Monday 15 November 2021

परमप्रेममय और मौन होकर ही हम परमात्मा के साथ एक हो सकते हैं ---

परमप्रेममय होकर ही मौन परमात्मा के साथ हम एक हो सकते हैं। हमारे चारों ओर एक आभा है, जिसका चुम्बकत्व स्वयं ही सब कुछ बोल देता है। उस चुम्बकत्व को हम अपने-आप ही बोलने दें। यह चुम्बकत्व - "मौन की भाषा" है, जो कि सर्वश्रेष्ठ वाणी है। स्वयं प्रेममय हो जाना ही अनन्य प्रेम है जो प्रेम की सर्वतोत्कृष्ट अभिव्यक्ति है। यह प्रेम ही हमें परमात्मा से एकाकार कर सकता है। स्वयं प्रेममय हुए बिना हम परमात्मा का चिंतन निष्काम भाव से नहीं कर सकते।  फिर तो परमात्मा स्वयं ही खिंचे चले आते हैं। परमात्मा के सिवाय कोई "अन्य" हो ही नहीं सकता। सम्पूर्ण सृष्टि और हम सब परमात्मा के ही प्रतिरूप हैं। 

 किसी भी तरह की दरिद्रता, सब से बड़ा पाप है। निज जीवन में परमात्मा की उपस्थिती ही हमें सब तरह की दरिद्रताओं से मुक्त कर सकती है। आध्यात्मिक दरिद्रता - भौतिक दरिद्रता से कहीं अधिक दुःखदायी है।  .

भगवान न तो कहीं जा सकते हैं, और न ही कहीं छिप सकते हैं, क्योंकि समान रूप से हर समय वे सर्वत्र व्याप्त हैं। इसीलिए वे वासुदेव कहलाते हैं। उनके पास न तो कहीं जाने की जगह है, और न कहीं छिपने की। वे सदा कूटस्थ हृदय में बिराजमान हैं। उनसे पृथकता का बोध ही माया है। यश, कीर्ति और प्रशंसा की कामना एक धोखा है। यह कामना हमें हमेशा निराश ही नहीं करती बल्कि हमारे लिए नर्क का द्वार भी खोलती है।

इस सृष्टि का सम्पूर्ण सौन्दर्य हमारा ही प्रतिबिंब है। हम यह देह नहीं, विराट अनंतता हैं। हम इस महासागर की एक बूंद नहीं, सम्पूर्ण महासागर हैं। हम कण नहीं प्रवाह हैं। यह सारी सृष्टि हमारी ही देह है। सम्पूर्ण अस्तित्व हम स्वयं हैं। हमारे सिवाय कोई अन्य या कुछ भी अन्य नहीं है। हम अपने प्रभु के साथ एक हैं। 

ॐ नमः शंभवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च !! 

ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ !!

कृपा शंकर  १६ नवंबर २०२१

(१) क्या भगवान भी किसी को पकड़ लेते हैं ? (२) भगवान अपना दिया सामान अब बापस ले रहे हैं ---

 (१) क्या भगवान भी किसी को पकड़ लेते हैं ?? ---

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यह सत्य है कि भगवान भी कभी कभी हमें पकड़ लेते हैं। पर वे किसी को क्यों पकड़ते हैं, यह बुद्धि से परे की बात है। यह वही समझ सकता है जिसमें कूट कूट कर भक्तिभाव भरा होता है। भक्ति भी एक जन्म की उपलब्धि नहीं होती, अनेक जन्मों के पुण्योदय का परिणाम होता है। जब कभी अचानक ही बिना किसी प्रयास के स्वतः ही भगवान से परमप्रेम जागृत हो जाये, तब लगता है कि भगवान ने पकड़ लिया है।
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आजकल कई बार भगवान ने मुझे भी पकड़ना आरंभ कर दिया है। अचानक ही कई बार प्रेममय होकर ध्यानस्थ हो जाता हूँ, आँखों से आँसू निकलने लगते हैं। समझ में नहीं आता कि यह क्या हो रहा है। आसपास के लोग पूछते हैं कि आँखों में आँसू क्यों आ रहे हैं? उनको उत्तर यही देता हूँ कि बहुत तेज जुकाम लगी हुई है।
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(२) भगवान अपना दिया सामान अब बापस ले रहे हैं ---
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भगवान ने चार चीजें उधार में दी थीं -- मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार। इनका न तो मैंने कभी कोई भाड़ा चुकाया, और न ही मूलधन बापस किया। अतः भगवान ने भी अब परेशान होकर अपना सामान बापस लेना आरंभ कर दिया है। जितना शीघ्र वे अपना सामान बापस ले लें, उतना ही मेरे लिए अच्छा है। वे तो श्रीहरिः हैं, अपना नाम सार्थक करें। इस जीवन की सार्थकता तभी होगी जब भगवान अपना ये सामान बापस ले लेंगे।
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आप सब कैसे हैं? आप सब सदा प्रसन्न रहो। मेरे पास अब कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी सामान है, वह भगवान से उधार लिया हुआ है, जो उन्हें बापस लौटाना है।
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मेरा एकमात्र संबंध भी उन्हीं से है, क्योंकि उनका साथ शाश्वत है। इस जन्म से पूर्व भी वे मेरे साथ थे, और इस जन्म के उपरांत भी वे ही साथ रहेंगे। वे ही माँ-बाप, व सभी संबंधियों और मित्रों के रूप में आये, और उनके माध्यम से अपना प्रेम मुझे दिया। मेरा सर्वस्व उन्हें अर्पित है। जो कुछ भी है, वह वे ही हैं। पृथकता का बोध मिथ्या था, और मिथ्या ही है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१५ नवंबर २०२१

