Thursday 5 September 2019

भगवान वासुदेव को नमन जो आप सब महान आत्माओं के रूप में सर्वदा सर्वत्र व्यक्त हो रहे हैं .....

भगवान वासुदेव को नमन जो आप सब महान आत्माओं के रूप में सर्वदा सर्वत्र व्यक्त हो रहे हैं .....

या तो ...(१) मैं स्वयं ही गलत हूँ, (२) या गलत स्थान पर हूँ, (३) या गलत समय पर हूँ|
मुझे लगता है कि मैं गलत समय और गलत स्थान पर तो हूँ ही, पर स्वयं भी गलत हूँ| जैसा स्वभाव भगवान ने मुझे दिया है, उसके अनुसार तो इस संसार में मैं बिलकुल अनुपयुक्त यानि misfit हूँ| परमात्मा की परम कृपा से ही अब तक की यात्रा कर पाया हूँ| इसमें मेरी कोई महिमा नहीं है| पिछलें जन्मों में कोई अच्छे कर्म नहीं किए और मुक्ति का उपाय नहीं किया इसलिए संचित कर्मों का फल भोगने के लिए यह जन्म लेना पड़ा| वे संचित कर्म ही प्रारब्ध बन गए|
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भगवान वासुदेव को मुझ पर विश्वास था इसलिए उन्होंने मुझे यहाँ भेज रखा है| उन से तो मैं विश्वासघात कर नहीं सकता| वे मेरे हृदय में ही स्थायी रूप से आकर बैठ गए हैं| निरंतर उनकी पूरी दृष्टि मुझ अकिंचन पर है| मेरे लिए कहीं कोई छिपने या बचकर भागने का स्थान भी नहीं है, अतः उन भगवान वासुदेव को समर्पण कर देना ही अच्छा है| दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है| समर्पण करना ही पड़ेगा और कर भी चुका हूँ|
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जहाँ भी मैं हूँ वहाँ मेरे परमात्मा भगवान वासुदेव भी साथ साथ हैं| वे मुझ से पृथक हो ही नहीं सकते .....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||"
वे सब की आत्मा भगवान वासुदेव सर्वत्र व्यापक हैं, सब कुछ उन्हीं में है, और वे सभी में हैं|
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||"
उन भगवान वासुदेव को नमन जो आप सब महान आत्माओं के रूप में सर्वदा सर्वत्र व्यक्त हो रहे हैं |
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ सितंबर २०१९

क्या हम अपने मन को पकड़ कर रख सकते हैं? .....

क्या हम अपने मन को पकड़ कर रख सकते हैं? .....

योगी लोग कहते हैं कि प्राण-तत्व पर यदि नियंत्रण हो जाये तो हम मन ही नहीं, पूरे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) पर विजय पा सकते हैं| मन यदि चंचल है तो यह मन का दोष नहीं है, क्योंकि चंचलता तो मन का धर्म है| प्राण-तत्व की चंचलता नियंत्रित हो जाये तो मन की चंचलता भी समाप्त हो जाती है| इसके लिए ब्रहमनिष्ठ सिद्ध गुरु के मार्गदर्शन में आंतरिक सूक्ष्म प्राणायाम का अभ्यास किया जाता है जिस से आत्मा प्रकाशित हो उठती है|
वैराग्य और इस अभ्यास के बारे में गीता में भगवान कहते हैं .....
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं |
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ||६:३५||
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हम सब के भीतर ब्र्हमत्व छिपा है| ब्र्हमत्व ही परम शिवत्व है| स्वयं परम शिव बनकर परम शिव का ध्यान करो| चिदाकाश (चित्त रूपी आकाश) में स्वयं की अनंतता का ध्यान करो| वह अनंतता ही हमारा वास्तविक रूप है|
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हमारे गुरु हम से पृथक नहीं हो सकते, वे हमारे साथ एक हैं| हमारा आत्मतत्व ही हमारा गुरु है| सारी चिंताओं का विसर्जन कर सहस्त्रार में, ब्रह्मरंध्र में, गुरु चरणों का ध्यान करो| वे हमारा सारा अज्ञान धीरे धीरे हर लेंगे, वे हरिः हैं, वे ही मुक्ति के द्वार हैं|
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हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ सितंबर २०१९

मेरा जन्मदिवस ....

मैं एक शाश्वत आत्मा हूँ जिसकी आयु अनंतता है| अहं से बोध्य आत्मा कालचक्र और आयुगणना से परे नित्य है| पता नहीं अब तक कितनी देहों में जन्म लिया है और कितनी देहों में मृत्यु को प्राप्त हुआ हूँ| परमात्मा ने कृपा कर के मुझे पूर्वजन्मों की स्मृतियाँ नहीं दीं और इस जन्म में भी भूलने की आदत डाल दी, अन्यथा निरंतर एक पीड़ा बनी रहती| विगत जीवनक्रम एक स्वप्न सा लगता है और अनंत कालखंड में यह समस्त जीवन एक स्वप्न मात्र बनकर ही रह जाएगा|
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परमात्मा की सर्वव्यापकता ही हमारा अस्तित्व है और उसका दिव्य प्रेम ही हमारा आनन्द| इस आनंद के साथ हमारा अस्तित्व सदा बना रहे, और हम तीव्र गति से "निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन" की ओर प्रगतिशील हों|
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आप सब दिव्यात्माओं को प्रणाम करता हूँ| आप सब मुझे आशीर्वाद दें कि मैं अपने मार्ग पर सतत चलता रहूँ और कभी भटकूँ नहीं|
जय श्रीराम ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ सितम्बर २०१९

वेदों की ओर बापस कैसे लौटें ? ....

कई मित्र मुझसे बार बार कहते थे कि वेदों की ओर बापस लौटो, बापस लौटो| मैंने पूछा कि कैसे लौटें? लौटने की विधि तो बताओ क्योंकि वेदों को समझना हमारी बौद्धिक क्षमता से परे है| इसका कोई उत्तर उनके पास नहीं था, एक-दो रटे-रटाये श्लोक ही उनको याद थे, कोई ज्ञान नहीं था उनके पास|
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जहाँ तक मैं समझता हूँ, शब्दों के अर्थ मात्र को जानने से वेदों का ज्ञान नहीं हो सकता| अनुवाद को पढ़ने मात्र से वेदों को नहीं समझ सकते| उसके लिए श्रद्धा और साधना द्वारा अंतर्प्रज्ञा जागृत करनी पड़ती है, फिर सही उच्चारण की विधि, वैदिक व्याकरण, छंद, निरुक्त, ज्योतिष व कल्प सूत्रों का ज्ञान भी आवश्यक है| बिना परमात्मा की कृपा और आशीर्वाद के वेदों को समझना असंभव है|
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अब वर्तमान में तो जैसा भी मार्गदर्शन परमात्मा से प्राप्त हो रहा है, उसी का अनुशरण करेंगे| अभी तो जीवन का उद्देश्य कुछ पाना या जानना नहीं है, बल्कि परमात्मा को पूर्ण समर्पण है| ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत परमात्मा है, पुस्तकें नहीं| जैसी भी और जो भी इच्छा परमात्मा की होगी, उसका ज्ञान वे स्वयं ही करा देंगे, उसकी कोई चिंता नहीं है| गुरुकृपा से परमात्मा की अनुभूतियाँ और आंतरिक स्पष्ट मार्गदर्शन प्राप्त हो रहा है, अतः पूर्ण संतुष्टि है, किसी तरह का कोई अभाव नहीं है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
३ सितंबर २०१९

पराविद्या और अपराविद्या में भेद क्या है? .....

पराविद्या और अपराविद्या में भेद क्या है? .....
(मुंडकोपनिषद पर दिए अपने प्रवचनों में दंडी स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी ने २ सितंबर २०१६ को इस विषय पर प्रकाश डाला था| निम्न लेख उनके ही प्रवचन से संकलित है)
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(१) पराविद्या :---- परमात्मा को जानने वाली विद्या है|
(२) अपराविद्या :----- जो धर्म-अधर्म और कर्त्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान कराये वह विद्या है|
ज्ञानशक्ति से हम जानते हैं और क्रियाशक्ति से करते हैं|
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शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, और ज्योतिष ---- इनका ज्ञान होने से ही हम वेदों को समझ सकते हैं| ये अपरा विद्याएँ हैं|
(1) वेदों के सही उच्चारण के ढंग को "शिक्षा" कहते हैं| वेदों के एक ही शब्द के दो प्रकार से उच्चारण से अलग अलग अर्थ निकलते है| इसलिये वेद को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि उच्चारण कैसे हो|
(2) जितने भी धार्मिक कर्म .... पूजा, हवन आदि है उन सब को करने का तरीका जिन ग्रंथों में है वे "कल्प" सूत्र है|
(3) "व्याकरण" वेद के पदों को कैसे समझा जाये यह बताता है|
(4) "निरुक्त" शब्दों के अर्थ लगाने का तरीका है|
(5) "छंद" अक्षर विन्यास के नियमों का ज्ञान कराता है|
(6) "ज्योतिष" से कर्म के लिये उचित समय निर्धारण का ज्ञान होता है|
----- उपरोक्त छःओं का ज्ञान वेदों को समझने के लिए आवश्यक है| ये और चारों वेद "अपराविद्या" में आते हैं|
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"पराविद्या उसको कहते हैं जिससे परमेश्वर की प्राप्ति हो अर्थात् साक्षात्कार होता है| उपनिषद् के पढ़ने में जो ज्ञान है वह अपराविद्या है, पर उसमें बताये का साक्षात्कार जिससे होता है वह पराविद्या है|
"धर्म" -- अपराविद्या है, और "साक्षात्कार" --- "पराविद्या" है|
"शब्दज्ञान" अपराविद्या है और "ब्रह्मसाक्षात्कार" पराविद्या है|
शब्द का ज्ञान होने से हम समझते हैं कि विषय का ज्ञान हो गया, पर मात्र शब्दों के ज्ञान से हम ज्ञानी नहीं हो सकते| शास्त्रों के अध्ययन मात्र से हम ज्ञानी नहीं हो सकते| निज जीवन में परमात्मा को अवतृत कराने का ज्ञान पराविद्या है|
वेद जब परमात्मा का साक्षात्कार करा दे तब वह पराविद्या है| पराविद्या ही वस्तुतः ज्ञान है| पराविद्या से जो परमात्मा का ज्ञान होता है वही एकमात्र ज्ञान है| उससे भिन्न तो सब ज्ञान का आभास मात्र है, ज्ञान नहीं|
!! ॐ ॐ ॐ !!
२ सितंबर २०१९ 

गणेश चतुर्थी की शुभ कामनाएँ .....

