Friday, 8 September 2017

ध्यान साधना .....

ध्यान साधना .....
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निरंतर अपने शिव-स्वरुप का ध्यान करो| शिवमय होकर शिव का ध्यान करो| पवित्र देह और पवित्र मन के साथ, एक ऊनी कम्बल पर कमर सीधी रखते हुए पूर्व या उत्तर की ओर मुँह कर के बैठ जाओ| भ्रूमध्य में भगवान शिव का ध्यान करो|
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वे पद्मासन में शाम्भवी मुद्रा में बैठे हुए हैं, उनके सिर से ज्ञान की गंगा प्रवाहित हो रही है, और दसों दिशाएँ उनके वस्त्र हैं| धीरे धीरे उनके रूप का विस्तार करो| आपकी देह, आपका कमरा, आपका घर, आपका नगर, आपका देश, यह पृथ्वी, यह सौर मंडल, यह आकाश गंगा, सारी आकाश गंगाएँ, और सारी सृष्टि व उससे परे भी जो कुछ है वह सब शिवमय है| उस शिव रूप का ध्यान करो|
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वह शिव आप स्वयं हो| आप यह देह नहीं बल्कि साक्षात शिव हो| बीच में एक-दो बार आँख खोलकर अपनी देह को देख लो और बोध करो कि आप यह देह नहीं हो बल्कि शिव हो| उस शिव रूप में यथासंभव अधिकाधिक समय रहो|
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सारे ब्रह्मांड में ओंकार की ध्वनी गूँज रही है, उस ओंकार की ध्वनी को निरंतर सुनो| हर आती-जाती साँस के साथ यह भाव रहे कि मैं "वह" हूँ .... "हँ सः" या "सोsहं" | यही अजपा-जप है, यही प्रत्याहार, धारणा और ध्यान है| यही है शिव बनकर शिव का ध्यान, यही है सर्वोच्च साधना|
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यह साधना उन्हीं को सिद्ध होती है जो निर्मल, निष्कपट है, जिन में कोई कुटिलता नहीं है और जो सत्यनिष्ठ और परम प्रेममय हैं| उपरोक्त का अधिकतम स्वाध्याय करो| भगवान परमशिव की कृपा से आप सब समझ जायेंगे|
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भगवान परमशिव सबका कल्याण करेंगे| अपने अहंकार का, अपने अस्तित्व का, अपनी पृथकता के बोध का उनमें समर्पण कर दो|
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जिसे हम खोज रहे हैं वह तो हम स्वयं ही हैं| शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!

निज विवेक का उपयोग .....

निज विवेक का उपयोग .....
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जीवन अति अल्प है, शास्त्र अनंत हैं, न तो उन्हें समझने की बौद्धिक क्षमता है, और न इतना समय और धैर्य | परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा और तड़प अति तीब्र हो और चारों ओर का वातावरण और परिस्थितियाँ विपरीत हों, तो क्या किया जाये? यह एक शाश्वत प्रश्न है|
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हर व्यक्ति की परिस्थितियाँ, संसाधन, सोच और आध्यात्मिक विकास अलग अलग होता है, अतः कोई सर्वमान्य सामान्य उत्तर असंभव है|
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यहाँ एक ही उत्तर हो सकता है, और वह है निज विवेक का उपयोग|
भगवान ने हमें विवेक दिया है, जिसका उपयोग करते हुए अपनी वर्त्तमान परिस्थितियों में जो भी सर्वश्रेष्ठ हो सकता है, वह करें| सारे कार्य निज विवेक के प्रकाश में करें|

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उच्च स्तर की आध्यात्मिक साधना अपनी गुरु परम्परा के अनुसार ही करें |
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ॐ तत्सत् | हर हर महादेव ! ॐ ॐ ॐ ||

हमारे पतन का कारण हमारे मन का लोभ और गलत विचार हैं .....

