Thursday, 19 December 2024

परमात्मा की अनंतता में स्वयं का विलय करना ही होगा ---

अपनी गहनतम व सर्वोच्च चेतना में मैं केवल आप सब में ही नहीं, सम्पूर्ण सृष्टि व उससे परे की अनंत सम्पूर्णता में भी स्वयं को व्यक्त करना चाहता हूँ। मेरे हृदय में अभीप्सा की एक प्रचंड अग्नि प्रज्ज्वलित है।

मैं जो लिख रहा हूँ, उसे अनुभूत भी कर रहा हूँ। लौकिक दृष्टि से मेरे लिखने का कोई महत्व नहीं है, यह मेरे भावों की एक अभिव्यक्ति मात्र है, जिसे केवल मैं ही समझ सकता हूँ। कई बातें हैं जो लौकिकता में व्यक्त नहीं हो सकतीं, लेकिन वे मेरे हृदय में निरंतर प्रस्फुटित हो रही हैं।
मुझे सुख, शांति और सुरक्षा -- केवल परमात्मा की अनंतता में ही मिलती हैं, अन्यत्र कहीं भी नहीं। कब तक इस सत्य से दूर भागता रहूँगा? परमात्मा की अनंतता में स्वयं का विलय करना ही होगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ दिसंबर २०२४

कामवासना व कामोत्तेजना को कैसे नियंत्रित करें?

 कामवासना व कामोत्तेजना को कैसे नियंत्रित करें?

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इस विषय पर समय समय अनेक जिज्ञासु पूछते रहते हैं। इसका निश्चित उपाय है, लेकिन इसका सतत दीर्घकाल तक अभ्यास करना पड़ता है। इसका उपाय हठयोग में भी है और तंत्र में भी। जो और जितना मुझे पता है वह बता रहा हूँ।
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सात्विक व जितना आवश्यक है उतना ही भोजन करें, सात्विक वातावरण, सात्विक विचार, सत्संग, व कुसंग का सर्वदा त्याग आवश्यक है। कुछ हठयोग की क्रियाओं जैसे --- मूलबंध, उड्डीयानबंध, जालंधरबंध व प्राणायाम आदि का ज्ञान और अभ्यास आवश्यक है। मेरूदण्ड की सुषुम्ना नाड़ी में स्थित चक्रों का ज्ञान भी आवश्यक है।
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जब भी कामवासना और कामोत्तेजना सताये, घबराएं नहीं। पूरी साँस बाहर फेंक दें। गुदा का संकुचन कर, पेट को अंदर की ओर खींचें, व मानसिक रूप से जननांग को भी भीतर की ओर खींचें। स्वाधिष्ठानचक्र में जागृत सारी ऊर्जा को मणिपुर, अनाहत, व विशुद्धि से होते हुए आज्ञाचक्र की ओर खींचनें का अभ्यास करें। सहज रूप से रहें। कुछ देर में कामोत्तेजना शांत हो जाएगी। प्रातः और सायं प्राणायाम का अभ्यास करें। तीनों बंध लगाकर, बाह्यांतर कुंभक में, मणिपुरचक्र पर (नाभि के पीछ मेरूदण्ड में) मानसिक रूप से प्रणव का जप करते हुए प्रहार करें। फिर बिना किसी बंध के आभ्यांतर कुंभक लगाकर नाभि पर उसी तरह प्रहार करें।
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खोपड़ी के पीछे नीचे की ओर आज्ञाचक्र वह स्थान है जहां मेरूदण्ड की सब नसें मस्तिष्क से मिलती हैं। उसके ठीक सामने भ्रूमध्य होता है जहां ध्यान करते हैं। भ्रूमध्य पर ध्यान करते हैं वह आज्ञाचक्र पर ध्यान के समान ही है। गुरु की आज्ञा से उस चक्र पर ध्यान करते हैं, इसलिए उसे आज्ञाचक्र कहते हैं। ध्यान के समय मेरूदण्ड उन्नत और ठुड्डी भूमि के समानान्तर होनी चाहिए।
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जो क्रियायोग का अभ्यास करते हैं, उनकी कामवासना का अपने आप ही शनैः शनैः शमन होने लगता है, और उन्नत क्रियायोगियों को तो कामोत्तेजना होनी बंद हो जाती है। कुंडलिनी महाशक्ति जब आज्ञाचक्र का वेधन कर सहस्त्रार में प्रवेश कर जाती है तब विपरीत लिंग का आकर्षण भी समाप्त हो जाता है, और कामवासना रूपांतरित होकर आनंद में परिवर्तित हो जाती है। तब योगी ब्रह्म चैतन्य में ही रहता है। मेरे एक मित्र थे जो मेडिकल डॉक्टर थे, उन्नत योगी थे, और उनके संपर्क भी बहुत महत्वपूर्ण लोगों से थे। अब तो वे शरीर में नहीं हैं। उन्होने मुझे बताया था कि उन्नत योगियों को कामोत्तेजना नहीं होती, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण भी नहीं होता, और उनके शिश्न का आकार भी बहुत छोटा हो जाता है।
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जिस परिस्थिति और वातावरण में बुरे विचार आते हैं, उस वातावरण से दूर चले जाएँ। जिस व्यक्ति के साथ रहने से बुरे विचार आते हैं, उसका भी साथ छोड़ दें। नित्य नियमित ध्यान करें, और निरंतर परमात्मा का चिंतन करें।
मंगलमय शुभ कामनाएँ। हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ दिसंबर २०२४
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पुनश्च: --- कोई हठयोग संबंधी जानकारी लेनी है तो सारी जानकारी -- घेरण्ड-संहिता, शिव-संहिता और हठयोग-प्रदीपिका नाम की पुस्तकों में मिल जायेगी, या किसी हठयोगी से सीखें। मैं समय नहीं दे पाऊँगा। धन्यवाद॥