Monday, 15 November 2021

यदि भगवान में आस्था है तो कभी भी निराश न हों ---

 यदि भगवान में आस्था है तो कभी भी निराश न हों। चाहे कितनी भी घोर विपत्तियों के बादल मंडरा रहे हों, चारों ओर अंधकार ही अंधकार ही हो, कहीं से भी कोई आशा की किरण नहीं दिखाई दे रही हो, अपना हाथ उनके हाथ में थमा दो, यह संसार उनका है, हमारी रक्षा सुनिश्चित है। इस शरीर में प्राण रहे या न रहे, कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन निराशा, भीरुता लाना -- नीच कायरता है। गीता में भगवान कहते हैं --

"क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥२:३॥"
अर्थात् -- हे पार्थ क्लीव (कायर) मत बनो। यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है, हे परंतप हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ॥
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"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
अर्थात् -- इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो॥"
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"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥"
अर्थात् -- जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है॥
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"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् -- मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे? तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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वाल्मीकि रामायण में भी भगवान का वचन है --
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥"
अर्थात् -- जो एक बार भी मेरी शरण में आकर 'मैं तुम्हारा हूँ' ऐसा कहकर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है।
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भगवान के इतने स्पष्ट आश्वासन हैं, फिर कैसी तो निराशा? और कैसी भीरुता?
भगवान हैं, यहीं पर इसी समय, सर्वत्र और सर्वदा हैं। फिर काहे का अवसाद? सदा प्रसन्न रहो। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१४ नवंबर २०२१

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