हमारे पतन का कारण हमारे मन का लोभ और गलत विचार हैं .....
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हमारे पतन का कारण हमारे मन का लोभ और हमारे गलत विचार हैं, अन्य कोई कारण नहीं हो सकते| जैसा हम सोचते हैं और जैसे लोगों के साथ रहते हैं, वैसी ही परिस्थितियों का निर्माण हमारे चारों ओर हो जाता है, और हम भी वैसे ही बन जाते हैं| मन का लोभ हमारे पतन का मुख्य कारण है| इस सांसारिक लोभ की दिशा हमें परमात्मा की ओर मोड़नी होगी| लोभ हो, पर हो सिर्फ परमात्मा का, अन्य किसी विषय का नहीं|
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अपने प्रारब्ध कर्मों के फलस्वरूप जो भी परिस्थितियाँ हमें मिली हैं, उन से ऊपर तो हमें उठना ही होगा| इसका एकमात्र उपाय है ..... परमात्मा का ध्यान, ध्यान और ध्यान व समर्पण| अन्य कोई उपाय नहीं है|
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किसी अन्य को दोष देना व्यर्थ है| दुर्बलता स्वयं में ही होती है| बाहर की समस्त समस्याओं का समाधान स्वयं के भीतर ही है| अपनी विफलताओं के लिए हर समय परिस्थितियों को दोष देना उचित नहीं है| हम कभी स्वयं को परिस्थितियों का शिकार न समझें| इससे कोई लाभ नहीं होगा, बल्कि परिस्थितियाँ और भी विकट होती जाएँगी| अच्छी सकारात्मक सोच के मित्रों के साथ रहें| सब मित्रों का एक परम मित्र परमात्मा है जिसकी शरण लेने से सोच भी बदलेगी और परिस्थितियाँ भी बदलेंगी|
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सद्साहित्य के अध्ययन और परमात्मा के नियमित ध्यान से विपरीत से विपरीत परिस्थितियों से जूझने और उनसे ऊपर उठने की शक्ति मिलती है| जीवन के रणक्षेत्र में आहें भरना और स्वयं पर तरस खाना एक कमजोर मन की कायरता ही है| जो साहस छोड़ देते हैं वे अपने अज्ञान की सीमाओं में बंदी बन जाते हैं| जीवन अपनी समस्याओं से ऊपर उठने का एक निरंतर संघर्ष है|
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हमें हर समस्या का समाधान करने का और हर विपरीत परिस्थिति से ऊपर उठने के लिए संघर्ष करने का परमात्मा द्वारा दिया हुआ एक पावन दायित्व है जिससे हम बच नहीं सकते| यह हमारे विकास के लिए प्रकृति द्वारा बनाई गई एक आवश्यक प्रक्रिया है जिसका होना अति आवश्यक है| हमें इसे भगवान का अनुग्रह मानना चाहिए| बिना समस्याओं के कोई जीवन नहीं है| यह हमारी मानसिक सोच पर निर्भर है कि हम उनसे निराश होते हैं या उत्साहित होते हैं|
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जब हम परिस्थितियों के सामने समर्पण कर देते हैं या उनसे हार मान जाते हैं, तब हमारे दुःखों और दुर्भाग्य का आरम्भ होता है|, इसमें किसी अन्य का क्या दोष ??? नियमों को न जानने से किये हुए अपराधों के लिए किसी को क्या क्षमा मिल सकती है? नियमों को न जानना हमारी ही कमी है|
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हमें चाहिए कि हम निरंतर परमात्मा को अपने ह्रदय में रखें और अपने सारे दुःख-सुख, सारे संचित और प्रारब्ध कर्मों के फल व कर्ताभाव अपने प्रियतम मित्र परमात्मा को सौंप दें| इस दुःख, पीड़ाओं, कष्टों और त्रासदियों से भरे महासागर को पार करने के लिए अपनी जीवन रूपी नौका की पतवार उसी परम मित्र को सौंप कर निश्चिन्त हो जाएँ|
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यह संसार ..... आत्मा से परमात्मा के बीच की यात्रा में एक रंगमंच मात्र है| इस रंगमंच पर अपना भाग ठीक से अदा नहीं करने तक बार बार यहीं लौट कर आना पड़ता है| माया के आवरण से परमात्मा दिखाई नहीं देते| यह आवरण विशुद्ध भक्ति से ही हटेगा जिसके हटते ही इस नाटक का रचेता सामने दिखाई देगा| सारे विक्षेप भी भक्ति से ही दूर होंगे|
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प्रभु के श्रीचरणों में शरणागति और पूर्ण समर्पण ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है| गहन से गहन निर्विकल्प समाधी में भी आत्मा को वह तृप्ति नहीं मिलती जो विशुद्ध भक्ति में मिलती है| .मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि ..... पराभक्ति ही है|
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हे प्रभु, हमें अपने ध्यान से विमुख मत करो| हमारा यह देह रुपी साधन सदा स्वस्थ और शक्तिशाली रहे, हमारा ह्रदय पवित्र रहे, व मन सब प्रकार की वासनाओं से मुक्त रहे| हमें सदा के लिए अपनी शरण में ले लो| हर प्रकार की परिस्थितियों से हम ऊपर उठें और स्वयं की कमजोरियों के लिए दूसरों को दोष न दें| हमें अपनी शरण में लो ताकि हमारा समर्पण पूर्ण हो|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
८ सितम्बर २०१६

म्यांमा(र) (बर्मा) के बारे में कुछ पंक्तियाँ .....