गणेश चतुर्थी की शुभ कामनाएँ .....
जहाँ तक मैं समझता हूँ, पंचप्राण (प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान), गणेश जी के गण हैं, जिनके गणपति वे ओंकार रूप में हैं|
ॐ गं गणपतये नमः !! ॐ ॐ ॐ !!!
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भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सम्पूर्ण भारत में गणेश चतुर्थी के पर्व ने बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया है| एक समय था जब अंग्रेजों ने पूरे भारत में धारा-१४४ लागू कर रखी थी| पाँच से अधिक व्यक्ति एक स्थान पर एकत्र नहीं हो सकते थे| अंग्रेज पुलिस गश्त लगाती रहती और जहाँ कहीं भी पाँच से अधिक व्यक्ति एक साथ एकत्र दिखाई देते उन पर बिना चेतावनी के लाठी-चार्ज कर देती| पूरा भारत आतंकित था|
ऐसे समय में पं. बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र में गणपति-उत्सव का आरंभ किया| सिर्फ धार्मिक आयोजनों के लिए ही एकत्र होने की छूट थी| गणपति पूजा के नाम पर लोग एकत्र होते और धार्मिकता के साथ-साथ उनमें राष्ट्रवादी विचार भी भर जाते| तत्पश्चात महाराष्ट्र के साथ-साथ पूरे भारत में गणपति उत्सव का चलन हो गया|
२ सितंबर २०१९ 

भाद्रपद अमावस्या का विशेष दिन .....

आज भाद्रपद अमावस्या का दिन भक्ति और आस्था का संगम, व इस क्षेत्र के लिए एक विशेष दिन है .....
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(१) आज राजस्थान के अरावली पर्वतमाला के मध्य में स्थित लोहार्गल तीर्थ से गोगा-नवमी को आरंभ हुई मालकेत बाबा की छः दिवसीय २४ कोसीय परिक्रमा बापस लोहार्गल तीर्थ में आकर सम्पन्न हो गई| यह परिक्रमा-पथ झुंझुनू और सीकर जिलों में पड़ता है, जिसमें लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं| आगे आगे वैष्णव संतों के नेतृत्व में ठाकुर जी की पालकी चलती है, और पीछे पीछे भजन-कीर्तन करते लाखों भक्त| मालकेत बाबा एक पर्वत का नाम है, क्षेत्र के लोग जिसकी आराधना भगवान विष्णु के रूप में करते हैं| इस पर्वत से सात स्थानों पर गोमुख से जल निकलता है और स्नान के लिए जलकुंड हैं| इसकी परिक्रमा २४ कोस की है| आज से लोहार्गल का वार्षिक लक्खी मेला भी आरंभ हो गया है|
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(२) आज भाद्रपद अमावस्या के दिन इस क्षेत्र के सभी सती मंदिरों का विशेष आराधना दिवस भी है| मैं न तो सतीप्रथा का महिमामंडन कर रहा हूँ और न ही समर्थन| मैं इस तरह की किसी भी सती-प्रथा का विरोध करता हूँ|
पर मेरा व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि भारत में सती-प्रथा कभी थी ही नहीं| हमें गलत इतिहास पढ़ाया जाता है| देश में आजादी के बाद यदि कोई सती हुईं तो वे अशिक्षा और अज्ञानता के कारण हुई थीं| हो सकता है वे पारिवारिक हत्याएं भी हों, जो गलत थीं| उनका विरोध सही है|
अंग्रेजों के समय जो सतीप्रथा चली वह उन्हीं क्षेत्रों में थीं जहाँ अंग्रेजों की सैनिक छावनियाँ थीं| अंग्रेज सिपाही अपने देश बापस जाने की जल्दी न करें इस लिए अंग्रेजों ने अपने सिपाहियों के लिए वेश्यालय खोले जिनमें वे बंदूक की नोक पर हिन्दू विधवाओं का अपहरण कर उन्हें बलात वेश्या बना देते थे| अतः परिवार के लोग उनको मारने लगे|
मुसलमानों के आक्रमण-काल में क्रूर और निर्दयी आक्रमणकारी, पराजित हिन्दू जाति की महिलाओं के साथ बहुत बुरा सलूक करते थे| अतः वे महिलाएँ अपने स्वाभिमान और पवित्रता की रक्षा के लिए जौहर कर लेतीं| वे वीराङ्गनायें थीं|
भारत में सती-प्रथा कभी थी ही नहीं, यह मेरा व्यक्तिगत मत है| इस विषय पर एक गहन ऐतिहासिक शोध की आवश्यकता है| मैं दुबारा लिख रहा हूँ कि मैं सती-प्रथा का विरोध करता हूँ| साथ साथ यह भी निवेदन करता हूँ कि सती-प्रथा वास्तव में कभी थी ही नहीं| हिंदुओं में हीन भावना भरने के लिए सती-प्रथा का झूठा इतिहास गढ़ा गया है|
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(३) आज इस शरीर महाराज का ७२ वां जन्म-दिवस भी है| आप सब को मुझ अकिंचन का सप्रेम नमन !
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
३० अगस्त २०१९

कभी भूल से भी आत्म-प्रशंसा न करें .....

आत्म-प्रशंसा एक बहुत बड़ा अवगुण है| कभी भूल से भी आत्म-प्रशंसा न करें|

हम सब के भीतर एक आध्यात्मिक चुम्बकत्व होता है, जो बिना कुछ कहे ही हमारी महिमा का स्वतः ही बखान कर देता है| ध्यान साधना और भक्ति से उस आध्यात्मिक चुम्बकत्व का विकास करें| वह चुम्बकत्व जिस में भी होगा, अच्छे अच्छे लोग उसकी ओर स्वतः ही खिंचे चले आयेंगे| उसकी बातों को सब लोग बड़े ध्यान से सुनेंगे, कभी भूलेंगे नहीं और उन बातों का चिर स्थायी प्रभाव पड़ेगा| कभी कभी कोई बहुत ही प्रभावशाली वक्ता बहुत सुन्दर भाषण और प्रवचन देता है, श्रोतागण बड़े जोर से प्रसन्न होकर तालियाँ बजाते हैं, पर पाँच-दस मिनट बाद उसको भूल जाते हैं| वहीं कभी कोई एक मामूली सा लगने वाला व्यक्ति कुछ कह देता है जिसे हम वर्षों तक नहीं भूलते| कभी कोई अति आकर्षक व्यक्ति मिलता है, मिलते ही हम उससे दूर हटना चाहते हैं, पर कभी कभी एक सामान्य से व्यक्ति को भी हम छोड़ना नहीं चाहते, यह उस व्यक्ति के चुम्बकत्व का ही प्रभाव है| आध्यात्मिक चुम्बकत्व .... आत्मा की एक शक्ति है जो उस हर वस्तु या परिस्थिति को आकर्षित या निर्मित कर लेती है जो किसी को अपने विकास या सुख-शांति के लिए चाहिए|
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हम जहाँ भी जाते हैं और जिन भी व्यक्तियों से मिलते हैं उन के चुम्बकत्व का आपस में विनिमय होता रहता है, इसीलिए अपने शास्त्रों में कुसंग का सर्वथा त्याग करने को कहा गया है| सत्संग की महिमा भी यही है| जब हम संत महात्माओं के बारे चिंतन मनन करते हैं तब उनका चुम्बकत्व भी हमें प्रभावित करता है| इसीलिए सद्गुरु का और परमात्मा का सदा चिंतन करना चाहिए और मानसिक रूप से सदा उनको अपने साथ रखना चाहिए| किसी की निंदा या बुराई करने से उसके अवगुण हमारे में आते हैं अतः परनिंदा से बचें|
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कूटस्थ में अपने सद्गुरु या परमात्मा की सर्वप्रिय निज धारणा का निरंतर ध्यान करें| इससे आध्यात्मिक चुम्बकत्व का विकास होगा| हम शांत और मौन रहें, अपने चुम्बकत्व को बोलने दें| मुझे निज जीवन मैं ऐसे कुछ महात्माओं का सत्संग लाभ मिला है जिनकी उपस्थिति मात्र से ही मन इतना अधिक शांत हो गया कि विचार ही आने बंद हो गए| बिना शब्दों के विनिमय से ही उनसे इतना ज्ञान लाभ हुआ जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था|
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परमात्मा की विशेष परम कृपा हम सब पर बनी रहे ! परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन !
ॐ श्रीगुरुभ्यो नमः ! हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ अगस्त २०१९

यह रथ भी वे ही हैं .....

