Monday, 24 February 2025

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व इस सृष्टि में सभी को परम मंगलमय हो ---

 श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व इस सृष्टि में सभी को परम मंगलमय हो ---

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हर पल उनका जन्म मुझ में हो रहा है। इस जीवन की हर साँस साकार रूप में भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है। मुझे और मेरे इस शरीर महाराज को निमित्त बनाकर हर साँस वे ही ले रहे हैं, और वे ही छोड़ रहे हैं। वे स्वयं ही मुझे निमित्त बनाकर अपने ही सर्वव्यापक ज्योतिर्मय परमब्रह्म परमशिव रूप का ध्यान करते हैं। मेरे अच्छे-बुरे सारे संचित कर्मफल, सारा प्रारब्ध, और सर्वस्व उन्हें समर्पित है; और मेरे पास कुछ है ही नहीं। वे ही कूटस्थ चैतन्य हैं, वे ही ब्राह्मी स्थिति हैं। वे ही साधक, साध्य और साधना हैं। अपने संकल्प से वे स्वयं ही यह सारा विश्व बन गए हैं। मुझे निमित्त बनाकर वे स्वयं ही स्वयं की उपासना कर रहे हैं। उन्हें बारंबार नमन !!
"ॐ वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
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आप ही यम (मूलाधार चक्र), वरुण (स्वाधिष्ठान चक्र), अग्नि (मणिपुर चक्र), वायु (अनाहत चक्र), शशांक (विशुद्धि चक्र), प्रजापति (आज्ञा चक्र), और प्रपितामह (सहस्त्रार चक्र) हैं| आपको हजारों बार नमस्कार है|
पुनश्च: आपको "क्रिया" (क्रियायोग के अभ्यास और आवृतियों) के द्वारा अनेकों बार नमस्कार (मैं नहीं, आप ही हैं, यानि कर्ता मैं नहीं आप ही हैं) हो|
(यह अतिशय श्रद्धा, भक्ति और अभीप्सा का भाव है)
आप को आगे से और पीछे से (इन साँसों से जो दोनों नासिका छिद्रों से प्रवाहित हो रहे हैं) भी नमस्कार है (ये साँसें आप ही हो, ये साँसें मैं नहीं, आप ही ले रहे हो)| सर्वत्र स्थित हुए आप को सब दिशाओं में (सर्वव्यापकता में) नमस्कार है| आप अनन्तवीर्य (अनंत सामर्थ्यशाली) और अमित विक्रम (अपार पराक्रम वाले) हैं, जो सारे जगत में, और सारे जगत को व्याप्त किये हुए सर्वरूप हैं| आपसे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है|
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यह मैं और मेरा होने का भाव मिथ्या है| जो भी हैं, वह आप ही हैं| जो मैं हूँ वह भी आप ही हैं| हे प्रभु , आप को बारंबार नमन है !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
पं. कृपा शंकर बावलिया मुद्गल
झुंझुनूं (राजस्थान) १७ अगस्त २०२२

योग और भोग ---

 योग और भोग ---

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योग और भोग दोनों का एक साथ होने की बात को समझ पाना मेरी बौद्धिक क्षमता से परे है। जैसे अंधकार और प्रकाश दोनों एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही राम और काम भी दोनों एक साथ नहीं रह सकते। काम से मेरा अभिप्राय सिर्फ काम-वासना से ही नहीं है। हमारे मन का लोभ, अहंकार और राग-द्वेष भी काम-वासना का भाग ही है। तुलसीदास जी ने कहा है --
"जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम।
तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम॥"
जहाँ लोभ है, वहाँ भगवान की भक्ति की संभावना बिलकुल भी नहीं है। यदि कण मात्र भी लोभ मन में है तो वह सारी आध्यात्मिक साधनाओं को व्यर्थ कर देता है।
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पर स्त्री/पुरुष का वासनात्मक चिंतन, यहाँ तक कि परस्त्री/पुरुष का स्पर्श भी पाप है। सात्विक भोजन करें, कुसंग का त्याग विष की तरह कर दें, और भगवान से अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना करते रहें। भगवान ही हमारी रक्षा इस पाप से कर सकते हैं। साकार रूप में भगवती महाकाली या हनुमान जी की साधना करें। भगवान के ये रूप हमारी रक्षा निरंतर कर सकते हैं। योग और भोग को एक साथ पाने का प्रलोभन एक धोखा है, जिस से बचें।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ सितंबर २०२३

कौन सा Religion/मज़हब/पंथ/मत/सिद्धान्त सत्य है?