म्यांमा(र) (बर्मा) के बारे में कुछ पंक्तियाँ ......
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म्यांमा(र) (पुराना नाम ब्रह्मदेश और कालान्तर में बर्मा) में अनेक हिन्दू भारतीय मारवाड़ी उद्योगपति और अन्य व्यवसायी स्थायी रूप से बस गये थे| वे बहुत समृद्ध थे| पर वहाँ साम्यवादी विचारधारा के सैनिक शासन के आने के बाद सभी भारतीय मूल के उद्योगपति और व्यवसायी बापस भारत लौट आये| मेरा ऐसे अनेक लोगों से परिचय हुआ है| एक तो हमारे ही नगर के बहुत अधिक प्रतिष्ठित दानवीर उद्योगपति स्व.सेठ चौथमल जी गोयनका थे| भारत में "विपश्यना" (विपासना) साधना पद्धति के सबसे बड़े गुरु आचार्य स्व.सेठ सत्यनारायण जी गोयनका भी बर्मा से ही बापस आये थे| मूल रूप से वे चूरू जिले के थे| अन्य भी अनेक लोगों से मेरा मिलना हुआ है जो दक्षिण भारत के नगरों में बस गए थे|
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सन १९३७ तक बर्मा भारत का ही भाग था| सन १९३७ में अंग्रेजों ने इसे भारत से पृथक कर दिया था| ४ जनवरी १९४८ को इसे ब्रिटेन से स्वतन्त्रता मिली| स्वतन्त्रता के बाद यहाँ अनेक गृहयुद्ध हुए| ब्रिटिश शासन के दौरान बर्मा दक्षिण-पूर्व एशिया के सबसे धनी देशों में से था| विश्व का सबसे बड़ा चावल-निर्यातक होने के साथ शाल (टीक) सहित कई तरह की लकड़ियों का भी बड़ा उत्पादक था| वहाँ के खदानों से टिन, चांदी, टंगस्टन, सीसा, तेल आदि प्रचुर मात्रा में निकाले जाते थे| द्वितीय विश्वयुद्ध में खदानों को जापानियों के कब्ज़े में जाने से रोकने के लिए अंग्रेजों ने भारी मात्रा में बमबारी कर के नष्ट कर दिया था| स्वतंत्रता के बाद दिशाहीन समाजवादी नीतियों ने जल्दी ही बर्मा की अर्थ-व्यवस्था को कमज़ोर कर दिया और सैनिक सत्ता के दमन और लूट ने बर्मा को दुनिया के सबसे गरीब देशों की कतार में ला खड़ा किया| यहाँ इतना अन्न होता था कि सड़क का एक कुत्ता भी भूखे पेट नहीं सोता था| पर समाजवादी नीतियों ने इस देश का इतना बुरा हाल कर दिया था कि आधी आबादी भूखे पेट सोने लगी थी|
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यहाँ भारत के अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर को कैद कर रखा गया और यहीं उसे दफ़नाया गया| बरसों बाद बाल गंगाधर तिलक को बर्मा की मांडले जेल में कैद रखा गया| रंगून और मांडले की जेलें अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों की गवाह हैं| बर्मा में बड़ी संख्या में गिरमिटिया मजदूर ब्रिटिश शासन की गुलामी के लिए बिहार से ले जाए गए थे और वे कभी लौट कर नहीं आ सके| उनके वंशज वहाँ रहते हैं| द्वितीय विश्वयुद्ध में यहाँ लाखों भारतीय सैनिक मारे गए थे| यह वो पवित्र धरती है जहां से सुभाष चंद्र बोस ने गरजकर कहा था कि तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा| जब नेताजी ने यहां से आजाद हिंद फौज का ऐलान किया तो भारत में अंग्रेजी शासन की जड़ें हिल गईं थीं| जब अंग्रेजों से भारत को स्वतंत्र कराने के लिए देश के वीरों को अपना घर छोड़ना पड़ता था तो म्यांमा(र) यानि बर्मा उनका दूसरा घर बन जाता था|
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आजकल वहाँ भारत के प्रधानमंत्री गए हुए हैं| भारत की सुरक्षा के लिए भारत के म्यानमा (र) से अच्छे सम्बन्ध होने अति आवश्यक हैं| बर्मा के सैनिक शासकों ने बंगाल की खाड़ी में "कोको" नाम का एक द्वीप चीन को लीज पर दे दिया था जहाँ से चीन भारत पर जासूसी करता है| बंगाल की खाड़ी में इस द्वीप पर चीन की उपस्थिति भारत के लिए खतरा है|