हमारे इस देह रूपी रथ के सारथी ही नहीं, रथी भी स्वयं पार्थसारथी भगवान श्रीकृष्ण ही हैं ...
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कठोपनिषद में जीवात्मा को रथी, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, और मन को लगाम बताया गया है ...
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु |बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ||"
"इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् | आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः||"
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३ व ४)
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इस बुद्धि रूपी सारथी की पीठ हमारी ओर व मुँह दूसरी ओर होता है| हम उसके चेहरे के भावों को नहीं देख सकते| यह बुद्धि रूपी सारथी कुबुद्धि भी हो सकता है| अतः पार्थसारथी वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना रथी बना कर उन्हीं को पूरी तरह समर्पित हो जाना ही श्रेयस्कर है|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति| भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया||१८:६१||
अर्थात, हे अर्जुन, (मानों किसी) यन्त्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूतमात्र के हृदय में स्थित रहता है||
रामचरितमानस में भी कहा गया है .....
"उमा दारु जोषित की नाईं, सबहि नचावत रामु गोसाईं |"
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अर्जुन का अर्थ है जो शुक्ल, स्वच्छ, शुद्ध, और पवित्र अन्तःकरण से युक्त हो| भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन से संवाद करते हैं क्योंकि अर्जुन का अंतःकरण पूरी तरह पवित्र है| हमारा अन्तःकरण भी जब पवित्र होगा तब भगवान हमसे भी संवाद करेंगे|
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महाभारत के युद्ध में अर्जुन के प्रहार से कर्ण का रथ झटका खाकर बहुत पीछे चला जाता था, पर कर्ण के प्रहार से अर्जुन का रथ झटका खाकर वहीं स्थिर रहता था| अर्जुन को कुछ अभिमान हो गया जिसे दूर करने के लिए भगवान ने ध्वज पर बैठे हनुमान जी को संकेत किया जिससे वे वहाँ से चले गए| अब की बार कर्ण ने प्रहार किया तो अर्जुन का रथ युद्धभूमि से ही बाहर हो गया|
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महाभारत युद्ध की समाप्ति के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रथ से नीचे उतरने का आदेश दिया और तत्पश्चात वे स्वयं उतरे| उनके उतरते ही रथ जलकर भस्म हो गया| भगवान ने कहा कि इस रथ पर इतने दिव्यास्त्रों का प्रहार हुआ था जिनसे इस रथ को बहुत पहिले ही जल जाना चाहिए था, पर यह मेरे योगबल से ही चलता रहा|
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द्वारका डूबने के पश्चात अर्जुन वहाँ की स्त्रियों को बापस सुरक्षित इंद्रप्रस्थ ला रहे थे| रास्ते में वर्तमान राजस्थान में अजमेर के पास जहाँ भीलवाड़ा नगर है, उस स्थान पर भीलों ने अर्जुन को लूट लिया| अर्जुन का न तो गाँडीव धनुष काम आया और न ही उसके दिव्य बाण| उनको चलाने के सारे मंत्र अर्जुन की स्मृति में ही नहीं आए क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण इस धरा को छोड़कर अपने दिव्य धाम चले गए थे| वे अर्जुन के साथ नहीं थे|
"तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान|
भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण||"
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जब भी कर्तापन का अभिमान आता है, बुद्धि काम करना बंद कर देती है| कई बार मैं निज जीवन का विहंगावलोकन करता हूँ तो पाता हूँ कि बड़ी कठिन परिस्थितियों में मेरी भी कई बार रक्षा हुई है, क्योंकि भगवान मेरे हृदय में थे|
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आप सब महान आत्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
२६ अगस्त २०१९
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पुनश्च: :---- वास्तव में यह रथ भी वे ही हैं |

राखो लाज हरिः ...

राखो लाज हरिः ...
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मैं परमात्मा से प्रेम की बातें सदा करता हूँ, क्योंकि यह मेरा स्वभाव है; मैं इसे छोड़ नहीं सकता, चाहे मुझे यह शरीर ही छोड़ना पड़े| मेरे लिए तो यह मेरा जीवन है| मैं ऐसे किसी व्यक्ति का मुँह भी नहीं देखना चाहता जिसके हृदय में परमात्मा के लिए प्रेम नहीं है| किसी को मेरा यह स्वभाव पसंद नहीं है तो वे मुझे छोड़ने को स्वतंत्र हैं, मुझे उनकी कोई आवश्यकता नहीं है| परमात्मा की इच्छा से ही मैं इस देह में हूँ, जब भी उनकी इच्छा होगी वे बापस बुला लेंगे| मैं कोई परभक्षी या किसी पर भार नहीं हूँ, किसी से कुछ नहीं लेता, अपनी स्व-अर्जित पूंजी से ही अपना और अपने परिवार का निर्वाह करता हूँ| किसी का भी मैंने इस जीवन में कोई अहित नहीं किया है, और न ही कोई असत्य और अधर्म का कार्य किया है| परमात्मा की स्मृति में ही एक दिन यह मायावी विश्व छोड़कर चला जाऊँगा| मैं यह भी नहीं चाहता कि कोई मुझे याद करे| किसी को याद ही करना है तो परमात्मा को याद करें, मुझे नहीं|
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यह सृष्टि परमात्मा की है, वह अपनी सृष्टि को कैसे चलाए यह उसकी इच्छा| सारी सृष्टि प्रकृति के नियमानुसार ही चल रही है| नियमों को न जानना हमारी अज्ञानता है| जहाँ भी जैसी भी परिस्थिति में सृष्टिकर्ता ने हमें रखा है, उस परिस्थिति में जो भी सर्वश्रेष्ठ हम कर सकते हैं, वह हमें अवश्य ही करना चाहिए| हम कोई मंगते-भिखारी नहीं, परमात्मा के अमृतपुत्र हैं| हम कुछ माँग नहीं रहे हैं, पर उसका जो कुछ भी है उस पर तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| उसकी सर्वव्यापकता हमारी सर्व व्यापकता है, उसका आनंद हमारा आनंद है, उसका सर्वस्व हमारा है, उससे कम हमें कुछ भी नहीं चाहिये| एक पिता की संपत्ति पर पुत्र का अधिकार होता है, वैसे ही परमात्मा के प्रेम और उन की उसकी पूर्णता पर हमारा पूर्ण अधिकार है| हमारे हृदय में कभी कुटिलता और अहंकार का कण मात्र भी अंश न हो| सूरदास जी का यह भजन अनायास ही याद आता है .....
"तुम मेरी राखो लाज हरि
तुम जानत सब अन्तर्यामी
करनी कछु ना करी
तुम मेरी राखो लाज हरि
अवगुन मोसे बिसरत नाहिं
पलछिन घरी घरी
सब प्रपंच की पोट बाँधि कै
अपने सीस धरी
तुम मेरी राखो लाज हरि
दारा सुत धन मोह लिये हौं
सुध-बुध सब बिसरी
सूर पतित को बेगि उबारो
अब मोरि नाव भरी
तुम मेरी राखो लाज हरि
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप अब को मेरा नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ अगस्त २०१९

जन्माष्टमी की शुभ कामनाएँ .....

भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हम सब के चैतन्य में निरंतर हर पल हो| अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों का ऐश्वर्य एवं समस्त चैतन्य पदार्थ जिनका अंशमात्र हैं, ऐसे तेज:स्वरूप वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण ही हमारे आराध्य, साध्य, साधन, और जीवन हों|
कृष्ण कृष्णेति कृष्णेति यो मां स्मृति नित्यशः| जलं भित्वा यथा पद्यम् नरकादुद्धराम्यहम्||
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च| मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद||
कस्तुरी तिलकम् ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम् ,
नासाग्रे वरमौक्तिकम् करतले, वेणु करे कंकणम् |
सर्वांगे हरिचन्दनम् सुललितम् , कंठे च मुक्तावलि,
गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी ||
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९ :३४||
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||
सभी प्राणियों के लिए #जन्माष्टमी शुभ और मंगलमय हो|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!

भगवान को हम दे ही क्या सकते हैं? ....

भगवान को हम दे ही क्या सकते हैं?
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स्वयं के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं| सब कुछ तो उन्हीं का है, सब कुछ भी वे ही हैं| इस देह रूपी वाहन के चालक वे ही हैं, और यह देह भी वे ही हैं| हम अपनी हर सांस के साथ-साथ अपने अहंकार रूपी शाकल्य की आहुति ही श्रुवा बन कर दे सकते हैं| यह आहुति ही है जो हम परमात्मा को दे सकते हैं, अन्य कुछ भी नहीं|
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||
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वे कहते हैं .....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति"||६:३०||
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आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्तियों को मेरा नमन!
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ अगस्त २०१९

योगक्षेमं वहाम्यहम् .....

