Wednesday 30 May 2018

(१) शरीर सम्बन्धी "तप" क्या हैं ? :-- (२) ऋजुता यानि आर्जवम् यानि सरलता का महत्त्व :--

(१) शरीर सम्बन्धी "तप" क्या हैं ? :--
(२) ऋजुता यानि आर्जवम् यानि सरलता का महत्त्व :--
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आज गीता का यह श्लोक पढ़ कर बहुत अच्छा लगा| मन प्रसन्न हो गया| भगवान श्रीकृष्ण ने मुझे जीवन में जटिलताओं की ओर जाने से रोक दिया है| सरल ही बने रहना चाहिए| सरलता ही भगवान को प्रिय है| भगवान शिव भी कितने सरल हैं! इस प्रश्न का भी उत्तर मिल गया कि शरीर सम्बन्धी "तप" किसे कहते हैं|

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् | ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ||१७:१४||

भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने इसकी व्याख्या की है ..... देवाश्च द्विजाश्च गुरवश्च प्राज्ञाश्च देवद्विजगुरुप्राज्ञाः तेषां पूजनं देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्? शौचम्? आर्जवम् ऋजुत्वम्? ब्रह्मचर्यम् अहिंसा च शरीरनिर्वर्त्यं शारीरं शरीरप्रधानैः सर्वैरेव कार्यकरणैः कर्त्रादिभिः साध्यं शारीरं तपः उच्यते ||

अर्थात् ..... देवता, द्विज, गुरु और ज्ञानी का पूजन; शौच (पवित्रता), आर्जव (सरलता), ब्रह्मचर्य और अहिंसा ये सब शरीर द्वारा किये जानेवाले तप कहे जाते हैं|

प्रचलित मान्यताओं के अनुसार शरीर को अत्यधिक कष्ट देना तप है, जो गलत है|
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!

कृपा शंकर
२९ मई २०१८

Tuesday 29 May 2018

हमारी कोई समस्या नहीं है, समस्या हम स्वयं हैं .....

हमारी कोई समस्या नहीं है, समस्या हम स्वयं हैं .....
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"दीनदयाल सुने जब ते, तब ते मन में कछु ऐसी बसी है |
तेरो कहाये कै जाऊँ कहाँ, अब तेरे ही नाम की फ़ेंट कसी है ||
तेरो ही आसरो एक मलूक, नहीं प्रभु सो कोऊ दूजो जसी है |
ए हो मुरारी ! पुकारि कहूँ, मेरी नहीं, अब तेरी हँसी है ||"
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सभी समस्याएँ प्राणिक (Vital) और मानसिक (Mental) धरातल पर उत्पन्न होती हैं| उन्हें वहीं पर निपटाना होगा| पर वहाँ माया का साम्राज्य इतना प्रबल है जिसे भेदना हमारे लिए बिना हरिकृपा के असम्भव है| हमारी एकमात्र समस्या है ..... परमात्मा से पृथकता| यह बिना शरणागति और समर्पण के दूर नहीं होगी| परमात्मा का ध्यान और चिंतन ही सत्संग है| हमें चाहिए सिर्फ सत्संग, सत्संग और सत्संग| यह निरंतर सत्संग मिल जाए तो सारी समस्याएँ सृष्टिकर्ता परमात्मा की हो जायेंगी|
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>>>> हम साधना करते हैं, मंत्रजाप करते हैं, पर हमें सिद्धि नहीं मिलती इसका मुख्य कारण है.... असत्यवादन| झूठ बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है और किसी भी स्तर पर मन्त्रजाप का फल नहीं मिलता| इस कारण कोई साधना सफल नहीं होती|
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>>>> सत्य और असत्य के अंतर को शास्त्रों में, और विभिन्न मनीषियों ने स्पष्टता से परिभाषित किया है| सत्य बोलो पर अप्रिय सत्य से मौन अच्छा है| प्राणरक्षा और धर्मरक्षा के लिए बोला गया असत्य भी सत्य है, और जिस से किसी की प्राणहानि और धर्म की ग्लानी हो वह सत्य भी असत्य है|

>>>> जिस की हम निंदा करते हैं उसके अवगुण हमारे में भी आ जाते हैं|
जो लोग झूठे होते हैं, चोरी करते हैं, और दुराचारी होते हैं, वे चाहे जितना मंत्रजाप करें, और चाहे जितनी साधना करें उन्हें कभी कोई सिद्धि नहीं मिलेगी|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ मई २०१६

महान युग पुरुष वीर सावरकर को नमन .....

अति महान युग पुरुष, परम देश भक्त वीर सावरकर को आंग्ल दिनांकानुसार (जन्म: २८ मई १८८३ - मृत्यु: २६ फ़रवरी १९६६) उनकी १३५वीं जयंती पर कोटिशः नमन ---
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भारत की स्वतंत्रता में उनका योगदान सर्वोच्च था| भारत माँ को स्वतंत्र कराने व धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए --- जीवनमुक्त अनेक प्राचीन महात्माओं ने भारत भूमि पर करुणावश स्वेच्छा से जन्म लिया| ऐसी ही एक महान आत्मा थीं --- श्री विनायक दामोदर सावरकर | भारत माँ के अधिकाँश कष्ट उन्होंने अपनी स्वयं की देह पर लिए| वे कोई सामान्य मनुष्य नहीं थे जो अपने प्रारब्ध या संचित कर्मफलों के कारण जन्म लेते| वे तो एक जीवनमुक्त स्वतंत्र महान आत्मा थे जिन्होंने भारत माँ को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए अपने ही स्तर की कुछ महान आत्माओं के साथ भारत भूमि पर स्वेच्छा से जन्म लिया| इतने अमानवीय कष्ट व यंत्रणाएं सहन कर, और अनेक महान कार्य करके वे स्वेच्छा से इस संसार से चले भी गए|
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"१८५७ का स्वतंत्रता संग्राम" नामक ग्रन्थ उनका महानतम ऐतिहासिक साहित्य था जिससे सभी क्रांतिकारियों और देशभक्त सैनिकों ने प्रेरणा ली| यह ग्रन्थ भारत की स्वतंत्रता का हेतु बना| अंडमान के बंदी जीवन से मुक्त होकर उन्होंने पूरे भारत में घूम कर हज़ारों हिंदु युवकों को सेना में भर्ती कराया| उनके इस प्रयास से भारत की ब्रिटिश सेना में हिन्दू सैनिकों की संख्या अधिक हुई| उनका कहना था की हमारे पास न तो अस्त्र-शस्त्र है, न उनको चलाना जानने वाले युवा हैं| वे चाहते थे कि हिन्दू युवा सेना में भर्ती हों, अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करें, उन्हें चलाना सीखें और उनका मुँह अंग्रेजों की ओर मोड़ दें| नेताजी सुभाष बोस ने वीर सावरकर की प्रेरणा से ही आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना की थी|
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द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् भारतीय सिपाहियों ने अँगरेज़ अधिकारियों का आदेश मानने से मना कर दिया| नौ सेना का विद्रोह हुआ और अन्ग्रेज़ इतने डर गए कि भारत छोड़कर जाने को विवश हो गए| भारत माँ सदा ऐसे वीर पुत्र उत्पन्न करती रहेगी| 

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वीर सावरकर को श्रद्धांजलि और भारत माता की जय ! वन्दे मातरम् !!
ॐ ॐ ॐ !!

क्रिया योग साधना (Kriya Yoga Sadhna) :-----

क्रिया योग साधना (Kriya Yoga Sadhna) :-----
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे | प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ||४:२९||"
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यह एक सूक्ष्म प्राणायाम और गुरुमुखी विद्या है जिसे गुरु प्रत्यक्ष रूप से अपने शिष्य को अपने सामने बैठाकर सिखाते हैं| अतः पुस्तक में पढ़ने मात्र से इसे कोई नहीं समझ सकता| जो साधक योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय की क्रियायोग साधना पद्धति में दीक्षित हैं और उनके द्वारा सिखाई हुई क्रिया योग साधना का अभ्यास करते हैं वे इसे ठीक से समझ पायेंगे क्योंकि यह वही साधना पद्धति है जिसको महावातार बाबाजी ने "क्रिया योग" के नाम से पुनर्जीवित किया| यह साधना पद्धति लुप्त हो गयी थी, जिसे सन १८६१ ई.में महावतार बाबाजी ने श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय को सिखाकर, उनके माध्यम से पुनः प्रचलित किया| इस साधना को गुरु प्रदत्त विधि से, और गुरु की आज्ञा से ही करने का विधान है|
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इसे गोपनीय इस लिए रखा गया है क्योंकि इस साधना से कुण्डलिनी जागरण होता है, और साधना काल में साधक का आचार विचार यदि सही नहीं हो तो इस से लाभ की बजाय हानि ही हानि हो सकती है|
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यह एक वैदिक साधना है जिसका आरम्भ वैदिक काल से है| यह साधना संभवतः 'कृष्ण यजुर्वेद' के 'श्वेताश्वतरोपनिषद' में मिल सकती है| इसका वर्णन मुझे अन्यत्र भी कई स्थानों पर मिला है| पर पुस्तकों से कुछ भी समझ में नहीं आयेगा| एक अधिकृत श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध सदगुरु ही इसे समझा सकता है|
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(इस विषय पर मैं अब कोई चर्चा या विचार विमर्श नहीं करूँगा, और न ही किसी प्रश्न का उत्तर दूंगा| "योगी कथामृत" (Autobiography of a Yogi) नामक पुस्तक के माध्यम से ही यह साधना पद्धति पूरे विश्व में लोकप्रिय हुई थी| जिनकी अधिक रूचि है वे उपरोक्त पुस्तक पढ़ सकते हैं, या नीचे दी हुई लिंक पर जाकर परमहंस योगानंद द्वारा लिखी गीता की टीका में उपरोक्त श्लोक का विस्तार से दिया अर्थ पढ़ सकते हैं|)
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संक्षेप में रूचि जागृत करने के लिए निम्न पंक्तियाँ लिख रहा हूँ| जो प्राणवायु सुषुम्ना के ऊपरी भाग में है, धीरे धीरे उसे रेचक क्रिया द्वारा सुषुम्ना मार्ग के भीतर भीतर से ही सहस्त्रार से मूलाधार चक्र में लाकर अपानवायु को अर्पित कर देते हैं| तत्पश्चात पूरक क्रिया द्वारा अपानवायु को सुषुम्ना मार्ग के भीतर भीतर से ही मूलाधार चक्र से उठाकर सहस्त्रार में प्राण वायु को अर्पित कर देते हैं| हर चक्र पर एक बीज मन्त्र का जप करते हैं| योगियों ने इसका नाम "केवली" प्राणायाम भी दिया है| इस क्रिया से प्राण और अपान की गति रुद्ध होने लगती है जिसके परिणामस्वरूप प्राण तत्व अपनी चंचलता को छोड़ कर स्थिर होने लगता है| मन स्थिर होने लगता है, और चित्त व उसकी वृत्तियाँ भी नहीं रहतीं| उनका स्थान ज्ञान और आनंद ले लेता है| फिर भौतिक रूप से भी स्थिरता आने लगती है|
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इस श्लोक के विभिन्न अति प्रसिद्ध स्वनामधन्य आचार्यों द्वारा किये हुए अर्थ 'Gita Supersite' नामक वेबसाइट पर उपलब्ध हैं, जहां से आप उन्हें कभी पढ़ भी सकते हैं| यह गुरुमुखी विद्या है जिसे अधिकृत गुरु ही अपने शिष्य को दे सकता है| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ मई २०१८
Kriya Yoga (1)
Kriya Yoga - the life-force control technique, the technique of God-communion. Awakening of Kundalini, In-depth interpretation of the Bhagavad Gita.
yogananda.com.au

अंतरजाल (Internet) पर अश्लील संकेतस्थलों (pornographic websites) पर पता नहीं कब रोक लगेगी ? ....

अंतरजाल (Internet) पर अश्लील संकेतस्थलों (pornographic websites) पर पता नहीं कब रोक लगेगी ?
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महिलाओं के यौन शोषण और बलात्कार की घटनाओं पर रोक लगाने की दिशा में सर्वप्रथम कार्य यह होना चाहिए कि इन्टरनेट पर आसानी से उपलब्ध सभी पोर्नोग्राफिक वेबसाइट्स पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया जाए| देश की युवा पीढी आज पतन की ओर अग्रसर हो रही है| इस पतन को रोकना सरकार का काम है| इस की मांग पहिले भी उठी थी पर देश के अनेक पत्रकारों ने और वामपंथी सेकुलर जमात ने उस मांग का विरोध किया था| उन्होंने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहा था|
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अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर देश को चरित्रहीन नहीं बनाया जा सकता| कृपया इस सन्देश को सम्बंधित मंत्रालयों, मंत्रियों और अधिकारियों को भेजें| धन्यवाद !

सृष्टि का एक रहस्य .....

सृष्टि का एक रहस्य .....
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सृष्टि का एक रहस्य है कि समृद्धि के चिंतन से समृद्धि आती है, प्रचूरता के चिंतन से प्रचूरता आती है, अभावों के चिंतन से अभाव आते हैं, दरिद्रता के चिंतन से दरिद्रता आती है, दु:खों के चिंतन से दु:ख आते हैं, पाप के चिंतन से पाप आते हैं, और हम वैसे ही बन जाते हैं जैसा हम सोचते हैं| जिस भी भाव का चिंतन हम निरंतर करते हैं, प्रकृति वैसा ही रूप लेकर हमारे पास आ जाती है और हमारे चारों ओर की सृष्टि वैसी ही बन जाती है| ये विचार, ये भाव ही हमारे "कर्म" हैं जिनका फल भोगने को हम बाध्य हैं| पूरी सृष्टि में जो कुछ भी हो रहा है वह हम सब मनुष्यों के सामुहिक विचारों का ही घनीभूत रूप है| इसमें भगवान का कोई दोष नहीं है| हब सब भगवान के ही अंश हैं, हम सब ही भगवान में एक हैं, पृथक पृथक नहीं, हम ही भगवान हैं, यह देह नहीं|
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जब भी हम किसी से मिलते हैं या कोई हम से मिलता है तो आपस में एक दूसरे पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता| किसी के विचारों का प्रभाव अधिक शक्तिशाली होता है किसी का कम| इसीलिये साधक एकांत में रहना अधिक पसंद करते हैं| किसी महान संत ने ठीक ही कहा है कि ईश्वर से संपर्क करने के लिए एकांतवास की कीमत चुकानी पडती है| एक विद्यार्थी जो डॉक्टर बनना चाहता है उसे अपनी ही सोच के विद्यार्थियों के साथ रहना होगा| जो जैसा बनना चाहता है उसे वैसी ही अनुकूलता में रहना होता है|
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इसी तरह संसार की जटिलताओं में रहते हुए ईश्वर पर ध्यान करना अति मानवीय कार्य है जिसे हर कोई नहीं कर सकता है| इसे कोई लाखों में से एक ही कर सकता है| लोग उस लाखों में से एक का ही उदाहरण देते हुए दूसरों को निरुत्साहित करते हैं| जो ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें हर प्रतिकूलता पर प्रहार करना होगा| सबसे महत्वपूर्ण है अपने विचारों पर नियंत्रण| इसके लिए अपने अनुकूल वातावरण निर्मित करना पड़ता है|
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स्वामी रामतीर्थ स्वयं को बादशाह राम कहते थे| उनके लिए पूरी सृष्टि उनका परिवार थी, समस्त ब्रह्माण्ड उनका घर, और पूरा भारत ही उनकी देह थी|| बिना रुपये पैसे के पूरे विश्व का भ्रमण कर लिया, विदेशों में खूब प्रवचन दिए और जिस भी वस्तु की उन्हें आवश्यकता होती, प्रकृति उन्हें उस वस्तु की व्यवस्था कैसे भी स्वयं कर देती| अगर हमारे संकल्प में गहनता है तो इस सृष्टि में कुछ भी हमारे लिए अप्राप्य नहीं है| तपस्वी संत महात्मा एकांत में रहते है| भगवन उनकी व्यवस्था स्वयं कर देते हैं क्योंकि वे निरंतर भगवान का ही चिंतन करते है|
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अपने ह्रदय और मन को शांत रखो| जो कुछ भी परमात्मा का है वह सब हमारा ही है| यह समस्त सृष्टि हमारी ही है| जहाँ तक हमारी कल्पना जाती है वहां तक के हम ही सम्राट हैं| सृष्टि के सारे सद्गुण हमारे ही हैं| अपने आप को परमात्मा को सौंप दो| परमात्मा का सब कुछ हमारा ही है| स्वयं परमात्मा ही हमारे हैं| जब भगवान ही हमारे हो गए तो और पाने के लिए बाकी क्या बचा रह गया है ???. हमें आभारी होना चाहिए कि भगवान ने हमें स्वस्थ देह दी है, अपना चिंतन दिया है, अहैतुकी प्रेम दिया है, हमारे सिर पर एक छत दी है, अच्छा पौष्टिक भोजन मिल रहा है, स्वच्छ जल और हवा मिल रही है, पूरे विश्व में हमारे शुभचिंतक मित्र है जो हम से प्रेम करते हैं, और हमारे गुरु महाराज हैं जो निरंतर हमारा मार्गदर्शन करते हैं|
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जिस आसन पर बैठ कर हम भगवान का ध्यान करते हैं वह हमारा सिंहासन है| जहाँ तक हमारी कल्पना जाती है वहाँ तक के हम सम्राट हैं| हम स्वयं ही वह सब हैं| पूरी सृष्टि हमारा परिवार है, समस्त ब्रह्मांड हमारा घर है, हम परमात्मा की दिव्य संतान हैं| जो कुछ भी भगवान का वैभव है उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| वह सब हम स्वयं ही हैं| हम स्वयं ही परम ब्रह्म हैं| हम और हमारे परम पिता परमात्मा एक हैं| जब भगवान ही हमारे हो गए तो और पाने के लिए बाकी कुछ भी नहीं रह गया है| सब कुछ तो प्राप्त कर लिया है| मैं और मेरे प्रभु एक हैं, अब उन में और मुझ में कोई भेद नहीं रह गया है|
शिवमस्तु ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ मई २०१३

Friday 25 May 2018

स्वधर्म के अलावा अन्य सब भटकाव है, घूम-फिर कर वहीं आ जाता हूँ .....

