परमप्रेममय होकर ही मौन परमात्मा के साथ हम एक हो सकते हैं। हमारे चारों ओर एक आभा है, जिसका चुम्बकत्व स्वयं ही सब कुछ बोल देता है। उस चुम्बकत्व को हम अपने-आप ही बोलने दें। यह चुम्बकत्व - "मौन की भाषा" है, जो कि सर्वश्रेष्ठ वाणी है। स्वयं प्रेममय हो जाना ही अनन्य प्रेम है जो प्रेम की सर्वतोत्कृष्ट अभिव्यक्ति है। यह प्रेम ही हमें परमात्मा से एकाकार कर सकता है। स्वयं प्रेममय हुए बिना हम परमात्मा का चिंतन निष्काम भाव से नहीं कर सकते। फिर तो परमात्मा स्वयं ही खिंचे चले आते हैं। परमात्मा के सिवाय कोई "अन्य" हो ही नहीं सकता। सम्पूर्ण सृष्टि और हम सब परमात्मा के ही प्रतिरूप हैं।
किसी भी तरह की दरिद्रता, सब से बड़ा पाप है। निज जीवन में परमात्मा की उपस्थिती ही हमें सब तरह की दरिद्रताओं से मुक्त कर सकती है। आध्यात्मिक दरिद्रता - भौतिक दरिद्रता से कहीं अधिक दुःखदायी है। .
भगवान न तो कहीं जा सकते हैं, और न ही कहीं छिप सकते हैं, क्योंकि समान रूप से हर समय वे सर्वत्र व्याप्त हैं। इसीलिए वे वासुदेव कहलाते हैं। उनके पास न तो कहीं जाने की जगह है, और न कहीं छिपने की। वे सदा कूटस्थ हृदय में बिराजमान हैं। उनसे पृथकता का बोध ही माया है। यश, कीर्ति और प्रशंसा की कामना एक धोखा है। यह कामना हमें हमेशा निराश ही नहीं करती बल्कि हमारे लिए नर्क का द्वार भी खोलती है।
इस सृष्टि का सम्पूर्ण सौन्दर्य हमारा ही प्रतिबिंब है। हम यह देह नहीं, विराट अनंतता हैं। हम इस महासागर की एक बूंद नहीं, सम्पूर्ण महासागर हैं। हम कण नहीं प्रवाह हैं। यह सारी सृष्टि हमारी ही देह है। सम्पूर्ण अस्तित्व हम स्वयं हैं। हमारे सिवाय कोई अन्य या कुछ भी अन्य नहीं है। हम अपने प्रभु के साथ एक हैं।
ॐ नमः शंभवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च !!
ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर १६ नवंबर २०२१