योगक्षेमं वहाम्यहम् .....
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सारी समस्याएँ परमात्मा की हैं, हमारी नहीं| निमित्त मात्र एक उपकरण बनकर स्वयं के माध्यम से परमात्मा को प्रवाहित होने दीजिये| कर्ता वे हैं, हम नहीं| हमारी प्रथम, अंतिम और एकमात्र समस्या परमात्मा को उपलब्ध होना है| गीता में भगवान कहते हैं .....
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
अर्थात् अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ||
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आंतरिक दृष्टिपथ भ्रूमध्य में रहे, चेतना उत्तरा-सुषुम्ना व सहस्त्रार में, जहाँ उनका स्मरण निरंतर सदा बना रहे| नदी का विलय जब महासागर में हो जाता है तब नदी का कोई नाम-रूप नहीं रहता, सिर्फ महासागर ही महासागर रहता है, वैसे ही जीवात्मा जब परमात्मा में समर्पित हो जाती है, तब जीवात्मा का कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता, सिर्फ परमात्मा ही परमात्मा रहते हैं|
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मनुष्य देह सर्वश्रेष्ठ साधन है परमात्मा को पाने का| मृत्यु देवता हमें इस देह से पृथक करें, उस से पूर्व ही निश्चयपूर्वक पूरा यत्न कर के हमें परमात्मा को समर्पित हो जाना चाहिए |समय और सामर्थ्य व्यर्थ नष्ट न करें |
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कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
२१ अगस्त २०१९

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सारी समस्याएँ परमात्मा की हैं, हमारी नहीं| निमित्त मात्र एक उपकरण बनकर स्वयं के माध्यम से परमात्मा को प्रवाहित होने दीजिये| कर्ता वे हैं, हम नहीं| हमारी प्रथम, अंतिम और एकमात्र समस्या परमात्मा को उपलब्ध होना है| गीता में भगवान कहते हैं .....
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
अर्थात् अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ||
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आंतरिक दृष्टिपथ भ्रूमध्य में रहे, चेतना उत्तरा-सुषुम्ना व सहस्त्रार में, जहाँ उनका स्मरण निरंतर सदा बना रहे| नदी का विलय जब महासागर में हो जाता है तब नदी का कोई नाम-रूप नहीं रहता, सिर्फ महासागर ही महासागर रहता है, वैसे ही जीवात्मा जब परमात्मा में समर्पित हो जाती है, तब जीवात्मा का कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता, सिर्फ परमात्मा ही परमात्मा रहते हैं|
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मनुष्य देह सर्वश्रेष्ठ साधन है परमात्मा को पाने का| मृत्यु देवता हमें इस देह से पृथक करें, उस से पूर्व ही निश्चयपूर्वक पूरा यत्न कर के हमें परमात्मा को समर्पित हो जाना चाहिए |समय और सामर्थ्य व्यर्थ नष्ट न करें |
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कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
२१ अगस्त २०१९

हमारा स्वधर्म, आध्यात्म और परम आदर्श :---

हमारा स्वधर्म, आध्यात्म और परम आदर्श :---
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हर एक आत्मा का स्वभाविक स्वधर्म है ..... परमात्मा से एकात्मता! इस स्वधर्म की रक्षा का अनवरत प्रयास आध्यात्म कहलाता है| भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार इस स्वधर्म में मरना ही श्रेयस्कर, परधर्म बड़ा भयावह है| आध्यात्म कोई व्यक्तिगत मोक्ष, सांसारिक वैभव, इन्द्रीय सुख या अपने अहंकार की तृप्ति की कामना का प्रयास नहीं है| यह कोई दार्शनिक वाद विवाद या बौद्धिक उपलब्धी भी नहीं है|
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भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण हमारे प्राण हैं| उनका जीवन हमारे लिए परम आदर्श है| उन जैसे महापुरुषों के गुणों को स्वयं के जीवन में धारण करना, उन की शिक्षा और आचरण का पालन करना भी एक सच्ची उपासना है| भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण ने जन्म से ही धर्मरक्षार्थ, धर्मसंस्थापनार्थ, व धर्मसंवर्धन हेतु शौर्य संघर्ष व संगठन साधना का आदर्श रखा| सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का विनाश भी हमारा लौकिक धर्म है| भगवान श्री कृष्ण ने गीता का ज्ञान अर्जुन को कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में दिया, इस प्रसंग के आध्यात्मिक सन्देश को समझें कि रणभूमि में उतरे बिना यानि साधना भूमि में उतरे बिना हम आध्यात्म को, स्वयं के ईश्वर तत्व को उसके यथार्थ स्वरुप में अनुभूत नहीं कर सकते| भगवान श्रीराम ने भी धर्मरक्षार्थ अपने राज्य के वैभव का त्याग किया, और भारत में पैदल भ्रमण कर अत्यंन्त पिछड़ी और उपेक्षित जातियों को जिन्हें लोग तिरस्कार पूर्वक वानर और रीछ तक कह कर पुकारते थे, संगठित कर धर्मविरोधियों का संहार किया| लंका का राज्य स्वयं ना लेकर विभीषण को ही दिया| ऋषि मुनियों की रक्षार्थ ताड़का का वध भी किया| उपरोक्त दोनों ही महापुरुष हजारों वर्षों से हमारे प्रातःस्मरणीय आराध्य हैं| स्वयं के भीतर के राम और कृष्ण-तत्व से एकात्म ही आध्यात्म है, यही सच्ची साधना है, यही शिवत्व की प्राप्ति है|
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ अगस्त २०१९

ब्रह्म-तत्व का बोध कैसे कर सकते हैं? ..

ब्रह्म-तत्व का बोध कैसे कर सकते हैं? .....
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ब्रह्म-तत्व सर्वव्यापी है और निरंतर विस्तृत हो रहा है| सारी सृष्टि उसमें समाहित है और वह भी सम्पूर्ण सृष्टि में समाहित है| ब्रह्मतत्व प्रत्यक्ष अनुभूति से समझ में आता है, बुद्धि से नहीं| सहस्त्रार में गुरु प्रदत्त विधि से श्रीगुरुचरणों का ध्यान करते करते गुरुकृपा से चेतना जब ब्रह्मरंध्र को भेद कर अनंत में चली जाती है, और उस दिव्य अनंतता का दीर्घ दिव्य अनुभव कई बार प्राप्त कर के देह में बापस लौटती है, तब ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध सद्गुरु की कृपा और आशीर्वाद से वह अनुभूति ही "परमशिव" और "पारब्रह्म" का बोध करा देती है, अन्यथा नहीं| तब ही हम कह सकते हैं ..... "शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि", अन्यथा नहीं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ अगस्त २०१९

देवताओं को शक्ति हमारे द्वारा ही मिलती है .....

देवताओं को शक्ति हमारे द्वारा ही मिलती है .....
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः| परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ||३:११||"
अर्थात तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवतागण तुम्हारी उन्नति करें| इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुये परम श्रेय को तुम प्राप्त होंगे||
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हम लोग देवताओं से याचना करते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि देवताओं को कुछ देने की शक्ति भी तो हमें ही उन्हें हवन द्वारा प्रदान करनी पड़ती है| हवन के लिए शुद्ध सामग्री और देशी नस्ल की गाय का घी चाहिए| बिलायती गायों के दूध से या भैंस के दूध से निर्मित घी से, या वनस्पति घी से हवन सफल नहीं हो सकते| देवताओं के पास कुछ भी देने की शक्ति तभी आएगी जब हम हवन द्वारा अग्नि के मुख से घी से मिश्रित चरू देवताओं को अर्पण करेंगे| उस उत्तम हविष्य से देवता बलिष्ट एवं पुष्ट होते हैं| जब देवता शक्तिशाली होगा तभी तो अपनी शक्ति के बल पर आपकी-हमारी मनोकामना पूरी करने मे समर्थ होगा| जब गौवंश ही नहीं रहेगा तो शुद्ध गौ घृत कहाँ से आएगा? और शुद्ध गौ घृत नहीं होगा तो हवन कहाँ से होगा और हवन नहीं होंगे तो देवता पुष्ट कैसे होंगे और देवता पुष्ट नहीं होंगे तो शक्तिहीन देवता मनोकामनाएं पूर्ण कैसे करेंगे?
१७ अगस्त २०१९

हम जले तो सही पर अंधेरे को उजाला न दे सके .....

हम जले तो सही पर अंधेरे को उजाला न दे सके .....
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लगता है यह सांसारिक जीवन एक गफ़लत और दुःस्वप्न ही है| जीवन में सदा गाफ़िल ही रहे| ग़ाफ़िल का अर्थ है .... "असावधान और निश्चेत"| जीवन में सदा असावधान और निश्चेत ही रहे| अपनी गफ़लत को छिपाने के लिए हजारों बहाने ढूँढ़ते रहे, दूसरों पर या तो दोषारोपण करते रहे या उनसे अनुरोध ही करते रह गए पर मिला कुछ भी नहीं| गाफिल होकर यह सोचते सोचते सोते ही रह गए, क़यामत भी कब की निकल गई कि कुछ पता ही नहीं चला .....
"हम सोते ही न रह जाएँ ऐ शोरे-क़यामत !
इस राह से निकले तो हमको भी जगा देना ||"
सोते ही रह गए| इतना जीवन काल व्यतीत हो गया कुछ पता ही नहीं चला|


ज़िन्दगी की इस आपाधापी में, कब निकली उम्र मेरी, पता ही नहीं चला| आए थे किस काम को और सोये चादर तान कर, सोते ही रह गए| बाना पहिना सिंह का, चले भेड़ की चाल| भेड़चाल की इस जिंदगी में गाफ़िल ही रहे, कुछ भी नहीं किया| कुछ करने की योग्यता यानि काबिलियत ही नहीं थी| काबिलियत तो उन्हीं में होती है जो कमी न होकर भी कमी खोज कर उसे दूर कर लेते हैं| हम जले तो सही पर अंधेरे को उजाला न दे सके, ऐसी ही थी हमारी क़ाबिलियत और क़िस्मत| जो कुछ भी था वह हमारा नहीं, किसी और का था| सब कुछ उसे ही बापस समर्पित| अब कर भी क्या सकते हैं? कोई पछतावा अब और नहीं है|


"तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायंप्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्‌ |
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्‌ ||"
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्‍क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
ॐ ॐ ॐ !!
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कृपा शंकर
१६ अगस्त २०१९

वही योग-साधना सर्वश्रेष्ठ है जो निज स्वभाव के अनुकूल हो .....