स्वधर्म के अलावा अन्य सब भटकाव है, घूम-फिर कर वहीं आ जाता हूँ .....
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सारी बातें एक तरफ और मेरा स्वधर्म एक तरफ | स्वधर्म के अलावा अन्य सब भटकाव है| गुरुरूप परब्रह्म ने अवचेतन मन की उच्चतम प्रकृति में बहुत पहिले ही स्पष्ट कर दिया था कि तुम्हारा स्वधर्म क्या है और उस पर अडिग रहने का भी उपदेश भी दे दिया था| पर अवचेतन मन की ही निम्नतम प्रकृति ने भटकाना आरम्भ किया तो भटकते ही रहे, भटकते ही रहे और भटकते ही रहे| यह भटकाव समाप्त हुआ तो पाया कि वहीं पर खड़े हैं जहाँ से चलना आरम्भ किया था| सोच रहे थे कि भवसागर पार करना है, पर कहाँ है भवसागर? कोई भवसागर तो है ही नहीं, या तो वह कभी का पार हो गया या वह एक कल्पना ही थी! सब कुछ तो परमेष्ठी गुरु परमशिव हैं और मैं हूँ| अन्य कुछ है ही नहीं| यह द्वैतभाव भी समाप्त हो|
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हे परात्पर गुरु परमशिव, मेरा जीवन ऐसा मंगलमय बने कि मुझे आपकी सत्ता में और मुझ में कोई भेद न दिखाई दे| आपकी कृपा के बिना मैं एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ सकता, और न ही आपके रहस्य और गहराई को समझ सकता हूँ| मेरे अस्तित्व और दृष्टिपथ पर सदा आप ही आप रहें, अन्य कुछ भी मुझे दिखाई न दे|
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मह:, जन:, तप:, सत्यम् आदि लोकों, व चिदाकाश, दहराकाश, महाकाश, पराकाश और सूर्याकाश आदि सब से परे आपकी अनंत व पूर्ण ब्रह्ममय सत्ता से मैं एकाकार हूँ| कहीं कोई भेद नहीं है| शिवत्व में निरंतर स्थिति ही मेरा स्वधर्म है|
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शिवमस्तु ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ मई २०१८

गीता को कैसे समझें ..... .

गीता को कैसे समझें .....
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मेरी सीमित व अति अल्प बुद्धि से गीता को समझाने, और हमें समझ में आ जाए, इसकी जिम्मेदारी ऋषिकेश भगवान श्रीकृष्ण की है| हमारा काम तो उन को पूर्ण प्रेम से अपने ह्रदय में रखना और एक जिज्ञासा का होना है| बाकी काम वे ही करेंगे| पर थोड़ा सा पुरुषार्थ तो करना ही होगा|
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गीता की सैंकड़ों टीकाएँ हैं| उनमें से अनेक तो बहुत प्रसिद्ध हैं| जो प्राचीन टीकाएँ हैं जैसे शंकर भाष्य, रामानुज भाष्य और श्रीधर स्वामी की टीका आदि आदि, उनको समझने के लिए कोई समझाने वाला भी चाहिए| कोई दस-बारह प्रसिद्ध टीकाएँ तो मेरे पास भी हैं| हर भाष्यकार ने अपनी अपनी समझ से गीता पर विद्वतापूर्ण टीका की है| पर महत्वपूर्ण बात यह है कि भगवान श्रीकृष्ण के मन में क्या था? जो भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्यक्ष कृपा से समझ में आ जाए, वह ही ठीक है|
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सबसे अच्छा तो यह है कि गीता की उस प्रति से स्वाध्याय आरम्भ करें जिसमें पदच्छेद और अन्वय शब्दार्थ दिए हैं| साथ साथ संस्कृत भाषा के शुद्ध उच्चारण और अनुष्टुप छंद को कैसे पढ़ा जाए, सीखने के लिए किसी विद्वान् गीता मनीषी आचार्य की सहायता लें| किसी विद्वान आचार्य की एक बार तो सहायता लेनी ही पड़ेगी|
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गीता के स्वाध्याय से पूर्व भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करें| फिर पदच्छेद व मूल श्लोक को पढ़ें और हर अन्वय के शब्दार्थ को समझें| जब समझ में आ जाए तब उस अर्थ का और भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान कर उनसे सही अर्थ समझाने की प्रार्थना करें| फिर जो भी समझ में आ जाए उसे भगवान के प्रसाद रूप में स्वीकार कर अगले श्लोक पर चले जायें| स्वाध्याय के अंत में भी भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करें|
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जब गीता का सिर्फ पाठ करें तब भाषा का उच्चारण शुद्ध हो, और छंद को पढने का तरीका सही हो| ज़रा सा भी संदेह हो तो बड़ी विनम्रता से किसी विद्वान् आचार्य की सहायता लेने में संकोच न करें| अहंकार शुन्य तो होना ही पड़ेगा| समय हो तो गीता पाठ से पूर्व उसके माहात्म्य को भी अर्थ सहित पढ़ें|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२५ मई २०१८

उपासना .....

उपासना .....

एक ध्वनी ऐसी भी है जो किसी शब्द का प्रयोग नहीं करती| परमात्मा की उस निःशब्द ध्वनी में तन्मय हो जाना स्वयं परम आनंदमय हो जाना है| मनुष्य मौज-मस्ती करता है सुख की खोज में| यह सुख की खोज, अचेतन मन में छिपी आनंद की ही चाह है| सांसारिक सुख की खोज कभी संतुष्टि नहीं देती, अपने पीछे एक पीड़ा की लकीर छोड़ जाती है| आनंद की अनुभूतियाँ होती हैं सिर्फ ..... परमात्मा के ध्यान में| परमात्मा ही आनंद है, परम प्रेम जिसका द्वार है|

गहन ध्यान में प्राण ऊर्जा का घनीभूत होकर ऊर्ध्वगमन, सुषुम्ना के सभी चक्रों की गुरु-प्रदत्त विधि से परिक्रमा, कूटस्थ में अप्रतिम ब्रह्मज्योति के दर्शन, ओंकार का नाद, सहस्त्रार में व उससे भी आगे सर्वव्यापी भगवान परमशिव की अनुभूतियाँ .... जो शाश्वत आनंद देती हैं, वह भौतिक जगत में असम्भव है| सभी पर परमात्मा की अपार परम कृपा हो| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
२४ मई २०१८

भगवान तो मिले ही हुए हैं .....

भगवान तो मिले ही हुए हैं, बस शांत, मौन और एकांत में रहने का अभ्यास करो, इस से मन शांत होगा| तभी परमात्मा की उपस्थिति का आभास होगा| भगवान हमारे प्रेम के भूखे हैं, बाकी तो हमारे पास है ही क्या जो उन्हें दे सकें| शांत रहकर उन्हें प्रेम करो, कोई दिखावा या शोरगुल नहीं|

हमारी भक्ति हमारे और भगवान के मध्य का व्यक्तिगत मामला है, इसमें तीसरे व्यक्ति का क्या काम? तीसरे व्यक्ति को तो पता ही नहीं चलना चाहिए| अपनी भक्ति को गोपनीय रखें| जीवात्मा को वे स्वयं ही अपनी ओर खींच लेंगे| कुछ भी उछल-कूद, भाग-दौड़ व शोरगुल करने की आवश्यकता नहीं है|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मई २०१८

Tuesday 22 May 2018

प्राचीन भारत में "आततायी" का वध धर्म सम्मत था .....

प्राचीन भारत में "आततायी" का वध धर्म सम्मत था .....
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वसिष्ठस्मृति में आततायी के लक्षण इस प्रकार बतलाये गये हैं जिनका वध करने में कोई दोष प्राचीन भारत में नहीं था .....
अग्‍निदो गरदश्‍चैव शस्‍त्रपाणिर्धनापहः| क्षेत्रदारापहर्ता च षडेते ह्याततायिनः ||
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्| नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्‍चन||
(वसिष्ठस्मृति ३/१९-२०)

अर्थात् (१) "आग लगाने वाला", (२) "विष देने वाला", (३) "हाथ में शस्त्र लेकर मारने को उद्यत", (४) "धन हरण करने वाला", (५) "जमीन छीनने वाला" और (६) "स्त्री का हरण करने वाला", ..... ये छहों आततायी हैं| प्राचीन भारत में आतताइयों के वध में कोई दोष नहीं था, इनका वध शास्त्र-सम्मत था|
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अग्‍निदत्त विषदत्त नर, क्षेत्र दार धन हार |
बहुरि बकारत शस्‍त्र गहि, अवध वध्य षटकार ||
(पांडव यशेंदु चंद्रिका -- १०/१७)
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महाभारत में भी इसका अनुमोदन किया गया है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मई २०१८

हमारे द्वारा खाये-पीये अन्न-जल की परिणिति .....

हमारे द्वारा खाये-पीये अन्न-जल की परिणिति .....
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श्रुति भगवती कहती है की जैसा अन्न हम खाते हैं वैसा ही हमारा मन हो जाता है, और वैसा ही हमारा वाक् और तेज हो जाता है|
"अन्नमयं हि सोम्य मन आपोमयः प्राणस्तेजोमयी वागिति||" (छान्दोग्य उपनिषद्. ६.५.४)
अन्न का अर्थ है जो भी हम खाते पीते हैं|
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(१) इस से पूर्व श्रुति भगवती ने कहा है कि खाया हुआ अन्न पचाए जाने पर तीन भागों में विभक्त हो जाता है| सब से स्थूल अंश मल बन जाता है, मध्यम अंश शरीर को पुष्ट करता है, और अन्न का अणुत्तम अंश अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) बन जाता है|
"अन्नमशितं त्रेधा विधियते । तस्य यः स्थविष्टो धातुस्तत्पुरीषं भवति , यो मध्यमस्तन्मांसं , यो अणिष्ठः तन्मनः ॥" (छान्दोग्य उपनिषद् ६.५.१)
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(२) श्रुति भगवती कहती है कि जो जल हम पीते हैं उसका स्थूलतम भाग मूत्र बन जाता है, मध्यम भाग रक्त बन जाता है, और सूक्ष्मतम भाग प्राण रूप में परिणित हो जाता है|
"आपः पीतास्त्रेधा विधीयन्ते | तासां यः स्थविष्ठो धातुस्तन्मूत्रं भवति यो मध्यस्तल्लोहितं योऽणिष्ठः स प्राणाः ||"
(छान्दोग्य श्रुति ६.५.२)
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अतः आध्यात्म मार्ग के पथिक को अपने खान-पान के बारे में बहुत अधिक सतर्क रहना चाहिए| भोजन (खाना-पीना) एक यज्ञ है जिसमें साक्षात परब्रह्म परमात्मा को ही भोजन अर्पित किया जाता है जिस से पूरी समष्टि का भरण पोषण होता है| जो हम खाते-पीते हैं वह वास्तव में हम नहीं खाते-पीते हैं, स्वयं भगवान ही उसे वैश्वानर जठराग्नि के रूप में ग्रहण करते हैं| अतः परमात्मा को निवेदित कर के ही भोजन करना चाहिए| बिना परमात्मा को निवेदित किये हुए किया हुआ भोजन पाप का भक्षण है| भोजन भी वही करना चाहिए जो भगवान को प्रिय है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मई २०१८

मन भगवान में मग्न हो जाये .....

मन भगवान में मग्न हो जाये .....
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सारा ब्रह्मांड, सारी सृष्टि, सारी अनंतता मेरी देह है, जिस के माध्यम से स्वयं परमात्मा साँसें ले रहे हैं| मैं नहीं हूँ, मेरा कोई अस्तित्व नहीं है, सब कुछ परमात्मा ही है| मैं तो निमित्त मात्र हूँ, यह निमित्त भी परमात्मा ही हैं| मेरी पृथकता का बोध एक भ्रम है|
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सर्वव्यापी अनंत विराट पुरुष इन साँसों के माध्यम से स्वयं को ही याद करते हैं| साँसें चल रही हैं, यह भगवान का अनुग्रह है| "सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो" ... ये भगवान श्रीराम के वचन हैं|
रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में भगवान श्रीराम अपनी प्रजा को जो उपदेश देते हैं, उनमें से कुछ चौपाइयाँ संकलित हैं .....
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो | सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ||
करनधार सदगुर दृढ़ नावा | दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ||"
भावार्थ:- यह मनुष्य का शरीर भवसागर (से तारने) के लिए बेड़ा (जहाज) है| मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है| सदगुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेने वाले) हैं| इस प्रकार दुर्लभ (कठिनता से मिलने वाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपा से सहज ही) उसे प्राप्त हो गए हैं ||
"जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ |
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ||"
भावार्थ:- जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है ||
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सोsहं -हँसः का अजपा-जप निरंतर चलता रहे और कूटस्थ अक्षर प्रणव की जो ध्वनि सुन रही है, वह निरंतर सजगता से सुनती रहे| उसी में मन मग्न हो जाए|
अनंत में उन विराट पुरुष की अनुकम्पा ही प्राणों का सञ्चलन कर रही है, और साथ साथ सुषुम्ना में प्राण ऊर्जा को ऊपर-नीचे परिक्रमा करा कर सुषुम्ना के चक्रों को जागृत कर रही है|
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अब कुछ करने को है ही नहीं, सारी क्रियाएँ तो स्वयं भगवान परमशिव कर रहे हैं| हे प्रभु आपको नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ मई २०१८

आज २१ मई को आतंकवाद विरोध दिवस पर ......

आज २१ मई को आतंकवाद विरोध दिवस पर ......
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सामूहिक आतंकवाद के तीन कारण हैं .....
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पहला कारण है अपने विचारों को दैवीय मानकर दूसरों पर थोपने की भावना| जो आतंकवादी होते हैं उनके दिमाग में यह भावना भर दी जाती है कि जो तुम्हारे मत को नहीं मानते उनकी ह्त्या करना तुम्हारे लिए एक ईश्वरीय आदेश है जिसकी पालना से तुम्हें स्वर्ग के सारे भोग मिलेंगे तो तुम अपने परिवार वालों को भी दे सकोगे| इस तरह आतंकवाद को महिमान्वित किया जाता है| उनको यह भी सिखाया जाता है कि यदि तुम अन्य मत वालों को आतंकित नहीं करोगे तो ईश्वर तुम्हें दंड देगा|
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आतंकवाद का दूसरा कारण है युद्ध में विजय पाने के लिए स्वयं के लोगों में अत्यधिक उच्च भावना और दूसरों के प्रति घृणा की भावना भर देना|
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आतंकवाद का तीसरा कारण है ..... मनुष्य का लोभ और अहंकार| दूसरों को लूटने के लिए ये लोग आतंकित करते हैं|
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मेरे विचार से आतंकवाद के ये तीन कारण ही हो सकते हैं| सभी को धन्यवाद |

२१ मई २०१८

परमात्मा ही समस्या हैं और वे ही समाधान हैं .....

परमात्मा ही समस्या हैं और वे ही समाधान हैं .....
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परमात्मा ही समस्याओं के रूप में आते हैं, और वे ही समाधान हैं| किसी भी व्यक्ति के सामने उतनी ही समस्याएँ आती हैं जिनका भार वह वहन कर सके, उससे अधिक नहीं| हमारी सबसे बड़ी समस्या है .... परमात्मा से पृथकता का बोध| सारी आध्यात्मिक साधनाएँ इस पृथकता के बोध को समाप्त कराने के लिए ही हैं| सारे बंधन हमारे मन के कारण ही हैं, और उनसे मुक्ति का साधन भी हमारा मन ही है|
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विकट से विकट संकट का समाधान है ..... "सदा साक्षी भाव" और उससे भी परे की स्थिति| साक्षी भी परमात्मा हैं और कर्ता व भोक्ता भी वे ही हैं| अपना जीवन उन्हें सौंप दो, उन्हें जीवन का केंद्र बिंदु ही नहीं समस्त जीवन का आश्रय बनाओ| सब समस्याएँ तिरोहित होने लगेंगी| हमारा कोई अस्तित्व नहीं है, अस्तित्व है तो सिर्फ परमात्मा का ही है| स्वयं को परमात्मा से पृथक समझना एक धोखा है| इस पृथकता के बोध को समाप्त करो|
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सारी समस्याओं का निदान है .... परमात्मा को पूर्ण समर्पण| सारी समस्याएँ भी वो ही है और समाधान भी वो ही होगा| उसी पर ध्यान करते रहो, उसी को कर्ता और भोक्ता बनाओ| गहराई में उतरो, आगे के मार्ग को पार करना उसी का काम है| कोई अपेक्षा मत रखो, कोई कामना मत करो| गीता का नियमित अध्ययन अवश्य करो| भगवान निश्चित रूप से इस अज्ञान रूपी भवसागर से पार करा देंगे|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ मई २०१३

कामनाओं से मुक्ति पाने के लिए .....