०६ सितम्बर २०१७

श्राद्ध पक्ष .....

श्राद्ध पक्ष .....
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आज से श्राद्ध पक्ष का प्रारम्भ है| श्राद्ध पक्ष में क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इस पर प्रामाणिक रूप से विचार करना चाहिए|
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सभी श्रद्धालू श्राद्ध तो मनाते हैं, पर कई कठिनाइयाँ भी आती हैं, जैसे भोजन के लिए ब्राह्मण देवता नहीं मिलते, गौ ग्रास के लिए देसी गाएँ नहीं मिलती, कौवों के तो दर्शन ही दुर्लभ हो गये है| छोटे कस्बों और गाँवों में तो यह समस्या कम है, पर बड़े नगरों में तो बहुत अधिक है|
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आज की पीढी को तो पता ही नहीं है कि श्राध्द कर्म कैसे करते हैं| लोगों की श्रद्धा भी कम होती जा रही है| पुरुषों की तुलना में महिलाओं को धर्म-कर्म का अधिक ज्ञान है| मुझे यह सत्य लिखने में तनिक भी संकोच नहीं है कि हिन्दू समाज में धर्म-कर्म यदि जीवित हैं तो कुछ कुछ संस्कारित महिलाओं के कारण ही जीवित हैं| महिलाओं में धार्मिकता पुरुषों से अधिक है| पर आज की जो महिलाओं की युवा पीढी है उसे तो धर्म-कर्म का बिलकुल भी ज्ञान नहीं है| जब तक वे बड़ी होंगी तब तक लगता है धर्म-कर्म सब समाप्त होने लगेंगे|
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मुझे तो भविष्य से कोई अपेक्षा नहीं है| जो उचित लगे वह निज जीवन काल में ही कर दो| भविष्य से कोई अपेक्षा मत रखो|
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पुनश्चः : यह मेरी कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं है| यह तो समाज की एक समस्या है | व्यक्तिगत रूप से मेरी कोई समस्या नहीं है |
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः : आधे से अधिक हिन्दू तो श्राद्ध को मानते ही नहीं हैं| बहुत ही अल्प संख्या में ऐसे हैं जो विधि-विधान से करते हैं| ब्राह्मणों के विरुद्ध इतना अधिक दुष्प्रचार हुआ है कि समाज के एक बड़े वर्ग ने तो ब्राह्मणों को निमंत्रित करना ही बंद कर दिया है| ब्राह्मण के स्थान पर वे लोग किसी तीर्थ स्थान पर जाकर साधुओं का भंडारा कर के आ जाते हैं| अधिकाँश ब्राह्मणों ने भी कर्मकांड बंद कर दिया है|
मुझे लगता है कि आज की अधिकाँश मानवता पितृदोष से ग्रस्त है| पर किसी को यह बात कहेंगे तो वह निश्चित रूप से हमारी हँसी ही उड़ायेगा| पितृदोष से मुक्त होने का सुअवसर यह श्राद्ध पक्ष है|

साक्षात्कार हमें स्वयं करना होगा ........

