Saturday, 3 December 2016

'उपासना' क्या है और यह 'तैलधारा' के समान क्यों होनी चाहिए ? ...

'उपासना' क्या है और यह 'तैलधारा' के समान क्यों होनी चाहिए ? ....
उपासना का शाब्दिक अर्थ है .... समीप बैठना|
हमें किसके समीप बैठना चाहिए ? मेरी चेतना में एक ही उत्तर है ... गुरु रूप ब्रह्म के| गुरु रूप ब्रह्म के सिवाय अन्य किसी का अस्तित्व चेतना में होना भी नहीं चाहिए| यहाँ यह भी विचार करेगे कि गुरु रूप ब्रह्म क्या है|
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भगवान आदि शंकराचार्य के अनुसार "उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बनाकर, उसके समीप पहुँचकर, तैलधारा के सदृश समान वृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थिर रहने को उपासना कहते हैं"| (गीता 12.3 पर शांकर भाष्य)।
यहाँ उन्होंने "तैलधारा" शब्द का प्रयोग किया है जो अति महत्वपूर्ण है| तैलधारा के सदृश समानवृत्तियों का प्रवाह क्या हो सकता है? पहले इस पर विचार करना होगा|
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योगियों के अनुसार ध्यान साधना में जब प्रणव यानि अनाहत नाद की ध्वनी सुनाई देती है तब वह तैलधारा के सदृश होती है| प्रयोग के लिए एक बर्तन में तेल लेकर उसे दुसरे बर्तन में डालिए| जिस तरह बिना खंडित हुए उसकी धार गिरती है वैसे ही अनाहत नाद यानि प्रणव की ध्वनी सुनती है| प्रणव को परमात्मा का वाचक यानि प्रतीक कहा गया है|
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समानवृत्ति क्या हो सकती है??? जहाँ तक मैं समझता हूँ इसका अर्थ है श्वास-प्रश्वास और वासनाओं की चेतना से ऊपर उठना| चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है| अतः समानवृत्ति शब्द का यही अर्थ हो सकता है|
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मेरी सीमित बुद्धि से "उपासना" का अर्थ .... हर प्रकार की चेतना से ऊपर उठकर ओंकार यानि अनाहत नाद की ध्वनी को सुनते हुए उसी में लय हो जाना है|
मेरी दृष्टी में यह ओंकार ही गुरु रूप ब्रह्म है|
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योगी लोग तो ओंकार से भी शनेः शनेः ऊपर उठने की प्रेरणा देते हैं क्योंकि ओंकार तो उस परम शिव का वाचक यानि प्रतीक मात्र है जिस पर हम ध्यान करते हैं| हमारी साधना का उद्देश्य तो परम शिव की प्राप्ति है
उपासना तो साधन है, पर उपास्य यानि साध्य हैं ..... परम शिव|
उपासना का उद्देश्य उपास्य के साथ एकाकार होना ही है|
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"उपासना" और "उपनिषद्" दोनों का अर्थ एक ही है| प्रचलित रूप में परमात्मा की प्राप्ति के किसी भी साधन विशेष को "उपासना" कहते हैं|
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व्यवहारिक रूप से किसी व्यक्ति में कौन सा गुण प्रधान है उससे वैसी ही उपासना होगी| उपासना एक मानसिक क्रिया है| उपासना निरंतर होती रहती है|
मनुष्य जैसा चिंतन करता है वैसी ही उपासना करता है|
तमोगुण की प्रधानता अधिक होने पर मनुष्य परस्त्री/परपुरुष व पराये धन की उपासना करता है जो उसके पतन का कारण बनती है| चिंतन चाहे परमात्मा का हो या परस्त्री/पुरुष का, होता तो उपासना ही है|
रजोगुण प्रधान व सतोगुण प्रधान व्यक्तियों की उपासना भी ऐसे ही अलग अलग होगी|
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अतः एक उपासक को सर्वदा सत्संग करना चाहिए और किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग करना चाहिए क्योंकि संगति का असर पड़े बिना रहता नहीं है| मनुष्य जैसे व्यक्ति का चिंतन करता है वैसा ही बन जाता है| योगसूत्रों में एक सूत्र आता है ..... "वीतराग विषयं वा चित्तः", इस पर गंभीरता से विचार करें|
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उपासना के लिए व्यक्त तथा अव्यक्त दोनों आधार मान्य हैं| जीव वस्तुत: शिव ही है, परंतु अज्ञान के कारण वह इस प्रपंच के पचड़े में पड़कर भटकता फिरता है। अत: ज्ञान के द्वारा अज्ञान की ग्रंथि का भेदन कर अपने परम शिवत्व की अभिव्यक्ति करना ही उपासना का लक्ष्य है|
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साधारणतया दो मार्ग उपदिष्ट हैं - ज्ञानमार्ग तथा भक्तिमार्ग।
ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश कर जब परमतत्व का साक्षात्कार संपन्न होता है, तब उस उपासना को ज्ञानमार्गीय संज्ञा दी जाती है।
भक्तिमार्ग में भक्ति ही भगवान्‌ के साक्षात्कार का मुख्य साधन स्वीकृत की जाती है।
शाण्डिल्य के अनुसार भक्ति ईश्वर में सर्वश्रेष्ठ अनुरक्ति है। नारद जी के अनुसार ईश्वर से परम प्रेम ही भक्ति है|
दोनों ही मार्ग उपादेय तथा स्वतंत्र रूप से फल देनेवाले हैं।
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उपासना में गुरु की बड़ी आवश्यकता है। गुरु के उपदेश के अभाव में साधक कर्णधार रहित नौका पर सवार के सामान है जो अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचने में समर्थ नहीं होता।
गीता और सारे उपनिषद ओंकार की महिमा से भरे पड़े हैं| अतः मुझ जैसे अकिंचन व अल्प तथा सीमित बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए स्वभाववश ओंकार का ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ उपासना है|
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ॐ शिव| शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि| ॐ ॐ ॐ||