कामनाओं से मुक्ति पाने के लिए हमें अपनी चेतना को सदा "भ्रूमध्य" से ऊपर रखने और परमात्मा के ध्यान का नित्य नियमित अभ्यास करना होगा .....
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गुरु की आज्ञा से हम भ्रूमध्य में ध्यान करते है, इसलिए हमारी चेतना का केंद्र सर्वदा भ्रूमध्य में ही रहे| सारी सांसारिक व्यस्तताओं के मध्य, ध्यान साधना के समय, और सर्वदा जब भी याद आये हम अपनी चेतना को भ्रूमध्य में ले आयें| यहीं पर केन्द्रित होकर सारे कार्य करें| जब भी भूल जायें, तब याद आते ही फिर भ्रूमध्य में आ जाएँ| इसके आगे की अवस्थाओं का भी धीरे धीरे वर्णन करेंगे|
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खोपड़ी के पीछे का भाग मेरुशीर्ष (Medulla Oblongata) हमारी देह का सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है| यहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ मष्तिष्क से मिलती हैं| इस भाग की कोई शल्यक्रिया नहीं हो सकती| हमारी सूक्ष्म देह में आज्ञाचक्र यहीं पर स्थित है| यह स्थान भ्रूमध्य के एकदम विपरीत दिशा में है| योगियों के लिए यह उनका आध्यात्मिक हृदय है| यहीं पर जीवात्मा का निवास है| इसके थोड़ा सा ऊपर ही शिखा बिंदु है जहाँ शिखा रखते हैं|
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गुरु की आज्ञा से शिवनेत्र होकर यानि बिना किसी तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में या जीभ को बिना किसी तनाव के ऊपर पीछे की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखते हुए, प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करें|
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गुरु की कृपा से कुछ महिनों या वर्षों की साधना के पश्चात् विद् युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है| यह ब्रह्मज्योति और प्रणव की ध्वनि दोनों ही आज्ञाचक्र में प्रकट होती हैं, पर इस ज्योति के दर्शन भ्रूमध्य में प्रतिबिंबित होते हैं, इसलिए गुरु महाराज सदा भ्रूमध्य में ध्यान करने की आज्ञा देते हैं| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के पश्चात् उसी की चेतना में सदा रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से एक है| (इसकी साधना श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध महात्मा के सान्निध्य में उनकी आज्ञा प्राप्त कर के ही करें, यह अनुशासनात्मक नियम और आदेश है).
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कूटस्थ में परमात्मा सदा हमारे साथ हैं| हम सदा कूटस्थ चैतन्य में रहें| कूटस्थ में समर्पित होने पर ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है जिसमें हमारी चेतना परम प्रेममय हो समष्टि के साथ एकाकार हो जाती है| हम फिर परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं| परमात्मा सब गुरुओं के गुरु हैं| उनसे प्रेम करो, सारे रहस्य अनावृत हो जाएँगे| हम भिक्षुक नहीं हैं, परमात्मा के अमृत पुत्र हैं| एक भिखारी को भिखारी का ही भाग मिलता है, पुत्र को पुत्र का| पुत्र के सब दोषों को पिता क्षमा तो कर ही देते हैं, साथ साथ अच्छे गुण कैसे आएँ इसकी व्यवस्था भी कर ही देते हैं|
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भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं ....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं" ||८:१०||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|
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आगे भगवान कहते हैं .....
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च | मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||१८:१२||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् | यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||१८:१३||
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|
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पढने में तो यह सौदा बहुत सस्ता और सरल लगता है कि जीवन भर तो मौज मस्ती करेंगे, फिर मरते समय भ्रूमध्य में ध्यान कर के ॐ का जाप कर लेंगे तो भगवान बच कर कहाँ जायेंगे? उनका तो मिलना निश्चित है ही| पर यह सौदा इतना सरल नहीं है| देखने में जितना सरल लगता है उससे हज़ारों गुणा कठिन है| इसके लिए अनेक जन्म जन्मान्तरों तक अभ्यास करना पड़ता है, तब जाकर यह सौदा सफल होता है|
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यहाँ पर महत्वपूर्ण बात है निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना| यह एक दिन का काम नहीं है| इसके लिए हमें आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा| उपरोक्त तथ्य के समर्थन में किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, भगवान का वचन तो है ही, और सारे उपनिषद्, शैवागम और तंत्रागम इसी के समर्थन में भरे पड़े हैं|
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ध्यान का अभ्यास करते करते चेतना सहस्त्रार पर चली जाए तो चिंता न करें| सहस्त्रार तो गुरु महाराज के चरण कमल हैं| कूटस्थ केंद्र भी वहीं चला जाता है| वहाँ स्थिति मिल गयी तो गुरु चरणों में आश्रय मिल गाया| चेतना ब्रह्मरंध्र से परे अनंत में भी रहने लगे तब तो और भी प्रसन्नता की बात है| वह विराटता ही तो विराट पुरुष है| वहाँ दिखाई देने वाली ज्योति भी अवर्णनीय और दिव्यतम है| परमात्मा के प्रेम में मग्न रहें| वहाँ तो परमात्मा ही परमात्मा होंगे, न कि आप|
ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२० मई २०१८
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पुनश्चः :--- यह तो एक परिचयात्मक लेख है, रूचि जागृत करने के लिए| पूरी विधि और साधना, श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध सदगुरु महात्मा के चरण कमलों में बैठकर सीखें और अभ्यास करें| परमात्मा की परम कृपा सभी पर निश्चित रूप से होगी|

वैवाहिक जीवन के ४५ वर्ष आज पूरे हो गये हैं .....

वैवाहिक जीवन के ४५ वर्ष आज पूरे हो गये हैं .....
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कभी शांति, कभी गोलीबारी, कभी युद्धविराम और फिर शांति .... सांसारिक जीवन के बहुत सारे उतार-चढ़ाव और परस्पर विरोधी व अनुकूल विचारधाराओं के संघर्ष, तालमेल एवं समझौतों को ही वैवाहिक जीवन कह सकते हैं| यह कितना सफल और कितना विफल रहा, यह तो सृष्टिकर्ता परमात्मा ही जानते हैं|
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एक आदर्श आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार जैसे पृथ्वी चन्द्रमा को साथ लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है वैसे ही एक गृहस्थ अपनी चेतना में अपने परिवार को अपने साथ लेकर परमात्मा की उपासना करता है| और भी गहराई में जातें हैं तब पाते हैं कि वास्तव में सारी सृष्टि ही अपना परिवार है और सारा ब्रह्मांड ही अपना घर| हम यह सम्पूर्ण समष्टि हैं, भौतिक देह नहीं| एक मेरे सिवाय अन्य कोई नहीं है, मेरा न जन्म है और न मृत्यु, मैं शाश्वत हूँ|
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पाश्चात्य दृष्टिकोण से यह एक आश्चर्य और उपलब्धि है कि कोई विवाह इतने लम्बे समय तक निभ जाए| भारतीय दृष्टिकोण से तो अब से बहुत पहिले ही वानप्रस्थ आश्रम का आरम्भ हो जाना चाहिए था जो नहीं हो पाया| वर्णाश्रम धर्म तो वर्तमान में एक आदर्श और अतीत का विषय ही होकर रह गया है| कई बाते हैं जो हृदय की हृदय में ही रह जाती हैं, कभी उन्हें अभिव्यक्ति नहीं मिलती| यह सृष्टि और उसका संचालन जगन्माता का कार्य है| जैसी उनकी इच्छा हो वह पूर्ण हो|
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हे प्रभु, हे जगन्माता, हमारा समर्पण पूर्ण हो, किसी प्रकार की कोई कामना, मोह और अहंकार का अवशेष ना रहे| हमारा अच्छा-बुरा जो भी है वह संपूर्ण आपको समर्पित है| हमारा समर्पण स्वीकार करो| || ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव यद् भद्रं तन्न आ सुव ||
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सभी को साभार धन्यवाद और नमन ! आप सब की कीर्ति और यश अमर रहे | भगवान परमशिव का आशीर्वाद आप सब पर बना रहे | ॐ ॐ ॐ ||

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१९ मई २०१८

Friday 18 May 2018

मैं तो फूल हूँ .. मुरझा गया तो मलाल कैसा ? .....

मैं तो फूल हूँ .. मुरझा गया तो मलाल कैसा ?
तुम तो महक हो...तुम्हें अभी हवाओं में समाना है.....
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रमज़ान या रमदान (رمضان) इस्लामी कैलेण्डर का नवाँ महीना है जो मुस्लिम समुदाय के लिए परम पवित्र है| चीन को छोड़कर दुनियाँ के सभी देशों में यह धूमधाम से मनाया जाता है| चीन में रोजे रखने और रमजान मनाने पर बड़ी सख्ती के साथ पूर्ण प्रतिबन्ध हैं|
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मेरे ह्रदय में सब के प्रति खूब प्रेम और सद्भावना है, किसी भी तरह का कोई द्वेष किसी के लिए भी नहीं है| भगवान सब का कल्याण करे| सब का ह्रदय प्रेम, करुणा, शांति, भाईचारा, सब के भले और सब के प्रति सम्मान के भाव से कूट कूट कर भर दे| सब के प्रति सब के ह्रदय में सच्चा प्रेम हो और किसी के प्रति भी किसी में कोई द्वेष न हो| सारे अच्छे से अच्छे मानवीय गुण सब में आ जाएँ| सब अच्छे से अच्छे इंसान बनें और किसी में कोई भी बुराई का अवशेष ना रहे|
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कुछ दिनों में खूब इफ्तार की दावतें होंगी| जो हिन्दू राजनेता और व्यापारी लोग इफ्तार पार्टी देते हैं यह उनका एक पाखण्ड है| क्या उनमें इतना साहस है कि वे उस दिन ईमानदारी से पूरे दिन रोजा रखकर और सार्वजनिक नमाज़ पढ़कर ही इफ्तार में शामिल हों| इन इफ्तार पार्टी करने वाले हिन्दू राजनेताओं व्यापारियों को नवरात्रों में कन्याओं को भोजन भी कराना चाहिए, श्रावण के महीने में शिव जी पर जल भी चढ़ाना चाहिए और कभी कभी हिन्दू त्योहारों पर सार्वजनिक पूजा, गीताज्ञानयज्ञ और भंडारे भी करने चाहिएँ|
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सब सुखी हों, सब निरोगी हों, किसी को कोई दुःख या पीड़ा ना हो, सब के ह्रदय में सद्भावना हो| भगवान सब का भला करे|
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यह लेख प्रस्तुत करने का मेरा एकमात्र उद्देश्य यह बताना है कि किसी को किसी के प्रति भी द्वेष नहीं रखना चाहिए| राग और द्वेष ये दो ही पुनर्जन्म यानि इस संसार में बारम्बार आने के कारण हैं| जिससे भी हम द्वेष रखते हैं, अगले जन्म में उसी के घर जन्म लेना पड़ता है| जिस भी परिस्थिति और वातावरण से भी हमें द्वेष हैं वह वातावरण और परिस्थिति हमें दुबारा मिलती है|
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बुराई का प्रतिकार करो, युद्धभूमि में शत्रु का भी संहार करो पर ह्रदय में घृणा बिलकुल भी ना हो|
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परमात्मा को कर्ता बनाकर सब कार्य करो| कर्तव्य निभाते हुए भी अकर्ता बने रहो| सारे कार्य परमात्मा को समर्पित कर दो, फल की अपेक्षा या कामना मत करो|
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मुझे पतझड़ों की कहानियाँ, न सुना सुना के उदास कर.
तू खिज़ाँ का फूल है, मुस्कुरा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया.

तुझे एतबार-ओ-यकीं नहीं, नहीं दुनिया इतनी बुरी नहीं.
ना मलाल कर, मेरे साथ आ, जो गुज़र गया सो गुज़र गया.
वो नही मिला तो मलाल क्या, जो गुज़र गया सो गुज़र गया.
उसे याद करके ना दिल दुखा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया.
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ॐ तत्सत् ! ॐ शांति शांति शांति ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ जुलाई २०१८

Thursday 17 May 2018

गीता पाठ में उच्चारण शुद्ध व सही होना चाहिए .....

गीता पाठ में उच्चारण शुद्ध व सही होना चाहिए| इसके लिए अनुष्टुप छंद का ज्ञान होना आवश्यक है| गीता के अधिकाँश श्लोक अनुष्टुप छंद में हैं|

जिन्हें अनुष्टुप छंद का ज्ञान नहीं है, उनसे मेरी प्रार्थना है कि वे अनुष्टुप छंद क्या है, इसे सीख लें| इसमें अधिक से अधिक पंद्रह-बीस मिनट लगेंगे| कोई भी साहित्य का विद्यार्थी इसे आराम से समझा देगा| इस छंद में कुल ३२ अक्षर होते हैं, हर पंक्ति में सौलह अक्षर होते हैं|

गीता पाठ करते समय हर पंक्ति के आठ अक्षर पहले पढ़ने हैं, फिर अल्पविराम देकर अगले आठ अक्षर| फिर अगली पंक्ति पर जाना है| सही व शुद्ध उच्चारण कैसे करें, यह सीखने में कोई शर्म की बात नहीं है| किसी भी विद्वान् पंडित से या आचार्य से शुद्ध उच्चारण करना सीख लें| उसके पश्चात ही गीता का पाठ आरम्भ करें|

धन्यवाद ! ॐ ॐ ॐ !!
१७ मई २०१८

मेरा स्वधर्म :---

मेरा स्वधर्म :---

मेरा स्वधर्म क्या है इसका पता मुझे वर्षों तक नहीं था| जब कुछ विवेक जागृत हुआ तब भगवान से प्रेम को ही मैं अपना स्वधर्म मानता था| जब इस देह की आयु लगभग ३३ वर्ष की हुई तब विचारों में परिवर्तन हुआ और ईश्वर के अनंत विराट ज्योतिर्मय प्रेमरूप पर ध्यान और सुषुम्ना में सूक्ष्म प्राणायाम को ही मैं स्वधर्म मानने लगा| अब वर्तमान में तो सूक्ष्म प्राणायाम भी स्वयं ईश्वर ही करने लगे हैं| कर्ता स्वयं ईश्वर हैं| मैं कुछ नहीं करता| अब तो प्रभु की चेतना में निरंतर प्रयासपूर्वक बने रहना ही मेरा स्वधर्म है|

प्रभु की चेतना में निरंतर बने रहना ....... ही एकमात्र सर्वश्रेष्ठ कार्य है जो वर्त्तमान परिस्थितियों में मैं कर सकता हूँ| यही मेरा स्वधर्म है|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मई २०१८

हम अपने कर्मों के फल भुगतने को बाध्य हैं, या कोई विकल्प भी है .....

हम अपने कर्मों के फल भुगतने को बाध्य हैं, या कोई विकल्प भी है .....
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महाभारत में कहागया है .....
"यथा धेनुसहस्त्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् | तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ||"
अर्थात जैसे हज़ारो गौओं के मध्य में बछडा अपनी माता को ढूंढ लेता है वैसे मनुष्य के कर्मफल अपने कर्ता को पहिचान कर उसके पीछे पीछे चलते हैं|
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वैराग्य शतक में भर्तृहरि जी लिखते हैं ....
"अस्थिरं जीवितं लोके अस्थिरे धनयौवने | अस्थिराः पुत्रदाराश्र्च धर्मकीर्तिद्वयं स्थिरम् ||"
इसके भावार्थ का सार है कि सिर्फ धर्म और कीर्ति ही स्थिर हैं, जीवन, धन, यौवन, पुत्र, स्त्री आदि कुछ भी स्थिर नहीं हैं|
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प्रारब्ध कर्म तो भुगतने ही पड़ते हैं| निष्काम कर्मों से बंधन नहीं होता और आत्मसाक्षात्कार से हम संचित कर्मों से मुक्त हो जाते हैं|
Free choice एक ही है .... उपासना द्वारा आत्मज्ञान, अन्य कोई विकल्प नहीं है|
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मई २०१८

Wednesday 16 May 2018

समर्पण और ध्यान .....

समर्पण और ध्यान .....

प्रयासपूर्वक अपनी चेतना सदा आज्ञाचक्र पर या उस से ऊपर ही रखें. आज्ञाचक्र ही हमारा वास्तविक हृदय है. प्रभु के चरण कमल सहस्त्रार हैं. ब्रह्मरंध्र से ऊपर ब्रह्मांड की अनंतता हमारा वास्तविक अस्तित्व है, यह देह भी उसी का एक भाग है. हम यह देह नहीं हैं, यह देह हमारे अस्तित्व का एक छोटा सा भाग, और उस अनंतता को पाने का एक साधन मात्र है.

अपने पूर्ण प्रेम से परमात्मा की इस परम ज्योतिर्मय विराट अनंतता पर ध्यान करें. यही पूर्णता है, यही परमशिव है, यही परब्रह्म है. अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें समर्पित कर दें, कुछ भी बचा कर न रखें. अपना सम्पूर्ण अस्त्तित्व, अपना सब कुछ उन्हें समर्पित कर दें.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

साकार रूप में किस का ध्यान करें ? .....

