Thursday, 18 August 2016

महर्षि अरविन्द का उत्तरपाड़ा भाषण .......

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(श्रीअरविन्द का यह भाषण --- सर्वश्रेष्ठ लेख है जो मैंने अपने पूरे जीवनकाल में पढ़ा है)
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महर्षि अरविन्द का उत्तरपाड़ा भाषण
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सनातन धर्म ही राष्ट्रीयता है- (१)
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(अलीपुर जेल से छूटने के बाद श्रीअरविंद का पहला महत्त्वपूर्ण भाषण उत्तरपाड़ा में हुआ था। 'धर्म रक्षिणी सभा' के वार्षिक अधिवेशन में १९०१ के दिन यह उद्बोधन हुआ था। इसमें उन्होंने अपने जेल-जीवन का आध्यात्मिक अनुभव सुनाया और साथ ही देश को सच्ची राष्ट्रीयता का संदेश दिया। इसमें उन्होंने बताया है कि सच्चा हिंदू धर्म, सच्चा सनातन धर्म क्या है और आज के संसार को उसकी क्यों जरूरत है। उनका यह भाषण उनके जीवन में एक नये मोड़ का परिचय देता है। इस भाषण को सौ वर्ष से अधिक पूरे हो गये हैं)
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जब मुझे आपकी सभा के इस वार्षिक अधिवेशन में बोलने के लिये कहा गया, तो मैंने यही सोचा था कि आज के लिये जो विषय चुना गया है उसी पर, अर्थात् हिंदू धर्म पर कुछ कहूंगा। मैं नहीं जानता कि उस इच्छा को मैं पूरा कर सकूंगा या नहीं, क्योंकि जैसे ही मैं यहां आकर बैठा, मेरे मन में एक संदेश आया और यह संदेश आपको और सारे भारत राष्ट्र को सुनाना है। यह वाणी मुझे पहले-पहल जेल में सुनायी दी थी और उसे अपने देशवासियों को सुनाने के लिये मैं जेल से बाहर आया हूं।
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पिछली बार जब में यहां आया था उसे एक वर्ष से ऊपर हो चुका है। उस बार मैं अकेला न था, तब मेरे साथ ही बैठे थे राष्ट्रीयता के एक परम शक्तिमान् दूत। उन दिनों वे उस एकांतवास से लौटकर आये थे जहां उन्हें भगवान् ने इसलिये भेजा था कि वे अपनी कालकोठरी की शांति और निर्जनता में उस वाणी को सुन सकें जो उन्हें सुनानी थी। उस समय आप सैंकड़ों की संख्या में उन्हीं का स्वागत करने आये थे। आज वे हमसे बहुत दूर हैं, वे हमसे हजारों मील के फासले पर हैं। दूसरे लोग भी, जिन्हें मैं अपने साथ काम करते हुए पाता था, आज अनुपस्थित हैं। देश पर जो तूफान आया था उसने उन्हें दूर-दूर बिखेर दिया है। इस बार एक वर्ष का समय निर्जनवास में बिताकर आया हूं और अब बाहर आकर देखता हूं कि सब कुछ बदल गया है। जो सदा मेरे साथ बैठते थे, जो सदा मेरे काम में सहयोग दिया करते थे, आज बर्मा में कैद हैं, दूसरे उत्तर में नजरबंद होकर सड़ रहे हैं। जब मैं बाहर आया तो मैंने अपने चारों ओर देखा, जिनसे सलाह और प्रेरणा पाने का अभ्यास था उन्हें खोजा। वे मुझे नहीं मिले। इतना ही नहीं, जब मैं जेल गया था तो सारा देश वंदेमातरम् की ध्वनि से गूंज रहा था, वह एक राष्ट्र बनने की आशा से जीवंत था। यह उन करोड़ों मनुष्यों की आशा थी जो गिरी हुई दशा से अभी-अभी ऊपर उठे थे। जब मैं जेल से बाहर आया तो मैंने इस ध्वनि को सुनने की कोशिश की, किंतु इसके स्थान पर निस्तब्धता थी। देश में सन्नाटा था और लोग हक्के-बक्के से दिखायी दिये, क्योंकि जहां पहले हमारे सामने भविष्य की कल्पना से भरा ईश्वर का उज्ज्वल स्वर्ग था वहां हमारे सिर पर धूसर आकाश दिखायी दिया जिससे मानवीय वज्र और बिजली की वर्षा हो रही थी। किसी को यह न दिखायी देता था कि किस ओर चलना चाहिये, चारों ओर से यही प्रश्न उठ रहा था ''अब क्या करें? हम क्या कर सकते हैं? मुझे भी पता न था कि अब क्या किया जा सकता है। लेकिन एक बात मैं जानता था, ईश्वर की जिस महान् शक्ति ने उस ध्वनि को जगाया था, उस आशा का संचार किया था उसी शक्ति ने यह सन्नाटा भेजा है। जो ईश्वर उस कोलाहल और आंदोलन में थे, वे ही इस विश्राम और निस्तब्धता में भी हैं। ईश्वर ने इसे भेजा है ताकि राष्ट्र क्षणभर के लिये रुककर अपने अंदर खोजे और जाने कि उनकी इच्छा क्या है। इस निस्तब्धता से मैं निरुत्साहित नहीं हुआ हूं, क्योंकि कारागार में इस निस्तब्धता के साथ मेरा परिचय हो चुका है और मैं जानता हूं कि मैंने एक वर्ष की लंबी कैद के विश्राम और निस्तब्धता में ही यह पाठ पढ़ा है। जब विपिनचंद्र पाल जेल से बाहर आये तो वह एक संदेश लेकर आये थे और वह प्रेरणा से मिला हुआ संदेश था। उन्होंने यहां जो वक्तृता दी थी वह मुझे याद है। उस वक्तृता का मर्म और अभिप्राय उतना राजनीतिक नहीं था जितना धार्मिक था। उन्होंने उस समय जेल के अंदर मिली हुई अनुभूति की, हम सबके अंदर जो भगवान् हैं, राष्ट्र के अंदर जो परमेश्वर हैं उनकी बात की थी। अपने बाद के व्याख्यानों में भी उन्होंने कहा था कि इस आंदोलन में जो शक्ति काम कर रही है वह सामान्य शक्ति की अपेक्षा महान् है और इसका हेतु भी साधारण हेतु से कहीं बढ़ कर है। आज मैं भी आपसे फिर मिल रहा हूं, मैं भी जेल से बाहर आया हूं और इस बार भी आप ही, इस उत्तरपाड़ा के निवासी ही, मेरा सबसे पहले स्वागत कर रहे हैं। किसी राजनीतिक सभा में नहीं, बल्कि उस समिति की सभा में जिसका उद्देश्य है धर्म की रक्षा। जो संदेश विपिनचंद्र पाल ने बक्सर जेल में पाया था, वही भगवान् ने मुझे अलीपुर में दिया। वह ज्ञान भगवान् नेे मुझे बारह महीने के कारावास में दिन-प्रतिदिन दिया और आदेश दिया है कि अब जब मैं जेल से बाहर आ गया हूं तो आपसे उसकी बात करूं ।
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मैं जानता था कि मैं जेल से बाहर निकल आऊंगा। यह वर्षभर की नजरबंदी केवल एक वर्ष के एकांतवास और प्रशिक्षण के लिये थी। भला किसी के लिये यह कैसे संभव होता कि वह मुझे जेल में उतने दिनों से अधिक रोक रखता जितने दिन भगवान् का हेतु सिद्ध करने के लिये आवश्यक थे? भगवान् ने कहने के लिये एक संदेश दिया है और करने के लिये एक काम। मैं यह जानता था कि जब तक यह संदेश सुना नहीं दिया जाता तब तक कोई मानव शक्ति मुझे चुप नहीं कर सकती, जब तक वह काम नहीं हो जाता तब तक कोई मानव शक्ति भगवान् के यंत्र को रोक नहीं सकती, फिर वह यंत्र चाहे कितना ही दुर्बल, कितना ही कमजोर क्यों न हो। अब जब कि मैं बाहर आ गया हूं, इन चंद मिनटों में ही मुझे एक ऐसी वाणी सुझायी गयी है जिसे व्यक्त करने कीे मेरी कोई इच्छा न थी। मेरे मन में जो कु छ था उसे भगवान् ने निकालकर फेंक दिया है और मैं जो कुछ बोल रहा हूं वह एक प्रेरणा के वश होकर, बाध्य होकर बोल रहा हूं।
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जब मुझे गिरफ्तार करके जल्दी-जल्दी लालबाजार की हवालात में पहुंचाया गया तो मेरी श्रद्धा क्षणभर के लिये डिग गयी थी, क्योंकि उस समय मैं भगवान् की इच्छा के मर्म को नहीं जान पाया था। इसलिये मैं क्षणभर के लिये विचलित हो गया और अपने हृदय में भगवान् को पुकारकर कहने लगा, ''यह क्या हुआ? मेरा यह विश्वास था कि मुझे अपने देशवासियों के लिये कोई विशेष काम करना है और जब तक वह काम पूरा नहीं हो जाता तबतक तुम मेरी रक्षा करोगे। तब फिर मैं यहां क्यों हूं और वह भी इस प्रकार के अभियोग में? एक दिन बीता, दो दिन बीते, तीन दिन बीत गये, तब मेरे अंदर से एक आवाज आयी, ''ठहरो और देखो कि क्या होता है। तब मैं शांत हो गया और प्रतीक्षा करने लगा। मैं लाल बाजार थाने से अलीपुर जेल में ले जाया गया और वहां मुझे एक महीने के लिये मनुष्यों से दूर एक निर्जन कालकोठरी में रखा गया। वहां मैं अपने अंदर विद्यमान भगवान् की वाणी सुनने के लिये, यह जानने के लिये कि वे मुझसे क्या कहना चाहते हैं और यह सीखने के लिये कि मुझे क्या करना होगा, रात-दिन प्रतीक्षा करने लगा।