जातिवाद समाप्त कैसे हो ? .....

> यदि किसी से किसी मंदिर के पुजारी ने जाति पूछ ली तो भावनाएं क्यों आहत हो रही हैं? >>
आप आरक्षण लेने ले लिए अपनी जाति क्यों बताते हैं? आरक्षित वर्ग का फॉर्म भरते समय जब फॉर्म में जाति पूछी जाती है, उस समय आपकी भावनाएं आहत क्यों नहीं होतीं? उस समय अपनी जाति बताते हुए आपका मान सम्मान क्यों बढ़ जाता है और गर्व से भर जाता है?
>>>
मंदिर में पूजा कराते समय जाति और गौत्र सबसे पूछा जाता है|
अगर पूछ भी लिया तो इसमें भड़कने की कौन सी बात है?
>>>>
सरकार को संबिधान में संसोधन कर किसी भी दस्तावेज में जाति लिखना बंद करवा देना चाहिए समस्या स्वतः हल हो जाएगी|

मैं और कूटस्थ चैतन्य .....

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |
(1) कूटस्थ-चैतन्य ही मेरा अदृष्य आश्रम है, कूटस्थ-चैतन्य ही मेरा अदृष्य घर, मंदिर, निवास और तीर्थ है | कूटस्थ-चैतन्य ही मेरा आश्रय है | कूटस्थ-चैतन्य ही मेरा इष्ट है और कूटस्थ-चैतन्य ही मेरा उपास्य है | परमात्मा की परम चेतना ही मेरा कूटस्थ है |
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(2) मेरे विचार ही मेरे श्रोता हैं जिन्हें मैं बताता हूँ कि उन्हें क्या सोचना है|
मेरे विचारों को मैं आदेश देता हूँ कि कभी नकारात्मक मत सोचो और सरल जीवन जीओ |

अपने विचारों को ही मैं बताता हूँ कि सृष्टि में मूल रूप से कोई पापी नहीं है, सभी परमात्मा के अमृतपुत्र हैं, परमात्मा को भूलना ही पाप है और परमात्मा का स्मरण ही पुण्य है | परमात्मा को भूलकर तुम कभी प्रसन्न नहीं हो सकते |
अपने विचारों को ही मैं बताता हूँ कि पूरी सृष्टि तुम्हारा परिवार है जहाँ शांति से रहो, तुम्हारे में कोई कमी नहीं है, यही तुम्हारा धर्म और जीवन है |
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||

भारतवर्ष में सोना और खून .....