साकार रूप में किस का ध्यान करें ?
इस का कोई भी एक उत्तर सभी के लिए समान नहीं हो सकता| अपने अपने स्वभाव व रूचि के अनुसार इष्ट देवी/देवता भी सबके अलग होते हैं|
वृन्दावन में स्वामी मधुसुदन सरस्वती नाम के एक बहुत बड़े आचार्य हुए थे जिन्होनें गीता की मधुसुदनी टीका लिखी थी| ये आचार्य शंकर की परंपरा के सन्यासी थे| इन्होने भगवान श्रीकृष्ण को ही परम तत्व बताया है| भगवान श्रीकृष्ण की वंदना में उनका निम्न श्लोक बहुत अधिक लोकप्रिय है ....
"वंशी विभूषित करान्नवनवनीरदाभात् ,
पीताम्बरारुण बिम्ब फलाधरोष्टात् |
पूर्णेंदु सुंदर मुखारारविन्द नेत्रात,
कृष्णात परम किमपि तत्वमहम् न जाने ||"
योग मार्ग के अधिकाँश पथिक जिनसे मेरा मिलना हुआ है साकार रूप में भगवान श्रीकृष्ण के ही उपासक हैं| निराकार रूप में वे परमशिव का ध्यान करते हैं|
अपने अपने इष्ट देव की उपासना अपनी अपनी गुरु परम्परा के अनुसार खूब मन लगाकर पूरी भक्तिभाव से करें| सभी को सप्रेम सादर नमन और शुभ कामनाएँ | सभी का कल्याण हो | ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ मई २०१८

सरकार से कुछ अपेक्षाएँ .....

सरकार से कुछ अपेक्षाएँ .....
२०१४ में हमारी कुछ अपेक्षाएँ थीं इस सरकार से जो अभी भी हैं| कांग्रेस तो इन अपेक्षाओं को कभी भी पूरी नहीं कर सकतीं क्योंकि ये विषमताएँ कांग्रेस की ही देन हैं| २०१९ के पश्चात भी ये अपेक्षाएं रहेंगी|
(1) हिन्दू मंदिरों को सरकारी अधिकार से मुक्त कराकर धर्माचार्यों की समिति द्वारा गठित ट्रस्ट को सौंपना| उनकी आय का उपयोग सिर्फ उनकी देखभाल और हिन्दू धर्म प्रचार में ही हो|
(2) तथाकथित अल्पसंख्यकों को अपनी सरकारी अनुदानित शिक्षण संस्थाओं में अपने धर्म के अध्यापन की जो अनुमति है वह हिन्दू शिक्षण संस्थाओं को भी हो| इसके लिए संविधान में संशोधन किया जाए|
(3) प्रत्येक भारतीय सिर्फ भारतीय ही हो, कोई अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक नहीं| पन्थ के नाम पर कोई भेदभाव ना हो| अल्पसंख्यक आयोग को समाप्त किया जाए|
(4) भारत में पंजीकृत धार्मिक संस्थाओं के अध्यक्ष और निर्देशक सिर्फ भारतीय ही हों, विदेशी नागरिक तो बिलकुल नहीं|
(5) भारत का आधिकारिक नाम सिर्फ "भारत" ही हो, इंडिया तो बिलकुल नहीं| इंडिया शब्द सिर्फ इतिहास का विषय रह जाए|
(6) जिन टेलिविज़न समाचार चैनलों और समाचारपत्रों के मालिक विदेशी हैं उन पर प्रतिबन्ध लगाया जाए| इनका स्वामित्व सिर्फ भारतीयों के पास ही हो |
उपरोक्त परिवर्तन बड़े क्रन्तिकारी होंगे| जय जननी जय भारत |

यश का लोभ हमें भगवान से दूर करता है .....

यश का लोभ हमें भगवान से दूर करता है .....
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यश की कामना और उस कामना की पूर्ती का प्रयास निश्चित रूप से हमें भगवान से दूर करता है| यश की कामना होनी ही नहीं चाहिए| यदि कहीं कोई महिमा है तो सिर्फ भगवान की है, हमारी नहीं, क्योंकि हम यह देह नहीं, शाश्वत आत्मा हैं जिसे हम स्वयं भूला बैठे हैं| स्वयं की इस देह रूपी नश्वर दुपहिया वाहन के नाम, रूप और अहंकार को महिमामंडित करने और इस का यश फैलाने के चक्कर में हम अनायास ही अत्यधिक अनर्थ कर बैठते हैं| अपने नाम के साथ तरह तरह की उपाधियों को जोड़ना भी एक अहंकार और यश का लोभ है| हर बात का श्रेय लेकर और आत्म-प्रशंसा कर के हम स्वयं के अहंकार को तो तृप्त कर सकते हैं पर भगवान को प्रसन्न नहीं कर सकते| इस विषय पर अपने विवेक से सोचिये और सदा सतर्क रहिये|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ मई २०१८

सत्य के प्रति पूर्ण निष्ठा ही आध्यात्मिक प्रगति का एकमात्र रहस्य है ....

सत्य के प्रति पूर्ण निष्ठा ही आध्यात्मिक प्रगति का एकमात्र रहस्य है| हम निरंतर सचेत रहें कि कहीं हम असत्य का आचरण तो नहीं कर रहे हैं| सत्य क्या है? इसकी निरंतर खोज करते रहें| यही मनुष्य की शाश्वत जिज्ञासा है| यही मनुष्य का धर्म है| सत्य ही परमात्मा है|

सिर्फ मनुष्य जाति को ही भगवान ने सत्य-असत्य को समझने का विवेक दिया है| उस विवेक के प्रकाश में ही हमारा हर विचार और हर कार्य हो| आँख मींच कर किसी का अन्धानुशरण न करें| सत्य की खोज ही हमें परमात्मा तक पहुंचा सकती है| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ मई २०१८

साक्षात भगवती जगन्माता ही मेरी माँ है .....

साक्षात भगवती जगन्माता ही मेरी माँ है .....
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पता नहीं कितने जन्म लिए व कितने और लेने पड़ेंगे| पर हर जन्म में मेरी एक ही माता थी, वह माँ जिसने इस संसार की सृष्टि की, पालन-पोषण व संहार किया| अब भी सारी सृष्टि का संचालन वह जगन्माता ही कर रही है| इस जन्म में भी जो मेरी माँ थी वह कोई सामान्य मानवी स्त्री नहीं, एक देवी के रूप में साक्षात जगन्माता ही थीं| मुझे तो उनमें जगन्माता ही दिखाई देती हैं| भौतिक रूप में वे नहीं हैं पर सभी माताओं के रूप में वे ही प्रत्यक्ष हैं|.
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अब माँ से मेरी प्रार्थना स्वयं के लिए नहीं, इस राष्ट्र और समष्टि के लिए है| हे जगन्माता, हे भगवती, मैं पूर्ण रूप से तुम्हारी कृपा पर आश्रित हूँ| धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष कुछ भी मेरी क्षमता में नहीं है| मेरे में न तो कोई विवेक है और न शक्ति| अब मेरे वश में कुछ भी नहीं है| जो करना है वह तुम ही करो, मैं तुम्हारी शरणागत हूँ| सत्य-असत्य, नित्य-अनित्य आदि का मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है| अपनी सृष्टि के लिए इस देह का जो भी उपयोग करना चाहो वह तुम ही करो| मेरी कोई इच्छा नहीं है| तुम चाहो तो इस देह को इसी क्षण नष्ट कर सकती हो| पर मेरी करुण पुकार तुम्हें सुननी ही होगी|
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हे भगवती, तुम्ही एकमात्र कर्ता हो| तुम्हीं इन पैरों से चल रही हो, इन हाथों से तुम्हीं कार्य कर रही हो, इस ह्रदय में तुम्हीं धड़क रही हो, ये साँसें भी तुम्ही ले रही हो, इन विचारों से जगत की सृष्टि संरक्षण और संहार भी तुम्ही कर रही हो| हे जगन्माता, तुम ही यह 'मैं' बन गयी हो| यह पानी का बुलबुला तुम्हारे ही अनंत महासागर में तैर रहा है| इसे अपने साथ एक करो| इस बुलबुले में कोई स्वतंत्र क्षमता नहीं है|
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हे भगवती, इस जीवन में मैं जितने भी लोगों से मिला हूँ और जहाँ कहीं भी गया हूँ, तुम्हारे ही विभिन रूपों से मिला हूँ, तुम्हारे में ही विचरण करता आया हूँ, अन्य कोई है ही नहीं| यह 'मैं' का होना एक भ्रम है, इस पृथकता के बोध को समाप्त करो| हे भगवती, तुम ही यह 'मैं' बन गयी हो, अब तुम्हारा ही आश्रय है, तुम ही मेरी गति हो|
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हे माँ भगवती, अपनी परम कृपा और करुणा कर के इस राष्ट्र भारतवर्ष की अस्मिता की रक्षा करो जिस पर सैंकड़ों वर्षों से मर्मान्तक प्रहार होते आ रहे हैं| अब समय आ गया है इसकी पूरी रक्षा करने का| अपने लिए अब कुछ भी नहीं माँग रहे हैं, तुम्हारा साक्षात्कार बाद में कर लेंगे, हमें कोई शीघ्रता नहीं है, पर सर्वप्रथम भारत के भीतर और बाहर के शत्रुओं का नाश करो| अब हम तुम्हारे से तब तक और कुछ भी नहीं मांगेगे जब तक धर्म और राष्ट्र की रक्षा नहीं होती| जिस भूमि पर धर्म और ईश्वर की सर्वाधिक और सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हुई है वह राष्ट्र गत दीर्घकाल से अधर्मी आतताइयों, दस्युओं, तस्करों, और ठगों से त्रस्त है|
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इस राष्ट्र के नागरिकों में धर्म, समाज और राष्ट्र की चेतना, साहस और पुरुषार्थ जागृत करो|
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जय भगवति देवि नमो वरदे, जय पापविनाशिनि बहुफलदे |
जय शुम्भनिशुम्भकपालधरे, प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे ||१||
जय चन्द्रदिवाकरनेत्रधरे, जय पावकभूषितवक्त्रवरे |
जय भैरवदेहनिलीनपरे, जय अन्धकदैत्यविशोषकरे ||२||
जय महिषविमर्दिनि शूलकरे, जय लोकसमस्तकपापहरे |
जय देवि पितामहविष्णुनते, जय भास्करशक्रशिरोऽवनते ||३||
जय षण्मुखसायुधईशनुते, जय सागरगामिनि शम्भुनुते |
जय दुःखदरिद्रविनाशकरे, जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे ||४||
जय देवि समस्तशरीरधरे, जय नाकविदर्शिनि दुःखहरे |
जय व्याधिविनाशिनि मोक्ष करे, जय वांछितदायिनि सिद्धिवरे ||५||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ मई २०१८

भगवान से उनके प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी मांगना उनका अपमान है .....

भगवान से उनके प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी मांगना उनका अपमान है .....

जब हम भगवान के प्रेममय रूप का ध्यान करते हैं तब जिस आनंद की अनुभूति होती है वह आनंद अन्यत्र कहीं भी नहीं मिल सकता| वह आनंद अनुपम और अतुल्य है| यह बात करने का नहीं, अनुभव का विषय है|

अपने सम्पूर्ण हृदय से प्रभु को प्रेम करो, और उनसे उनके प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी मत चाहो| जो आनंद, संतुष्टि और तृप्ति उनको प्रेम करने और उनकी उपस्थिति के आभास से मिलती है, वह इस सृष्टि में अन्य कहीं भी नहीं मिल सकती| उसके आगे अन्य सब कुछ गौण है| जब उनका प्रेम मिल गया तो सब कुछ मिल गया| अन्य कोई अपेक्षा मत रखिये|

हम सब के ह्रदय में वह प्रेम जागृत हो, सभी को शुभ मंगल कामनाएँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१३ मई २०१८

हम कब तक सोते रहेंगे ? ....

हम कब तक सोते रहेंगे ?

अनंत काल से अब तक सो ही तो रहे हैं, और किया भी क्या है? क्या अब भी सोते ही रहेंगे? अब तो जागने में ही सार है| बहुत बुरी आदत पड़ गयी है सदा सोने की|

बाहर चारों ओर अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश हो रहा है, और ज्ञान रूपी प्रकाश फ़ैलने लगा है| जिन्हें यह प्रकाश दिखाई नहीं दे रहा है वे अभी भी नींद में हैं| उनकी चिंता छोड़ो| सामने साक्षात् परमात्मा हैं| उनके इस विराट प्रेमसिन्धु में तुरंत छलांग लगा लो| आनंद ही आनंद है, कहीं कोई अभाव नहीं है|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ मई २०१८

Saturday 12 May 2018

"धर्म और परमात्मा"(२) ..... स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी प्रवचनों में से संकलित (भाग २)

"धर्म और परमात्मा" ..... (भाग : २)