 कौन सा Religion/मज़हब/पंथ/मत/सिद्धान्त सत्य है?

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जो भी Religion/मज़हब/पंथ/मत/सिद्धान्त हमें परमात्मा के परमप्रेम, सर्वव्यापकता और पूर्णता की अनुभूति व साक्षात्कार करा दे, वही सत्य है। वही धर्म है।
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सर्वप्रथम परमात्मा को प्राप्त करो, फिर तृप्ति, पूर्णता और सर्वस्व अपने आप ही मिल जाएगा, -- यह मेरी आस्था है।
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जो परमात्मा का साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति करा दे, वही सिद्धान्त अनुकरणीय है। वही मेरा धर्म है। मेरे लिए अन्य सब त्याज्य हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० मई २०२२

मेरी कोई समस्या नहीं है। "मैं हूँ" -- यह मेरा होना ही एकमात्र समस्या है। मैं नहीं होता तो सिर्फ परमात्मा ही होते। मैं जब नहीं था तब सिर्फ परमात्मा ही थे।

 मेरी कोई समस्या नहीं है। "मैं हूँ" -- यह मेरा होना ही एकमात्र समस्या है। मैं नहीं होता तो सिर्फ परमात्मा ही होते। मैं जब नहीं था तब सिर्फ परमात्मा ही थे।

यह समस्या अति विकट है। हे कर्णधार, इस समस्या का हल तुम्ही हो !!
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"दीनदयाल सुनी जब ते, तब ते मन में कछु ऐसी बसी है।
तेरो कहाये कै जाऊँ कहाँ, अब तेरे ही नाम की फ़ेंट कसी है॥
तेरो ही आसरो एक मलूक, नहीं प्रभु सो कोऊ दूजो जसी है।
ए हो मुरारी ! पुकारि कहूँ, मेरी नहीं, अब तेरी हँसी है॥"
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मेरी प्रथम, अंतिम और एकमात्र समस्या है -- परमात्मा से पृथकता। अन्य सब समस्याएँ परमात्मा की हैं। परमात्मा का सतत् ध्यान और चिंतन ही इस समस्या का एकमात्र समाधान है। मेरा तुमसे पृथक होना ही मेरी एकमात्र समस्या है।
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अब मेरी कोई इच्छा नहीं रही है। तुम्हें पाने की अभीप्सा (एक अतृप्त प्यास और बहुत भयंकर तड़प) ही बची है। जैसे मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता, वैसे ही तुम भी मेरे बिना नहीं रह सकते। जहां भी तुमने मुझे रखा है, वहाँ आना तो तुमको पड़ेगा ही। और कुछ भी सुनने को मैं तैयार नहीं हूँ।
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इसी क्षण से तुम मेरे साथ एक हूँ। कहीं कोई भेद नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२९ मई २०२२
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पुनश्च: -- उर्दू भाषा में गालिब की एक कविता है, जो यहाँ प्रासंगिक है ---
"न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझको होने ने न मैं होता तो क्या होता !
हुआ जब गम से यूँ बेहिश तो गम क्या सर के कटने का,
ना होता गर जुदा तन से तो जहानु पर धरा होता!
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !"