भारतवर्ष में सोना और खून .....
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वर्षों पहिले आचार्य चतुरसेन शास्त्री का लिखा एक उपन्यास पढ़ा था जिसका नाम था ... "सोना और खून"| वह वास्तव में एक बहुत शानदार ऐतिहासिक उपन्यास था| जिन्होनें वह उपन्यास नहीं पढ़ा है उन्हें एक बार उसे अवश्य पढ़ लेना चाहिए| भारतवर्ष के उत्थान और पतन के पीछे इसी सोने का हाथ रहा है| सारे खून-खराबे भी उसी सोने के लिए हुए हैं|
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भारतवर्ष जब अपने वैभव के चरम शिखर पर था तब लोग सोने की थालियों में भोजन कर के उस थाली को नदियों में फेंक दिया करते थे| राजा लोग हजारों गायों के सींग और खुर सोने से मंढ़ कर ऋषियों को दान में दे दिया करते थे|
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उसी सोने को लूटने के लिए ही भारत पर अरब, फारस और मध्य एशिया के लुटेरों के आक्रमण हुए| उसी सोने का आनन्द भोगने के लिए उन निर्मम लुटेरों ने भारत पर राज्य किया|
उसी सोने को लूटने के लिए ही पुर्तगाली, फ़्रांसिसी और अन्ग्रेज लुटेरे भारत आये| उस लूट के सोने ही यूरोप और अमेरिका आज समृद्ध हैं|
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भारतवर्ष में आज भी उसी सोने की ही चाह सबसे अधिक है| सोने को ही लक्ष्मी जी माना गया है जिसके लिए आज भी सभी व्याकुल हैं| सोना समृद्धि का जहाँ प्रतीक रहा है वहीं अहंकार का भी| रावण की लंका भी सोने की ही थी| कुल मिला कर सोना जहाँ पवित्र है वहीँ हर बुराई की भी जड़ है|
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हे प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी , सप्रेम नमस्कार !
निवेदन है कि स्वर्ण ( सोना ) को राष्ट्र की संपत्ति घोषित कर दें |
बड़ा उपकार होगा । समस्याओं का अंत होगा |
माननीय श्री मोरारजी देसाई ने भी प्रयास किया था पर सफल नहीं हुए|
आप अवश्य सफल होंगे | आज जो मारामारी चल रही है वह इसी सोने के लिए ही है |
धन्यवाद !
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पुनश्चः .....
सार :- जब सोना यानी समृद्धि हो तब उसे सुरक्षित रखने का सामर्थ्य भी चाहिए, अन्यथा चारों ओर से लुटेरे आंधी की तरह आने लगेंगे| महमूद गज़नवी ने सोमनाथ पर आक्रमण क्यों किया? क्यों भारत पर इतने विदेशियों के आकमण हुए? हम पराधीन क्यों हुए? क्योंकि हमारे में इतनी सद्गुण विकृतियाँ आ गयी थीं, हम इतने असंगठित हो गए थे कि अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो गए थे| आज की तारीख में विपक्षी दलों ने संसद को क्यों ठप्प कर रखा है? क्योंकि उनका धन खतरे में है, और कोई कारण नहीं है| मेरा यह लेख प्रतीकात्मक है| हमें समृद्धि चाहिए पर वह समृद्धि हमारे आध्यात्मिक विकास में बाधक न हो| सभी को धन्यवाद !

भारतवर्ष में धर्म और परमात्मा की सर्वाधिक और सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हुई है .....

भारतवर्ष में धर्म और परमात्मा की सर्वाधिक और सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हुई है|
यह ऋषि-मुनियों का, संत-महात्माओं का और त्यागी-तपस्वियों का देश सदा पददलित और किसी भी तरह से अब और दरिद्र नहीं रह सकता| भारतवर्ष के पुनरोत्थान का कार्य आरम्भ हो चुका है| इसके पीछे संत-महात्माओं का ब्रह्मतेज और संकल्प है|
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इसमें सूक्ष्म जगत की सभी सकारात्मक शक्तियाँ, देवी-देवता, सप्त चिरंजीवी और सभी गुप्त सिद्ध योगियों का योगदान हो रहा है| एक विराट आध्यात्मिक शक्ति ने अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया है| ईश्वर की ऐसी ही इच्छा है जिसके विरुद्ध कोई भी असत्य और अन्धकार की आसुरी शक्ति नहीं टिक सकती|
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अन्धकार का युग समाप्त हो चुका है और कालचक्र के एक नए आरोही युग में हमारा पदार्पण हो चुका है जिसमें आगे विकास ही विकास है| हम अपनी पूर्णता को प्राप्त करें|
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते |पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन और आप सब को अहैतुकी प्रेम | ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ तत्सत् | ॐ शिव शिव शिव | ॐ ॐ ॐ

गुरु, शिष्य और परमात्मा ..... तत्व रूप में सब एक ही हैं .....

गुरु, शिष्य और परमात्मा ..... तत्व रूप में सब एक ही हैं, उनका आभास ही पृथक पृथक है| गुरु सब नाम, रूप और उपाधियों से परे है| गुरु ही ब्रह्म है, गुरु ही वासुदेव है और गुरु ही परमशिव है| आध्यात्म में तत्व को अनुभूत किया जा सकता है पर उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता|
उदाहरण के लिए यदि हम अपनी आँखों को देखना चाहें तो नहीं देख सकते| पर एक दर्पण को मुख के सामने लें तो आँखें दिखाई दे जाएँगी|
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गहन ध्यान में जब हमारी चेतना इस भौतिक देह से परे परमात्मा की सर्वव्यापकता के साथ एक हो जाती है और अखंड ब्रह्माकार वृत्ति बन जाती है, उस समय जो बोध होता है वह तत्वज्ञान है| जिसका बोध हुआ वह तो प्रतिबिम्ब है, परन्तु जिसका हमने बोध किया वह तत्व रूप में हम स्वयं हैं| यहीं पर गुरु, शिष्य और परमात्मा सब एक हो जाते हैं| परमात्मा ही है जो सभी में और सर्वत्र प्रतिबिंबित हो रहा है| इसे गहराई से समझने के लिए अष्टांग योग का सहारा लेना पडेगा|
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प्रिय निजात्मगण, आप सब में प्रतिबिंबित गुरु और परमात्मा को नमन |
ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमःशिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