(स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के "धर्म और परमात्मा" विषय पर दिए प्रवचन क्रमांक ३ व ४ में से संकलित) .....
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मनुष्य के लिए परमात्मा की खोज एक स्वाभाविक खोज है| लहर को शान्ति ही तब मिलेगी जब वह एक बार पुनः सागर में विलीन हो जाएगी| हर लहर उठती है केवल सागर में विलीन होने के लिए, यही उसका लक्ष्य है, यही उसका स्वभाव है और यही उसका धर्म भी है| सारी छटपटाहट अपने पूर्णत्व को पहचान लेने के निमित्त है| अंश वास्तव में अंश नहीं है, खण्ड वास्तव में खण्ड नहीं है, क्योंकि पूर्णता को खण्डित किया ही नहीं जा सकता; लेकिन अगर अज्ञान है तो वह दूर हो करके ही रहेगा| क्यों हुआ अज्ञान, कहाँ से आई खण्ड की प्रतीति, क्यों हुआ पूर्ण पर अपूर्ण अध्यासित, यह वह कैसे जान सकता है, जो स्वयं अपूर्ण है? अपूर्ण एक न एक दिन पूर्ण से मिलेगा तो अवश्य; पर कोई भी अंश, कोई भी खण्ड या कोई भी अपूर्ण यह कभी नहीं जान सकेगा कि पूर्ण क्या है, क्योंकि पूर्ण तो अनन्त अनन्त है| पूर्ण तो ऐसा विराट् है जिसका कहीं कोई छोर है ही नहीं, और है भी या नहीं, इसे जानने का कोई उपाय भी उसके पास नहीं है| जो पूर्ण है, अनन्त है, विराट् है, जो खण्ड या अंश के द्वारा, अपूर्ण के द्वारा जाना ही नहीं जा सकता है, उसे ही भारतीय दर्शन परम ब्रह्म कहकर सम्बोधित करता है, वही है परमात्मा, वही है विराट् महाशून्य जिसमें सर्व विलीन है| चेतना के इस रूप को जानने का मार्ग केवल "धर्म" से ही प्राप्त होता है|
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नारायण ! मनुष्य का यह भ्रम है कि यह उसके ऊपर निर्भर नहीं है कि परमात्मा को वह जान सके| जो भी जड़ या चेतन है उसे अपना विकास करना होगा और हर स्थिति में अन्ततः वह परमात्मा को ही प्राप्त करेगा| परमात्मा को जान लेना, मूर्च्छा से जाग्रत होना हर व्यक्ति की नियति है| जो भी जड़ या चेतन है, जो भी अंश या खण्ड है, जो कुछ भी है, जो कुछ भी नहीं है, जो कुछ हुआ या हो सकता है, उस सभी को अन्ततः ब्रह्म की चेतना में प्रवेश करना ही होगा|
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नारायण ! जो कहते हैं कि वे "नास्तिक" हैं और परमात्मा को नहीं मानते वे भ्रम में ही हैं, वे अभी भी अर्धमूच्छित हैं| अन्ततः ऊर्ध्वारोहण करते हुए परमात्मा को जानना, न जानना; ब्रह्म की सत्ता में, उस दिव्य चेतना में प्रवेश करना, न करना किसी भी "आस्तिक" या "नास्तिक" के हाथ में नहीं है| नास्तिक कुछ भी कहे, पर अन्ततः वह अपने उद्गम को अवश्य प्राप्त करेगा, वह पूर्णत्व को अवश्य प्राप्त करेगा| नास्तिक इतना ही तो कहता है कि "मूर्ति ब्रह्म नहीं है"| कोई ऐसा परमात्मा नहीं है जो सातवें आसमान के ऊपर रहता हो, या जो मूर्ति से प्रकट होता हो -- उसका यही तो विचार है| नास्तिक यही तो सोचता है कि इस दृश्य जगत् का कोई भी रचैयिता नहीं है, सुख-दुःख देवाधीन नहीं है, बल्कि मानव निर्मित है| उसके कोई भी तर्क यह सिद्ध नहीं करते कि परम सत्य की सत्ता नहीं है, न इन तर्कों से यह सिद्ध होता है कि जगत् में सर्वव्यापी ईश्वत्व ऊर्जा नहीं है, न यह सिद्ध होता है कि जो ऊर्जा है वह अनियन्त्रित, अनुशासनहीन व अराजक है| विज्ञान की आधुनिकतम खोज अब यह सिद्ध कर चुकी है कि हमारे "सौरमण्डल" में ही नहीं बल्कि सकल ब्रह्माण्ड में एक विद्युत ऊर्जा सतत प्रवाहित हो रही है| यह विद्युत् ऊर्जा ही सकल ब्रह्माण्ड का मूल तत्त्व है, अतः जो भी जड़ या चेतना पृथ्वी पर या कहीं पर भी है वह इस ऊर्जा का ही रूप है| पाषाण जो सर्वाधिक जड़ है वह भी जिन परमाणुओं से बना है यदि उन्हें विखण्डित किया जाए तो अन्त में हमें केवल विद्युत् ऊर्जा ही प्राप्त होगी| पाषाण, जिसे जड़ माना जाता है वह भी ऊर्जा का ही एक अत्यधिक सघन रूप है| सारे ब्रह्माण्ड में जो विद्युत् ऊर्जा परिव्याप्त है, वह कहाँ से आई, इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है|
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विज्ञान जिसे विद्युत् ऊर्जा कहकर सम्बोधित करता है, "वेदान्त" उसे चिद्सत्ता कहकर सम्बोधित करता है| सारा ब्रह्माण्ड विद्युत् ऊर्जा के अनन्त अनन्त सागर में डूबा हुआ है और समस्त आकाशगंगा में निहारिकाएँ, नक्षत्र, तारामण्डल, सौरमण्डल, पृथ्वी व जड़ या चेतन ही नहीं, बल्कि सारा विचार और शब्द तक के रूप में जो भी व्यक्त या अव्यक्त है, यह सबका सब मूलतः सतत प्रवाहित अखण्ड विद्युत् ऊर्जा ही है| समष्टि में व्याप्त इस अनन्त विद्युत् ऊर्जा को आध्यात्मिक भाषा में "परम ब्रह्म" कहा जाता है| नास्तिक इसे क्या नाम देता है, यह वह जाने| नाम से कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता| यह समष्टि का सारा का सारा जोड़ ही परमात्मा है| नास्तिक को स्वयं के अपने अहम् के कारण जो भी भेद प्रतीत होता है और देश, काल और परिस्थिति से प्रभावित व संचालित होता है वह भेद सत्य नहीं है; पर फिर भी वह सत्य प्रतीत होता है| यथार्थ यह है कि लहर सागर का ही एक अंश है, पर मूल तत्त्व, स्थायी व शाश्वत तत्त्व सागर है, लहर नहीं| तात्त्विक दृष्टि से सागर और लहर में कोई अन्तर नहीं  है|
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इस सत्य को भारत के ऋषियों और मनीषियों ने समझा और उपनिषदों के रूप में ये अमूल्य विचार और चिन्तन आज भी उपलब्ध है; पर दुर्भाग्य से इनपर सही चर्चा व इनकी व्याख्या नहीं हो पा रही है| धर्म को उसके शुद्ध और प्रबुद्ध रूप में स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि उसे अन्धविश्वास, अवतारवाद, पुरोहितवाद और पुजारीवाद, पोपवाद तथा पैगम्बरवाद से बचाया जाए|
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धर्म का लक्ष्य है स्वयं के अन्तस् को शुद्ध करना| दिव्यता की ओर चेतना को मोड़ने की कला का नाम है धर्म| धर्म से परम सत्ता अर्थात् परमात्मा की सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, अखण्डता का ज्ञान होता है व व्यक्ति की चेतना मूर्च्छा से मुक्त होकर सतत जागरूकता की पूर्ण सजगता में प्रवेश करती है| जो व्यक्ति अपनी चेतना को जितना अधिक जाग्रत कर लेता है वह उतना ही अधिक चैतन्य अर्थात् परम सत्ता में प्रवेश पा लेता है| चेतना के जागरण का अर्थ है अहङ्कार से प्रकाश की ओर बढ़ना| अहङ्कार की दासता से स्वयं को मुक्त करना ही चेतना के जागरण की प्रथम अवस्था है| धर्म ही व्यक्ति को अहम् से मुक्ति का उपाय बताता है और "दिव्यारोहण" में सहायक बनाता है|
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नारायण ! धर्म एक क्रान्ति है , एक अन्तर्बोध है , अन्तर्यात्रा का उपाय है और स्वयं को जानने की विधि है| स्वयं को जाने बिना जो जगत् को जानने की चेष्टा करता है, वह भटकता है, अशान्त रहता है, उद्वेलित रहता है| व्यक्ति हर युग में अशान्त रहा और आज भी अशान्त है तथा इसका मूल कारण है कि वह अन्तर्मुखी नहीं होना चाहता| जो अन्तर्यात्रा पर नहीं जा सकता वह कभी धार्मिक नहीं हो सकता| परम आनन्द बाहर की तपश्चर्या से नहीं मिलता| स्वयं को कष्ट देने से, स्वयं को जलाने और गलाने से, स्वयं को मारने से व सुखाने से "दिव्य आनन्द" की अनुभूति नहीं होती| दिव्य आरोहण के पथ पर चलने के लिए स्वयं को पहचानना अनिवार्य है और जो स्वयं को सताते हैं, सुखाते हैं, वे स्वयं के वास्तविक स्वरूप को पहचान नहीं सकते|
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धार्मिकता एक अन्तर्बोध है| धार्मिकता का सम्बन्ध है अन्तस् की जागरूकता से| अन्तस् की सतत जागरूकता और चैतन्य के प्रति सजगता ही वास्तविक धार्मिकता है| यह सचेतन बोध ही व्यक्ति की वास्तविक ऊर्जा और शक्ति है| धर्म अर्थात् धार्मिकता हमें सचेतन बोध की ओर ले जाती है, अन्धविश्वास से मुक्ति दिलाती है| सचेतन बोध का अर्थ होता है ... सतत प्रवाहित चैतन्य के प्रति हमारी सजगता, सर्वव्यापी, चिद्सत्ता के प्रति हमारी पूर्ण जागरूकता, हमारा यह बोध कि एक सत्ता, एक ही ईशत्व सर्वत्र व्याप्त है, जड़-चेतन जो कुछ भी है, वह कहीं से कुछ भी पृथक् नहीं, वह भेदहीन अखण्ड है| जो भेद के रूप में भासित है, जो अध्यासित है वह हमारा अज्ञान है| धर्म इसी अज्ञान का विनाश करता है और इस अर्थ में वह प्रलयंकारी "शिव" है. "महाकाल" है, वह "मृत्यु" है; पर मृत्यु का यह रूप सृजन की सत्ता को नए आयाम देने के निमित्त है| मृत्यु ही तो सृजन की प्रथम सीढ़ी है| मृत्यु न हो तो कोई भी नव सृजन सम्भव ही नहीं है| सृजन ही मृत्यु का धर्म है| जो इस धार्मिकता का बोध प्राप्त कर लेता है, वह स्वयं के अज्ञान पर, स्वयं के अशान्ति पर विजय पा लेता है, और उसे मिल जाता है वह द्वार जहाँ से वह शाश्वत आनन्द में प्रवेश कर सकता है| अगर कोई ईश्वर है या परमात्मा है तो वह "परम आनन्द" में ही है|
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कटु यथार्थ यह है कि स्वयं से पृथक् भगवान् या परमेश्वर अथवा ईश्वर की कल्पना, महज एक कल्पना है, एक ऐसा अन्धविश्वास जो हज़ारों वर्षों से चला आ रहा है| एक बार भी यदि हम अपने से पृथक किसी भी भगवान् , किसी भी ईश्वर या परमात्मा का निर्णय कर लेते हैं, तो इससे हम परम चैतन्य को, परम भगवत्ता को, परम ईशत्व को सीमित करने की चेष्टा करते हैं| जो पूर्ण है, असीमित है, जो अनन्त अनन्त है वह सीमित कैसे होगा ? भगवान् न कोई व्यक्ति है, न कोई ऐसा विशेष पारलौकिक अस्तित्व जो समष्टि से, सृष्टि से, जड़-चेतन से पृथक् हो| "धर्म" का नाम लेकर उसकी आड़ में हज़ारों वर्षों से न जाने कितने "भगवान्", न जाने कितने "ईश्वर", न जाने कितने "परमात्मा" गढ़े गए और उनके कारण हज़ारों हज़ार युद्ध हुए, न जाने कितना रक्तपात हुआ, न जाने कितना अन्याय और शोषण हुआ| यदि युद्ध , रक्तपात , अन्याय और शोषण से मुक्ति पानी है तो स्वयं से पृथक्, किसी भी अस्तित्व में विराजमान परमात्मा , भगवान् या ईश्वर से मुक्ति पानी होगी|
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नारायण ! आवश्यता इस बात की नहीं है कि कोई नया भगवान्, नया ईश्वर या नया परमात्मा गढ़ा जाए; आवश्यकता इस बात की भी नहीं है कि पुराने जितने भी भगवान् हैं, ईश्वर हैं, परमात्मा हैं, उनमें से किसी एक को चुनकर उसे समस्त मानवता से मान्यता दिलवा दी जाए| यदि वास्तव में आज कोई आवश्यकता है तो केवल इस बात की कि मानव अन्तर्मुखी बने, अपने में प्रवेश करके इस सत्य को जाने कि एक ही चैतन्य सर्वव्यापी है| यह चैतन्य सार्वकालिक है, अनन्त अनन्त है, सार्वदेशिक है|
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यह चैतन्य पूर्ण और अखण्ड है -- "जो मैं हूँ वही जगत् है"| आवश्यकता इस बात की है कि ऐसा आत्मबोध जाग्रत हो कि उस बोध से सर्वव्यापी भगवत्ता को, सर्वत्र व्याप्त ईश्त्व को, परम आत्मतत्त्व को हम देख सकें|  न केवल उसे देखें, वरन् देखकर उसमें डूब जाएँ, उसमें रंग जाएँ, और पूर्णतः रूपान्तरित हो जाएँ| इस मानवता और मानव को अपने से पृथक् कोई भगवान् नहीं चाहिए, उसे केवल सतत, अखण्ड, पूर्ण भगवत्ता का अन्तर्बोध चाहिए| वास्तविक धर्म इसी विधि और व्यवस्था की ओर संकेत करता है| संकेत मिलने और समझने के उपरान्त हर व्यक्ति को भगवत्ता प्राप्त करने के लिए अपना मार्ग स्वयं चुनना होगा, अपना दीपक स्वयं प्रज्वलित करना होगा, अपना प्रकाशक व अपना "गुरु" स्वयं बनना होगा|
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बात , जिसे अच्छी तरह से समझ लिया जाना चाहिए कि धर्म का सम्बन्ध ..... पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, जप-तप से ही नहीं है| इनके बिना भी व्यक्ति धार्मिकता व भगवत्ता को उपलब्ध हो सकता है| पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन को वास्तव में धर्म नहीं कहा जा सकता, ये समस्त कर्म मात्र कर्मकाण्ड हैं, जिनसे हमारे मन में धर्म को जानने व उसका अनुभव करने की जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है| भजन-पूजा से हम उस द्वार तक पहुँच सकते हैं, जिसके बाद धर्म का क्षेत्र प्रारम्भ होता है, पर इस द्वार पर पहुँचने के बाद हमें एक बड़ी गहरी छलांग लगाने के लिए तैयार होना पड़ेगा| यह छलांग लगाते समय हमें प्रतीत होगा कि चारों और अनिश्चितता है, क्योंकि जहाँ हम छलांग लगाने जा रहे हैं , वह हमें ज्ञात नहीं है, बल्कि यह कहा जाए कि हमें अज्ञात में छलांग लगानी है| धर्म इस अज्ञात में छलांग लगाने की विधि की ओर संकत तो करता है, पर छलांग लगाने के लिए किस कला का प्रयोग करें, यह छलांग लगानेवाले पर अर्थात् जिज्ञासु पर ही छोड़ देता है| बिना छलांग लगाए आत्मज्ञान उपलब्ध नहीं होता और बिना आत्मज्ञान के परमात्मा उपलब्ध नहीं है| एक और बात समझ ली जानी चाहिए कि छलांग लगाने का उद्देश्य केवल आत्मज्ञान व परमात्मा को प्राप्त करना ही नहीं है, बल्कि उद्देश्य की इस श्रृंखला में प्रथम उद्देश्य होगा स्वयं को मिटाना, अहम् का पूर्णरूप से विसर्जन, द्वैत का अन्त, "मैं" की मृत्यु| जब तक "मैं" की सत्ता नहीं मिटती और द्वैत की सत्ता संकेत में भी बाकी रहती है तब तक परमशिव परमात्मा प्रकट ही नहीं होता| यहाँ परमात्मा का प्रकट होना इस वैचारिक स्थिति की कोई बहुत सही अभिव्यक्ति नहीं है| परमात्मा तो सर्वत्र है, वह कहीं न तो गया है, न छिपा है, न खोया है, पर जबतक द्वैत प्रधान चेतना का भाव सर्वोपरि है तबतक उसे जाना नहीं जा सकता|  जब "मैं" की सत्ता मिट जाती है, द्वैत भाव समाप्त हो जाता है और केवल परमात्मा की सत्ता शेष बचती है, तभी परमात्मा उपलब्ध हो जाता है| परमात्मा के दर्शन, उसकी उपलब्धि, उसका प्रकाट्य, उसका अवतरण, यह सब वास्तव में कुछ भी नहीं होता| ऐसा कुछ इसलिए नहीं होता क्योंकि वह सर्वत्र व शाश्वत है| लेकिन सत्य बोध, सचेतन बोध होगा ही तब, जब व्यक्ति अपने मन और अन्तस् के स्तर पर पूर्णरूप से जाग्रत, सचेतन व रूपान्तरित हो जाए| लहर समुद्र को जान नहीं सकती, लहर समुद्र में लीन होकर ही समुद्र बन जाती है| लहर की पृथक् सत्ता का बोध समाप्त होते ही समुद्र की जो वास्तविकता है उसका अस्तित्व संज्ञान में आता है| धर्म वह विद्या है जिससे अहम् बोध अर्थात् द्वैत बोध के पार जाने का मार्ग मिलता है| द्वैत बोध के पार ही सर्वत्र एक अनन्त अनन्त चैतन्य है, केवल चिद्सत्ता है, एक परम-आत्मा का अस्तित्व है| वही अस्तित्व सत्य है, वही ज्ञान है, वही शाश्वत है, वही अमृत है और वही अभिनव धर्म है| इति शम्
नारायण स्मृतिः
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पूज्य स्वामी जी को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम ! ॐ नमो नारायण ! ॐ ॐ ॐ  !!

"धर्म और परमात्मा" (१)..... स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी प्रवचनों में से संकलित (भाग १)