सत्य-सनातन-धर्म विजयी होगा, भारत विजयी होगा

 सत्य-सनातन-धर्म विजयी होगा, भारत विजयी होगा।


ईश्वर को पाने की अभीप्सा जिनमें जागृत होगी, वे सनातन-धर्म को अपनायेंगे, क्योंकि सिर्फ सनातन-धर्म ही ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग बताता है।
हमारे पतन का एकमात्र कारण हमारा लोभ और अहंकार रूपी तमोगुण था। वह समय ही अधोगामी था। अब कालचक्र की दिशा ऊर्ध्वगामी है। अधर्मियों का विनाश निश्चित है।
एक ही पाठ सदा से निरंतर पढ़ाया जा रहा है। जो उसको पढ़ेंगे, उनकी सद्गति होगी। जो नहीं पढ़ेंगे, वे उसे पढ़ने को बाध्य कर दिये जायेंगे। हरेक प्राणी का मोक्ष और मुक्ति, यानि परमात्मा से मिलना निश्चित है।
हम शाश्वत आत्मा हैं, यह नश्वर देह नहीं। आत्मा का स्वधर्म है -- परमात्मा को पाने की अभीप्सा, परमप्रेम और समर्पण, सदाचरण व निज जीवन में परमात्मा की निरंतर अभिव्यक्ति।
अपने स्वधर्म का पालन करें। यही हमारा कर्मयोग, भक्तियोग व ज्ञानयोग है।
अन्यथा परिणाम बड़े भयावह है। थोड़े-बहुत धर्म का पालन भी हमारी रक्षा करेगा।
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥३:३५॥" (गीता)
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥" (गीता)
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१३ अक्तूबर २०२२
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प्रबल प्रेम के पाले पड़ के, प्रभु को नियम बदलते देखा ।
अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा ॥

परमात्मा के सारे रूप ही मेरे धन हैं, जिन्हें न तो कोई मुझसे चुरा सकता है, न डाका डाल सकता है, और न कोई ठग मुझसे ठग सकता है।

 परमात्मा के सारे रूप ही मेरे धन हैं, जिन्हें न तो कोई मुझसे चुरा सकता है, न डाका डाल सकता है, और न कोई ठग मुझसे ठग सकता है। उच्चतम स्तर पर तो ऐसी अनेक अनुभूतियाँ हैं, जिन्हें सिर्फ अनुभूत ही किया जा सकता है, वे व्यक्त नहीं हो सकतीं। कुछ हैं जिन्हें चित्रों के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है। भगवान पिता भी हैं, और माता भी। वे ही मित्र रूप में अपने ही शत्रु रूपों का संहार करते हैं, वे ही सारे संबंधी और मित्र हैं। चाहे उनके किसी रूप से संबंध-विच्छेद कर लो, चाहे युद्धभूमि में उनका वध करो, लेकिन मन में घृणा और द्वेष न हो। कर्ता सिर्फ परमात्मा ही हैं। हमारे मन का लोभ और अहंकार ही हमें उनसे दूर करता है। अहंभाव से मुक्त होकर यदि हम राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए इस लोक का भी नाश कर देते हैं तो कोई पाप हमें नहीं लगेगा। गीता में भगवान कहते हैं --

"यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥"
अर्थात् - जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है, और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है॥
भगवान का आदेश है --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ जुलाई २०२२
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"वंशी विभूषित करा नवनीर दाभात् , पीताम्बरा दरुण बिंब फला धरोष्ठात्।
पूर्णेन्दु सुन्दर मुखादर बिंदु नेत्रात् , कृष्णात परम किमपि तत्व अहं न जानि॥

"गीता जयंती" और "मोक्षदा एकादशी"

 कल मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी वि.सं. २०८०, तदानुसार शुक्रवार २२ दिसंबर सन् २०२३ को "गीता जयंती" और "मोक्षदा एकादशी" है। इसे अवश्य मनाएँ। किसी कर्मकांड के लिए शुभ मुहूर्त की जानकारी चाहिए तो अपने स्थानीय कर्मकांडी पंडित जी से पूछें। मेरी ओर से अग्रिम शुभ कामनाएं स्वीकार कीजिए।