परमात्मा का साक्षात्कार हमें स्वयं करना होगा, दूसरों के साक्षात्कार से हमें मोक्ष नहीं मिल सकता, वह हमारे किसी काम का नहीं है >>>>
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परमात्मा का साक्षात्कार हमें स्वयं करना होगा | दूसरों द्वारा किये हुए साक्षात्कार हमारे किसी काम नहीं आयेंगे | कुछ सम्प्रदाय कहते हैं कि परमात्मा के एक ही पुत्र है, या एक ही पैगम्बर है, सिर्फ उसी में आस्था रखो तभी स्वर्ग मिलेगा, अन्यथा नर्क की शाश्वत अग्नि में झोंक दिए जाओगे |
कुछ सम्प्रदाय या समूह कहते हैं कि हमारे फलाँ फलाँ सदगुरु ने या महात्मा ने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया है, अतः उनका ही ध्यान करो, और उनकी ही भक्ति करो, उन्हीं में आस्था रखो, उनके आशीर्वाद से मोक्ष मिल जाएगा, आदि आदि आदि |
>>> ये सब बातें वेद विरुद्ध हैं जो हमें कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकतीं | फिर भी हम दूसरों के पीछे पीछे मारे मारे फिरते हैं कि संभवतः उनके आशीर्वाद से हमें परमात्मा मिल जाएगा | पर ऐसा होता नहीं है |
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वेदों के ऋषि तो कहते हैं कि परमात्मा का अपरोक्ष साक्षात्कार सभी को हो सकता है, मोक्ष के लिए स्वयं का किया हुआ आत्म-साक्षात्कार ही काम का है, दूसरे का साक्षात्कार हमें मोक्ष नहीं दिला सकता |
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कृष्ण यजुर्वेद शाखा के श्वेताश्वतरोपनिषद में जगत के मूल कारण, ओंकार साधना, परमात्मतत्व से साक्षात्कार, योग साधना, जगत की उत्पत्ति, संचालन व विलय के कारण, विद्या-अविद्या, मुक्ति, आदि का वर्णन किया गया है | ध्यान योग साधना का आरम्भ वेद की इसी शाखा से होता है | बाद में तो इसका विस्तार ही हुआ है |
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जिसने परमात्मा को जान लिया उसे किसी का भय नहीं हो सकता | विराट तत्व को जानने से स्थूल का भय, और हिरण्यगर्भ को जानने से सूक्ष्म का भय नहीं रहता है |

इस उपनिषद् व अन्य उपनिषदों का स्वाध्याय करो, और इनमें दी हुई पद्धति से ध्यान साधना करो, सारे संदेह दूर हो जायेंगे |
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भगवान परम शिव हमारा निरंतर कल्याण कर रहे हैं | अनेक रहस्य इन पंक्तियों को लिखते समय मेरे समक्ष हैं, पर मुझ में उनको व्यक्त करने की सामर्थ्य नहीं है | मैं तो प्रभु का एक उपकरण मात्र हूँ, और कुछ भी नहीं | आत्म-साक्षात्कार की विधियाँ उपनिषदों में दी हुई हैं, बिना आत्म-साक्षात्कार के मोक्ष का कोई उपाय नहीं है| कोई अन्य short cut यहाँ नहीं है |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
०४ सितम्बर २०१७
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पुनश्चः : -- उपरोक्त लेख जोधपुर के स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी को समर्पित है | उन्हीं के आतंरिक आशीर्वाद और प्रेरणा से मैं ये पंक्तियाँ लिख पाया, अन्यथा मेरी कोई सामर्थ्य नहीं है | स्वामी जी कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती जी के शिष्य हैं, और जोधपुर में बिराजते हैं |

अंग्रेजी तिथि से मेरा जन्म दिवस ......

अंग्रेजी तिथि से मेरा जन्मदिवस .....
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 ग्रेगोरियन पंचांग के अनुसार आज ३ सितम्बर २०१७ को यह देह रूपी वाहन ६९ वर्ष पुराना हो गया है | इस देहरूपी वाहन पर ही यह लोकयात्रा चल रही है |
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रामचरितमानस के उत्तरकांड में भगवान श्रीराम ने इस देह को भव सागर से तारने वाला जलयान, सदगुरु को कर्णधार यानि खेने वाला, और अनुकूल वायु को स्वयं का अनुग्रह बताया है | यह भी कहा है कि जो मनुष्य ऐसे साधन को पा कर भी भवसागर से न तरे वह कृतघ्न, मंदबुद्धि और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है |
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो | सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ||
करनधार सदगुरु दृढ़ नावा | दुर्लभ साज सुलभ करि पावा || ४३.४ ||