प्रियतम, मैं तुम्हारे साथ एक हूँ .....

हे प्रियतम, मैं तुम्हारे साथ एक हूँ और तुम्हारा प्रियतम पुत्र हूँ .....
तुम्हारी पूर्णता मेरी पूर्णता है, तुम्हारी अनंतता मेरी अनंतता है, तुम्हारा प्रेम मेरा प्रेम है और तुम ही मेरे प्राण, सर्वस्व और अस्तित्व हो |
तुम ही तुम हो, तुम ही तुम हो, तुम ही तुम हो, मैं नहीं हूँ |
तुम सभी को सदा प्यारे लगो |
ऐसी व्याकुलता और ऐसी अग्नि सब के ह्रदय में भर दो कि कोई भी तुम्हारे बिना न रह सके |
अपनी प्रेममयी उपस्थिति सब में प्रकट करो |
ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ ||

अजहुँ चेत गँवार .....

(ओशो की बताई हुई यह कहानी बड़ी शानदार है अवश्य पढ़ें, इसके पीछे एक सत्य भी छिपा है)
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“सम्राट का बेटा”
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एक सम्राट का बेटा बिगड़ गया। गलत संग–साथ में पड़ गया। बाप नाराज़ हो गया। बाप ने सिर्फ़ धमकी के लिए कहा कि, “तुझे निकाल बाहर कर दूँगा... या तो अपने को ठीक कर ले या मेरा महल छोड़ दे।” सोचा नहीं था बाप ने कि लड़का महल छोड़ देगा। छोटा ही लड़का था। लेकिन लड़के ने महल छोड़ दिया। बाप का ही तो बेटा था, सम्राट का बेटा था, ज़िद्दी था। फिर तो बाप ने बहुत खोजा, उसका कुछ पता न चले। वर्षों बीत गए। बाप बूढ़ा... रोते–रोते उसकी आँखें धुँधिया गईं। एक ही बेटा था। उसका ही ये सारा साम्राज्य था। पछताता था बहुत कि मैंने किस दुर्दिन में, किस दुर्भाग्य के क्षण में ये वचन बोल दिया कि तुझे निकाल बाहर कर दूँगा!
ऐसे कोई बीस साल बीत गए और एक दिन उसने देखा कि महल के सामने एक भिखारी खड़ा है। और बाप एकदम पहचान गया। उसकी आँखों में जैसे फिर से ज्योति आ गई। ये तो उसका ही बेटा है। लेकिन बीस साल! बेटा तो बिलकुल भूल चुका कि वो सम्राट का बेटा है। बीस साल का भिखमंगापन किसको न भुला देगा! बीस साल द्वार–द्वार, गाँव-गाँव, रोटी के टुकड़े माँगता फिरा।
बीस साल का भिखमंगापन पर्त-पर्त जमता गया, भूल ही गई ये बात कि कभी मैं सम्राट था। किसको याद रहेगी! भुलानी भी पड़ती है, नहीं तो भिखमंगापन बड़ा कठिन हो जाएगा, भारी हो जाएगा। सम्राट होके भीख माँगना बहुत कठिन हो जाएगा। जगह–जगह दुतकारे जाना; कुत्‍ते की तरह लोग व्यवहार करें; द्वार-द्वार कहा जाए, आगे हट जाओ... भीतर का सम्राट होगा तो वो तलवार निकाल लेगा। तो भीतर के सम्राट को तो धुँधला करना ही पड़ा था, उसे भूल ही जाना पड़ा था। यही उचित था, यही व्यवहारिक था कि ये बात भूल जाओ।
और कैसे याद रखोगे? जब चौबीस घण्टे याद एक ही बात की दिलवाई जा रही हो चारों तरफ़ से कि भिखमंगे हो, लफंगे हो, आवारा हो, चोर हो, बेईमान हो... कोई द्वार पर टिकने नहीं देता, कोई वृक्ष के नीचे बैठने नहीं देता, कोई ठहरने नहीं देता... लो रोटी, आगे बढ़ जाओ... मुश्किल से रोटी मिलती है। टूटा-फूटा पात्र! फटे–पुराने वस्‍त्र! नये वस्‍त्र भी बीस वर्षो में नहीं ख़रीद पाया। दुर्गन्ध से भरा हुआ शरीर। भूल ही गए वे दिन... सुगन्ध के, महल के, शान के, सुविधा के, गौरव-गरिमा के। वे सब भूल गए। बीस साल की धूल इतनी जम गई दर्पण पर कि अब दर्पण में कोई प्रतिबिंब नहीं बने।