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इस एकांतवास में मुझे सबसे पहली अनुभूति हुई, पहली शिक्षा मिली। उस समय मुझे याद आया कि गिरफ्तारी से एक महीना या उससे भी कुछ अधिक पहले मुझे यह आदेश मिला था कि मैं अपने सारे कर्म छोड़कर एकांत में चला जाऊं और अपने अंदर खोज करूं ताकि भगवान् के साथ अधिक संपर्क में आ सकूं । मैं दुर्बल था और उस आदेश को स्वीकार न कर सका। मुझे अपना कार्य बहुत प्रिय था और हृदय में इस बात का अभिमान था कि यदि मैं न रहूं तो इस काम को धक्का पहुंचेगा, इतना ही नहीं शायद असफल और बंद भी हो जायेगा, इसलिये मुझे काम नहीं छोडऩा चाहिये। लेकिन मुझे ऐसा बोध हुआ कि वे मुझसे फिर बोले और उन्होंने कहा कि, ''जिन बंधनों को तोडऩे की शक्ति तुममें नहीं थी उन्हें तुम्हारे लिये मैंने तोड़ दिया है क्योंकि मेरी यह इच्छा नहीं है और न थी ही कि वे कार्य जारी रहें। तुम्हारे करने के लिये मैंने दूसरा काम चुना है और उसी के लिये मैं तुम्हें यहां लाया हूं ताकि मैं तुम्हें वह बात सिखा दूं जिसे तुम स्वयं नहीं सीख सके और तुम्हें अपने काम के लिये तैयार कर लूं। इसके बाद भगवान् ने मेरे हाथों में गीता रख दी। मेरे अंदर उनकी शक्ति प्रवेश कर गयी और मैं गीता की साधना करने में समर्थ हुआ। मुझे केवल बुद्धि द्वारा ही नहीं, बल्कि अनुभूति द्वारा यह जानना पड़ा कि श्री कृष्ण की अर्जुन से क्या मांग थी और वे उन लोगों से क्या मांगते हैं जो उनका कार्य करने की इच्छा रखते हैं, अर्थात् घृणा और कामना-वासना से मुक्त होना होगा, फल की इच्छा न रखकर भगवान् के लिये कर्म करना होगा, अपनी इच्छा का त्याग करना होगा और निश्चेष्ट तथा सच्चा यंत्र बनकर भगवान् के हाथों में रहना होगा, ऊंच और नीच, मित्र और शत्रु, सफलता और विफलता के प्रति समदृष्टि रखनी होगी और यह सब होते हुए भी उनके कार्य में कोई अवहेलना न आने पाये।
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मैंने यह जाना कि हिंदू धर्म का मतलब क्या है। बहुधा हम हिंदू धर्म, सनातन धर्म की बातें करते हैं, किंतु वास्तव में हममें से कम ही लोग यह जानते हैं कि यह धर्म क्या है। दूसरे धर्म मुख्य रूप से विश्वास, व्रत, दीक्षा और मान्यता को महत्त्व देते हैं, किंतु सनातन धर्म तो स्वयं जीवन है, यह इतनी विश्वास करने की चीज नहीं है जितनी जीवन में उतारने की चीज है। यही वह धर्म है जिसका लालन-पालन मानव-जाति के कल्याण के लिये प्राचीन काल से इस प्रायद्वीप के एकांतवास में होता आ रहा है। यही धर्म देने के लिये भारत उठ रहा है। भारतवर्ष, दूसरे देशों की तरह, अपने लिये ही या मजबूत होकर दूसरों को कुचलने के लिये नहीं उठ रहा। वह उठ रहा है सारे संसार पर वह सनातन ज्योति डालने के लिये जो उसे सौंपी गयी है। भारत का जीवन सदा ही मानव-जाति के लिये रहा है, उसे अपने लिये नहीं बल्कि मानव जाति के लिये महान् होना है।
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अत: भगवान् ने मुझे दूसरी वस्तु दिखायी-उन्होंने मुझे हिंदू धर्म के मूल सत्य का साक्षात्कार करा दिया। उन्होंने मेरे जेलरों के दिल को मेरी ओर मोड़ दिया, उन्होंने जेल के प्रधान अंग्रेज अधिकारी से कहा कि ''ये कालकोठरी में बहुत कष्ट पा रहे हैं, इन्हें कम-से-कम सुबह-शाम आध-आध घंटा कोठरी के बाहर टहलने की आज्ञा दे दी जाये। यह आज्ञा मिल गयी और जब मैं टहल रहा था तो भगवान् की शक्ति ने फिर मेरे अंदर प्रवेश किया। मैंने उस जेल की ओर दृष्टि डाली तो ऊंची दीवारों के अंदर बंद नहीं हूं, मुझे घेरे हुए थे वासुदेव। मैं अपनी कालकोठरी के सामने के पेड़ की शाखाओं के नीचे टहल रखा था, परंतु वहां पेड़ न था, मुझे प्रतीत हुआ कि वह वासुदेव हैं, मैंने देखा कि स्वयं श्री कृष्ण खड़े हैं और मेरे ऊपर अपनी छाया किये हुए हैं।
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मैंने अपनी कालकोठरी के सींखचों की ओर देखा, उस जाली की ओर देखा जो दरवाजे का काम कर रही थी, वहाँ भी वासुदेव दिखायी दिये। स्वयं नारायण संतरी बनकर पहरा दे रहे थे। जब मैं उन मोटे कंबलों पर लेटा जो मुझे पलंग की जगह मिले थे तो मैंने यह अनुभव किया कि मेरे सखा और प्रेमी श्री कृष्ण मुझे अपनी बाहुओं में लिये हुए हैं। मुझे उन्होंने जो गहरी दृष्टि दी थी उसका यह पहला प्रयोग था। मैंने जेल के कैदियों-चोरों, हत्यारों और बदमाशों को देखा और मुझे वासुदेव दिखायी पड़े, उन अंधेरे में पड़ी आत्माओं और बुरी तरह काम में लाये गये शरीरों में मुझे नारायण मिले। उन चोरों और डाकुओं में बहुत से ऐसे थे जिन्होंने अपनी सहानुभूति और दया के द्वारा मुझे लज्जित कर दिया, इस विपरीत परिस्थिति में मानवता विजयी हुई थी। इनमें से एक आदमी को मैंने विशेष रूप से देखा जो मुझे एक संत मालूम हुआ। वह हमारे देश का एक किसान था जो लिखना-पढऩा नहीं जानता था, जिसे डकैती के अभियोग में दस वर्ष का कठोर दंड मिला था। यह उनमें से एक व्यक्ति था जिन्हें हम वर्ग के मिथ्याभिमान में आकर 'छोटो लोक' (नीच) कहा करते हैं। फिर एक बार भगवान् मुझसे बोले, उन्होंने कहा 'अपना कुछ थोड़ा-सा काम करने के लिये मैंने तुम्हें जिनके बीच भेजा है उन लोगों को देखो। जिस जाति को मैं ऊपर उठा रहा हूँ उसका स्वरूप यही है और इसी कारण मैं उसे ऊपर उठा रहा हूँ।
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जब छोटी अदालत में मुकदमा शुरू हुआ और हम लोग मजिस्ट्रेट के सामने खड़े किये गये तो वहाँ भी मेरी अंतदृष्टि मेरे साथ थी। भगवान् ने मुझसे कहा, 'जब तुम जेल में डाले गये थे तो क्या तुम्हारे हृदय हताश नहीं हुआ था, क्या तुमने मुझे पुकारकर यह नहीं कहा था, कहाँ, तुम्हारी रक्षा कहां है? लो, अब मजिस्ट्रेट की ओर देखो, सरकारी वकील की ओर देखो। मैंने देखा कि अदालत की कुर्सी पर मजिस्ट्रेट नहीं, स्वयं वासुदेव नारायण बैठ थे। अब मैंने सरकारी वकील की ओर देखा पर वहां कोई सरकारी वकील नहीं दिखायी दिया, वहाँ तो श्री कृष्ण बैठे थे, मेरे सखा, मेरे प्रेमी वहाँ बैठे मुस्करा रहे थे। उन्होंने कहा, 'अब डरते हो? मैं सभी मनुष्यों में विद्यमान हूँ और उनके सभी कर्मों और शब्दों पर राज करता हूँ। मेरा संरक्षण अब भी तुम्हारे साथ है और तुम्हें डरना नहीं चाहिये। तुम्हारे विरुद्ध जो यह मुकदमा चलाया गया है उसे मेरे हाथों में सौंप दो। यह तुम्हारे लिये नहीं है। मैं तुम्हें यहाँ मुकदमें के लिये नहीं बल्कि किसी और काम के लिये लाया हूँ। यह तो मेरे काम का साधनमात्र है, इससे अधिक कुछ नहीं। इसके बाद जब सेशन जज की अदालत में विचार आरंभ हुआ तो मैं अपने वकील के लिये ऐसी बहुत-सी हिदायतें लिखने लगा कि गवाही में