( यह मनुष्य का शरीर भवसागर [से तारने] के लिये (जहाज) है | मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है | सदगुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेनेवाले) हैं | इस प्रकार दुर्लभ (कठिनतासे मिलनेवाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपासे सहज ही) उसे प्राप्त हो गये हैं | )
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ |
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ||४४||
( जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतध्न और मन्द-बुद्धि है और आत्महत्या करनेवाले की गति को प्राप्त होता है | )
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अतः भवसागर को पार करना और इस साधन का सदुपयोग करना भगवान श्रीराम का आदेश है | मुझे बहुत बड़ी संख्या में शुभ कामना सन्देश मिले हैं | मैं उन सभी का उत्तर इस प्रस्तुति द्वारा दे रहा हूँ |
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आप सब को सादर साभार नमन | आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्तियाँ हैं | सब का कल्याण हो | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
०३ सितम्बर २०१७.
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मेरी आयु एक ही है, और वह है ... "अनंतता" .....
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जिस मानव देहरूपी नौका पर मैं इस जीवन-मृत्यु रूपी भव सागर को पार कर रहा हूँ, ..... वह नौका, उसके कर्णधार सद् गुरू, अनुकूल वायुरूप परमात्मा, और यह भवसागर ..... सब एक ही हैं | "उनके" सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है | वास्तव में मैं यह देह नहीं अपितु अनंत शाश्वत चैतन्य हूँ | मेरी आयु एक ही है, और वह है ..... अनन्तता | परम प्रेम मेरा स्वभाव है | यह पृथकता का बोध ही माया है जो सत्य नहीं है | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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My age is infinity, so it is only one. This bodily boat on which I am sailing across the ocean of life and death, the helmsman .... my guru, favorable wind .... the Divine, and I, are all one. There is no separation. The feeling of separation is false. Om Thou art That. Om Om Om .

जगत मजूरी देत है, क्यों न दे भगवान ......

जगत मजूरी देत है, क्यों न दे भगवान ......
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मुझे जीवन में ऐसे अनेक साधक मिले हैं जो अपना दैनिक कार्य करते हुए भी नित्य नियम से कम से कम कुल तीन घंटों तक, और सप्ताह में एक दिन कुल आठ घंटों तक परमात्मा का ध्यान करते थे | मुझे ऐसे साधकों से बड़ी प्रेरणा मिलती थी | ऐसे ही साधकों से मिलने में आनंद आता है | ऐसे साधकों में नौकरी करने वाले भी थे और स्वतंत्र व्यवसाय करने वाले भी | कुछ परिचित लोगों ने तो सेवानिवृति के पश्चात् अपना पूरा समय ही परमात्मा का ध्यान और सेवा के लिए समर्पित कर दिया |
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मुझे स्वयं पर तरस आता है | जब नौकरी करता था तब नित्य कम से कम आठ-दस घंटों तक काम करना पड़ता था तब जाकर वेतन मिलता था | फिर भी नित्य दो-तीन घंटे भगवान के लिए निकाल ही लिया करता था |
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पर अब सेवा निवृति के पश्चात वे ही आठ-दस घंटे परमात्मा को नहीं दे सकता, बड़े शर्म की बात है | लानत है ऐसे जीवन पर | धीरे धीरे समय बढ़ाना चाहिए | प्रमाद और दीर्घसूत्रता जैसे विकार उत्पन्न हो रहे हैं, जिनसे विक्षेप हो रहा है | अतः साधू, सावधान ! संभल जा, अन्यथा सामने नर्क की अग्नि है |
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कोई प्रार्थना भी नहीं कर सकता | प्रार्थना तो उस से की जाती है जो स्वयं से दूर हो | प्रार्थना के लिए कुछ तो दूरी चाहिए | पर यहाँ तो कुछ दूरी है ही नहीं |

हे प्रभु, आप ने ह्रदय में तो बैठा लिया पर अपने ध्यान से विमुख मत करो |
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मित्रों को यही कहना चाहूँगा कि खूब ध्यान करो | यह संसार भी मजदूरी देता ही है, तो भगवान क्यों नहीं देंगे ? भगवान के लिए खूब मजदूरी करो | जितनी मजदूरी करोगे उससे अधिक ही मिलेगा |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

इस सृष्टि का भविष्य सनातन वैदिक धर्म पर निर्भर है .....