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वह हर क्षण मंगलमय है जब हृदय में भगवान के प्रति परमप्रेम उमड़े और हम परमप्रेममय हो जाएँ।
"कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥२:७॥"
अर्थात् -- करुणा के कलुष से अभिभूत और कर्तव्यपथ पर संभ्रमित हुआ मैं आपसे पूछता हूँ, कि मेरे लिये जो श्रेयष्कर हो, उसे आप निश्चय करके कहिये, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ; शरण में आये मुझ को आप उपदेश दीजिये॥
(My heart is oppressed with pity; and my mind confused as to what my duty is. Therefore, my Lord, tell me what is best for my spiritual welfare, for I am Thy disciple. Please direct me, I pray.)
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गीता महात्म्य पर भगवान श्रीकृष्ण ने पद्म पुराण में कहा है कि भवबंधन (जन्म-मरण) से मुक्ति के लिए गीता अकेले ही पर्याप्त ग्रंथ है।
गीता के उपदेश हमें भगवान का ज्ञान कराते हैं। स्वयं भगवान पद्मनाभ के मुखारविंद से हमें गीता का ज्ञान मिला है।
श्रीगीताजी की उत्पत्ति धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में मार्गशीर्ष मास में शुक्लपक्ष की एकादशी को हुई थी। यह तिथि मोक्षदा एकादशी के नाम से विख्यात है। गीता एक सार्वभौम ग्रंथ है। यह किसी काल, धर्म, संप्रदाय या जाति विशेष के लिए नहीं अपितु संपूर्ण मानव जाति के लिए है। इसे स्वयं श्रीभगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर कहा है इसलिए इस ग्रंथ में कहीं भी श्रीकृष्ण उवाच शब्द नहीं आया है बल्कि श्रीभगवानुवाच का प्रयोग किया गया है।
इसके छोटे-छोटे १८ अध्यायों में इतना सत्य, ज्ञान व गंभीर उपदेश हैं, जो मनुष्य को नीची से नीची दशा से उठाकर देवताओं के स्थान पर बैठाने की शक्ति रखते हैं।
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"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ दिसंबर २०२३

उपसंहार ---

 उपसंहार ---

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मैं इस समय कूटस्थ-चैतन्य (ब्राह्मी-स्थिति) में हूँ, और जो कुछ भी मुझे पता है, उसका उपसंहार कर रहा हूँ। पहली बात तो यह है कि इस सृष्टि के नियामक तीनों गुणों से मेरी कोई शत्रुता नहीं है। वे सब अपने अपने स्थानों पर ठीक हैं। मेरे अवचेतन मन में अनेक जन्मों से बहुत गहरी जड़ें जमाये हुये बैठा तमोगुण भी वहाँ शोभा दे रहा है। रजोगुण और सतोगुण भी अपने अपने स्थानों पर शोभा दे रहे हैं। मैं इन सब से परे हूँ। मेरे में जो भी कमियाँ, बुराइयाँ और अच्छाइयाँ हैं, वे सब अति दुर्धर्ष हैं। उनसे संघर्ष करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। अतः उन सब को बापस परमात्मा को लौटा रहा हूँ। एक अति प्रबल अभीप्सा मुझे परमात्मा की ओर ले जा रही है। गुरु कृपा से सामने का मार्ग प्रशस्त है, कहीं कोई अंधकार नहीं है।
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मैं शांभवी-मुद्रा में बैठ कर अपनी सूक्ष्म देह के मूलाधारचक्र से सुषुम्ना मार्ग से होते हुए एक सीधी ऊर्ध्वगामी रेखा खींचता हूँ, जो सूक्ष्म देह के सभी चक्रों और ब्रह्मरंध्र को बेंधते हुए सीधी ऊपर जा रही है। लाखों करोड़ प्रकाश वर्ष से भी कई गुणा ऊपर सृष्टि की अनंतता से भी परे एक ज्योतिर्मय लोक है जहाँ क्षीरसागर है। भगवान नारायण स्वयं वहाँ बिराजमान हैं। वे ही परमब्रह्म हैं, वे ही परमशिव हैं, उनके संकल्प से ही यह सृष्टि निर्मित हुई है। सारी श्रुतियाँ और स्मृतियाँ उन्हीं का महिमागान कर रही हैं। समर्पित होकर मैं उनकी अनंतता में उनके साथ एक हूँ। वे ही मेरा अस्तित्व हैं। वहीं से मैं इस सृष्टि और अपनी नश्वर भौतिक देह को भी देख रहा हूँ। मेरी चेतना परमात्मा के साथ अविछिन्न रूप से एक है। सारे कार्मिक बंधन टूट रहे हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ सितंबर २०२२