मेरे विरुद्ध कही गयी बातों में से कौन-सी बातें गलत हैं और किन-किन पर गवाहों से जिरह की जा सकती है। तब एक ऐसी घटना घटी जिसकी मैं आशा नहीं करता था। मेरे मुकदमें की पैरवी के लिये जो प्रबंध किया गया था वह एकाएक बदल गया और मेरी सफाई के लिये एक दूसरे ही वकील खड़े हुए। वे अप्रत्याशित रूप से आ गये- वे मेरे एक मित्र थे, किन्तु मैं नहीं जानता था कि वे आयेंगे। आप सभी ने उनका नाम सुना है, जिन्होंने मन से सभी विचार निकाल बाहर किये और इस मुकदमें के सिवा सारी वकालत बंद कर दी, जिन्होंने महीनों लगातार आधी-आधी रात तक जगकर मुझे बचाने के लिये अपना स्वास्थ्य बिगाड़ लिया- वे हैं श्री चित्तरंजन दास। जब मैंने उन्हें देखा तो मुझे संतोष हुआ, फिर भी मैं समझता था कि हिदायत लिखना जरूरी है। इसके बाद यह विचार हटा दिया गया और मेरे अंदर से आवाज आयी, 'यही आदमी है जो तुम्हारे पैरों के चारों ओर फैले जाल से तुम्हें बाहर निकालेगा। तुम इन कागजों को अलग धर दो। इन्हें तुम हिदायतें नहीं दोगे, मैं दूंगा। उस समय से इस मुकदमें के संबंध में मैंने अपनी ओर से अपने वकील से एक शब्द भी नहीं कहा, कोई हिदायत नहीं दी और यदि कभी मुझसे कोई सवाल पूछा गया तो मैंने सदा यही देखा कि मेरे उत्तर से मुकदमें को कोई मदद नहीं मिली। मैंने मुकदमा उन्हें सौंप दिया और उन्होंने पूरी तरह उसे अपने हाथों में ले लिया, और उसका परिणाम आप जानते ही हैं। मैं सदा यह जानता था कि मेरे संबंध में भगवान् की क्या इच्छा है, क्योंकि मुझे बार-बार यह वाणी सुनायी पड़ती थी, मेरे अंदर से सदा यह आवाज आया करती थी, 'मैं रास्ता दिखा रहा हूँ, इसलिये डरो मत।
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'मैं तुम्हें जिस काम के लिये जेल में लाया हूँ अपने उस काम की ओर मुड़ो और जब तुम जेल से बाहर निकलो तो यह याद रखना-कभी डरना मत, कभी हिचकिचाना मत। याद रखो, यह सब मैं कर रहा हूँ, तुम या और कोई नहीं। अत: चाहे जितने बादल घिरें, चाहे जितने खतरे और दु:ख-कष्ट आयें, कठिनाइयाँ हों, चाहे जितनी असंभवताएं आयें, कुछ भी असंभव नहीं है, कुछ भी कठिन नहीं है। मैं इस देश और इसके उत्थान में हूँ, मैं वासुदेव हूँ, मैं नारायण हूँ। जो कुछ मेरी इच्छा होगी वही होगा, दूसरों की इच्छा से नहीं। मैं जिस चीज को लाना चाहता हूँ उसे कोई मानव-शक्ति नहीं रोक सकती।
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इस बीच वे मुझे उस एकांत कालकोठरी से बाहर ले आये और मुझे उन लोगों के साथ रख दिया जिन पर मेरे साथ ही अभियोग चल रहा था। आज आपने मेरे आत्म-त्याग और देशप्रेम के बारे में बहुत कुछ कहा है। मैं जब से जेल से निकला हूँ तब से इसी प्रकार की बातें सुनता आ रहा हूँ, किन्तु ऐसी बातें सुनने से मुझे लज्जा आती है, मेरे अंदर एक तरह की वेदना होती है। क्योंकि मैं अपनी दुर्बलता जानता हूँ, मैं अपने दोष और त्रुटियों का शिकार हूँ। मैं इन बातों के बारे में पहले भी अंधा न था और जब मेरे एकांतवास में, ये सब-की-सब मेरे विरुद्ध खड़ी हो गयीं तो मैंने इनका पूरी तरह अनुभव किया। तब मुझे मालूम हुआ कि मनुष्य के नाते मैं दुर्बलताओं का एक ढेर हूँ, एक दोषभरा अपूर्ण यंत्र हूँ, मुझमें ताकत तभी आती है जब कोई उच्चतर शक्ति मेरे अंदर आ जाये। अब मैं उन युवकों के बीच में आया और मैंने देखा कि उनमें से बहुतों में एक प्रचण्ड साहस और अपने को मिटा देने की शक्ति है और उनकी तुलना में मैं कुछ भी नहीं हूँ। इनमें से एक-दो ऐसे थे जो केवल बल और चरित्र में ही मुझसे बढ़कर नहीं थे- ऐसे तो बहुत थे- बल्कि मैं जिस बुद्धि की योग्यता का अभिमान रखता था, उसमें भी बढ़े हुए थे। भगवान् ने मुझसे फिर कहा, 'यही वह युवक-दल, वह नवीन और बलवान जाति है जो मेरे आदेश से ऊपर उठ रही है। ये तुमसे अधिक बड़े हैं। तुम्हें भय किस बात का है? यदि तुम इस काम से हट जाओ या सो जाओ तो भी काम पूरा होगा। कल तुम इस काम से हटा दिये जाओ तो ये युवक तुम्हारे काम को उठा लेंगे और उसे इतने प्रभावशाली ढंग से करेंगे जैसे तुमने भी नहीं किया। तुम्हें इस देश को एक वाणी सुनाने के लिये मुझसे कुछ बल मिला है, यह वाणी इस जाति को ऊपर उठाने में सहायता देगी। यह वह दूसरी बात थी जो भगवान् ने मुझसे कही।
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इसके बाद अचानक कुछ हुआ और क्षणभर में मुझे एक कालकोठरी के एकांतवास में पहुँचा दिया गया। इस एकांतवास में मेरे अंदर क्या हुआ यह कहने की प्रेरणा नहीं हो रही, बस इतना काफी है कि वहाँ दिन-प्रतिदिन भगवान् ने अपने चमत्कार दिखाये और मुझे हिन्दू धर्म के वास्तविक सत्य का साक्षात्कार कराया। पहले मेरे अंदर अनेक प्रकार के संदेह थे। मेरा लालन-पालन इंग्लैण्ड में विदेशी भावों और सर्वथा विदेशी वातावरण में हुआ था। एक समय मैं हिन्दू धर्म की बहुत-सी बातों को मात्र कल्पना समझता था, यह समझता था कि इसमें बहुत कुछ केवल स्वप्न, भ्रम या माया है। परन्तु अब दिन-प्रतिदिन मैंने हिन्दू धर्म के सत्य को, अपने मन में, अपने प्राण में और अपने शरीर में अनुभव किया। वे मेरे लिये जीवित अनुभव हो गये और मेरे सामने ऐसी सब बातें प्रकट होने लगीं जिनके बारे में भौतिक विज्ञान कोई व्याख्या नहीं दे सकता। जब मैं पहले-पहल भगवान् के पास गया तो पूरी तरह भक्ति-भाव के साथ नहीं गया था, पूरी तरह ज्ञानी के भाव से भी नहीं गया था। बहुत दिन हुए, स्वदेशी-आंदोलन शुरू होने से पहले और मेरे सार्वजनिक काम में घुसने से कुछ वर्ष पहले बड़ौदा में मैं उनकी ओर बढ़ा था।
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उन दिनों जब मैं भगवान् की ओर बढ़ा तो मुझे उनपर जीवंत श्रद्धा न थी। उस समय मेरे अंदर अज्ञेयवादी था, नास्तिक था, संदेहवादी था और मुझे पूरी तरह विश्वास न था कि भगवान् हैं भी। मैं उनकी उपस्थिति का अनुभव नहीं करता था। फिर भी कोई चीज थी जिसने मुझे वेद के सत्य की ओर, गीता के सत्य की ओर, हिन्दूधर्म के सत्य की ओर आकर्षित किया। मुझे लगा कि इस योग में कहीं पर कोई महाशक्तिशाली सत्य अवश्य है, वेदांत पर आधारित इस धर्म में कोई परम बलशाली सत्य अवश्य है। इसलिये जब मैं योग की ओर मुड़ा और योगाभ्यास करके यह जानने का संकल्प किया कि मेरी बात सच्ची है या नहीं तो मैंने उसे इस भाव और इस प्रार्थना से शुरू किया। मैंने कहा, 'हे भगवान्, यदि तुम हो तो तुम मेरे हृदय की बात जानते हो। तुम जानते हो कि मैं मुक्ति नहीं मांगता, मैं ऐसी कोई चीज नहीं मांगता जो दूसरे मांगा करते हैं। मैं केवल इस जाति को ऊपर उठाने की शक्ति मांगता हूँ, मैं केवल यह मांगता हूँ कि मुझे इस देश के लोगों के लिये, जिनसे मैं प्यार करता हूँ, जीने और कर्म करने की आज्ञा मिले और यह प्रार्थना करता हूँ कि मैं अपना जीवन उनके लिये लगा सकूं। मैंने योगसिद्धि पाने के लिये बहुत दिनों तक प्रयास किया और अंत में किसी हद तक मुझे मिली भी, पर जिस बात के लिये मेरी बहुत अधिक इच्छा थी उसके संबंध में मुझे संतोष नहीं हुआ। तब उस जेल के, उस कालकोठरी के एकांतवास में मैंने उसके लिये फिर से प्रार्थना की। मैंने कहा, 'मुझे अपना आदेश दो, मैं नहीं जानता कि कौन-सा काम करूं और कैसे करूं। मुझे एक संदेश दो।