वही योग-साधना सर्वश्रेष्ठ है जो निज स्वभाव के अनुकूल हो .....
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मैंने जीवन में देखा और अनुभूत किया है कि गीता का अध्ययन करने वाले सतोगुण प्रधान व्यक्ति को ज्ञानयोग या भक्तियोग ही अच्छा लगता है, रजोगुण प्रधान व्यक्ति को कर्मयोग अच्छा लगता है, और तमोगुण प्रधान व्यक्ति को मरने मारने के अलावा और कुछ समझ में नहीं आता| जिस व्यक्ति में जो गुण प्रधान होता है वह वैसी ही साधना करता है| अतः जो निज स्वभाव के पूर्णतः अनुकूल हो वही योगसाधना सर्वश्रेष्ठ है| इसका निर्णय हमारा विवेक करता है| यदि विवेक साथ नहीं दे रहा है तो भगवान के शरणागत होकर उन्हीं से मार्गदर्शन की प्रार्थना करनी चाहिए जैसे अर्जुन ने की थी ....
"कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः| यच्छ्रेयः स्यान्निश्चित्तम् ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्||२:७||"
अर्थात ..... करुणा के कलुष से अभिभूत और कर्तव्यपथ पर संभ्रमित हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिये जो श्रेयष्कर हो उसे आप निश्चय करके कहिये क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ शरण में आये मुझको आप उपदेश दीजिये||
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यह सृष्टि त्रिगुणात्मक है| पूरी प्रकृति और समस्त जीवों की सृष्टि और चेतना ..... सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण ..... इन तीन गुणों से निर्मित है| जिस भी प्राणी में जो गुण अधिक होता है उसकी सोच और चिंतन वैसा ही होता है| भगवन श्रीकृष्ण अपने भक्त को तीनों गुणों से परे जाने का आदेश देते हैं ....
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन| निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्||२:४५||"
अर्थात् हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो||
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हम त्रिगुणातीत कैसे बनें ? इसका उत्तर "शरणागति" है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"
अर्थात् सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ| मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो||
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भगवान् के शरणागत हो जाना आध्यात्मिक जीवनमुक्ति, सभी साधनों का सार और भक्ति की पराकाष्ठा है| इसमें शरणागत भक्त को अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता; जैसे पतिव्रता स्त्री का अपना कोई काम नहीं रहता। वह अपने शरीर की सार-सँभाल भी पति के लिये ही करती है। वह घर, कुटुम्ब, वस्तु, पुत्र-पुत्री और अपने कहलाने वाले शरीर को भी अपना नहीं मानती, प्रत्युत पतिदेव का मानती है, उसी प्रकार शरणागत भक्त भी अपने मन,बुद्धि और देह आदि को भगवान् के चरणों में समर्पित करके निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक और निःशंक हो जाता है|
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जब हमें उनके श्री चरणों में आश्रय मिल जाए तो फिर और चाहिए भी क्या? देवाधिदेव भगवान शिव भी झोली फैलाकर नारायण से माँग रहे हैं कि हे मेरे श्रीरंग अर्थात् श्री के साथ रमण करने वाले मुझे यह भिक्षा दो कि आपके चरणों की शरणागति कभी न छूटे|
"बार बार बर माँगऊ हरषिदेइ श्रीरंग| पद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग||"
अनपायनी शब्द का अर्थ है- शरणागति ! हम अधिक से अधिक भगवान का ध्यान करें और उनके श्रीचरणों में समर्पित होकर शरणागत हों, एक क्षण के लिए भी उनकी विस्मृति ना हो| उनसे पृथक हमारा कोई अस्तित्व ना रहे| भगवान् के चरणों में हमारी ऐसी भक्ति हो जो निरंतर बढ़ती रहे|
"अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरवान| जनम-जनम रति रामपद यह वरदान न आन||"
जो घटता-बढ़ता रहता है वह प्रेम नहीं हो सकता| भगवान् कल्पतरु हैं, और भक्ति भी कल्पतरु है| उनसे जो मांगेंगे वह सब मिलेगा| फिर भक्ति को ही मांगिये|
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"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने| प्रणत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः||"
परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सभी को शुभ कामनाएँ और सादर सप्रेम अभिनन्दन व प्रणाम ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
१६ अगस्त २०१९

"स्थितप्रज्ञता" ही वास्तविक "स्वतन्त्रता" है .....

"स्थितप्रज्ञता" ही वास्तविक "स्वतन्त्रता" है .....
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वास्तविक स्वतन्त्रता तो परमात्मा में है| परमात्मा से पृथकता ही परतंत्रता है| परमात्मा से पृथकता का कारण है ... हमारा राग-द्वेष, अहंकार, भय और क्रोध| अन्यथा परमात्मा तो नित्यप्राप्त है| सब प्रकार की कामनाओं से मुक्त हो, स्थितप्रज्ञ होकर हम परमात्मा में स्थित हों तभी हम वास्तव में स्वतंत्र हैं|
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राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति वीतरागता है| 'वीतराग विषयं वा चित्तम्' (योगसूत्र १/३७)| वीतराग पुरुषों का चिंतन कर, उन्हें चित्त में धारण कर, उनके निरंतर सत्संग से हम वीतराग हो जाते हैं| वीतरागता से आगे की स्थिति स्थितप्रज्ञता है| भगवान श्रीकृश्न गीता में कहते हैं .....
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः| वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते||२:५६||
दुःख तीन प्रकार के होते हैं .... "आध्यात्मिक", "आधिभौतिक" और "आधिदैविक"| इन दुःखों से जिनका मन उद्विग्न यानि क्षुभित नहीं होता उसे "अनुद्विग्नमना" कहते हैं| सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा यानि तृष्णा नष्ट हो गयी है (ईंधन डालने से जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे ही सुख के साथ साथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती) वह "विगतस्पृह" कहलाता है| राग, द्वेष और अहंकार से मुक्ति वीतरागता है| जो वीतराग है और जिसके भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह "वीतरागभयक्रोध" कहलाता है| ऐसे गुणोंसे युक्त जब कोई हो जाता है तब वह "स्थितधी" यानी "स्थितप्रज्ञ" और मुनि या संन्यासी कहलाता है| यह स्थितप्रज्ञता" ही वास्तविक "स्वतन्त्रता" है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अगस्त २०१९

हम अपने देश भारत की जी-जान से रक्षा करें .....

हम अपने देश भारत की जी-जान से रक्षा करें .....
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जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी| अब हमें अपने देश भारतवर्ष की अस्मिता की रक्षा की ही सोचनी चाहिए| देश १५ अगस्त १९४७ के दिन स्वतंत्र हुआ यह एक झूठ और भ्रम है| देश को अँगरेज़ लोग एक परम गुप्त सत्ता हस्तान्तरण समझौते के अंतर्गत छोड़कर गए थे जो इंग्लैंड से ही छपकर आया था| उसकी कोई प्रति भारत में नहीं छपी| भारत की जनता को आज तक नहीं पता कि वह क्या समझौता था| फिर अंग्रेज़ लोग इस देश को काले अंग्रेजों के हाथों ही सौंप गए| अंग्रेजों के बनाये कानून ही आज लागू हैं| आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों को बापस सेना में नहीं लिया गया| नेताजी को युद्धबंदी के रूप में इंग्लैंड को सौंपने की शर्त भी थी उस समझौते में| अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी शिक्षा पद्धति और व्यवस्था वैसे ही लागू है|
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अँगरेज़ तो १९४२ में ही अपनी ही अपमानजनक शर्तों पर भारत छोड़ने को तैयार थे| १९४७ में अँगरेज़ भारत छोड़ने को इसलिए बाध्य हुए क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात इंग्लैंड आर्थिक और सैनिक रूप से जर्जर हो गया था और भारत के सैनिकों ने अँगरेज़ अफसरों के आदेश मानने बंद कर दिए थे, उन्हें सलाम करना भी बंद कर दिया था| १९४६ में भारतीय ब्रिटिश नौसेना ने बम्बई में विद्रोह कर दिया और अँगरेज़ अधिकारियों को कोलाबा में बंद कर उनके चारों ओर बारूद लगा दी थी| मुंबई की पूरी जनता नौसैनिकों के समर्थन में आ गई थी| ब्रिटेन के प्रधान मंत्री एटली ने भी वहाँ की संसद में भारत छोड़ने का यही कारण माना था कि हिन्दुस्तानी भाड़े के सिपाही अब अंग्रेज़ अफसरों का आदेश नहीं मानते और अंग्रेज़ सेना में इतना सामर्थ्य नहीं बचा है कि वह उन्हें दबा सके|
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फिर यह तथाकथित आज़ादी किस कीमत पर मिली? देश की दोनों भुजाओं को पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के नाम पर काट दिया गया| भारत का मुकुट कश्मीर आधा कटवा दिया गया| लाखों हिन्दुओं की हत्याएँ हुईं| करोड़ों को घर छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी| पाकिस्तान से लाशों से भरी हुई रेलगाड़ियाँ भेटस्वरुप भेजी गईं| लाखों महिलाओं के अंगभंग और बलात्कार किये गए| जिस समय तथाकथित आज़ादी का जश्न मनाया जा रहा था, उस समय लाखों लोग अपना सब कुछ लुटवा कर अपनी धर्मरक्षा के लिए खंडित भारत में शरण लेने आ रहे थे| यह आज़ादी हिन्दुओं के साथ धोखा थी| गोरे अँगरेज़ गए तो काले अंग्रेज आ गए| आज १५ अगस्त को सत्ता हस्तान्तरण दिवस (तथाकथित स्वतंत्रता दिवस) पर हमारी प्रार्थना है कि वह समझौता सार्वजनिक हो जिस के अंतर्गत १५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों द्वारा काँग्रेस को सत्ता हस्तांतरित हुई थी|
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भारत विभाजन की प्रक्रिया में जिन हिन्दुओ का सब कुछ लूटा गया, जो नरसंहार व अमानवीय अत्याचारों में मारे गये, जिन्होंने अपने प्राण दे दिये पर धर्मांतरण स्वीकार नहीं किया उन बलिदानी वीर परिवारो का हम विस्मरण नहीं करें| उन लाखों व्यक्तियों को नमन जो अपना सब कुछ लुटा कर केवल हिन्दुत्व की रक्षा के लिए खंडित भारत में शरणार्थी बन कर आये और यहाँ उपेक्षा का दुःख सहा| उन सब का आभार और शतशः अभिनंदन ! धन्यवाद ! उन लाखों माँ बहिनों को भी श्रद्धांजली जिन पर अवर्णनीय जुल्म हुए और जिन्होंने इन जुल्मों से बचने के लिए मृत्यु को गले लगा लिया|
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भारत की रक्षा हो ! भारत विजयी हो ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अगस्त २०१९

१५ अगस्त और इसके साथ जुड़ा भारत का विभाजन .....