"धर्म और परमात्मा" ..... (भाग : १)
(स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के "धर्म और परमात्मा" विषय पर दिए प्रवचनों क्रमांक १ व २ में से संकलित) .....
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धर्म का परमात्मा से क्या सम्बन्ध है? क्या परमात्मा केवल धर्मात्मा को मिलेगा? कौन है धर्मात्मा? क्या धर्म का अभाव परमात्मा तक पहुँचने के सभी मार्ग अवरुद्ध कर देगा? क्या अध्यात्म ही धर्म है और धर्म ही अध्यात्म? क्या मानव की तरह परमात्मा का भी कोई धर्म है? यदि मानव परमात्मा की सत्ता को नकार दे तो क्या उसे इस पृथ्वी पर रहने का अधिकार नहीं? कौन करेगा यह व्याख्या कि क्या है धर्म और क्या है परमात्मा? और यदि किसी ने यह व्याख्या कर भी दी तो उसकी ही व्याख्या सत्य है, इसका क्या प्रमाण?
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भारतीय दर्शन की मान्यता यह है कि धर्म का स्वरूप अनन्त है तथा परमात्मा भी अद्वैत और अनन्त है| अनन्त की कभी भी अन्तिम और पूर्ण व्याख्या नहीं हो सकती| अनन्त को कभी भी विधायक रूप में अर्थात् सकारात्मक रूप में जाना ही नहीं जा सकता| अपनी असीमता के कारण सब जानने के उपरान्त भी अनन्त का वास्तविक रूप अज्ञेय ही रह जाएगा| अज्ञेय का यह रहस्य समझे बिना न तो धर्म को जाना जा सकता और न परमात्मा को| धर्म और परमात्मा अपनी सम्पूर्णता में भी अज्ञात नहीं है, पर अज्ञेय अवश्य है| अज्ञात का अर्थ होता है जिसके बारे में कुछ भी मालूम न हो और अज्ञेय का अर्थ है ज्ञात तो है, अनुभव व अनुभूति भी हो गई है, पर अभी भी बहुत कुछ जानना शेष है और सदैव ही बहुत कुछ जानना शेष रहेगा| भारतीय ऋषि सत्य की इस स्थिति को "नेति-नेति" कहकर व्यक्त करते हैं|
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नारायण! जब धर्म और परमात्मा के अनन्त स्वरूप हैं, तो उनके विभिन्न स्वरूपों के प्रति मानव मन की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया होगी और इसी प्रतिक्रिया से उसकी प्रतिबद्धता का निर्माण भी होगा| प्रतिबद्धता का अर्थ होता है एक विशेष व्याख्या और विचार के प्रति समर्पण| यदि यह समर्पण आधा-अधूरा है तो प्रतिबद्धता भी आधी-अधूरी होगी और यदि समर्पण सम्पूर्ण है तो प्रतिबद्धता भी सम्पूर्ण होगी| कोई इन्सान जब अपने आपको "धर्म" और "परमात्मा" का विशेष ज्ञाता मानता है, और जब वह अपने विचार, अपनी आस्था और अपनी व्याख्या तथा मत को समाज पर थोपना चाहता है तो उससे ही "सम्प्रदाय" का जन्म होता है| यह स्थिति सामान्य व्यक्ति को तथा उन्हें जो उसके अनुगामी हैं, दुराग्रही तक बना देती है| हठवादिता और अन्धविश्वास का जन्म भी इसी मानसिकता के कारण होता रहा है|
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यह अतिप्रतिबद्धता ही समाज को रूढ़िवादी बनाती है और रूढ़ता तथा अतिवाद से सम्मोहित मन नए विचार, तर्क अथवा समाधान के लिए अपने दरवाजे बन्द कर लेता है| इस मनोवैज्ञानिक समस्या का उपचार और समाधान तो है, पर इन्सान को स्वतन्त्र और पूर्वाधारित चिन्तन से मुक्ति दिलाए बिना यह सम्भव नहीं| दूसरे के विचारों, अनुभवों, अनुभूतियों को अपनी स्वयं की अनुभूति या अनुभव मानकर जब इन्सान इस क्षेत्र में उतरता है तब शारीरिक रूप से चेतन होते हुए भी मानसिक व बौद्धिक रूप से अचेतन की अवस्था में ही रहता है| यह अचेतनता ही उसकी बौद्धिक मूर्च्छा है और बौद्धिक रूप से मूर्छित व्यक्ति अन्ततः न तो सत्य का अनुभव कर सकता है, न धर्म का और न परमेश्वर का|
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नारायण ! धर्म अपनी सूक्ष्मता में कभी भी सामुहिक स्वरूप धारण नहीं कर सकता| धर्म वैयक्तिक स्वरूप में ही धारण किया जा सकता है, सामुहिकता में प्रवेश करते ही धर्म अपना मौलिक स्वभाव खोकर केवल "कर्मकाण्ड" बनकर रह जाता है| इस स्थिति में रूपांतरित "धर्म" अपना वास्तविक सौन्दर्य खोकर मानवता को विभाजित करता है, उसे साम्प्रदायिक बनाता है तथा आध्यात्मिक चेतना के जागरण में सहायक न होकर व्यक्ति को संकीर्ण और अनुदार बना देता है|
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नारायण! सत्य को समझने की जो अभीप्सा और प्यास है, वह भी धर्म का एक रूप है| धर्म से प्रसूत यह अभिप्सा ही व्यक्ति को परमात्मा के निकट ले जाती है| परमात्मा को अर्थात् जो परम है, अनन्त है, उसे जानने की यह प्यास, यह अभिप्सा ही मानव के अन्तस् के विकास का मूल कारण है| प्यास की यह तीव्रता ही उसकी सफलता का रहस्य है| पर यहाँ तीव्रता का होना नितान्त वैयक्तिक है| ऐसा कोई उपाय नहीं है कि दो व्यक्तियों को समान तीव्रता की प्यास लगे| यहाँ यह समझ लेने की बात है कि हर व्यक्ति की प्यास की तीव्रता भी पृथक्-पृथक् होती है और तृप्ति की सीमा भी| हर व्यक्ति का एक अपना प्राणिक, मानसिक व बौद्धिक स्तर होता है| प्राणिक, मानसिक व बौद्धिक स्तर की इस भिन्नता से ही हर इन्सान के व्यक्तित्व का निर्माण होता है| इसी से उसके संस्कार बनते हैं और उसका स्वभाव व आचरण भी उसकी अपने निज की प्राणिक , मानसिक व बौद्धिक ऊर्जा पर निर्भर करता है|
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नारायण! जब दो व्यक्तियों के स्वभाव एक नहीं हैं, संस्कार एक नहीं हैं, उनकी मानसिक व बौद्धिक ऊर्जा समान नहीं है तो उनका धर्म भी पृथक्-पृथक् होना चाहिए| "धर्म" अर्थात् आध्यात्मिक प्रगति के लिए किस व्यक्ति को किस मार्ग पर चलना है, यह निर्णय अन्ततः हर व्यक्ति को स्वयं करना होगा, तभी उसे सही पथ मिलेगा| इसीलिए भारतीय दर्शन की यह मान्यता है कि धर्म वैयक्तिक कर्म और वैयक्तिक चेतना है| जो "मेरा धर्म" है वह "तुम्हारा धर्म" नहीं हो सकता; पर पश्चिम में "धर्म" का चिन्तन इस रूप में विकसित नहीं होने दिया गया| पश्चिम की मान्यता है कि "धर्म" यदि है तो वह व्यक्ति आश्रित नहीं है, बल्कि वर्ग आश्रित है, समूह आश्रित है| पश्चिम में धर्म का सम्बन्ध बाह्य चेतना से है| वहाँ धर्म का मार्ग कोई एक विशेष महापुरुष ही बताता है और इसी बताए हुए मार्ग पर चलने के लिए व्यक्ति को हर तरह से प्रेरित और सम्मोहित किया जाता है| पश्चिमी चिन्तन की यह प्रवृत्ति ही साम्प्रदायिकता के लिए सर्वाधिक उर्वरक भूमि सिद्ध हुई है| वैसे साम्प्रदायिकता का जन्म कहीं भी हो सकता है| उस स्थिति में भी साम्प्रदायिकता का जन्म हो सकता है जब ऐसे व्यक्तियों का समूह बनने लगे जो "धर्म" को केवल "वैयक्तिक चेतना, "वैयक्तिक प्रवृत्ति" के रूप में जानते हों; लेकिन यह सत्य होते हुए भी सत्य नहीं है, क्योंकि जो भी व्यक्ति अपना समूह बनाते हैं, उन्हे स्वयं के चिन्तन पर पूरा विश्वास नहीं होता| समूह बनता ही तब है जब व्यक्ति भय से, अज्ञान से पीड़ित होता है| ऐसे व्यक्ति बात तो समष्टि, सात्त्विकता और धर्म की करते हैं, पर उनका अन्तस् पूर्ण प्रकाशित नहीं होता|
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वही व्यक्ति पूर्ण आस्थावान् होता है, जिसकी कथनी और करनी में अन्तर न हो| जब प्रत्येक व्यक्ति का अपना विशेष "निज धर्म" होगा, तो वह परम सत्य को जानने के मार्ग पर अपने "निज धर्म" के द्वारा विश्वासपूर्वक चल रहा होगा| इस स्थिति में वह दूसरे के "निज धर्म" में कहीं हस्तक्षेप करने की सोचेगा भी नहीं|
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जिसके मन में मूर्च्छा से जागने की अभीप्सा पूर्ण रूप से जागृत हो गई हो और जो परम सत्य को जानने की प्यास से अत्यधिक व्याकुल हो चुका हो वह फिर अपनी प्यास बुझाने के लक्ष्य पर केन्द्रित हो जाता है| अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझाने के अतिरिक्त उसे कुछ दिखाई या सुनाई ही नहीं देता| यही तो है तीव्रतम और परम प्यास की वास्तविक मनोदशा| इस मनोदशा से, इस व्याकुल चेतना से उपजा "धर्म" केवल सात्त्विक होगा| वही होगा "कर्म प्रधान धर्म"| उसे ही कहा जाएगा ... "सत्यसिक्त कर्तव्य", एक ऐसा कर्तव्य जो कर्तव्य की भावना से नहीं किया जाता, बल्कि जो स्वभाववश आत्मप्रेरित होकर किया जाता है|
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वास्तविक आध्यात्मिक कर्म किया नहीं जाता, वह अनायास हर क्षण स्वतः हुआ करता है| जैसे सूर्य प्रकाश देने का कर्म नहीं करता, वह बस प्रकाश देता है; क्योंकि प्रकाश देना उसका स्वभाव है| जैसे प्रकाश देना सूर्य की सत्ता की पहचान है, उसी प्रकार जो वास्तव में "दिव्य मानव" है वह ही पूर्ण मानव, और आत्मा की अभिव्यक्ति है| यह परम-आत्मा, यह पूर्ण मानव न तो साम्प्रदायिक हो सकता है, न दुराग्रही, न संकीर्ण, न रूढ़िवादी|
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नारायण! हर मानव कहीं न कहीं से अपनी अपूर्णता का आभास पाता है और फिर उस अपूर्णता को दूर करने के लिए व्याकुल होता है, उसके लिए कर्म करता है, आगे बढ़ता है और अपने अभाव को दूर करने के लिए कभी पूरी की पूरी और कभी आधी अधूरी प्राणिक ऊर्जा झोंक देता है| अभाव और अपूर्णता को दूर करने के लिए जो जितनी ऊर्जा झोंकता है, उतनी ही उसकी उपलब्धि होती है| पूर्ण ऊर्जा झोंकने के साथ किया गया कोई भी संकल्प अधूरा रह ही नहीं सकता, पर पूर्ण ऊर्जा झोंकने के लिए विरले ही तैयार हो पाते हैं| पूर्ण ऊर्जा झोंकने का अर्थ होता है अपने को हर स्तर पर मिटा देना, स्वयं ही संकल्प का रूप धारण कर लेना| ऐसा व्यक्ति अपनी निज की अहम् प्रधान सत्ता को महत्त्व न देकर केवल एक मूर्तिमान् संकल्प के रूप में जागता है, सोता है, चलता-फिरता है और उसके समस्त कर्म केवल संकल्प से सृजित और उद्घाटित तथा प्रसूत होते है|
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नारायण ! मानव की यह अपूर्णता किसी भी स्तर पर या उसके सभी स्तरों पर होती है| सामान्य व्यक्ति सभी स्तरों पर ..... शारीरिक, प्राणिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक स्तरो पर अपूर्ण रहता है, जो उसका वास्तविक स्वरूप नहीं है ; पर चूँकी वह जाग्रत् चेतना में न होकर मूच्छित या अर्धमूर्च्छित चेतना में रहता है, अतः पूर्ण होते हुए भी वह अपने को अपूर्ण मानता ही अपूर्णता दूर करने के लिए वह प्रयास करता है| भारतीय दर्शन का श्रेष्ठतम चिन्तन यह है कि पूर्णसत्ता ही सर्वव्यापी है, पूर्ण से पूर्ण निकालो, पूर्ण बचेगा; पूर्ण में पूर्ण जोड़ो, वह पूर्ण ही रहेगा| पूर्ण तो सदैव अविभाजित ही रहेगा| लहर और सागर में कहीं कोई भेद नहीं है, सागर ही लहर है और लहर ही सागर है । अपूर्णता केवल प्रतीत होती है । वास्तव में अपूर्णता हो ही नहीं सकती । अपूर्णता प्रतीत इसलिए होती है , क्योंकि लहर ने अपने आपको सागर से पृथक् मानना प्रारम्भ कर दिया है । लहर का यह अज्ञान ही उसके दुःख का , उसके उद्वेलन का , उसकी पीड़ा का , उसके संघर्ष का तथा उसकी उत्तेजना का कारण है । जिस दिन लहर अपने मूल स्वरूप को जान लेगी , सारे भेद , सारी अपूर्णता , सारा अभाव समाप्त हो जाएगा , पर यह प्रतीति , यह अनुभूति सहज होते हुए भी सहज में नहीं मिलती । इस अनुभूति की प्राप्ति हेतु ही मानव हर प्रकार की चेष्टाएँ जाने - अनजाने , स्वभावश या अन्ततः विवश होकर करता है । जब तक मानव का अज्ञान समाप्त नहीं होगा , वह व्याकुल ही रहेगा , छटपटाता ही रहेगा । अपूर्णता दूर करने तथा अज्ञान हटाने व पूर्णता प्राप्त करने के निमित्त किए गए सभी कर्म , सभी चेष्टाएँ " धर्म " के रूप में जानी जाती हैं ।
नारायण ! धर्म का रहस्य इसलिए और भी जटिल हो जाता है , क्योंकि व्यक्ति स्वयं की चेतना के विभिन्न स्तर को नहीं जानता ; जबकि चेतना के हर स्तर पर जो अपूर्णता है उस अपूर्णता को दूर करने के लिए कर्म कभी स्वभावतः और कभी प्रयासवश होते ही रहते हैं । जटिलता तब और बढ़ जाती है जब चेतना के एक स्तर पर जो कर्म होने चाहिए वे कर्म हम चेतना के अन्य स्तरों पर भी जाने - अनजाने , अज्ञानवश या स्वभाववश करते हैं । यह भी इसलिए होता है , क्योंकि हमारी स्वयं की खोज , अर्थात् अन्तस् की खोज बहुत ही अल्प है , आधी - अधूरी है , अतः " धर्म " की चेष्टा ही यह है कि व्यक्ति सबसे पहले स्वयं को जाने , वह सर्वप्रथम अपने अन्तस् में झाँके , वह चेतना के उस स्तर को समझे , जिसके निमित्त या जहाँ से वह कर्म करना चाहता है । अन्तस् में निष्ठापूर्वक झाँकने के उपरान्त ही धीरे - धीरे उसकी चेतना अन्धकारमुक्त होगी और उसकी मूर्च्छा टूटेगी । जिस व्यक्ति की मूच्छा टूट जाती है वह फिर निज के लिए , अहम् के निमित्त , स्वार्थ हेतु या परमार्थ हेतु भी कर्म नहीं करता । ऐसे व्यक्ति से कर्म तो होते ही हैं , पर फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह कर्म कर रहा है । ऐसा ही व्यक्ति धीरे - धीरे सचेतन होकर , जाग्रत् होकर , देह की सत्ता से -- द्वैत की सत्ता से पृथक् हो जाता है और विराट् में लीन हो जाता है । पर - आत्मा , परम चैतन्य की स्थिति जो है, कुछ वही इस विराट् की चेतना में लीन हो जाने से बनी स्थिति है । यहाँ जो कुछ है , या नहीं है -- जैसा भी है उसे न तो शब्दों से बाँधा जा सकता है , न अनुभव से, न अनुभूति से । यही है परमात्मा , यही है चिद्सत्ता , यही है भगवत्ता । यही है पूर्ण , यही है ब्रह्म , यही है परम आनन्द । सावशेष .....
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स्वामीजी को साष्टांग दंडवत प्रणाम ! ॐ नमो नारायण !

Friday 11 May 2018

स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के १० मई २०१८ के दिव्य सत्संग से संकलित .....

स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के १० मई २०१८ के दिव्य सत्संग से संकलित .....
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इच्छाएँ ही बन्धन हैं और उनका अभाव ही मोक्ष| तत्त्वज्ञानी केवल अपने स्वरूप में स्थित रहता है| अन्तःकरण का इच्छा रहित हो जाना शान्ति प्रदान करता है| मनुष्य के अन्तःकरण में जितनी इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं, उतने ही उसके दुःख बढ़ जाते हैं| विवेक विचार से जैसे-जैसे इच्छाएँ शान्त हो जाती है, वैसे-वैसे दुःख की मात्रा कम होती जाती है तथा शान्ति की अनुभूति बढ़ने लगती है| यदि एक ही साथ सम्पूर्ण इच्छाओं का त्याग न किया जा सके तो धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा करके ही उसका त्याग करते रहना चाहिए| जो पुरुष अपनी इच्छाओं को क्षीण करने का प्रयास नहीं करता है, वह अपने आप को दिन पर दिन दुःख के गड्ढ़े में फेंक रहा है| तत्त्वज्ञानी की इच्छा ब्रह्म स्वरूप ही होती है| ब्रह्म के अतिरिक्त यहाँ कोई दूसरी वस्तु विद्यमान हो तो उसे प्राप्त करने की चेष्टा की जाए|
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यह संसार जीवात्मा को बन्धन में डालने वाला है, इसलिए इन सांसारिक इच्छाओं को योग के अभ्यास द्वारा भस्म कर देना चाहिए| इन सांसारिक इच्छाओं के भस्म होते ही धीरे-धीरे तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होने लगती है| जब तत्त्वज्ञान का उदय होने लगता है तब इच्छाएँ समाप्त होने लगती है तथा द्वैत की शान्ति व वासना का विनाश होने लगता है| सम्पूर्ण दृश्य पदार्थों से वैराग्य हो जाने के कारण उस अभ्यासी की अविद्या भी शान्त हो जाती है, तब मोक्ष का उदय होता है| मोक्ष के उदय होने पर वैराग्य और अनुराग दोनों नष्ट हो जाते हैं|
तत्त्वज्ञानी की इच्छा और अनिच्छा दोनों ही ब्रह्मस्वरूप हो जाती है, जैसे प्रकाश और अन्धकार दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं| इच्छाओं के अत्यन्त क्षीण हो जाने पर आत्मानन्द का अनुभव होने लगता है|
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अद्वैत की भावना से इस जगत् का स्वरूप नष्ट हो जाता है| विशुद्ध आत्मा में द्वैत नहीं रहता है| जो वस्तु अपने संकल्प से बनाई गई है वह वस्तु संकल्प के अभाव में नष्ट हो जाती है| जीवात्मा को जो दुःख प्राप्त हुआ है, उसका कारण स्वयं का संकल्प ही है| जब समाधि के अभ्यास द्वारा उसमें संकल्प का अभाव होने लगता है, तब उसका सांसारिक दुःख भी कम होने लगता है| जितना दुःख कम होगा उतनी ही ज्यादा सुख की प्राप्ति होगी| मनुष्य मोह और तृष्णा के कारण सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति हेतु संकल्प करता रहता है, इसलिए मोह और तृष्णा रूपी संकल्प को निरूद्ध कर देना चाहिए| जीवात्मा अज्ञान के कारण ही अपने संकल्पों के द्वारा सांसारिक बन्धन में फँस गया है, वास्तव में वह ब्रह्म से अभिन्न है| अभ्यास के द्वारा परमात्म-स्वरूप की अनुभूति करके संसार रूपी बन्धन से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है|
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जब चित्त से वृत्ति स्पन्दित होकर प्रकट होती है, तब संसार का स्वरूप धारण कर लेती है| अपने निजस्वरूप में स्थित होने के लिए चित्त का विनाश करना आवश्य है| चित्त के विनाश के लिए दो प्रकार का उपाय है| इनमें से एक उपाय है ....अभ्यास के द्वारा प्राणों का स्पन्दन रोक दिया जाए तो चित्त का विनाश हो जाएगा| प्राण के स्पन्दन से चित्त का स्पन्दन होता है| चित्त के स्पन्दन से ही सांसारिक पदार्थों की अनुभूतियाँ होती हैं, अर्थात् चित्त का स्पंदन प्राण के स्पन्दन के अधीन है| अभ्यास के द्वारा प्राण का स्पन्दन रोक दिया जाए तो चित्त पर स्थित वृत्तियाँ {मन} अवश्य निरूद्ध हो जाएँगी| मन अथवा संकल्प के अभाव में संसार की अनुभूति नहीं होगी, फिर यह संसार नष्ट हुए के समान हो जाएगा|
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प्राणायाम के अभ्यास से प्राण वायु निरूद्ध होने लगती है| किसी योग्य अनुभवी पुरुष के मार्गदर्शन में ही प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए| प्राणों का स्पंदन समाधि द्वारा रुक जाता है| जब साधक का ब्रह्मरन्ध्र खुल जाता है, तब प्राण और मन दोनों एक साथ ब्रह्मरन्ध्र के अन्दर चले जाते हैं| उस समय निर्विकल्प समाधि लगती है और प्राणों का स्पन्दन रुक जाता है| संकल्प विकल्प रहित होने पर कोई नाम रूप नहीं रहता है| अत्यन्त सूक्ष्म चिन्मय आकाश स्वरूप ब्रह्म का ध्यान करने पर सारे विषय विलीन हो जाते हैं, तब प्राणवायु का स्पन्दन निरूद्ध होने लगता है|
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नारायण ! इस जगत् का निर्माण प्राण तत्त्व से हुआ है| प्राण तत्त्व से बना हुआ जगत् आकाश तत्त्व में अधिष्ठित है| प्रलय के अन्त में यह जगत् आकाश तत्त्व में विलीन हो जाता है| प्राण तत्त्व आकाश तत्त्व को अधिष्ठित कर जगत् की रचना करता है| आकाश सर्वव्यापक अभिव्यञ्जिका शक्ति है| जगत् में जो गुरुत्व शक्ति, आकर्षण शक्ति, संकल्प शक्ति, नाड़ी प्रवाह आदि जितनी भी शक्तियाँ हैं, वे सब की सब प्राण नामक शक्ति की भिन्न - भिन्न अभिव्यञ्जिका शक्तियाँ हैं| प्राण, विश्व की मानसिक और शारीरिक तथा सभी प्रकार की शक्तियों की समष्टि है| प्राण ही प्रत्येक जीव की जीवन शक्ति है तथा वह विचारों के प्रवाह में, नाड़ियों के प्रवाह में, श्वाँस के आवागमन में, शारीरिक क्रिया के रूप में व्यक्त हो रहा है| जो मनुष्य सारे दुःख से छुटकारा प्राप्त करना चाहते हैं तथा आनन्द की अनुभूति करना चाहते हैं, उन्हें प्राणों को अपने अधीन करना होगा| प्राणों को अपने अधीन करने से चित्त के आवरण व मल नष्ट हो जाएँगे| चित्त के निर्मल होने पर अलौकिक ज्ञान की प्राप्ति होती है तथा सारे दुःखों से निवृत्ति मिल जाती है|
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ॐ नमो नारायण ! स्वामी जी को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम ! ॐ ॐ ॐ !!