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इस योगयुक्त अवस्था में मुझे दो संदेश मिले। पहला यह था, 'मैंने तुम्हें एक काम सौंपा है और वह है इस जाति के उत्थान में सहायता देना। शीघ्र ही वह समय आयेगा जब तुम्हें जेल के बाहर जाना होगा, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि इस बार तुम्हें सजा हो या तुम अपना समय, औरों की तरह अपने देश के लिये कष्ट सहते हुए बिताओ। मैंने तुम्हें काम के लिये बुलाया है और यही वह आदेश है जो तुमने मांगा था। मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि जाओ और काम करो।Ó दूसरा संदेश आया, वह इस प्रकार था, 'इस एक वर्ष के एकांतवास में तुम्हें कुछ दिखाया गया है, वह चीज दिखायी गयी है जिसके बारे में तुम्हें संदेह था, वह है हिन्दुधर्म का सत्य। इसी धर्म को मैं संसार के सामने उठा रहा हूँ, यही वह धर्म है जिसे मैंने ऋषि-मुनियों और अवतारों के द्वारा विकसित किया और पूर्ण बनाया है और अब यह धर्म अन्य जातियों में मेरा काम करने के लिये बढ़ रहा है। मैं अपनी वाणी का प्रसार करने के लिये इस जाति को उठा रहा हूँ। यही वह सनातन धर्म है जिसे तुम पहले सचमुच नहीं जानते थे, किन्तु जिसे अब मैंने तुम्हारे सामने प्रकट कर दिया है। तुम्हारे अंदर जो नास्तिकता थी, जो संदेह था उनका उत्तर दे दिया गया है, क्योंकि मैंने अंदर और बाहर स्थूल और सूक्ष्म, सभी प्रमाण दे दिये हैं और उनसे तुम्हें संतोष हो गया है। जब तुम बाहर निकलो तो सदा अपनी जाति को यही वाणी सुनाना कि वे सनातन धर्म के लिये उठ रहे हैं, वे अपने लिये नहीं बल्कि संसार के लिये उठ रहे हैं। मैं उन्हें संसार की सेवा के लिये स्वतंत्रता दे रहा हूँ। अतएव जब यह कहा जाता है कि भारतवर्ष ऊपर उठेगा तो उसका अर्थ होता है सनातन धर्म ऊपर उठेगा| जब कहा जाता है कि भारतवर्ष महान् होगा तो उसका अर्थ होता है सनातन धर्म महान् होगा। जब कहा जाता है कि भारतवर्ष बढ़ेगा और फैलेगा तो इसका अर्थ होता है सनातन धर्म बढ़ेगा और संसार पर छा जायेगा। धर्म के लिये और धर्म के द्वारा ही भारत का अस्तित्व है। धर्म की महिमा बढ़ाने का अर्थ है देश की महिमा बढ़ाना। मैंने तुम्हें दिखा दिया है कि मैं सब जगह हूँ, सभी मनुष्यों और सभी वस्तुओं में, हूँ, मैं इस आंदोलन में हूँ और केवल उन्हीं के अंदर कार्य नहीं कर रहा जो देश के लिये मेहनत कर रहे हैं बल्कि उनके अंदर भी जो उनका विरोध करते और मार्ग में रोड़े अटकाते हैं। मैं प्रत्येक व्यक्ति के अंदर काम कर रहा हूँ और मनुष्य चाहे जो कुछ सोचें या करें, पर वे मेरे हेतु की सहायता करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते। वे भी मेरा ही काम कर रहे हैं, वे मेरे शत्रु नहीं बल्कि मेरे यंत्र हैं। तुम यह जाने बिना भी कि तुम किस ओर जा रहे हो, अपनी सारी क्रियाओं के द्वारा आगे बढ़ रहे हो। तुम करना चाहते हो कुछ और पर कर बैठते हो कुछ और। तुम एक परिणाम को लक्ष्य बनाते हो और तुम्हारे प्रयास ऐसे हो जाते हैं जो उससे भिन्न या उल्टे परिणाम लाते हैं। शक्ति का आविर्भाव हुआ है और उसने लोगों में प्रवेश किया है। मैं एक जमाने से इस उत्थान की तैयारी करता आ रहा हूँ और अब वह समय आ गया है अब मैं ही इसे पूर्णता की ओर ले जाऊंगा।
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यही वह वाणी है जो मुझे आपको सुनानी है। आपकी सभा का नाम है 'धर्मरक्षिणी सभाÓ। अस्तु, धर्म का संरक्षण, दुनिया के सामने हिन्दुधर्म का संरक्षण और उत्थान- यही कार्य हमारे सामने है। परन्तु हिन्दुधर्म क्या है? वह धर्म क्या है जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं? वह हिन्दुधर्म इसी नाते है कि हिन्दुजाति ने इसको रखा है, क्योंकि समुद्र और हिमालय से घिरे हुए इस प्रायद्वीप के एकांतवास में यह फला-फूला है, क्योंकि इस पवित्र और प्राचीन भूमि पर इसकी युगों तक रक्षा करने का भार आर्यजाति को सौंपा गया था। परन्तु यह धर्म किसी एक देश की सीमा से घिरा नहीं है, यह संसार के किसी सीमित भाग के साथ विशेष रूप से और सदा के लिये बंधा नहीं है। जिसे हम हिन्दूधर्म कहते हैं वह वास्तव में सनातन धर्म है, क्योंकि यही वह विश्वव्यापी धर्म है जो दूसरे सभी धर्मों का आलिंगन करता है। यदि कोई धर्म विश्वव्यापी न हो तो वह सनातन भी नहीं हो सकता। कोई संकुचित धर्म, सांप्रदायिक धर्म, अनुदार धर्म कुछ काल और किसी मर्यादित हेतु के लिये ही रह सकता है। यही एक ऐसा धर्म है जो अपने अंदर सायंस के आविष्कारों और दर्शनशास्त्र के चिंतनों का पूर्वाभास देकर और उन्हें अपने अंदर मिलाकर जड़वाद पर विजय प्राप्त कर सकता है। यही एक धर्म है जो मानवजाति के दिल में यह बात बैठा देता है कि भगवान् हमारे निकट हैं, यह उन सभी साधनों को अपने अंदर ले लेता है जिनके द्वारा मनुष्य भगवान् के पास पहुँच सकते हैं। यही एक ऐसा धर्म है जो प्रत्येक क्षण, सभी धर्मों के माने हुए इस सत्य पर जोर देता है कि भगवान् हर आदमी और हर चीज में हैं तथा हम उन्हीं में चलते-फिरते हैं और उन्हीं में हम निवास करते हैं। यही एक ऐसा धर्म है जो इस सत्य को केवल समझने और उसपर विश्वास करने में ही हमारा सहायक नहीं होता बल्कि अपनी सत्ता के अंग-अलंग में इसका अनुभव करने में भी हमारी मदद करता है। यही एक धर्म है जो संसार को दिखा देता है कि संसार क्या है- वासुदेव की लीला। यही एक ऐसा धर्म है जो हमें यह बताता है कि इस लीला में हम अपनी भूमिका अच्छी-से-अच्छी तरह कैसे निभा सकते हैं, जो हमें यह दिखाता है कि इसके सूक्ष्म-से-सूक्ष्म नियम क्या हैं, इसके महान्-से-महान् विधान कौन-से हैं। यही एक ऐसा धर्म है जो जीवन की छोटी-से-छोटी बात को भी धर्म से अलग नहीं करता, जो यह जानता है कि अमरता क्या है और जिसने मृत्यु की वास्तविकता को हमारे अंदर से एकदम निकाल दिया है।
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यही वह वाणी है जो आपको सुनाने के लिये आज मेरी जबान पर रख दी गयी थी। मैं जो कुछ कहना चाहता था वह तो मुझसे अलग कर दिया गया है और जो मुझे कहने के लिये दिया गया है उससे अधिक मेरे पास कहने के लिये कुछ नहीं है। जो वाणी मेरे अंदर रख दी गयी थी केवल वही आपको सुना सकता हूँ। अब वह समाप्त हो चुकी है। पहले भी एक बार जब मेरे अंदर यही शक्ति काम कर रही थी तो मैंने आपसे कहा था कि यह आंदोलन राजनीतिक आंदोलन नहीं है और राष्ट्रीयता राजनीति नहीं, बल्कि एक धर्म है, एक विश्वास है, एक निष्ठा है। उसी बात को आज फिर मैं दोहराता हूँ, किन्तु आज मैं उसे दूसरे ही रूप में उपस्थित कर रहा हूँ। आज मैं यह नहीं कहता कि राष्ट्रीयता एक विश्वास है, एक धर्म है, एक निष्ठा हे, बल्कि मैं यह कहता हूँ कि सनातन धर्म ही हमारे लिये राष्ट्रीयता है। यह हिन्दुजाति सनातन धर्म को लेकर ही पैदा हुई है, उसी को लेकर चलती है और उसी को लेकर पनपती है। जब सनातन धर्म की हानि होती है तब इस जाति की भी अवनति होती है और यदि सनातन धर्म का विनाश संभव होता तो सनातन धर्म के साथ ही-साथ इस जाति का विनाश हो जाता। सनातन धर्म ही है राष्ट्रीयता। यही वह संदेश है जो मुझे आपको सुनाना है|

