्थ ज्योति यानि ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन होते हैं उन्हें भ्रामरी गुफा (गुहा) में प्रवेश कर उसे पार करना ही पड़ता है, और विक्षेप व आवरण की मायावी शक्तियों को परास्त भी करना पड़ता है| तभी उनकी स्थाई स्थिति कूटस्थ चैतन्य में होती है|
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कूटस्थ में दिखाई देने वाला पञ्चकोणीय श्वेत नक्षत्र पञ्चमुखी महादेव का प्रतीक है| यह एक नीले और स्वर्णिम आवरण से घिरा हुआ दिखाई देता है, जिसके चैतन्य में स्थित होकर साधक की देह शिवदेह हो जाती है और वह जीव से शिव भी हो सकता है| इस श्वेत नक्षत्र की विराटता ही क्षीरसागर है जिसका भेदन और जिसके परे की स्थिति योग मार्ग की उच्चतम साधना और उच्चतम उपलब्धि है| इसका ज्ञान भगवान की परम कृपा से किसी सद्गुरु के माध्यम से ही होता है|
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में संभव हो तो ठीक है अन्यथा जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करते रहें|
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समय आने पर हरिकृपा से विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी| उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है जिसमें स्थिति ही योगमार्ग की उच्चतम उपलब्धी है|
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आज्ञाचक्र ही योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होता है, वह स्थान कूटस्थ बिंदु है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष के ऊपर खोपड़ी के मध्य में पीछे की ओर है| यही जीवात्मा का निवास है|
फिर गुरुकृपा से धीरे धीरे सहस्त्रार में स्थिति हो जाती है| एक उन्नत साधक की चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य ही रहती है|
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कुसंग का त्याग और यम-नियमों का पालन अनिवार्य है अन्यथा तुरंत पतन हो जाता है|
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जब ब्रह्मज्योति प्रकट होती है तब आरम्भ में उसके मध्य में ज्योतिर्मय किरणों से घिरा एक काला बिंदु दिखाई देता है, यही भ्रामरी गुफा है| यह अमृतमय मधु से भरी होती है| इसको पार करने के पश्चात् ही एक स्वर्णिम और फिर एक नीली प्रकाशमय सुरंग को भी पार करने पर साधक को श्वेत पञ्चकोणीय नक्षत्र के दर्शन होते हैं|
जब इस ज्योति पर साधक ध्यान करता है तब कई बार वह ज्योति लुप्त हो जाती है, यह 'आवरण' की मायावी शक्ति है जो एक बहुत बड़ी बाधा है|
इस ज्योति पर ध्यान करते समय 'विक्षेप' की मायावी शक्ति ध्यान को छितरा देती है|
इन दोनों मायावी शक्तियों पर विजय पाना साधक के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है|
ब्रह्मचर्य, सात्विक भोजन, सतत साधना और गुरुकृपा से एक आतंरिक शक्ति उत्पन्न होती है जो आवरण और विक्षेप की शक्तियों को कमजोर बना कर साधक को इस भ्रामरी गुफा से पार करा देती है|
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आवरण और विक्षेप का प्रभाव समाप्त होते ही साधक को धर्मतत्व का ज्ञान होता है| यहाँ आकर कर्ताभाव समाप्त हो जाता है और साधक धीरे धीरे परमात्मा की ओर अग्रसर होने लगता है|
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हम सब को परमात्मा की पराभक्ति प्राप्त हो और हम सब उसके प्रेम में निरंतर मग्न रहें इसी शुभ कामना के साथ इस लेख को विराम देता हूँ|
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शिवमस्तु ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अगस्त २०१५

कांवड़ यात्रा का मेरा अनुभव ....

शिवभक्त कांवड़ियों को धूर्त मीडिया द्वारा "गुंडा" कहने का मैं विरोध करता हूँ| ये शिवभक्त कांवडिये अपनी आस्था से पवित्र जल लेकर बीस बीस किलोमीटर नित्य पैदल चलते हैं अपने इष्ट देव की आराधना के लिए| यह उनकी साधना है| कांवड़ के गिर जाने पर उनकी सम्पूर्ण यात्रा का अभीष्ट ही समाप्त हो जाता है|
कांवड़ियों की भीड़ में जानबुझ कर कार घुसा कर उनकी जान जोखिम में डालना, उनका जल गिरा देना, और उन पर चिल्लाना व बदनाम करना धूर्तता नहीं तो क्या है ?
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कांवड़ यात्रा का मेरा अनुभव ..... मैंने २००१, २००३ व २००५ में कुल तीन बार अपने कुछ मित्रों के आग्रह पर उन के साथ साथ बिहार में सुल्तानगंज से झारखंड में बाबाधाम तक की १०२ किलो मीटर की कांवड़ यात्रा की है| हम लोग नित्य प्रातः दो बजे उठने के बाद स्नान, पूजा आदि कर के कंधे पर कांवड़ लेकर २० किलोमीटर पैदल चलते थे| यह एक बहुत ही सुखद अनुभव था| फिर बाबाधाम पहुँच कर घंटों तक पंक्ति में खड़े होना बड़ा कष्टप्रद होता था, इसलिए मैनें वहाँ जाना बंद कर दिया| पर मेरे कई परिचित व मित्र हैं जो नियम से हर वर्ष बाबाधाम की कावड़ यात्रा में जाते हैं|
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अब तो घर पर ही एक बाणलिंग की स्थापना कर रखी है| अतः पूजा के लिए कहीं बाहर नहीं जाता|
कृपा शंकर
९ अगस्त २०१८