Thursday 10 May 2018

सबसे बड़ी सेवा जो हम इस मनुष्य देह में कर सकते हैं .....

सबसे बड़ी सेवा जो हम इस मनुष्य देह में कर सकते हैं .....
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सबसे बड़ी सेवा परम तत्व परमात्मा का साक्षात्कार है, जो वास्तव में हम हैं| यह सबसे बड़ी सेवा है जो हम समष्टि के लिए कर सकते हैं| हम यह देह नहीं हैं, अपनी उच्चतर चेतना में स्वयं परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति, उसकी पूर्णता और अनंतता हैं| अपनी उच्चतम चेतना में हम स्वयं प्रभु के साथ एक हैं, स्वयं परमात्मा हैं| इसकी अनुभूति तभी हो सकती है जब हम नित्य नियमित रूप से गहन ध्यान साधना करें| हर साँस के साथ यह भाव करें कि हम परमात्मा की अनंतता यानि सर्वव्यापकता हैं| हर साँस के साथ हम उस परम ज्योतिर्मय चेतना से एकाकार हो रहे हैं, और वह चेतना अवतरित होकर समस्त सृष्टि को ज्योतिर्मय बना रही है| पृष्ठभूमि में प्रणव ध्वनि यानि अनाहत नाद को भी सुनते रहें| ||"सो" "हं"|| || ॐ SSSSS || यही अजपा-जप है|
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जो नित्य नियमित ध्यान नहीं करते वे सौ जन्म में भी इसे नहीं समझ सकते, क्योंकि यह बुद्धि का नहीं, अनुभूति का विषय है| ऐसे लोगों के लिए मेरे पास बिलकुल भी समय नहीं है, वे मेरा समय खराब न करें|
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निम्न प्रकृति की चिंता न करें जो बार बार खींच कर नीचे ले आती है| जितना अधिक हम अपनी उच्चतर प्रकृति में रहेंगे, निम्न प्रकृति का प्रभाव कम होता चला जाएगा|
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जो भी साधना हम करते हैं वह वास्तव में हम नहीं, साक्षात परमात्मा स्वयं कर रहे हैं| यह मनुष्य देह, परमात्मा का एक उपकरण मात्र है| मोक्ष की कामना सबसे बड़ा बंधन है| मोक्ष की हमें कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आत्मा तो नित्य मुक्त है| बंधन केवल भ्रम हैं|
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ईश्वर को पूर्ण समर्पण करणा होगा| सारी कामना, वासना, माँगें, राय और विचार सब उन्हें समर्पित करने होंगे तभी वे स्वयं सारी जिम्मेदारी लेंगे| कर्म-फल ही नहीं कर्म भी उन्हें समर्पित करने होंगे| समूचे ह्रदय और शक्ति के साथ स्वयं को उनके हाथों मे सौंप देना होगा| कर्ता ही नहीं दृष्टा भी उन्हें ही बनाना होगा, तभी वे सारी कठिनाइयों और संकटों से पार करायेंगे| किसी तरह का सात्विक अहंकार भी नहीं रखना है| वे जो भी करेंगे वह सर्वश्रेष्ठ होगा| यही सबसे बड़ा कर्तव्य और सबसे बड़ी सेवा है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ मई २०१८

आदि शंकराचार्य जयंती पर भगवान भाष्यकार शङ्करभगवद्पादाचार्य को नमन एवं सभी सनातन धर्मावलम्बियों को शुभ कामनाएँ और अभिनन्दन ....

आदि शंकराचार्य जयंती पर भगवान भाष्यकार शङ्करभगवद्पादाचार्य को नमन एवं सभी सनातन धर्मावलम्बियों को शुभ कामनाएँ और अभिनन्दन ....
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एक महानतम परम विलक्षण प्रतिभा जिसने कभी इस पृथ्वी पर विचरण कर सनातन धर्म का पुनरोद्धार किया था, के बारे में लिखने का मेरा यह प्रयास सूर्य को दीपक दिखाने के समान है| आज वैशाख शुक्ल पञ्चमी को उनका जन्म मेरे जैसे उनकी परंपरा के सभी अनुयायियों के ह्रदय में हुआ है, अतः शिव स्वरुप भगवान भाष्यकार शङ्करभगवद्पादाचार्य को नमन, जिनकी परम ज्योति हमारे कूटस्थ में निरंतर प्रज्ज्वलित है|
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एक मात्र सात वर्ष का संन्यासी बालक, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा| उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का एक दाना तक नहीं था| ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया| उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा| वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा| उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी| जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला वह बालक था ..... ‘'शंकर'’, जो आगे चलकर जगत्गुरू शंकराचार्य के नाम से विख्यात हुआ|
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आचार्य शंकर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी को मालाबार प्रान्त (केरल) के कालड़ी गाँव में तैत्तिरीय शाखा के एक यजुर्वेदी ब्राह्मण परिवार में हुआ था| वे माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे| बचपन मे ही उनके पिता का देहान्त हो गया था| उस समय सारे भारत में नास्तिकता का बोलबाला था| उस नास्तिकता के प्रभाव को दूरकर उन्होंने वेदान्त और भक्ति की ज्योति से सारे देश को आलोकित कर दिया| सनातन धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने भारत में चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके उस पर अपने चारों शिष्यों को आसीन किया|
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एक बार जब आचार्य शंकर प्रातःकाल वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर स्नान करने गये तब देखा कि एक युवा महिला अपने मृत पति के अंतिम संस्कार के खर्च के लिए भिक्षा मांग रही थी| उसने अपने पति की मृत देह को घाट पर इस प्रकार लेटा रखा था कि कोई भी स्नान के लिए नीचे नहीं उतर पा रहा था|
विवश शंकराचार्य ने उस महिला से अनुरोध किया कि हे माते, यदि आप कृपा करके इस शव को थोडा सा परे हटा दें तो मैं नीचे उतर कर स्नान कर सकूं| उस शोकाकुल महिला ने कोई उत्तर नहीं दिया| बार बार अनुनय विनय करने पर वह चिल्ला कर बोली कि इस मृतक को ही क्यों नहीं कह देते कि परे हट जाए|
आचार्य शंकर ने कहा कि हे माते, यह मृतक देह स्वतः कैसे हट सकती है? इसमें प्राण थोड़े ही हैं| इस पर वह युवा स्त्री बोली कि हे संत महाराज, ये आप ही तो हैं जो सर्वत्र यह कहते फिरते हैं कि इस शक्तिहीन जग में केवल मात्र ब्रह्म का ही एकाधिकार चलता है| एक निष्काम, निर्गुण और त्रिगुणातीत ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नहीं है, सब माया है| एक सामान्य महिला से इतने गहन तत्व की बात सुनकर आचार्य जड़वत हो गए| क्षण भर पश्चात् देखा कि वह महिला और उसके पति का शव दोनों ही लुप्त हो गए हैं|
स्तब्ध आचार्य शंकर इस लीला का भेद जानने के लिए ध्यानस्थ हो गए| ध्यान में वे तुरंत समझ गए कि इस अलौकिक लीला की नायिका अन्य कोई नहीं स्वयं महामाया अन्नपूर्ण थीं| यह भी उन्हें समझ में आ गया कि इस विश्व का आधार यही आदिशक्ति महामाया अपने चेतन स्वरुप में है|
इस अनुभूति से आचार्य भावविभोर हो गए| उन्होंने वहीं महामाया अन्नपूर्णा स्तोत्र की रचना की| उसके एक पद का अनुवाद निम्न है ---
"हे माँ यदि समस्त देवी देवताओं के स्वरूपों का अवलोकन किया जाए तो कुछ न कुछ कमी अवश्य दृष्टिगोचर होगी| यहाँ तक कि स्वयं ब्रह्मा भी प्रलयकाल की भयंकरता से विव्हल हो जाते हैं| किन्तु हे माँ चिन्मयी एक मात्र आप ही नित्य चैतन्य और नित्य पूर्ण हैं|"
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आदि शंकराचार्य के बारे में सामान्य जन में यही धारणा है कि उन्होंने सिर्फ अद्वैतवाद या अद्वैत वेदांत को प्रतिपादित किया| पर यह सही नहीं है| अद्वैतवादी से अधिक वे एक भक्त थे और उन्होंने भक्ति को अधिक महत्व दिया|
अद्वैतवाद के प्रतिपादक तो उनके परम गुरु ऋषि गौड़पाद थे जिन्होनें 'माण्डुक्यकारिका' ग्रन्थ की रचना की| आचार्य गौड़पाद ने माण्डुक्योपनिषद पर आधारित अपने ग्रन्थ मांडूक्यकारिका में जिन तत्वों का निरूपण किया उन्हीं का शंकराचार्य ने विस्तृत रूप दिया| अपने परम गुरु को श्रद्धा निवेदन करने हेतु शंकराचार्य ने सबसे पहिले माण्डुक्यकारिका पर भाष्य लिखा| आचार्य गौड़पाद श्रीविद्या के भी उपासक थे|
शंकराचार्य के गुरु योगीन्द्र गोविन्दपाद थे जिन्होंने पिचासी श्लोकों के ग्रन्थ 'अद्वैतानुभूति' की रचना की| उनकी और भगवान पातंजलि की गुफाएँ पास पास ओंकारेश्वर के निकट नर्मदा तट पर घने वन में हैं| वहां आसपास और भी गुफाएँ हैं जहाँ अनेक सिद्ध संत तपस्यारत हैं| पूरा क्षेत्र तपोभूमि है|
राजाधिराज मान्धाता ने यहीं पर शिवजी के लिए इतनी घनघोर तपस्या की थी कि शिवजी को ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होना पड़ा जो ओंकारेश्वर कहलाता है|
अपने 'विवेक चूडामणि' ग्रन्थ में शंकराचार्य कहते हैं ----
भक्ति प्रसिद्धा भव मोक्षनाय नात्र ततो साधनमस्ति किंचित् |
-- "साधना का आरम्भ भी भक्ति से होता है और उसका चरम उत्कर्ष भी भक्ति में ही होता है|"
भक्ति और ज्ञान दोनों एक ही हैं|
उन्होंने संस्कृत भाषा में इतने सुन्दर भक्ति पदों की रचनाएँ की है जो अति दिव्य और अनुपम हैं| उनमे भक्ति की पराकाष्ठा है| इतना ही नहीं परम ज्ञानी के रूप में उन्होंने ब्रह्म सूत्रों, उपनिषदों और गीता पर भाष्य लिखे हैं जो अनुपम हैं|
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यदि भगवान भाष्यकार आदि शंकराचार्य तत्कालीन विकृत हो चुके नास्तिक बौद्ध मत का खंडन करके सनातन धर्म की पुनर्स्थापना नहीं करते तो आज भारत भारत नहीं होता, बल्कि एक पूर्णरूपेण इस्लामिक देश होता| इस्लाम का प्रतिरोध भारत इसी लिए कर पाया क्योंकि यहाँ सनातन धर्म पुनर्स्थापित हो चुका था|
बौद्धों ने अपना सिर कटा लिया या धर्मान्तरित हो गए पर इस्लाम की धार का प्रतिरोध नहीं कर पाए| पूरा मध्य एशिया (जहां उज्बेकिस्तान से मुग़ल आक्रान्ता आये थे और भारत पर राज्य किया), तुर्किस्तान सहित बौद्ध मतानुयायी हो गया था| वहाँ के मुसलमान पहिले हिन्दू थे फिर बौद्ध बने| बौद्ध मत में अनेक विकृतियाँ आ गयी थीं और उसके अनुयायी अत्यधिक अहिंसक और बलहीन हो गए थे|
जब इस्लाम का जन्म हुआ तब इस्लाम की आक्रामक धार इतनी तीक्ष्ण थी कि 100 वर्ष के भीतर भीतर पूरा अरब (जो हिन्दू था), बेबीलोन (वर्तमान इराक, कुवैत), पश्चिम एशिया .... यमन से लेबनान तक, उत्तरी अफ्रीका (सोमालिया, इथियोपिया, जिबूती, सूडान, मिश्र, लीबिया, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मोरक्को), मध्य एशिया के सारे देश (ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, अज़र्बेजान, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिस्तान आदि), रूस के तातारिस्तान, देगिस्तान व् चेचेनिया आदि प्रदेश और पूरा फारस (वर्त्तमान ईरान) इस्लाम की पताका के अंतर्गत आ गए थे|
पर इस्लाम की आंधी एक सहस्त्र वर्ष राज्य कर के भी भारत को नष्ट नहीं कर पाई क्योंकि यहाँ सनातन धर्म के अनुयायियों द्वारा भक्ति मार्ग के आन्दोलन द्वारा हर प्रकार के विदेशी आक्रमण का प्रतिरोध हुआ|
(मौलाना हाली ने दुःख प्रकट करते हुए लिखा था .....
"वो दीने हिजाजी का बेबाक बेड़ा,
निशां जिसका अक्साए आलम में पहुंचा,
मज़ाहम हुआ कोई खतरा न जिसका,
न अम्मां में ठटका, न कुलज़म में झिझका,
किए पै सिपर जिसने सातों समंदर,
वो डुबा दहाने में गंगा के आकर।।"
यानी इस्लाम का जहाज़ी बेड़ा जो सातों समुद्र बेरोक-टोक पार करता गया और अजेय रहा, वह जब हिंदुस्थान पहुंचा और उसका सामना यहां की संस्कृति से हुआ तो वह गंगा की धारा में सदा के लिए डूब गया)
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मेरी दृष्टी में भगवान भाष्यकार शङ्करभगवद्पादाचार्य महानतम और दिव्यतम प्रतिभा थे जिसने आज से तेरह सौ वर्ष पूर्व इस धरा पर विचरण किया| सनातन धर्म की रक्षा ऐसे ही महापुरुषों से हुई है| धन्य है यह भारतभूमि जिसने ऐसी महान आत्माओं को जन्म दिया|
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मनोबुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥१॥
मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥१॥ I am not mind, intellect, ego or repository of memories. I am not ear, tongue, nose or the eyes. I am not space, earth, fire or air. I am of the form of aliveness, eternal bliss, auspiciousness. I am Shiva. ॥1॥
न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः न वा सप्तधातुर्न वा पञ्चकोशाः।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायू चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥२॥
न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पञ्च प्राणों (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) में कोई हूँ, न मैं सप्त धातुओं (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) में कोई हूँ और न पञ्च कोशों (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूँ और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥२॥ I am not principal life force (prana) or any of the five pranas (Prana, udana, apana, vyan, saman). I am not any of the seven constituents (skin, flesh, fat, blood, muscle, bone, marrow) of the body or any of the five sheaths (annamaya, manomaya, pranamaya, vigyanmaya, anandmaya). I am not speech, hands, feet, genitals or anus. I am of the form of aliveness, eternal bliss, auspiciousness. I am Shiva. ॥2॥
न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥३॥
न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही मुझमें मद है न ही ईर्ष्या की भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥३॥ I am devoid of aversion, attachment, greed, delusion, pride or jealousy. I am beyond four major goals of life, righteousness, wealth, pleasure or liberation. I am of the form of aliveness, eternal bliss, auspiciousness. I am Shiva. ॥3॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् न मंत्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥४॥
न मैं पुण्य हूँ, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूँ, न खाया जाने वाला हूँ और न खाने वाला हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥४॥ I am beyond virtues, sins, joy or sorrow. I am beyond mantras, pilgrimage, Vedas or yagyas. I am not food, eatable, or its eater. I am of the form of aliveness, eternal bliss, auspiciousness. I am Shiva. ॥4॥
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः पिता नैव मेनैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥
न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है, न मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्य, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥५॥ I have no fear of death or distinction of caste. I have no father or mother. I am unborn. I have no brothers, friends, master or disciples. I am of the form of aliveness, eternal bliss, auspiciousness. I am Shiva. ॥5॥
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥६॥
मैं समस्त संदेहों से परे, बिना किसी आकार वाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥६॥ I am beyond all doubts, formless, all-pervading, everywhere and surround all sense organs. I am always established in equanimity. There is no liberation or bondage in me. I am of the form of aliveness, eternal bliss, auspiciousness. I am Shiva.
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ मई २०१६

हमारा अस्तित्व ही परमात्मा का अस्तित्व है ......