धर्मरक्षा हेतु निरंतर अनवरत प्रयास ही मेरी दृष्टी में आध्यात्म है .....

धर्मरक्षा हेतु निरंतर अनवरत प्रयास ही मेरी दृष्टी में आध्यात्म है .....
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मनुष्य का स्वभाविक धर्म है ..... परम तत्व की खोज और उससे एकात्मता; जिसमें निरंतर बाधाएं आती रहती हैं|
आध्यात्म कोई व्यक्तिगत मोक्ष, सांसारिक वैभव, इन्द्रीय सुख या अपने अहंकार की तृप्ति की कामना का प्रयास नहीं है| यह कोई दार्शनिक वाद विवाद या बौद्धिक उपलब्धी भी नहीं है|
उन बाधाओं को दूर करते हुए निरंतर स्वधर्म की रक्षा का प्रयास और परम तत्व से एकात्मता ही आध्यात्म है| इसके लिए सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का विनाश भी आवश्यक है|
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भगवन राम और श्रीकृष्ण का जीवन हमारे लिए आदर्श है| उन जैसे महापुरुषों के गुणों को स्वयं के जीवन में धारण करना, उन की शिक्षा और आचरण का पालन करना ही भगवान की सच्ची आराधना है| भगवान श्रीराम और श्री कृष्ण ने जन्म से ही धर्म रक्षार्थ, संस्थापनार्थ, व संवर्धन हेतु शौर्य संघर्ष व संगठन साधना का आदर्श रखा|
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स्वेच्छा से कारावास में जन्म लेकर प्रभु श्री कृष्ण ने जन्म से ही संघर्ष का मार्ग चुना| उनके स्वयं के परिवार के सदस्य परिजनों में जो विधर्मी तत्व थे जैसे कंस, पूतना का उन्होंने विनाश किया| अपने ग्राम वासियों की विधर्मी, आसुरिक तत्वों से रक्षा बाल्यकाल से ही की| धर्म सम्मत संघर्ष व शौर्य तत्व का सन्देश उन्होंने बाल्यकाल से ही दिया| स्वयं सर्वज्ञानी होते हुए भी उन्होंने संदीपनी मुनि जी के आश्रम में शिक्षा ग्रहण की और आलस्य से ऊपर उठकर सदा साधनारत रहने की शिक्षा दी| कुरुक्षेत्र के युद्ध में सदशक्तियों को संगठित कर विधर्मी तत्वों का विनाश किया|
भगवान श्री राम की ही भाँति इस युद्ध में भी उन्होंने शौर्य संघर्ष, सद शक्तियों से ही करवाया| स्वयं को उन्होंने मार्गदर्शक के रूप में रखा ताकि हिन्दू समाज हिंदुत्व हित संघर्ष करना सीखे, युद्ध करना सीखे व धर्म हित, हिंदुत्व हित तुच्छ भेदभावो से ऊपर उठकर संगठित होना सीखे|
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भगवन श्री कृष्ण ने गीता का ज्ञान अर्जुन को कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में दिया, इस प्रसंग के आध्यात्मिक सन्देश को समझें कि रणभूमि में उतरे बिना यानि साधना भूमि में उतरे बिना आप आध्यात्म को, स्वयं के ईश्वर तत्व को उसके यथार्थ स्वरुप में अनुभूत नहीं कर सकते|
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धर्म हित यानि हिंदुत्व हित के लिए स्वयं को समर्पित कर देना ही आध्यात्म की पराकाष्ठा है| यह अनुभूत कर कि भविष्य में उनके वंश के लोग विधर्मी प्रवृत्ति के हो जायेंगे उन्होंने लीला रची तथा गांधारी के श्रापवश स्वयं का व स्वयं के वंश का हिंदुत्व हित बलिदान दिया|
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भगवान् राम ने भी धर्मरक्षार्थ यानि हिंदुत्वरक्षार्थ अपने राज्य के वैभव का त्याग किया और भारत में पैदल भ्रमण कर अत्यंन्त पिछड़ी और उपेक्षित जातियों को जिन्हें लोग तिरस्कार पूर्वक वानर और रीछ तक कह कर पुकारते थे, संगठित कर धर्मविरोधियों का संहार किया| लंका का राज्य स्वयं ना लेकर विभीषण को ही दिया| ऋषि मुनियों की रक्षार्थ ताड़का का वध भी किया| वे हजारों वर्षों से हमारे प्रातःस्मरणीय आराध्य हैं|
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स्वयं के भीतर के राम और कृष्ण तत्व से एकात्म ही आध्यात्म है और यही सच्ची साधना है| यही शिवत्व की प्राप्ति है|
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ॐ ॐ ॐ ||