तो बेटे को तो कुछ पता नहीं, वो तो ऐसे ही भीख माँगता हुआ इस गाँव में भी आ गया है, जैसे और गावों में गया था। ये भी और गाँवों जैसा गाँव है। लेकिन बाप ने देखा खिड़की से ये तो उसका बेटा है। नाक-नक़्श सब पहचान में आता है। धूल कितनी ही जम गई हो, बाप की आँखों को धोखा नहीं दिया जा सका। बेटा भूल जाए, बाप नहीं भूल पाता है। मूल स्रोत नहीं भूल पाता है। उदगम नहीं भूल पाता है। उसने अपने वज़ीर को बुलाया कि, “क्या करूँ?” वज़ीर ने कहा, “ज़रा सम्हल के काम करना। अगर एकदम से कहा तो ये बात इतनी बड़ी हो जाएगी कि इसे भरोसा नहीं आएगा। ये बिलकुल भूल गया है, नहीं तो इस द्वार पे आता ही नहीं। इसे याद नहीं है। ये भीख माँगने खड़ा है। थोड़े सोच-समझ के क़दम उठाना। अगर एकदम से कहा कि तू मेरा बेटा है, तो ये भरोसा नहीं करेगा, ये तुम पर संदेह करेगा। थोड़े धीरे–धीरे क़दम, क्रमश:।
तो बाप ने पूछा, “क्या किया जाए?” उसने कहा, “ऐसा करो कि उसे बुलाओ।” उसे बुलाने की कोशिश की तो वो भागने लगा। उसे महल के भीतर बुलाया तो वो महल के बाहर भागने लगा। नौकर उसके पीछे दौड़ाए तो उसने कहा कि, “ना भाई, मुझे भीतर नहीं जाना। मैं ग़रीब आदमी, मुझे छोड़ो। मैं ग़लती हो गई कि महल में आ गया, राजा के दरबार में आ गया। मैं तो भीख माँगता हूँ। मुझे भीतर जाने की कोई ज़रूरत नहीं।”
वो तो बहुत डरा, सज़ा मिले कि कारागृह में डाल दिया जाए कि पता नहीं क्या अड़चन आ जाए! लेकिन नौकरों ने समझाया कि, “मालिक तुम्हें नौकरी देना चाहता है, उसे दया आ गई है।” तो वो आया। लेकिन वो महल के भीतर क़दम न रखता था। वो महल के बाहर ही झाड़ू-बुहारी लगाने का उसे काम दे दिया गया। फिर धीरे- धीरे जब वो झाड़ू-बुहारी लगाने लगा और महल से थोड़ा परिचित होने लगा, और थोड़ी पदोन्नति की गई, फिर और थोड़ी पदोन्नति की गई। फिर वो महल के भीतर भी आने लगा। फिर उसके कपड़े भी बदलवाए गए। फिर उसको नहलवाया भी गया। और वो धीरे –धीरे राज़ी होने लगा। ऐसे बढ़ते–बढ़ते वर्षों में उसे वज़ीर के पद पर लाया गया। और जब वो वज़ीर के पद पर आ गया तब सम्राट ने एक दिन बुलाके उसने कहा कि, “तू मेरा बेटा है।”
तब वो राज़ी हो गया। तब उसे भरोसा आ गया। इतनी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ी। ये बात पहले दिन ही कही जा सकती थी।
तुमसे मैं कहता हूँ, तुम परमात्मा हो। तुम्हें भरोसा नहीं आता। तुम कहते हो कि सिद्धान्त की बात होगी... मगर मैं और परमात्मा! मैं तुमसे रोज़ कहता हूँ, तुम्हें भरोसा नहीं आता। इसलिए तुमसे कहता हूँ... ध्यान करो, भक्‍ति करो। चलो झाड़ा-बुहारी से शुरू करो। ऐसे तो अभी हो सकती है बात, मगर तुम राज़ी नहीं। ऐसे तो एक क्षण खोने की ज़रूरत नहीं है, ऐसे तो क्रमिक विकास की कोई आवश्कता नहीं है। एक छलांग में हो सकती है। मगर तुम्हें भरोसा नहीं आता, तो मैं कहता हूँ चलो झाड़ू-बुहारी लगाओ। फिर धीरे–धीरे पदोन्नति होगी। फिर धीरे–धीरे, धीरे–धीरे बढ़ना। फिर एक दिन जब आख़िरी घड़ी आ जाएगी, वज़ीर की जगह आ जाओगे, जब समाधि की थोड़ी सी झलक पास आने लगेगी, ध्यान की स्फुरणा होने लगेगी, तब यही बात एक क्षण में तुम स्वीकार कर लोगे। तब इस बात में श्रद्धा आ जाएगी।
- ओशो (अजहुँ चेत गँवार)

हमारे प्रारब्ध कर्मों का फल .....