हमारा अस्तित्व ही परमात्मा का अस्तित्व है ......
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इस विषय पर क्या लिखूं ? वाणी मौन हो जाती है | बचता है सिर्फ और सिर्फ 'अनिर्वचनीय अहैतुकी परम प्रेम'| इस विषय पर चिन्तन करने वाला स्वयं ही प्रेममय यानि प्रत्यक्ष 'प्रेम' हो जाता है |

क्या भगवान कहीं दूर हैं? नहीं नहीं बिलकुल नहीं| किसी को देखने, समझने या अनुभूत करने के लिए कुछ तो दूरी चाहिए| पर जहाँ कोई दूरी नहीं हो, जो निकटतम से भी निकट हो उसे कैसे जान सकते हैं? बुद्धि यहाँ विफल हो जाती है|

हमारी आँखें क्या हमारे प्राणों को देख सकती है? हमारी चेतना क्या उसको अनुभूत कर सकती है? कदापि नहीं | जो हमारे प्राणों का भी प्राण है उसे हम कैसे जान सकते हैं? सिर्फ अपने अहं का समर्पण कर के और स्वयं परमप्रेममय होकर ..... बस इस के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है |

वह कौन है जो हमारे ह्रदय में धड़क रहा है? हमारीआँखों से देख रहा है? हमें जीवंत रखे हुए है? उस का अस्तित्व ही हमारा अस्तित्व है और हमाराअस्तित्व ही उसका अस्तित्व है|

यह सम्पूर्ण अस्तित्व ही परमात्मा है और उसकी सर्वव्यापकता ही हमाराअस्तित्व है| हम यह देह नहीं उसके परम प्रेम की एक अभिव्यक्ति मात्र हैं | हम स्वयं वह परम प्रेम हैं |

उसके चैतन्य में जीना ही जीवन का प्रथम, अंतिम और एकमात्र उद्देष्य है | अन्य कोई उद्देष्य नहीं है |

आप सब निज दिव्यात्माओं को मेरा सादर नमन|
ॐ नमो नारायण ! शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | ॐ शिव |
कृपा शंकर
११ मई २०१४

मेरी एकमात्र प्रसन्नता .....

मेरी एकमात्र प्रसन्नता .....
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मुझे प्रसन्नता सिर्फ परमात्मा के ध्यान में ही मिलती है| यही मेरा एकमात्र मनोरंजन है| मैं अपनी प्रसन्नता के लिए भगवान के ध्यान पर ही निर्भर हूँ| अन्य किसी विषय में मेरी रूचि अब नहीं रही है| जब कभी भगवान का ध्यान नहीं होता तब अत्यधिक भयंकर पीड़ा होती है|
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मैं अधिकांशतः अकेला ही रहता हूँ| मिलने जुलने की इच्छा सिर्फ उन्हीं लोगों से होती है जिनके ह्रदय में कूट कूट कर भगवान के प्रति प्रेम भरा हुआ है| अन्य लोगों से मिलना बड़ा दुखदायी है| सिर्फ सामाजिकता के नाते महीने में एक या दो बार थोड़े समय के लिए समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों से भगवान मिला देते हैं|
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परमात्मा की उपस्थिति का निरंतर आभास ही मेरा आनंद है और यही मेरा मनोरंजन| चला कर मैं अब किसी से भी नहीं मिलता| किसी से कोई लेना-देना नहीं है| मैं प्रसन्न हूँ|
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० मई २०१८

Wednesday 9 May 2018

इस विमान का चालक कौन है ? .....



इस विमान का चालक कौन है ? (Who is the pilot of this aircraft?) .....
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यह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ विमान है| इससे श्रेष्ठ अन्य किसी रचना का मुझे ज्ञान नहीं है| इसके तीन आवरण हैं --- स्थूल, सूक्ष्म और कारण; पंच कोष हैं -- अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय| मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार सब इसी से जुड़े हुए हैं|
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हर मनुष्य की आत्मा का इसी में निवास है| इसी विमान में क्षमता है कि वह आत्मा को परमात्मा से मिला सकता है, जीव को परमशिव बना सकता है|
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मनुष्य जब स्वयं को यह विमान समझ लेता है तब माया के आवरण में घिर जाता है और दुःख, कष्ट और व्याधियों से व्याकुल हो उठता है| पर जब वह इस विमान के असली चालक को समझ कर उसको समर्पित हो जाता है तब उसकी मुक्ति का मार्ग खुल जाता है|

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विमान का एक अर्थ है ---- विगत मान ---- जिससे मान-अभिमान निकल चुका हो ---- "सबहिं मानप्रद आपु अमानी" --- मानस़ |
अमानी मानदो मान्य --- विष्णुसहस्रनाम |
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विमान तो भगवान ही हैं और चालक भी वे ही हैं| यह विमान मनुष्य देह रूपी है| He is the pilot of this aircraft, and He is the aircraft Himself.
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० मई २०१५

सावधानी हटी और दुर्घटना घटी .....

सावधानी हटी और दुर्घटना घटी .....
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प्रिय मित्रो, सदा याद रखो ------ "सावधानी हटी और दुर्घटना घटी" |

काम, क्रोध, मद, मोह और मत्सर्य ---- ये शत्रु आपको अपना उपकरण बनाने को निरंतर तैयार हैं| विश्वामित्र और जड़ भरत जैसे तपस्वी भी नहीं बच पाए तो आप कौन से खेत की मूली हैं ?
भगवान की माया बड़ी प्रचंड है| अतः सदैव सजग रहो|

प्रत्येक मनुष्य के जीवन में कुछ ना कुछ ऐसी घटनाएँ अवश्य होती हैं जिनसे उसे जीवन भर लज्जित होना पड़ सकता है| हर मनुष्य कुछ ना कुछ भूल अवश्य करता है| अतः भूतकाल को भूलकर जब भी याद आये उसी क्षण से अपने आध्यात्मिक विकास की दिशा में अग्रसर हो जाना चाहिए|| भविष्य में होने वाला हर कार्य सर्वश्रेष्ठ होगा यदि हम इसी क्षण से अपने जीवन का केंद्र बिंदु परमात्मा को बना लें|

शुभ कामनाएँ और आप में हृदयस्थ प्रभु को प्रणाम | ॐ शिव ||
१० मई २०१४

हम अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं ? ....

हम अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं ?
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देश, धर्म, समाज, राष्ट्र, मानवता और पूरी सृष्टि की सेवा में विषम से विषम परिस्थितियों में हम अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं ? यह प्रश्न सदा मेरे चैतन्य में रहा है| इसके समाधान हेतु अध्ययन भी खूब किया, अनेक ऐसी संस्थाओं से भी जुडा रहा जो समाज-सेवा का कार्य करती हैं| अनेक धार्मिक संस्थाओं से भी जुड़ा पर कहीं भी संतुष्टि नहीं मिली| कई तरह की साधनाएँ भी कीं, अनेक तथाकथित धार्मिक लोगों से भी मिला पर निराशा ही हाथ लगी| धर्म और राष्ट्र से स्वाभाविक रूप से खूब प्रेम रहा है| धर्म के ह्रास और राष्ट्र के पतन से भी बहुत व्यथा हुई है| सदा यही जानने का प्रयास किया कि जो हो गया सो तो हो गया उसे तों बदल नहीं सकते पर इसी क्षण से क्या किया जा सकता है जो जीवन मे सर्वश्रेष्ठ हो और सबके हित में हो|
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ध्यान-साधना में विस्तार की अनुभूतियों ने यह तो स्पष्ट कर दिया कि मैं यह शरीर नहीं हूँ| ईश्वर के दिव्य प्रेम, आनंद और उसकी झलक अनेक बार मिली| यह अनुभूति भी होती रहती है कि स्वयं के अस्तित्व की एक उच्चतर प्रकृति तो एक विराट ज्योतिर्मय चैतन्य को पाने के लिए अभीप्सित है पर एक निम्न प्रकृति बापस नीचे कि भौतिक, प्राणिक और मानसिक चेतना की ओर खींच रही है| आत्मा की अभीप्सा तो इतनी तीब्र है वह परमात्मा के बिना नहीं रह सकती पर निम्न प्रकृति उस ओर एक कदम भी नहीं बढ़ने देती|
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यह भी जीवन मे स्पष्ट हो गया कि उस परम तत्व को पाना ही सबसे बड़ी सेवा हो सकती है जो की जा सकती है| गहन ध्यान में मैं यह शरीर नहीं रहता बल्कि मेरी चेतना समस्त अस्तित्व से जुड़ जाती है| यह स्पष्ट अनुभूत होता रहता है कि हर श्वाश के साथ मैं उस चेतना से एकाकार हो रहा हूँ और हर निःश्वाश के साथ वह चेतना अवतरित होकर समस्त सृष्टि को ज्योतिर्मय बना रही है| उसी स्थिति मे बना रहना चाहता हूँ पर निम्न प्रकृति फिर नीचे खींच लाती है| ईश्वर से प्रार्थनाओं के उत्तर मे जो अनुभूतियाँ मुझे हुई उन्हें व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ|
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सबसे पहिले तों यह स्पष्ट किया गया गया है कि जो भी साधना हम करते हैं वह स्वयं के लिए नहीं बल्कि भगवान के लिए है| उसका उद्देश्य सिर्फ उनकी इच्छा को कार्यान्वित करना है| मोक्ष की कामना सबसे बड़ा बंधन है| उसकी कोई आवश्यकता नहीं है| आत्मा तों नित्य मुक्त है| बंधन केवल भ्रम हैं| ईश्वर को पूर्ण समर्पण करणा होगा| सारी कामना, वासना, माँगें, राय और विचार सब उसे समर्पित करने होंगे तभी वह स्वयं सारी जिम्मेदारी ले लेगा| कर्म-फल ही नहीं कर्म भी उसे समर्पित करने होंगे| समूचे ह्रदय और शक्ति के साथ स्वयं को उसके हाथों मे सौंप देना होगा| कर्ता ही नहीं दृष्टा भी उसे ही बनाना होगा, तभी वह सारी कठिनाइयों और संकटों से पार करेगा| सारे कर्म तो स्वयं उनकी शक्ति ही करती है और उन्हें ही अर्पित करती हैं| किसी भी तरह का सात्विक अहंकार नहीं रखना है| इससे अधिक व्यक्त करने की मेरी क्षमता नहीं है|
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सार की बात जिससे अधिक व्यक्त करना मेरी क्षमता से परे है वह यह कि स्वयं को ईश्वर का एक उपकरण मात्र बनाकर उसके हाथ मे सौंप देना है| फिर वो जो भी करेगा वही सर्वश्रेष्ठ होगा| यही सबसे बड़ा कर्तव्य और सबसे बड़ी सेवा है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० मई २०१२

श्रद्धेय स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के आज के अति दिव्य सत्संग से संकलित .....

श्रद्धेय स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के आज के अति दिव्य सत्संग से संकलित .....
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संसार की समस्त विभूतियाँ एक मात्र मन को जीतने से ही प्राप्त होती हैं| चित्त जिसकी भावना में तन्मय होता है, उसे निःसंदेह प्राप्त कर लेता है अर्थात् चंचल हुआ मन जिस-जिस वस्तु की भावना करता है तथा जिस-जिस वासना से युक्त होकर भाव को अपनाता है, उसी स्वरूप को प्राप्त हो जाता है| मन जिस-जिस भाव को अपनाता है, उसी-उसी को वस्तु रूप में पाता है।
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जिसके चित्त की वृत्तियाँ ब्रह्म में लीन होती जा रही है, जो ज्ञान प्राप्त करके संकल्पों का त्याग कर रहा है, जिसका मन ब्रह्म स्वरूप में परिणित हो गया है, जो नाशवान जड़ दृश्य का त्याग कर रहा है तथा ब्रह्म का ध्यान कर रहा है, दृश्य जगत् का अनुभव नहीं करता है, वह परम् तत्त्व में जाग रहा है। मन और अहङ्कार इन दोनों में से किसी एक का विनाश हो जाने पर मन और अहङ्कार दोनों का विनाश हो जाता है। इसलिए इच्छाओं का परित्याग करके अपने वैराग्य और आत्मा-अनात्मा के विवेक से केवल मन का विनाश कर देना चाहिए। जैसे वायु के शान्त होने से समुद्र शान्त हो जाता है, वैसे ही प्रसन्न , गम्भीरता से युक्त, क्षोभ शून्य तथा राग-द्वेष आदि दोषों से रहित, वश में किया हुआ मन सम हो जाता है।
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मन ही कर्म रूप वृक्ष का अंकुर है। मन के नष्ट हो जाने पर संसार रूपी वृक्ष भी नष्ट हो जाता है तथा सम्पूर्ण दुःखों का अन्त हो जाता है। निर्मल सत्त्व-स्वरूप मन जिस पदार्थ के विषय में जैसी भावना करता है, वह वस्तु वैसी ही हो जाती है। संसार के सभी पदार्थ संकल्प रूप ही हैं, इसलिए विवेकी पुरुष उनकी कभी कामना नहीं करता है।
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ईश्वर प्राप्ति में मन की भूमिका मूख्य रूप से होती है। मन ही इसकी प्राप्ति में बाधक है। इसका जिसमें अनुराग हो जाता है , वही भाव ग्रहण कर लेता है। संसारी मनुष्यों का मन बर्हिमुखी होकर इन्द्रियों के विषयों में आसक्त बना रहता है। अज्ञान के कारण उन्हीं को सुख प्राप्ति का साधन समझ रहा होता है, जबकि ये विषय भोग वास्तव में परिणाम में दुःखदायी ही हैं। पदार्थों को भोगने के लिए हिंसा, असत्य तथा शास्त्र विरूद्ध कार्य करने की चेष्टा की जाती है, जिससे मन मलिन हो जाता है। इसके लिए ज्ञान के अतिरिक्त वैराग्य और अभ्यास की भी आवश्यकता है ।
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इच्छाओं की पूर्ति में लग जाना , छोटी - छोटी वस्तुओं की ओर आकर्षित हो जाना तथा छोटी-छोटी बातों में उलझ जाना पतन का कारण होता है। इन्द्रियों के द्वारा सांसारिक सुख लेने की इच्छा ही हमें छोटा बना देती है। ये तुच्छ इच्छाएँ जितनी प्रकट होती है, मनुष्य उतना ही अन्दर से छोटा होता जाता है। जितना इच्छाओं का त्याग करता है उतना ही वह महान् होता जाता है।
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अन्तःकरण में जितनी अधिक वासनाएँ होगी , उतना ही वह अन्दर से कमजोर होगा। जो मनुष्य अन्दर से कमजोर होगा वह अवश्य ही बाहर से भी कमजोर होगा। चित्त से इच्छाओं की जितनी निवृत्ति होती जाएगी उतना ही वह महान् बनता जाएगा।
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नारायण ! इच्छाएँ दो प्रकार की होती हैं । एक - शुद्ध इच्छा और दूसरी - मलिन इच्छा। मलिन इच्छा जन्म का कारण है। इसके द्वारा जीव जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ता है, अज्ञान ही घनीभूत आकृति है। जो इच्छा शुद्ध होती है वह भुने हुए बीज के समान पुनर्जन्म रूपी अंकुर को उत्पन्न करने की शक्ति को त्याग कर केवल शरीर धारण मात्र के लिए स्थित रहती है, वह अज्ञान और अहङ्कार से रहित होती है। जो महापुरुष शुद्ध इच्छाओं से युक्त हैं, वे जन्म रूप अऩर्थ में नहीं पड़ते हैं। ऐसे परम् बुद्धिमान् पुरुष परमात्मा के तत्त्व को जानने वाले जीवन्मुक्त कहलाते हैं।
संसार का संकल्प ही सबसे बड़ा बन्धन है तथा संकल्प का अभाव ही मोक्ष है।
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श्रद्धेय स्वामी जी को दण्डवत् प्रणाम ! ॐ नमो नारायण !
९ मई २०१८