जब भी परमात्मा के प्रति प्रेम की अनुभूति होती है, वह सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है .....

जब भी परमात्मा के प्रति प्रेम की अनुभूति होती है, वह सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है .....
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आध्यात्म में आधे-अधूरे समर्पण से काम नहीं चलता| पूरी डुबकी ही लगानी पडती है| परमात्मा के बारे में हम उतना ही जान सकते हैं जितना हमारा मन कल्पना कर सकता है और बुद्धि सोच सकती है, पर हमारा मन और हमारी बुद्धि दोनों ही अति अति अति अल्प और सीमित है| उससे हम असीम अनंत को नहीं समझ सकते| यहाँ श्रुति भगवती को और महापुरुषों के वचनों को ही प्रमाण मानना पड़ता है|
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जब भी परमात्मा की याद आये वह क्षण ही सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है| जिस समय दोनों नासिकाओं से साँस चल रही हो वह ध्यान करने का सर्वश्रेष्ठ समय है| मेरा तो अनुभव यही है कि लम्बे समय तक यानि कम से कम तीन-चार घंटों तक लगातार ध्यान करने से जो दिव्य प्रेम और आनंद की अनुभूतियाँ होती हैं, वे ही परमात्मा की अनुभूतियाँ हैं| एक साधक को यदि हो सके तो प्रतिदिन कुल कम से कम चार घंटों तक ध्यान करना चाहिए और सप्ताह में एक दिन तो कम से कम छः से आठ घंटों तक ध्यान करना चाहिए|
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जब दोनों नासिकाओं से साँस चल रही हों, वह ध्यान का सर्वश्रेष्ठ समय होता है| यदि नासिकाओं के साथ कोई समस्या है तो नाड़ीशोधन के हठयोग में नेति आदि के कई प्रयोग हैं जो किसी हठयोग शिक्षक से सीख सकते हैं| ध्यान से पूर्व यथासंभव सूर्य-नमस्कार जैसे कुछ हलके व्यायाम और महामुद्रा (पश्चिमोत्तान पर आधारित) आदि का अभ्यास और अनुलोम-विलोम आदि करना चाहिए| एक ही आसन में बैठे बैठे पैर दुखने लगें तब फिर महामुद्रा का अभ्यास करना चाहिए| योनिमुद्रा और खेचरी का भी शनेः शनेः अभ्यास करते रहना चाहिए|
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जब भी हो सके तो संधिक्षणों में कुछ देर परमात्मा का चिंतन मनन, स्मरण या कुछ साधना अवश्य करनी चाहिए| संधिक्षणों में की गयी साधना को संध्या कहते हैं|

आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन |
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

मेरी आस्था अब सिर्फ भगवान् और उनके भक्तों पर ही है ......