इस सृष्टि का भविष्य सनातन वैदिक धर्म पर निर्भर है .....
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परमात्मा की सर्वाधिक अभिव्यक्ति भारत में ही हुई है अतः इस पृथ्वी का भविष्य भारत पर निर्भर है, और भारत का भविष्य सनातन धर्म पर निर्भर है | इस समस्त सृष्टि का भविष्य भी इस पृथ्वी पर निर्भर है चाहे भौतिक रूप से अनन्त कोटि ब्रह्मांडों में यह पृथ्वी नगण्य है | धर्म विहीन सृष्टि का सम्पूर्ण विनाश सुनिश्चित है |
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जब भी किसी के ह्रदय में परमात्मा को पाने की अभीप्सा जागृत होती है तो वह भारत की ओर ही देखता है | सनातन धर्म पर बहुत अधिक सोची समझी कुटिलताओं द्वारा सर्वाधिक क्रूर बौद्धिक मर्मान्तक प्रहार असुर ईसाई मिशनरियों द्वारा हुए हैं, और अभी भी हो रहे हैं |
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अरब, फारस और मध्य एशिया से आये लुटेरों ने तो अत्यधिक भयावह नरसंहार, देवस्थानों का विध्वंस, और बलात् धर्म परिवर्तन ही किया, और अभी भी वे पाशविक शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण विश्व पर एकाधिकार की सोच रहे हैं |
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पर ईसाई आक्रान्ताओं ने तो बहुत सोच समझ कर कुटिल धूर्तता से भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था और कृषि व्यवस्था को नष्ट कर धर्म की जड़ें ही खोद दी हैं | उन्होंने हमारे अनेक धर्मग्रंथों में मिलावट कर के प्रक्षिप्त कर दिया, अधिकाँश धर्मग्रंथ नष्ट कर दिए और हमें बहुत अधिक बदनाम भी किया है | वे हमारी सारी धन संपदा को लूट कर हमें निर्धन बना गए, और अभी भी हम उनके मानसपुत्रों की दासता सह रहे हैं | उनके लिए उनका पंथ एक माध्यम है अपनी राजनीतिक सत्ता के विस्तार के लिए | ईश्वर भी एक माध्यम है उनके लिए, असली लक्ष्य तो अपने वर्चस्व का विस्तार है |
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जिन्होंने उनके मत की स्थापना की थी उन ईसा मसीह ने तो फिलिस्तीन से 13 वर्ष की उम्र में ही भारत आकर 30 वर्ष की उम्र तक यानि 17 वर्षों तक भारत में ही रह कर अध्ययन और साधना की थी | तत्पश्चात 3 वर्ष के लिए वे बापस फिलीस्तीन चले गए थे | वहाँ सनातन धर्म का प्रचार किया, व ३३ वर्ष की उम्र में सूली से जीवित बचकर भारत में ही बापस आकर 112 वर्ष तक की उम्र पाने के पश्चात कश्मीर के पहलगांव में देह त्याग किया था |
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भारत नष्ट नहीं होगा और सनातन धर्म भी कभी नष्ट नहीं होगा | नष्ट होगा तो हमारा अहंकार और हमारी पृथकता ही नष्ट होगी |
हमारा धर्म है ... आत्मज्ञान द्वारा निज जीवन में परमात्मा की अभिव्यक्ति | हम अपने निज जीवन में धर्म का पालन करें, यही धर्म की रक्षा होगी |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

हमारा पृथक अस्तित्व उस परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है .....

हमारा पृथक अस्तित्व उस परम प्रेम और परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है .....
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धरती ने ऐसा क्या तप किया है ? आकाश ने कौन सा योग किया है ? सूर्य-चन्द्रमा ने क्या कोई यज्ञ किया है ? सूर्य, चन्द्र और तारों को चमकने के लिए क्या साधना करनी पडती है ? पुष्प को महकने के लिए कौन सी तपस्या करनी पडती है ? महासागर को गीला होने के लिए कौन सा तप करना पड़ता है ?
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शांत होकर प्रभु को अपने भीतर बहने दो | उसकी उपस्थिति के सूर्य को अपने भीतर चमकने दो| जब उसकी उपस्थिति के प्रकाश से ह्रदय पुष्प की भक्ति रूपी पंखुड़ियाँ खिलेंगी तो उसकी महक हमारे ह्रदय से सर्वत्र फ़ैल जायेगी |
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जब हम कभी एक अति उत्तुंग पर्वत शिखर से नीचे की गहराई में झाँकते हैं तो वह डरावनी गहराई भी हमारे में झाँकती है | ऐसे ही जब हम नीचे से अति उच्च पर्वत को घूरते हैं तो वह पर्वत भी हमें घूरता है | जिसकी आँखों में हम देखते हैं, वे आँखें भी हमें देखती हैं | जिससे भी हम प्रेम या घृणा करते हैं, उससे वैसी ही प्रतिक्रिया कई गुणा होकर हमें ही प्राप्त होती है |
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जब हम प्रभु को प्रेम करते हैं तो वह प्रेम अनंत गुणा होकर हमें ही प्राप्त होता है | वह प्रेम हम स्वयं ही है | प्रभु में हम समर्पण करते हैं तो प्रभु भी हम में समर्पण करते हैं | जब हम शिवत्व में विलीन हो जाते हैं तो वह शिवत्व भी हम में ही विलीन हो जाता है और हम स्वयं साक्षात् शिव बन जाते हैं |
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जहाँ न कोई क्रिया-प्रतिक्रिया है, न कोई मिलना-बिछुड़ना है, कोई अपेक्षा या माँग नहीं है, जो बैखरी मध्यमा पश्यन्ति और परा से भी परे है, वह असीमता, अनंतता व सम्पूर्णता हम स्वयं ही हैं |
हमारा पृथक अस्तित्व उस परम प्रेम और परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है |
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