१५ अगस्त पर आजादी का दिवस मनाते हुए मुझे बड़ी पीड़ा होती है क्योंकि इसके साथ भारत के विभाजन का अध्याय जुड़ा हुआ है| सत्ता लोलूप राजनेताओं और जिहादी उन्मादियों ने देश के तीन टुकड़े कर दिए| खंडित भारत के उन भागों में जो देश से पृथक हुए थे, में पच्चीस-तीस लाख निर्दोष लोगों की हत्या हुई, लाखों माताओं व बालकों के साथ घृणित क्रूर दुराचार हुआ, और करोड़ों लोग विस्थापित हुए| फिर स्वतंत्रता के स्थान पर मिला सत्ता का हस्तांतरण जो अंग्रेजों के मानसपुत्रों को ही किया गया|
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१५ अगस्त को मैं स्थानीय श्रीअरविंदाश्रम जाकर वहाँ बच्चों द्वारा गाए जाने वाले भजन-कीर्तन सुनता हूँ| वहाँ बड़ा आनंद आता है| इस बार तो रक्षाबंधन के प्रातःकालीन कार्यक्रम भी हैं. फिर घर पर भगवान के ध्यान व जप में ही शांति मिलती है| सब से मेरी प्रार्थना है कि श्री अरविन्द का उत्तरपाड़ा में दिया भाषण इस दिन अवश्य पढ़ें|
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व्यक्तिगत रूप से मेरा यह मानना है कि हमें स्वतन्त्रता दिवस ३० दिसंबर को मनाना चाहिए, १५ अगस्त को नहीं, क्योंकि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी 'आजाद हिन्द फौज' व जापानी सेना की सहायता से ३० दिसंबर १९४३ को भारत के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह को अंग्रेजों के अधिकार से मुक्त करा कर उसी दिन यानि ३० दिसंबर १९४३ को ही पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना मैदान में सर्वप्रथम तिरंगा फहराया था| नेताजी ने अंडमान व निकोबार का नाम बदल कर शहीद और स्वराज रख दिया था| स्वतंत्र भारत की घोषणा कर के स्वतंत्र भारत की सरकार भी नेता जी ने बना दी थी, जिसे विश्व के अनेक देशों ने मान्यता दे दी थी| वहाँ पूरे एक वर्ष से अधिक समय तक आजाद हिन्द फौज का शासन रहा| नेताजी की संदेहास्पद तथाकथित मृत्यु के पश्चात अंग्रेजों ने आजाद हिन्द फौज से वहाँ का शासन बापस छीन लिया| पर भारत के एक महत्वपूर्ण बड़े भाग को अंग्रेजों से मुक्त कराने और सबसे पहिले तिरंगा फहराने का श्रेय नेताजी सुभाष बोस को ही जाता है| यह सभी भारतीयों के साथ एक अन्याय है कि दुर्भावनावश इस सत्य को इतिहास की पुस्तकों से छिपा दिया गया| बहुत सारी बातें हैं जो लिखी नहीं जा सकतीं| काश ! हमें स्वतन्त्रता 'आज़ाद हिन्द फौज' द्वारा मिलती !!!
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इस बार तो आपके सब के आशीर्वाद से मेरा श्रावण का व्रत भी कल सम्पन्न हो जाएगा जिसमें पूरा श्रावण माह देसी गाय के शुद्ध दूध और फल व सलाद खाकर ही बिताया|
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भारत माता की जय ! वन्दे मातरं ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१४ अगस्त २०१९

मनुष्य की दो साँसों व दो विचारों के मध्य का समय परमात्मा को सर्वाधिक प्रिय है

मनुष्य की दो साँसों, व दो विचारों के मध्य का समय परमात्मा को सर्वाधिक प्रिय है| इन अवधियों का अधिकाधिक समय पूर्ण भक्ति से परमात्मा के ध्यान में व्यतीत करने से सारे योगों का साधकों को ज्ञान भी हो जाता है, उनकी साधना भी हो जाती है, और वे सिद्ध भी हो जाते हैं| ऐसा हमने सिद्ध संत-महात्माओं से सुना है|
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सर्वव्यापी-सर्वमय अनादि-अनंत परमशिव गुरु महाराज को नमन जिनके स्मरण मात्र से जीवन में वेदान्त स्वयमेव प्रस्फुटित हो जाता है, कहीं कोई भेद नहीं रहता| उनकी परमकृपा से अज्ञानरूपी आवरण दूर होकर उनकी विराट ज्योतिर्मय अनंत आभा का कूटस्थ में आभास होता है| उनकी इच्छा से ही इस शरीर रूपी दुपहिया वाहन की सांसें चल रही हैं, और चेतना इस संसार से जुड़ी हुई है| उनकी कृपा सभी प्राणियों पर निरंतर सदा बनी रहे|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ अगस्त २०१९

भारत का स्वतन्त्रता दिवस :----

भारत का स्वतन्त्रता दिवस :----
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व्यक्तिगत रूप से मेरा यह मानना है कि हमें स्वतन्त्रता दिवस ३० दिसंबर को मनाना चाहिए, १५ अगस्त को नहीं, क्योंकि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी 'आजाद हिन्द फौज' व जापानी सेना की सहायता से ३० दिसंबर १९४३ को भारत के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह को अंग्रेजों के अधिकार से मुक्त करा कर उसी दिन यानि ३० दिसंबर १९४३ को ही पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना मैदान में सर्वप्रथम तिरंगा फहराया था| नेताजी ने अंडमान व निकोबार का नाम बदल कर शहीद और स्वराज रख दिया था| स्वतंत्र भारत की घोषणा कर के स्वतंत्र भारत की सरकार भी नेता जी ने बना दी थी, जिसे विश्व के अनेक देशों ने मान्यता दे दी थी| वहाँ पूरे एक वर्ष से अधिक समय तक आजाद हिन्द फौज का शासन रहा| नेताजी की संदेहास्पद तथाकथित मृत्यु के पश्चात अंग्रेजों ने आजाद हिन्द फौज से वहाँ का शासन बापस छीन लिया| पर भारत के एक महत्वपूर्ण बड़े भाग को अंग्रेजों से मुक्त कराने और सबसे पहिले तिरंगा फहराने का श्रेय नेताजी सुभाष बोस को ही जाता है| यह सभी भारतीयों के साथ एक अन्याय है कि दुर्भावनावश इस सत्य को इतिहास की पुस्तकों से छिपा दिया गया|
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१५ अगस्त को अंग्रेजों ने अपनी मजबूरी में सत्ता का हस्तांतरण किया था, कोई स्वतन्त्रता नहीं दी थी| खंडित भारत को जो तथाकथित आज़ादी मिली, वह भी किस कीमत पर? देश के टुकड़े कर दिये गए, करोड़ों लोग विस्थापित हुए, लाखों लोगों की हत्याएँ हुईं और हजारों महिलाओं के साथ दुराचार हुआ| बहुत सारी बातें हैं जो लिखी नहीं जा सकतीं| काश ! हमें स्वतन्त्रता 'आज़ाद हिन्द फौज' द्वारा मिलती !!!
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भारत माता की जय ! वन्दे मातरं ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१२ अगस्त २०१९


हिन्दुत्व, स्वधर्म, और परधर्म .....