मैं अपने अनुभवों से जीवन के जिस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ उससे -------
(1) सभी राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं पर से मेरी आस्था उठ चुकी है| आजकल जिस तरह के उनके संचालक हैं उनके मनोभाव और विचार मुझे स्वतः ही उनसे दूर कर देते हैं|
(2) समाज के अधिकाँश लोगों पर से भी मेरी आस्था हट चुकी है और उनसे मोहभंग हो गया है| कोई क्या कह रहा है इससे कुछ असर नहीं पड़ता, पर उनके विचारों का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता|
(3) सिर्फ आध्यात्म जगत के लोग ही मुझे आकर्षित करते हैं जिनके ह्रदय में प्रभु के प्रति कूट कूट कर प्रेम भरा पड़ा है| उनके ह्रदय में परमात्मा है इसलिए वे मुझे प्रिय हैं|
(4) मेरी आस्था अब सिर्फ भगवान् और उनके भक्तों पर ही है| भक्त का अर्थ है अहैतुकी परम प्रेमी|
भगवान ही अब धर्म की पुनर्स्थापना करेंगे| भारत में अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है और अनेक और जन्मेंगे जो भारत को परम वैभव पर पहुँचाएँगे|
(5) शीघ्र ही भारत में राष्ट्रवाद का विस्तार होगा| अनेक क्रन्तिकारी घटनाएँ घटेंगी| अज्ञान और अन्धकार की शक्तियों और दुष्टों का विनाश होगा| भारत माँ अपने द्विगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर विराजमान होंगी|
(6) मैं अधिकांशतः उपलब्ध नहीं रहूँगा| अपना अधिकतम समय देने के लिए और भी कार्य हैं|
सभी का आभार और धन्यवाद ! सभी को प्रणाम !
ॐ शिव| ॐ ॐ ॐ ||

गुरु कभी साथ नहीं छोड़ते .......

जब आप जीवन में विपरीततम परिस्थितियों से घिर जाओ, कहीं आशा की किरण दिखाई न दे, चारों ओर अंधकार ही अंधकार हो तब आपके गुरु या इष्ट देव ही हैं जो आप का साथ नहीं छोड़ते| बाकि सारी दुनिया आपका साथ छोड़ दे पर गुरु और इष्ट देव कभी आप का साथ नहीं छोड़ सकते| आप ही उन्हें भुला सकते हो पर वे नहीं|
उनसे मित्रता बनाकर रखो| वे इस जन्म से पूर्व भी आपके साथ थे और इसके बाद भी आपके साथ रहेंगे| उनका साथ शाश्वत है| उनकी सत्ता सूक्ष्म जगत में भी है और वे आपके आगे के भी सभी जन्मों में आपके साथ रहेंगे| यह आप के ऊपर है की आप उन्हें अनुभूत कर पाओ या नहीं|
अपनी सारी पीडाएं, सारे दु:ख, सारे कष्ट उन्हें सौंप दो| वे ही हैं जो आपके माध्यम से दुखी हैं| वे ही कष्ट बन कर आये हैं, और वे ही समाधान बन कर आयेंगे|
उन्हें मत भूलो, वे भी आपको नहीं भूलेंगे| निरंतर उनका स्मरण करो| जब भूल जाओ तब याद आते ही फिर उन्हें स्मरण करना आरम्भ कर दो| आपके सुख दुःख सभी में वे आपके साथ रहेंगे|
अपने ह्रदय का समस्त प्रेम उन्हें बिना किसी शर्त के दो| यह उन्हीं का प्रेम था जो आप को माँ बाप के माध्यम से मिला| यह उन्हीं का प्रेम था जो आपको भाई, बहिनों, सगे सम्बन्धियों और मित्रों व अपरिचितों के माध्यम से मिला| उन्ही के प्रेम से आपको वह शक्ति मिली जिससे आप वर्त्तमान में जो कुछ भी हैं|
वह कौन है जो आपके ह्रदय में धड़क रहा है? वह कौन है जो आपकी देह में सांस ले रहा है? वह कौन है जो आपकी आँखों से देख रहा है? वह कौन है जिससे आपके देह की समस्त क्रियाएँ संपन्न हो रही है? वह कौन है जिसने आपको सोचने समझने की शक्ति दी है? यह वह आपका मित्र ही है जिसने स्वयम को छिपा रखा है पर हर समय आपके साथ है| हमेशा उसे सचेतन अपने साथ रखो|
ॐ तत्सत्|

श्रावणी पूर्णिमा यानि रक्षा बंधन पर्व की सभी को शुभ कामनाएँ .......