हम जो कुछ भी हैं और जैसी भी परिस्थिति में हैं वह हमारे प्रारब्ध कर्मों का फल यानि भोग है, इसमें किसी अन्य का कोई दोष नहीं है| ये प्रारब्ध कर्म तो भोगने ही पड़ेंगे, इन्हें टाल नहीं सकते| हाँ, भक्ति से पीड़ा कम अवश्य हो जाती है, पर टलती नहीं है| प्रकृति अपना कार्य पूरी ईमानदारी से अपने नियमानुसार करती है जिसमें कोई भेदभाव नहीं है| नियमों को हम नहीं समझते तो इसमें दोष अपना ही है, प्रकृति का नहीं|
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अपने असंतोष और अप्रसन्नता के लिए हम यदि ....
(1) अपने माँ-बाप को दोष देते हैं तो हम गलत हैं| कई लोग कहते हैं कि हम गलत माँ-बाप के घर या गलत परिवार/समाज में पैदा हो गए, इसलिए जीवन में प्रगति नहीं कर पाए|
(2) कई लोग स्वयं को परिस्थितियों का शिकार बताते हैं और कहते हैं गलत परिस्थितियों के कारण जीवन में जो मिलना चाहिए था वह नहीं मिला| यह सोच गलत है|
(3) कई लोग अपनी विफलताओं के लिए दूसरों को दोष देते हैं, यह भी गलत है|
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अपने कर्मफलों को प्रेम से, आनन्द से और भक्ति से भगवान का नाम लेते हुए काटें और अपनी सोच बदल कर अच्छे कर्म करें| हमारी सोच और विचार ही हमारे कर्म हैं| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन !
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

एक आदर्श स्थिति .....

एक आदर्श स्थिति वह होती है जब भगवान स्वयं ही आपके प्रेम में पड़ जाते हैं|
तब आप उन को प्रेम नहीं करते, वे ही आपसे प्रेम करने लगते हैं|
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प्रभु तो प्रेम प्रवाह हैं, उन्हें अपने में प्रवाहित होने दो|
आप स्वयं ही वह प्रेम हैं, आप ही वह प्रवाह हैं, और वास्तव में आप तो हैं ही नहीं, मात्र वे ही वे हैं|
वे ही साधक हैं, वे ही साध्य हैं और वे ही साधना हैं|
दृश्य भी वे ही हैं, दृष्टा भी वे ही हैं और दर्शन भी वे ही हैं|
आप में और उन में कोई भेद नहीं है| यही पूर्ण समर्पण है| इस समर्पण के कर्ता भी आप नहीं, वे ही हैं जो स्वयं को स्वयं के प्रति समर्पित कर रहे हैं|
ॐ ॐ ॐ ||

आगे उत्थान ही उत्थान है, अब और पतन नहीं है ...........