मेरे लिए एक ही बात का महत्व है, और वह है -- "परमात्मा से परमप्रेम और निज जीवन में निमित्त-मात्र होकर परमात्मा की उच्चतम अभिव्यक्ति।"

 मेरे लिए एक ही बात का महत्व है, और वह है -- "परमात्मा से परमप्रेम और निज जीवन में निमित्त-मात्र होकर परमात्मा की उच्चतम अभिव्यक्ति।"

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जीवन में एक ब्रह्मतेज और क्षात्रबल भी प्रकट होगा। सनातन धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण भी होगा, अपने द्विगुणित परम वैभव के साथ भारत माता अपने अखंडता के सिंहासन पर भी बिराजमान होगी। भारत एक हिन्दू राष्ट्र भी होगा।
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जीवन का केन्द्रबिन्दु परमात्मा को बनाओ, और सारा मार्गदर्शन श्रीमद्भगवद्गीता से लो। सब मंगलमय और शुभ ही शुभ होगा।
तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ सितंबर २०२२

आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से इन दिनों एक बहुत ही पवित्र और शुभ समय चल रहा है ---

 आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से इन दिनों एक बहुत ही पवित्र और शुभ समय चल रहा है। किसी भी तरह के वाद-विवाद से बचें, और परमात्मा के विष्णु या परमशिव रूप का निरंतर ध्यान करते रहें। किसी भी तरह के वाद-विवाद में फँस भी जाएँ तो मौन रहें, और उस वातावरण और परिस्थिति से दूर चले जाएँ।

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अपने इष्ट के स्वरूप भाव में रहो और उनके बीजमंत्र का निरंतर तेलधारा की तरह ध्यान पूर्वक श्रवण करते हुए मानसिक जप करते रहें। यह भी एक कला है।
भ्रूमध्य में जब ध्यान करते हैं, तब धीरे धीरे अंधकार के पीछे एक ब्रह्मज्योति के दर्शन होने लगते हैं। जिन्हें उस ब्रह्मज्योति के दर्शन होते हैं वे बड़े भाग्यशाली हैं। वह ज्योति ही हमारा सूर्यमण्डल है। स्वयं शिवभाव में रहते हुए उस सूर्यमण्डल के मध्य में पुरुषोत्तम का ध्यान करें। जब परमप्रेम (भक्ति) और समर्पण का भाव जागृत होगा तब हरिःकृपा से सब समझ में आ जाएगा।
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मुझे एक तपस्वी महात्मा ने नित्य पुरुष-सूक्त, श्री-सूक्त, रुद्र-सूक्त, सूर्य-सूक्त और भद्र-सूक्त का पाठ करने को कहा था। जिन से ये हो सकता है वे अवश्य करें, मुझ से तो ये नहीं हो सका। संस्कृत भाषा के शुद्ध उच्चारण का भी मुझे अभ्यास नहीं है, क्योंकि मैं बहुत देरी से साधना के क्षेत्र में आया। लेकिन भगवान का जो संदेश श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों में है, वह बिना किसी संशय के समझ में आ जाता है।
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अपनी बढ़ी हुई भौतिक आयु, और स्वास्थ्य संबंधी कारणों से व्यक्तिगत रूप से मैं किसी का मार्गदर्शन नहीं कर सकता। दो चार मिनट से अधिक किसी से बात भी नहीं कर सकता। मुझे अकेला ही छोड़ दें। मैं भगवान के साथ बहुत प्रसन्न हूँ।
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"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
ॐ तत्सत् ॥
कृपा शंकर
१७ जून २०२४