श्रावणी पूर्णिमा यानि रक्षा बंधन पर्व की सभी को शुभ कामनाएँ .......
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रक्षा बंधन पर बहुत सारे लेख और साहित्य उपलब्ध है, अतः उस पर और अधिक नहीं लिखना चाहता| पर कुछ विस्मृत होती जा रही बातों को अपनी सीमित बुद्धि से आवश्यक समझ कर लिख रहा हूँ| कोई अशुद्धि होगी तो उसमें सुधार करूँगा|
(1) यह ब्राह्मणों का सबसे बड़ा पर्व है ....
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ब्राह्मण लोग इस दिन श्रावणी कर्म करते हैं| ब्राह्मणों के लिए यह श्रावणी कर्म अनिवार्य है| इस कर्म में अभिमंत्रित करके पूजे हुए पूजे गए यज्ञोपवीत (जनेऊ) ही ब्राह्मण पहिनते हैं, अन्य नहीं| बिना अभिमंत्रित किये हुए जनेऊ पहिनने का निषेध है|
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जनेऊ यानि यज्ञोपवीत कोई धागा मात्र नहीं होता| इसमें ओंकार रूप में परमात्मा और अग्नि आदि विभिन्न देवताओं का आह्वान किया जाता है| ब्राह्मण लोग प्रति वर्ष रक्षाबंधन के दिन श्रावणी कर्म में वर्ष भर के लिए जनेऊ अभिमंत्रित कर लेते हैं| ब्राह्मण लोग इस दिन आत्मशुद्धि के लिए अभिषेक और हवन करते हैं|
वैदिक काल से ही ब्राह्मण लोग पवित्र नदियों या तालाबों के तट पर आत्मशुद्धि का यह कर्म मनाते आये हैं| इस कर्म में आंतरिक व बाह्य शुद्धि गोबर, मिट्टी, भस्म, अपामार्ग, दूर्वा, कुशा एवं मंत्रों द्वारा की जाती है| पंचगव्य महाऔषधि है| श्रावणी कर्म में दूध, दही, घृत, गोबर, गोमूत्र प्राशन कर अंतःकरण को शुद्ध किया जाता है| यह कर्म ब्राह्मण के शरीर, मन और आत्मा की शुद्धि करता है|
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विधिवत यज्ञोपवीत धारण करने के पश्चात ही कोई द्विज बनता है| द्विज को ही वेदपाठ करने का अधिकार है| गायत्री मन्त्र का जाप करने का अधिकार भी उसी को है जो विधिवत रूप से यज्ञोपवीत धारण कर के द्विज बना है| अन्यों को गायत्री मन्त्र के जप का अधिकार नहीं है| द्विज (यानि जिसने विधिवत यज्ञोपवीत धारण कर रखा है) की पत्नी भी गायत्री मन्त्र के जाप की अधिकारिणी है, अन्य स्त्रियाँ नहीं|
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श्रावण की पूर्णिमा को ब्राह्मण लोग श्रावणी कर्म क्यों करते हैं इसका कारण निम्न है.....
एक कल्पांत में वेदों का ज्ञान लुप्त हो गया था| मधु और कैटभ नाम के राक्षसों ने ब्रह्मा जी से भी वेदों को छीन लिया और रसातल में छिप गए| ब्रह्मा जी ने वेदोद्धार के लिए भगवान विष्णु की स्तुति की| स्तुति सुन कर भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लिया और श्रावण की पूर्णिमा के ही दिन ब्रह्माजी को वेदों का ज्ञान दिया| हयग्रीव विद्या और बुद्धि के देवता हैं| तभी से वेदपाठी विप्र श्रावणी पूर्णिमा के ही दिन यह उपाकर्म करते हैं|
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(2) संघ के प्रमुख उत्सवों में से यह एक उत्सव है ......
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इस दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक भगवा ध्वज को रक्षा बंधन (राखी) बाँध कर राष्ट्र रक्षा का संकल्प लेते हैं|
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(3) ऐतिहासिक व सामाजिक रूप से राखी का त्योहार .....
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पुराणों में बर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे| देवराज इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये| वहाँ बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी| उसने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से अभिमंत्रित करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया| वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था| इन्द्र उस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए| उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है|
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दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की| भगवान विष्णु वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा माँगने पहुँचे| गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी| भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया|
बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया| भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया| लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन यानि राखी बाँध कर अपना भाई बनाया और उससे दक्षिणा के रूप में अपने पति को माँग कर अपने साथ ले आयीं| उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी|
इसीलिए कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँधते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण करते हैं .....
"येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो महाबल: | तेन त्वां प्रति बच्नामी, रक्षे मा चल मा चलः ||" अर्थात् रक्षा के जिस साधन (राखी) से अतिबली राक्षसराज बली को बाँधा गया था, उसी से मैं तुम्हें बाँधता हूँ | हे रक्षासूत्र ! तू भी अपने कर्त्तव्यपथ से न डिगना अर्थात् इसकी सब प्रकार से रक्षा करना|
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भारतवर्ष पर जब अरबों और मध्य एशिया से आये अति क्रूर मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हुए तब आक्रमणकारी अपने साथ महिलाओं को तो लाये नहीं थे| वे हिन्दुओं की ह्त्या कर उनकी महिलाओं को छीन ले जाते थे| तब से हिन्दू बहिनें अपने भाइयों को राखी बाँधकर उनसे अपनी रक्षा का वचन लेने लगीं|
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(4) रक्षा सूत्र बनाने की विधि .....
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पुराने ज़माने में राखी इन पाँच चीजों से बनती थी ......
(१) दूर्वा (घास) (२) अक्षत (चावल) (३) केसर (४) चन्दन (५) सरसों के दाने|
इन ५ वस्तुओं को रेशम के कपड़े में बांधकर कलावा बना देते थे|
इसके पीछे यह प्रतीकात्मक भावना थी .....
(१) दूर्वा ....दुर्वा गणेश जी को प्रिय है| मेरे भाई या जिसके भी हम राखी बाँध रहे हैं, उसके जीवन से भी विघ्नों का नाश हो और उसका वंश तेजी से बढे|
(२) अक्षत .... धर्म के प्रति उसकी श्रद्धा कभी क्षत ना हो|
(३) केसर .... वह तेजस्वी बनो|
(४) चन्दन .... उसके जीवन में शीतलता बनी रहे| उसके गुणों की सुगंध सर्वत्र फैले|
(५) सरसों के दाने .... वह शत्रुओं के प्रति तीक्ष्ण बने|
इस प्रकार इन पांच वस्तुओं से बनी हुई एक राखी को संकल्प कर के बांधते थे|
महाभारत में यह रक्षा सूत्र माता कुंती ने अपने पोते अभिमन्यु को बाँधा था| जब तक यह धागा अभिमन्यु के हाथ में था तब तक उसकी रक्षा हुई, धागा टूटने पर अभिमन्यु की मृत्यु हुई|
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अब तो यह भाई-बहिन के प्रेम के प्रतीक का त्यौहार बन गया है|
मैं समस्त मातृशक्ति और विप्रगण को इस पावन पर्व की बधाई और शुभ कामना प्रेषित करता हूँ| भगवान आप सब की और सत्य सनातन धर्म की रक्षा करें|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

विश्व के विनाश की औत विश्वयुद्ध की सब भविष्यवाणियाँ झूठी हैं .....

सन १९७६ ई.से मुझे एक शौक सा जागृत हुआ जिसे मैं शौक नहीं एक अति तीब्र जिज्ञासा का जन्म कहूंगा, मैंने हर प्रकार की रहस्यमय साधनाओं, दर्शन, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक विचारधाराओं, इतिहास, भूगोल व आध्यात्म की आसानी से उपलब्ध उन सभी पुस्तकों को ढूँढ ढूँढ कर पढ़ना आरम्भ कर दिया जिनको समझना मेरी अल्प बुद्धि की सीमा में था|
जब और भी अधिक समय मिलता तब मैं विभिन्न महत्वपूर्ण लोगों से मिलने जुलने और उनके विचारों को जानने का प्रयास करता| विश्व के अनेक देशों में जाने के बहुत अवसर मिले जिनका मैनें पूरा लाभ उठाया और अति प्रबल बौद्धिक जिज्ञासा को यथासंभव शांत किया| प्रकृति का सौम्यतम और विकरालतम रूप भी देखा| पूरे विश्व का भूगोल मस्तिष्क में समा गया कि विश्व के किस भाग में कैसा जीवन और कैसी परिस्थितियाँ है आदि आदि|
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देश-विदेश के लोगों की अनेक भविष्यवाणियाँ पढ़ीं और उनसे उस समय प्रभावित भी हुआ| पर वे सारी भविष्यवाणियाँ झूठी सिद्ध हुईं| आज तक मैंने जितनी भी भविष्यवाणियाँ पढ़ीं हैं वे सब झूठी थीं| अनेक लोगों को मैंने फर्जी पाया जिनको मैं गहराई वाला समझता था| आजकल एक रूझान सा चल रहा है विश्व युद्ध और विश्व के विनाश के बारे में लिखने का| अब में पिछले एक-दो वर्षों की घटनाओं का विश्लेषण कर के कह सकता हूँ कि ऐसा कुछ नहीं होगा| न तो कोई विश्व युद्ध होने वाला है और न कोई महाविनाश| ऐसी परिस्थितयाँ वर्त्तमान में अनेक बार उत्पन्न हुईं हैं पर मनुष्य अभी इतना विवेकशील हो गया है कि कैसी भी विकट परिस्थिति हो उसका समाधान निकाल लेता है| आगे मनुष्य के विवेक का और भी अधिक विकास होगा|
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अतः कुछ नहीं होने वाला है| जब तक जीवित हो तब तक प्रसन्न रहो| जब मृत्यु आ जायेगी तब वह अपना काम करेगी, उसके बारे में सोच कर क्यों दुखी होना? आध्यात्म में कुछ पूर्व जन्मों के संस्कार ही थे जिनसे वेदान्त दर्शन और भक्ति का उदय हुआ जिसे मैं अपने जीवन की एकमात्र उपलब्धी मानता हूँ| जिसे हम बाहर ढूंढते हैं वह तो हम स्वयं ही हैं| आगे आने वाला समय अच्छा ही अच्छा होगा| जीवन का एक अंधकारमय कालखंड भी था जिसमें मैं मार्क्सवादी हो गया था| पर उस अन्धकार से शीघ्र ही बाहर निकल आया| अब तो मैं सभी से परमात्मा की भक्ति और ध्यान साधना की बातें ही करता हूँ|
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आप सब में भी मुझे प्रभु के ही दर्शन होते हैं| आप सब मेरे ही निजात्मगण हैं| आप सब को नमन ! जन्माष्टमी आने वाली है| अभी से तैयारियाँ आरम्भ कर दीजिये अपनी भक्ति यानि परम प्रेम को व्यक्त करने के लिए|
तत्व रूप में शिव, विष्णु और शक्ति एक ही हैं| महत्व सिर्फ प्रेम और समर्पण का है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||