आगे उत्थान ही उत्थान है, अब और पतन नहीं है ...........
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मुझे बार बार बहुत दृढ़ता से परमात्मा की कृपा से यह अनुभूति होती है कि सनातन धर्म और भारतवर्ष का जितना पतन हो सकता था वह हो चुका है, अब आगे और नहीं होगा| मानवता का भी जितना पतन होना था वह हो गया है, अब और नहीं होगा| वैसे आसुरी शक्तियाँ हर युग में रही हैं, कभी कम और कभी अधिक| पर अब धीरे धीरे असत्य और अन्धकार की शक्तियां क्षीण होने लगी हैं|
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यह बात मैं पूर्वाग्रहों से ग्रस्त लोगों से नहीं करना चाहता क्योंकी वे अपनी सुनी सुनाई मान्यताओं पर इतने दुराग्रही हैं कि मतभेद होते ही अपनी बात को मनवाने के लिए चिल्लाने लगते हैं और लड़ाई-झगड़े और गाली-गलौच पर उतर आते हैं|
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मेरी बात स्वतंत्र विचारकों से है जिनका चिंतन निष्पक्ष है और जो हर प्रकार के पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं|
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गत दो-ढाई हज़ार वर्षों से गत दो सौ वर्षों तक का समय भारत के क्रमशः पतन का था| लगभग दो-ढाई हज़ार वर्षों पूर्व हमारे समाज में धीरे धीरे सद्गुण विकृतियाँ आनी शुरू हो गयी थीं और हम कमजोर होने लगे थे| | जब से भारत पर खैबर के मार्ग से अरब व मध्य एशिया के लुटेरे आततायियों के भयानक आक्रमण होने आरम्भ हुए और अपने स्वयं की सदगुण विकृतियों के कारण हम पराभूत होने लगे वह काल अत्यंत भयानक था| क्रूर विदेशी आततायी आक्रान्ताओं का शासन भी अत्यंत भयावह था| उसमें बहुत बड़े बड़े नरसंहार हुए| बाद में लुटेरे पुर्तगाली, फ़्रांसिसी और अन्ग्रेज आये| सबसे खराब शासन अंग्रेजों का था उन्होंने हमारी कृषि और शिक्षा व्यवस्था को नष्ट कर भारत को धनहीन कर दिया| इन सब विदेशी लुटेरों के राज्य में बहुत सारे अकाल पड़े और बहुत सारे नरसंहार हुए|
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भारत में सनातन धर्म की रक्षा भारत में हुए भक्ति आन्दोलन और संतों के त्याग-तपस्या के कारण हुई| जब इस्लाम का जन्म हुआ तब एक सौ वर्षों के भीतर भीतर इस्लाम की पताका पूरे अरब, पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका, मध्य एशिया, तुर्किस्तान से चीन की सीमा तक, बेबीलोन और फारस पर छा गयी थी, पर आठ सौ वर्षों के शासन में हुए क्रूर अत्याचारों के उपरांत भी भारत को पूर्ण रूप से वे मतांतरित नहीं कर पाए| इसका एकमात्र कारण था कि उस काल में भारत में बहुत सारे संतों का जन्म हुआ और उन्होंने जनमानस की धर्म में आस्था बनाए रखी व आतंक का प्रतिकार करने की प्रेरणा दी| उस काल में ज्ञात अज्ञात हज़ारों संत अवतरित हुए| चैतन्य महाप्रभु, संत तुलसीदास, गुरु नानक, गुरु तेग बहादुर, गुरु गोबिंद सिंह, स्वामी रामदास, पुरंदर दास, त्यागराज जैसे अनेक संतों ने सनातन धर्म को जीवित रखा|
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हम पराभूत हुए और गुलाम बने इसका कारण यह था कि हमने यह मान लिया कि आततायियों का प्रतिरोध/प्रतिकार और युद्ध करना सिर्फ क्षत्रियों का कार्य है, अन्य किसी वर्ण का नहीं| सिर्फ क्षत्रिय लोग ही लड़ते, और बाकि सब तमाशा देखते रहते थे| क्षत्रिय वर्ग हार जाता तो बाकि सब लोग आक्रान्ताओं की पराधीनता स्वीकार कर लेते थे| यदि पूरा समाज एकजूट होकर हमलावरों का विरोध करता तो भारत कभी नहीं हारता और कभी पराधीन नहीं होता|
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आरोही नव युग में पदार्पण उसी दिन से आरम्भ हो गया था जिस दिन से विद्युत् , चुम्बकत्व और अणु का ज्ञान हमें हुआ| तब से मनुष्य की चेतना क्रमशः उत्तरोत्तर ऊर्ध्वमुखी हो रही है|
भौतिक ज्ञान का विकास भी उसी दिन से हो रहा है| उसी दिन से हमने विकास के आरोही चक्र पर अग्रसर होना आरम्भ कर दिया है|
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कल्पना कीजिये कि आज से पचास वर्ष पूर्व कैसा जीवन था, और उससे भी पचास वर्ष पूर्व, और उससे भी पचास वर्ष पूर्व ...... इस तरह भूतकाल में हजार साल तक में चलते जाइए, और फिर बापस आइये| आप पायेंगे कि पिछले दो सौ वर्षों से मनुष्य की चेतना का तीब्र गति से विकास हुआ है|
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मैं औरों की तो कह नहीं सकता, अपने स्वयं के जीवन के बारे में ही बताना चाहता हूँ| मैं जब पंद्रह वर्ष की आयु का हुआ तब हमारे गाँव में बिजली आई थी, उससे पहिले लालटेन, चिमनी और दीपक से ही रात्रि में प्रकाश होता था| अब तो सौर ऊर्जा की बात हो रही है| तेरह-चौदह वर्ष की उम्र में मैंने पहली बार रेलगाड़ी में यात्रा की थी तब कभी कल्पना भी नहीं की थी कि कभी गाँव से बाहर कहीं घूम फिर भी पाऊंगा क्या? फिर भगवान ने अवसर दिया तो ऐसा दिया कि विदेशों में भी बहुत रहा, विश्व के अधिकाँश देशों की व वहाँ के महत्वपूर्ण स्थानों की यात्राएं की, और पूरी पृथ्वी की परिक्रमा जलमार्ग से की| किशोरावस्था तक भूगोल का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था, पर अब दक्षिणी ध्रुव से उत्तरी ध्रुव तक पूरी पृथ्वी का भूगोल मेरे दिमाग में है| पृथ्वी के हर भाग की जलवायु और सामाजिक जीवन आदि का ज्ञान हुआ है| जीवन में वैज्ञानिक प्रगति को इतनी शीघ्रता से आगे बढ़ता हुआ देख रहा हूँ कि उसके साथ कदम मिला कर चलना भी असंभव है| ज्ञान विज्ञान और चेतना बहुत तीब्र गति से आगे बढ़ रही है| आध्यात्मिक प्रगति भी खूब हुई है| आजकल गीता और वेदान्त का ज्ञान जितनी तेजी से फैल रहा है उतना पहले कभी नहीं हुआ था|
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फिर जो आज की नई पीढ़ी है वह बहुत अधिक कुशाग्र है| आजकल के बच्चों का दिमाग बहुत तेज है| जो विषय सीखने में मुझे दो दिन लगते हैं, आजकल के बच्चे उसे आधा घंटे में ही समझ जाते हैं| अतः निश्चित रूप से हम आगे बढ़ रहे हैं, पीछे नहीं हट रहे हैं| दिनों दिन जो नई पीढ़ी आयेगी वह बहुत होशियार होगी|
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अतः यह बात तो मैं दावे से कह सकता हूँ की हम आगे बढ़ रहे हैं, पीछे नहीं हट रहे| अन्धकार और अज्ञान कम हो रहा है| सनातन धर्म का प्रचार प्रसार भी खूब हो रहा है|
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अब जो बात लिखने जा रहा हूँ उस को कोई माने या न माने पर मैं इस बारे में आश्वस्त हूँ|
एक विराट आध्यात्मिक शक्ति भारत में अवतरित हो रही है जो पुनश्चः धर्म को पुनर्स्थापित करेगी|
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आप सोचेंगे कि इतने दुर्जन, विघटनकारी, एवम् अधार्मिक तत्व हैं तो यह कैसे संभव है|
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यह कार्य सम्पन्न होगा संतों के संकल्प से| उनका ब्रह्मतेज एक परावर्तन लाएगा| इस कार्य में सूक्ष्म रूप से भगवान के अवतार, देवी-देवता, सप्त चिरंजीवी एवं गुप्त सिद्ध योगी सहायता करेंगे|