यदि भगवान में आस्था है तो कभी भी निराश न हों ---

 यदि भगवान में आस्था है तो कभी भी निराश न हों। चाहे कितनी भी घोर विपत्तियों के बादल मंडरा रहे हों, चारों ओर अंधकार ही अंधकार ही हो, कहीं से भी कोई आशा की किरण नहीं दिखाई दे रही हो, अपना हाथ उनके हाथ में थमा दो, यह संसार उनका है, हमारी रक्षा सुनिश्चित है। इस शरीर में प्राण रहे या न रहे, कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन निराशा, भीरुता लाना -- नीच कायरता है। गीता में भगवान कहते हैं --

"क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥२:३॥"
अर्थात् -- हे पार्थ क्लीव (कायर) मत बनो। यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है, हे परंतप हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ॥
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"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
अर्थात् -- इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो॥"
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"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥"
अर्थात् -- जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है॥
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"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् -- मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे? तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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वाल्मीकि रामायण में भी भगवान का वचन है --
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥"
अर्थात् -- जो एक बार भी मेरी शरण में आकर 'मैं तुम्हारा हूँ' ऐसा कहकर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है।
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भगवान के इतने स्पष्ट आश्वासन हैं, फिर कैसी तो निराशा? और कैसी भीरुता?
भगवान हैं, यहीं पर इसी समय, सर्वत्र और सर्वदा हैं। फिर काहे का अवसाद? सदा प्रसन्न रहो। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१४ नवंबर २०२१

भगवान कहाँ जा सकते हैं? कहाँ छिप सकते हैं?

 भगवान कहाँ जा सकते हैं? कहाँ छिप सकते हैं?

भगवान न तो कहीं जा सकते हैं, और न ही कहीं छिप सकते हैं, क्योंकि समान भाव से सर्वस्व, सर्वत्र वे ही व्याप्त हैं| उनके पास न तो कहीं जाने की जगह है, और न कहीं छिपने की| जब हम उन्हीं के अंश और शाश्वत-आत्मा हैं, तो उनकी माया के आवरण और विक्षेप, जिन्होने हमें अज्ञान में डाल रखा है, अधिक समय तक टिकने वाले नहीं हैं| उन के प्रति प्रेम के समक्ष माया के आवरण और विक्षेप नहीं टिक सकते| वास्तव में हम उन से पृथक नहीं हैं| यह पृथकता का बोध ही माया है|
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प्रत्येक जीवात्मा का सनातन स्वधर्म है कि वह निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करे| निज जीवन में परमात्मा की अभिव्यक्ति ही सनातन धर्म है| यही हमारा स्वधर्म है| हम कर्म करने के लिए स्वतंत्र हैं| लेकिन यह कर्ता भाव ही हमें कर्मफलों को भोगने को बाध्य करता है| जब तक कर्ताभाव है तब तक यह जन्म-मृत्यु का चक्र चलता रहेगा| इसे कोई नहीं रोक सकता| इस चक्र से मुक्त होने के लिए जीवन में भक्ति, वैराग्य और ज्ञान का होना परम आवश्यक है|
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हमारी सबसे बड़ी और एकमात्र समस्या है कि हमें भक्ति, वैराग्य और ज्ञान कैसे प्राप्त हों, क्योंकि ये ही हमें असत्य के अंधकार से बचा सकते हैं| लेकिन कोई जल्दी नहीं है| आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में, भगवान को आना ही पड़ेगा| जैसे कोई माता-पिता अपनी संतान के बिना नहीं रह सकते, वैसे ही भगवान भी हमारे बिना नहीं रह सकते|
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हमारी उन से एक ही प्रार्थना है कि हर नए जन्म के आरंभ से ही यानि जन्म से ही उनकी पूर्ण भक्ति, वैराग्य और ज्ञान, व उन्हें पाने की एक तीब्र अभीप्सा हो| ये तो उन्हें देनी ही पड़ेंगी| इन्हें मांगना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, जिसके लिए वे मना नहीं कर सकते|
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सुख में, दुःख में, भाव में, अभाव में वे ही हमारे साथ हैं| हम जीवन में संघर्ष करते हैं अपनी दरिद्रता से मुक्ति के लिए| दरिद्रता सब से बड़ा पाप है| लेकिन आध्यात्मिक दरिद्रता उस से भी बड़ा पाप है| हमारी आध्यात्मिक दरिद्रता, भगवान की उपस्थिती से ही दूर हो सकती है|
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अभी इतना ही| आप सब निजात्मगण को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ नवंबर २०२०