हिन्दुत्व, स्वधर्म, और परधर्म .....
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जहाँ तक मुझे समझ में आया है, 'हिन्दुत्व' यानि 'हिन्दू धर्म' जिसे 'सनातन धर्म' भी कहते हैं, कोई औपचारिक धर्म नहीं है| इसे मानने के लिए किसी दीक्षा या मतांतरण की आवश्यकता नहीं है| कोई भी धर्मावलम्बी अपने मत में रहते हुए 'हिन्दू धर्म' के सिद्धांतों का पालन कर सकता है| देश-विदेश में रहने वाले मुझे अनेक ईसाई व अन्य मतावलंबी जीवन में मिले हैं जो अपने मतों में रहते हुए भी व्यावहारिक रूप से 'सनातन धर्म' के सिद्धांतों का पालन करते हैं .... जैसे आसन, प्राणायाम, ध्यान, व स्वाध्याय आदि| उन की बातचीत से यही स्पष्ट हुआ कि उनके हृदय में परमात्मा के प्रति गहन प्रेम है जिसकी अभिव्यक्ति का अवसर उन्हें सनातन धर्म के सिद्धांतों में ही मिला| 'हिन्दू धर्म' में दीक्षा सिर्फ गुरु परम्पराओं में ही होती है, भगवान की भक्ति के लिए नहीं|
हिन्दुत्व क्या है ? :---
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मेरे विचार से 'सनातन धर्म' या 'हिन्दुत्व' एक ऊर्ध्वमुखी चेतना है जो जीवात्मा को परमात्मा से जोड़ना चाहती है| परमात्मा के प्रति परम प्रेम, परमात्मा को पाने की अभीप्सा, और उस दिशा में की जाने वाली साधना 'सनातन धर्म' यानि 'हिन्दुत्व' है|
हिन्दू कौन हैं ? :----
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हिन्दू वह है जो आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों के सिद्धान्त, व पुनर्जन्म को मानता है| एक नास्तिक भी हिन्दू हो सकता है और आस्तिक भी|
हिन्दू वह है जो सत्यान्वेषी है, यानि जो सत्य को जानना व निज जीवन में अवतरित करना चाहता है|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः||३:३५||"
अर्थात सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है| स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है||
अतः यह जानना आवश्यक है कि स्वधर्म और परधर्म क्या है| प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म है| किन्हीं दो व्यक्तियों का एक स्वधर्म नहीं है| धर्म है हमारा स्वभाव, प्रकृति, और अंतःप्रकृति|
स्वधर्म :---
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अपने स्वभावानुसार सर्वश्रेष्ठ आचरण ही स्वधर्म है| हम किसी को पीड़ा नहीं दें, जहाँ तक हो सके दूसरों का उपकार ही करें|
मनुष्य यह देह नहीं अपितु एक शाश्वत आत्मा है| यहाँ 'स्व' का अर्थ 'आत्मा' ही हो सकता है, देह नहीं| आत्मा का धर्म है .... सच्चिदानंद की प्राप्ति|
मनुष्य की मौज-मस्ती में सुख की खोज, विषयों में सुख की खोज और अहंकार में सुख की खोज, अप्रत्यक्ष रूप से सच्चिदानंद की ही खोज है| मनुष्य संसार में सुख खोजता है पर उसे दुःख और पीड़ा ही मिलती है| अंततः दुखी होकर या फिर हरिःकृपा से वह स्थायी सुख यानि आनंद की खोज में परमात्मा की ओर ही उन्मुख होता है, तब उसे भक्ति और उपासना से सच्चिदानंद की प्राप्ति होती है| सच्चिदानंद का अर्थ है .... नित्य अस्तित्ववान, नित्य सचेतन और नित्य नवीन आनन्द| सार रूप में कह सकते हैं कि अपने स्वभावानुसार सर्वश्रेष्ठ सोच-विचार और आचरण ही स्वधर्म है|
परधर्म :---
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काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर्य, चुगली यानि द्वेषपूर्ण परनिंदा, परस्त्री व पराये धन की कामना 'परधर्म' है, जो मनुष्य को अपने वास्तविक अस्तित्व यानि परमात्मा से दूर ले जाता है| इस की चेतना में मरने वाले को चौरासी का चक्कर एक भयावह दुश्चक्र में डाल देता है| यथार्थ में भगवान से विमुख होना ही 'परधर्म' है|
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हम असहाय नहीं है| परमात्मा सदा हमारे साथ है| हम परिस्थितियों के शिकार नहीं बल्कि उनके जन्मदाता हैं| जिन भी परिस्थितियों में हम हैं उनको हमने ही अपने भूतकाल में अपने विचारों और भावों से जन्म दिया है| हमारा सबसे बड़ा भ्रम और हमारी सभी पीड़ाओं का कारण ...... परमात्मा से पृथकता की भावना है| यह भी एक विकार है, जिससे हमें मुक्त होना है| परमात्मा को पाने की अभीप्सा, परमात्मा से परमप्रेम और हमारे सदविचार व सदाचरण ही हमारा वास्तविक स्वधर्म है जिसका हम पालन करें| इस से विपरीत ही परधर्म है जो महादुःखदायी है|
उपरोक्त विषय पर जो लिखा है वह कम से कम शब्दों में लिखा है जिसे कोई भी औसत बुद्धि का मनुष्य समझ सकता है| यह अपने आप में पर्याप्त है|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को मेरा सादर प्रणाम !
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अगस्त २०१९

अब मन तृप्त और शांत है ....

अब मन तृप्त और शांत है ....
मन में जिज्ञासा, प्रश्न और कामनाएँ तभी तक उठती हैं, जब तक मन सीमित व अशांत रहता हो| मन के शांत और विस्तृत हो जाने पर सारी जिज्ञासाएँ, प्रश्न और कामनाएँ भी तिरोहित हो जाती हैं| मैं जुलाई २०११ में फ़ेसबुक और ट्वीटर पर आया था सिर्फ स्वयं को व्यक्त करने की एक गहन कामना की पूर्ति के लिए, जिसका पूरा अवसर फ़ेसबुक ने दिया| आरंभ में मन भरकर राष्ट्रवाद पर खूब लिखा, फिर भक्ति और आध्यात्म पर खूब लिखा| अनेक दिव्य आत्माओं से परिचय और मित्रता हुई, जो जीवन में अन्यथा कभी नहीं हो सकती थी|
अब मन तृप्त और शांत है, कोई कामना नहीं है, अतः लिखने की आवृति (frequency) भी कम हो जाएगी| जितना समय यहाँ लिखने में व्यतीत होता है वह समय परमात्मा के ध्यान और स्वाध्याय में व्यातीत करेंगे| अब जीवन में कोई उद्देश्य नहीं है, कोई कामना नहीं है; जो परमात्मा की इच्छा है वह ही मेरी इच्छा है|
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः|
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम||१८:७८||" (गीता)
कहीं जा नहीं रहा| आप सब के मध्य ही रहूँगा, जब भी कुछ लिखने की प्रेरणा मिलेगी तब अवश्य लिखूंगा| परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं आप सब| बहुत अधिक कहने से कोई लाभ नहीं है| समस्त योग और उनके बीज सर्व व्याप्त, अनंत, असीम, योगेश्वर भगवान परमशिव से ही उत्पन्न हुए हैं| वे ही आदि और अंत हैं| अवशिष्ट सम्पूर्ण जीवन उन्हीं के ध्यान में उन्हीं के साथ बीते, कहीं कोई भेद न हो, कभी किसी कामना का जन्म न हो|
मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन !
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ अगस्त २०१९

मैं तो एक फूल हूँ, मुरझा गया तो मलाल क्यों ? ...

मैं तो एक फूल हूँ, मुरझा गया तो मलाल क्यों ?
तुम तो महक हो, हवाओं में जिसे समाना है ...
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भूतकाल चाहे जितना भी दुःखद हो, उसे तो हम बदल नहीं सकते, भविष्य हमारे लिए एक स्वप्न मात्र है| हमारा अधिकार सिर्फ वर्तमान पर है| जैसा भविष्य हम चाहते हैं, वैसे ही वर्तमान का निर्माण करें| यह परिवर्तन स्वयं से हो, वर्तमान हमारे आदर्शों का हो|
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"इंसान मुस्तक़बिल को सोच के अपना हाल ज़ाया करता है |
फिर मुस्तक़बिल में अपना माज़ी याद कर के रोता है ||" (शे.सादी)
(मुस्तकबिल = भविष्य, माज़ी = भूतकाल, हाल = वर्तमान)
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"यादों को भुलाने में कुछ देर तो लगती है,
आँखों को सुलाने में कुछ देर तो लगती है |
पुरानी बातों को भुला देना इतना आसान नहीं होता,
दिल को समझाने में कुछ देर तो लगती है ||" (अज्ञात)
भूतकाल को याद कर कर के अपना वर्तमान खराब करने का क्या औचित्य है .....
"मुझे पतझड़ों की कहानियाँ, न सुना सुना के उदास कर |
तू खिज़ाँ का फूल है, मुस्कुरा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया ||
वो नही मिला तो मलाल क्या, जो गुज़र गया सो गुज़र गया |
उसे याद करके ना दिल दुखा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया ||" (ब.बद्र)
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ | आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः||६:५||"
अर्थात हम अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करें, और अपने को अधोगति में न डाले| क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है||"
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दुनियादारी की सब पुरानी बातों को भूल कर अपना हृदय, पूर्ण प्रेम पूर्वक परमात्मा को ही दे देने में सार्थकता और समझदारी है| यह दुनिया परमात्मा की है, हमारी नहीं| उसकी मर्जी, वह इसे चाहे जैसे चलाये| पर उसकी अभिव्यक्ति उसके विश्व में निरंतर हो|
ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अगस्त २०१९

भ्रामरी गुफा, आवरण, विक्षेप और कूटस्थ-चैतन्य .....