01 सितम्बर 2014

आत्मा में श्रद्धा .....

आत्मा में श्रद्धा .....
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आत्मा ही सत्य है, आत्मा ही तत्व है, आत्मा ही हमारा वास्तविक स्वरुप है, और आत्मा में श्रद्धा ही आलोक के सारे द्वार खोलती है | श्रद्धा ही सारे फल देती है और यह श्रद्धा ही है जिसने हमें यह जीवन दे रखा है | श्रद्धा हर प्रकार के भटकाव से हमारी रक्षा करती है |
श्रद्धा और विश्वास ही पुरुष व प्रकृति हैं, श्रद्धा और विश्वास ही भवानी शंकर हैं, श्रद्धा और विश्वास ही परम पिता और जगन्माता हैं |
संत तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस के आरम्भ में ही श्रद्धा-विश्वास के रूप में भवानी शंकर की वन्दना की है .....
भवानी शङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ | याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम् ||

हे प्रभु, हमारी श्रद्धा, हमारी आस्था कभी विचलित न हो |
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
३१ अगस्त २०१७

परमात्मा से कम हमें कुछ भी नहीं चाहिए >>>

परमात्मा से कम हमें कुछ भी नहीं चाहिए >>>>>
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अंतर्रात्मा की घोर व्याकुलता और तड़फ ...... वास्तव में परमात्मा के लिए ही होती है | हमारा अहंकार ही हमें परमात्मा से दूर ले जाता है | हमारी अंतर्रात्मा जो हमारा वास्तविक अस्तित्व है को आनंद सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के ध्यान में ही आता है | हमारी खिन्नता का कारण अहंकारवश अन्य विषयों की ओर चले जाना है | वास्तविक सुख, शांति, सुरक्षा और आनंद सिर्फ और सिर्फ परमात्मा में ही है, अन्यत्र कहीं भी नहीं |
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जितनी दीर्घ अवधी तक गहराई के साथ हम ध्यान करेंगे, उसी अनुपात में उतनी ही आध्यात्मिक प्रगति होगी | मात्र पुस्तकों के अध्ययन से संतुष्टि नहीं मिल सकती | पुस्तकों को पढने से प्रेरणा मिलती है, यही उनका एकमात्र लाभ है |
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जिसे उपलब्ध होने के लिए ह्रदय में एक प्रचंड अग्नि जल रही है, चैतन्य में जिसके अभाव में ही यह सारी तड़प और वेदना है, वह परमात्मा ही है | जानने और समझने योग्य भी एक ही विषय है, जिसे जानने के पश्चात सब कुछ जाना जा सकता है, जिसे जानने पर हम सर्वविद् हो सकते हैं, जिसे पाने पर परम शान्ति, परम संतोष व संतुष्टि प्राप्त हो सकती है, वह है ... परमात्मा |
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जिससे इस सृष्टि का उद्भव, स्थिति और संहार यानि लय होता है .... वह परमात्मा ही है | वह परमात्मा ही है जो सभी रूपों में व्यक्त हो रहा है | जो कुछ भी दिखाई दे रहा है या जो कुछ भी है, वह परमात्मा ही है | परमात्मा से भिन्न कुछ भी नहीं है | इसकी अनुभूति गहन ध्यान में ही होती है, बुद्धि से नहीं | परमात्मा अनुभव गम्य है, बुद्धि गम्य नहीं |
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सारी पूर्णता, समस्त अनंतता और सम्पूर्ण अस्तित्व परमात्मा ही है | उस परमात्मा को हम चैतन्य रूप में प्राप्त हों, उसके साथ एक हों | उस परमात्मा से कम हमें कुछ भी नहीं चाहिए |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
३१ अगस्त २०१७