प्रकृति भी अपने विनाशक विकराल रूपमें दुर्जनों का संहार करेगी|
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हम संधिकाल के द्वार पर खड़े हैं| यह प्रक्रिया सफल हो इसके लिए आप भी साधना करें| हो सकता है निकट भविष्य में दुर्जनों के साथ अनेक सज्जन भी विनाश की बली चढ़ जाएँ, अतः उनकी रक्षा के लिए भी आप भी प्रार्थना करें|
इति |
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ॐ शिव शिव शिव शिव शिव | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
01/12/2015

सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन .....

सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन .....
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ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ श्री परमात्मने नमः !
परमात्मा हम सब के हृदय में है, और हम सब परमात्मा के ह्रदय में हैं| हम उनके साथ एक हैं| जो कुछ भी है या जो कोई भी हैं वे परमात्मा ही हैं| हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है| हमारी पृथकता उनके मन का एक भाव मात्र है| वे निरंतर हम में प्रवाहित हो रहे हैं| हमारी हर सोच उनकी सोच है| हमारी हर साँस उन की साँस है| हमारा प्राण उन का प्राण है|
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ॐ भू:, ॐ भुव:, ॐ स्व:, ॐ मह:, ॐ जन:, ॐ तपः, ॐ सत्यं |
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्यधीमहि धियोयोन:प्रचोदयात ||
ॐ आपो ज्योति, ॐ रसोSमृतं, ॐ ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम् ||
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ॐ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || ॐ ॐ ॐ ||
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ब्रह्ममुहूर्त में शीघ्र उठ कर शांत वातावरण में बैठिये|
मन को सब प्रकार के नकारात्मक विचारों से मुक्त कर कुछ देर गुरु महाराज और भगवान का स्मरण करें|
सीधे बैठकर तीन चार बार गहरे साँस लें| फिर तनाव मुक्त होकर भ्रूमध्य और सहस्त्रार के मध्य में में दृष्टी रखें|
अपने गुरु महाराज और भगवान की उपस्थिति का आभास करें और उन्हें प्रणाम करें|
सर्वव्यापी परमात्मा का ध्यान करें|

ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||