भ्रामरी गुफा, आवरण, विक्षेप और कूटस्थ-चैतन्य .....
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कई प्रतीकात्मक शब्द हैं जैसे "भ्रामरी गुफा", "आवरण", "विक्षेप", "कूटस्थ-चैतन्य" आदि आदि जिनका अर्थ साधक तो समझ सकते हैं, पर कोई सामान्य व्यक्ति नहीं| कई तथ्यों को समझाने के लिए प्रतीकात्मक शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है अन्यथा उन्हें समझाना असंभव है| ऐसे ही ये शब्द भी हैं| महाभारत में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में भी "धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्", गुहा यानि गुफा शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसमें धर्म के तत्व निहित हैं| एक बहुत महान संत के एक लेख में पढ़ा था कि सत्य को जानने के लिए भ्रामरी गुफा में प्रवेश करना होगा जिसके बाहर "आवरण" और "विक्षेप" नाम की दो राक्षसियाँ बैठी हैं, जिन्हें पराजित करना असंभव है, पर कैसे भी ईश्वर की कृपा से इनसे बचकर भीतर जाना है|
इस विषय पर चार वर्ष पूर्व एक विस्तृत लेख लिखा था जिसमें अनेक लोगों ने लेख का स्त्रोत पूछा तो मेरा उत्तर था कि मेरा एकमात्र स्त्रोत गुरुकृपा से प्राप्त निज अनुभव हैं| जिस विषय पर मेरे माध्यम से कुछ लिखा जाता है, उन सब का एकमात्र स्त्रोत है ... "गुरुकृपा", जिसके अतिरिक्त मेरे पास अन्य कुछ भी नहीं है| कुछ लोग शिकायत करते हैं कि मेरी भाषा बड़ी कठिन है| पर मैं जो कुछ भी लिखता हूँ उसे व्यक्त करने के लिए इस से अधिक सरल भाषा हो ही नहीं सकती|
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जो लोग नियमित ध्यान साधना करते हैं उन्हें जब गहरे ध्यान में कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म का आभास होने लगता है तब आरम्भ में ज्योतिर्मय किरणों से घिरा एक काला बिंदु दिखाई देता है, यही भ्रामरी गुफा है| यह अमृतमय मधु से भरी होती है| इसको पार करने के पश्चात् ही एक स्वर्णिम और फिर एक नीली प्रकाशमय सुरंग को भी पार करने पर साधक को श्वेत पञ्चकोणीय नक्षत्र के दर्शन होते हैं| यह पञ्चकोणीय नक्षत्र पञ्चमुखी महादेव का प्रतीक है| जब इस ज्योति पर साधक ध्यान करता है तब कई बार वह ज्योति लुप्त हो जाती है, यह 'आवरण' की मायावी शक्ति है जो एक बहुत बड़ी बाधा है| इस ज्योति पर ध्यान करते समय 'विक्षेप' की मायावी शक्ति ध्यान को छितरा देती है| इन दोनों मायावी शक्तियों पर विजय पाना साधक के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है|
ब्रह्मचर्य, सात्विक भोजन, सतत साधना और गुरुकृपा से एक आंतरिक शक्ति उत्पन्न होती है जो आवरण और विक्षेप की शक्तियों को कमजोर बना कर साधक को इस भ्रामरी गुफा से पार करा देती है| आवरण और विक्षेप का प्रभाव समाप्त होते ही साधक को धर्मतत्व का ज्ञान होने लगता है| यहाँ आकर कर्ताभाव समाप्त हो जाता है और साधक धीरे धीरे परमात्मा की ओर अग्रसर होने लगता है| यह ज्ञान भगवान की परम कृपा से किन्हीं सद्गुरु के माध्यम से ही होता है|
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में संभव हो तो ठीक है अन्यथा जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करनी चाहिए| समय आने पर हरिकृपा से विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है| उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| इसकी साधना के लिए कुसंग का त्याग, यम-नियमों का पालन और सद्गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य है|
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हम सब को परमात्मा की पराभक्ति प्राप्त हो और हम सब उसके प्रेम में निरंतर मग्न रहें| परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन !
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शिवमस्तु ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अगस्त २०१९

भगवान शिव के पाँच मुख .....

(संशोधित व पुनर्प्रस्तुत लेख). भगवान शिव के पाँच मुख .....
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शिव-पुराण में भगवान शिव के पाँच मुखों का उल्लेख है| शैवागम शास्त्रों में भी शिवजी के प्रतीकात्मक रूप से पाँच मुखों की विस्तृत व्याख्या है| हैं| शैवागम शास्त्रों के आचार्य ... दुर्वासा ऋषि हैं| ये पाँचों मुख पाँच तत्वों के प्रतीक हैं| इनके नाम हैं .... (१) सद्योजात (जल), (२) वामदेव (वायु), (३) अघोर (आकाश), (४) तत्पुरुष (अग्नि), (५) ईशान (पृथ्वी)|
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्यवहारिक रूप से योग साधना करने वाले सभी योगियों को पंचमुखी महादेव के दर्शन गहन ध्यान में एक श्वेत रंग के पंचमुखी नक्षत्र के रूप में होते हैं जो एक नीले आवरण से घिरा होता है| यह नीला आवरण भी एक सुनहरे प्रकाश पुंज से घिरा होता है| ध्यान साधना में योगी पहले उस सुनहरे आवरण को, फिर नीले प्रकाश को, फिर उस श्वेत नक्षत्र का भेदन करता है| तब उसकी स्थिति कूटस्थ चैतन्य में हो जाती है| यह योगमार्ग की सबसे बड़ी साधना है| उससे से परे स्थित होकर जीव स्वयं शिव बन जाता है| उसका कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता| यह अनंत विराट श्वेत प्रकाश पुंज ही क्षीर सागर है जहां भगवान नारायण निवास करते हैं| यह है भगवन शिव के पाँच मुखों का रहस्य जिसे भगवान शिव की कृपा से ही समझा जा सकता है| इन तीनो प्रकाश पुंजों को हम शिवजी के तीन नेत्र कह सकते हैं|
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"ॐ तत् सत्" भी तीनों रंगों का प्रतीक है| सुनहरा प्रकाश ॐ है| यह वह स्पंदन है जिससे समस्त सृष्टि बनी है| नीला रंग 'तत्" यानि कृष्ण-चैतन्य या परम-चैतन्य है| 'सत्' श्वेत रंग स्वयं परमात्मा हैं| ईसाई मत में 'Father', 'Son' and the 'Holy Ghost' की परिकल्पना 'ॐ तत्सत्' का ही व्यवहारिक अनुवाद है| Holy Ghost का अर्थ ॐ है, Son का अर्थ है कृष्ण-चैतन्य, और Father का अर्थ है स्वयं परमात्मा|
("Om Tat Sat" is the "Father", "Son" and the "Holy Ghost" of Christianity. Holy Ghost is the Om vibration which has created every thing. Son is the Krishna consciousness or Christ consciousness. Father is the Divine Himself. The five pointed white star is the Dove of light descending from heaven.)
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जिन के एक भ्रू-विलास मात्र से अनंत कोटी ब्रह्मांडों का नाश हो सकता है, उन अभयंकर भगवान शिव की कृपा सदा हम सब पर बनी रहे| "यस्य भ्रूभङ्गमात्रेण भवो भवति भस्मसात् | भक्ताsभयङ्करं शंभुं तं याचेsभद्रभेदनम् "||
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शिवमस्तु | ॐ नमः शिवाय |
कृपा शंकर
(मूल रूप से १० अगस्त २०१३ को लिखा हुआ)
संशोधित: १० अगस्त २०१९

प्राण चेतना की एक अनुभूति .....

आज्ञाचक्र से ब्रह्मरंध्र तक जो प्राण चेतना विचरण करती हैं, वे ही मेरे लिये जगन्माता माँ भगवती हैं.
ब्रह्मरंध्र से परे ज्योतिर्मय अनंताकाश परमशिव हैं.
वे परमशिव ही मेरे उपास्य देव हैं.
वे ही सर्वस्व हैं, वे ही गुरु, वे ही विष्णु, वे ही नारायण और वे ही वासुदेव हैं. वे ही एकमात्र लक्ष्य हैं, उनमें स्थिति ही मेरी उपासना है, उनसे सन्मुखता ही आनंद है, और उनसे विमुखता ही परम दुःख है. ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ अगस्त २०१९

पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क और शैतान .... ये मानसिक अवधारणायें ही हैं या भौतिक वास्तविकता ?

पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क और शैतान .... ये मानसिक अवधारणायें ही हैं या भौतिक वास्तविकता ?
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जहाँ तक मैं समझता हूँ ..... पूर्वजन्म और कर्मफलों का सिद्धांत शत-प्रतिशत सही है पर यह तभी तक सही है जब तक हम अहंकारग्रस्त यानि परमात्मा की अनंतता से पृथक हैं, और स्वयं को एक देह मानते हैं|
आकाश तत्व (ख) से दूरी ही दुःख है, और समीपता सुख| ये दोनों ही मानसिक अवस्थायें हैं| जब कोई व्यक्ति दुःखी होता है तब उसे लगता है कि वह पापी है, और जब सुखी होता है तब स्वयं को पुण्यवान समझता है| पाप और पुण्य दोनों हमारी स्वयं की रचनायें और अन्ततः बंधन ही हैं|
स्वर्ग और नर्क भी हमारी ही प्राणमय और मनोमय लोक की रचनायें हैं, वे मानसिक ही अधिक हैं|
शैतान कोई व्यक्ति नहीं, इब्राहिमी मतों (Abrahamic religions) में एक प्रतीकात्माक शब्द है वासनाओं के लिए, विशेषकर काम वासना के लिए| वासनायें हमें परमात्मा से दूर करती हैं, अतः एक बहाना बना लिया गया कि हमें शैतान ने बहका दिया| हमारी वासनायें ही शैतान हैं, कोई व्यक्ति नहीं| योग-दर्शन में चित्तवृत्तिनिरोध की बात कही गई है| ये चित्तवृत्तियाँ हमारी अधोगामी वासनायें ही हैं| चित्तवृत्तिनिरोध की साधनाओं से भी वासनायें तो रहेंगी ही पर वे ऊर्ध्वगामी होकर अन्ततः परमात्मा में विलीन हो जायेंगी|
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हमारे शास्त्र कहते हैं कि हमें एक ब्रह्मनिष्ठ और श्रौत्रीय (जिसे श्रुतियों का ज्ञान हो) मार्गदर्शक (सद्गुरु) का आश्रय लेकर उनसे मार्गदर्शन लेना चाहिए| पर .... "बिनु सत्संग विवेक न होई। रामकृपा बिनु सुलभ न सोई।।" अन्ततः एक ही प्रश्न रह जाता है कि परमात्मा की कृपा, उनका अनुग्रह हमारे पर कैसे हो? इसी पर विचार कर के इसका उत्तर हमें स्वयं को ही ढूँढना पड़ेगा| इस पर विचार करें| जीवन की सार्थकता इसी में है|
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ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
कृपा शंकर
७ अगस्त २०१९