हे पुराणपुरुष, तुम निरंतर मेरे कूटस्थ-चैतन्य में रहो ---

 हे पुराणपुरुष, तुम निरंतर मेरे कूटस्थ-चैतन्य में रहो ---

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दृष्टि सदा अपने लक्ष्य की ओर रहे। कुछ भी मत देखो, इधर-उधर किधर भी मत देखो, लक्ष्य सदा सामने रहे। लक्ष्य है -- "ब्रह्म", जिसे मैं परमशिव कहता हूँ। गीता में अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति में उन्हें "पुराण-पुरुष" कहा है --
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
अर्थात् - आप आदिदेव और पुराण (सनातन) पुरुष हैं। आप इस जगत् के परम आश्रय, ज्ञाता, ज्ञेय, (जानने योग्य) और परम धाम हैं। हे अनन्तरूप आपसे ही यह विश्व व्याप्त है॥
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जगन्नाथ स्तुति में -- "जगन्नाथः स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे" कह कर उनकी स्तुति कही गई है।
हम जीवन पर्यंत ब्रह्म में स्थित रहें। गीता में भगवान कहते हैं --
"या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥२:६९॥"
अर्थात् - सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मासे विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है, और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रहमें लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है।
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तामस स्वभाव के कारण सब पदार्थों का अविवेक कराने वाली रात्रि का नाम निशा है। यह जो लौकिक और वैदिक व्यवहार है वह सब का सब अविद्या का कार्य है। स्थितप्रज्ञ के लिए कोई कर्म नहीं होता। तीनों एषणाओं का त्याग करना होगा, क्योंकि भोगों की कामना करने वाले को इस सृष्टि में शांति और सुख नहीं मिल सकता।
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भगवान कहते हैं ---
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति॥२:७१॥"
अर्थात् - जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित होकर आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है।
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भगवान सार रूप में कहते हैं --
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् - हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
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सार की बात जो मेरी समझ से सर्वश्रेष्ठ हो सकती है ---
अपने उपास्य/इष्टदेव/देवी का विग्रह मानसिक रूप से सदा अपने समक्ष रखो। उन्हें कभी मत भूलो। हर समय उनकी चेतना में रहो। उन्हें ही अपने जीवन की हरेक गतिविधि का कर्ता बनाओ, और स्वयं निमित्त मात्र एक साक्षी बनकर रहो।
हम जीवनपर्यन्त ब्रह्म में स्थित रहें। परमात्म रूप आप सब को नमन !!
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ मार्च २०२३

दीपावली से दस दिन पूर्व से ही आकाश-दीप (ज्योति-कलश) टाँगने की परंपरा न जाने कब से लुप्त हो गई?

दीपावली से दस दिन पूर्व से ही आकाश-दीप (ज्योति-कलश) टाँगने की परंपरा न जाने कब से लुप्त हो गई? इसे पुनःस्थापित कीजिये।

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बचपन में हम दीपावली से दस दिन पूर्व ही घर की छत पर एक ऊंचे बांस पर आकाश दीप (ज्योति-कलश) लटकाया करते थे। इसे बहुत शुभ माना जाता था। आजकल वह ढूँढने पर भी कहीं नहीं मिलता।
भगवान श्रीराम के आगमन से पूर्व उनके चैतन्य से पावन हुए वायुमंडल को और भी अधिक पावन करने को आकाशदीप (ज्योति-कलश) जलाया जाता था, जिससे वातावरण शुद्ध होता था।
मूल रूप से यह कलश मिट्टी का होता था, जिसमें अनेक गोलाकार छेद होते थे। इसके भीतर मिट्टी का दीप रखने के लिए स्थान होता था।
जयशंकर प्रसाद की एक कहानी भी है "आकाशदीप" शीर्षक से। एक गाना भी बहुत प्रसिद्ध हुआ था --ज्योति-कलश झलके।
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दीपावली का संदेश --
दरिद्रता सबसे बड़ा पाप है। इसके विरुद्ध संघर्ष करते रहना चाहिए। भौतिक और आध्यात्मिक -- दोनों तरह की दरिद्रताएँ अभिशाप हैं। इनसे यथाशीघ्र बाहर निकल जाना चाहिए। दीपावली पर दिन में खूब शयन कर लें। पूरी रात जागकर जगन्माता की साधना करें। उनसे यह वरदान मांगे कि हमारी भौतिक, मानसिक, बौद्धिक व सब तरह की दरिद्रता दूर हो। घर पर पंडित जी को ससम्मान बुलाकर उनके मार्गदर्शन में श्री-सूक्त के मंत्रों के साथ विधि-विधान से हवन करवाएँ। उसमें आवश्यक हो तो कमलगट्टे, जायफल, व खीर आदि से आहुतियाँ भी दें। भगवती का खूब ध्यान करें। आपका कल्याण हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ नवंबर २०२३