Thursday, 13 February 2025

यह यात्रा "जीव" से "शिव" बनने की है ---

 यह यात्रा "जीव" से "शिव" बनने की है ---

.
"शिवो भूत्वा शिवं यजेत्" -- स्वयं शिव बनकर शिव की आराधना करो। जिन्होंने वेदान्त को निज जीवन में अनुभूत किया है वे डंके की चोट --"शिवोहं शिवोहं", "अहं ब्रह्मास्मि" और "अयमात्मा ब्रह्म" कह सकते हैं। जिन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों का गहन स्वाध्याय किया है, वे भी अंततः इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे। तत्व रूप में शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है। गीता के भगवान वासुदेव ही वेदान्त के ब्रह्म हैं, वे ही मेरी चेतना में परमशिव हैं।
.
मेरे इस जीवन का अब संध्याकाल है, बहुत कम समय बचा है। करने को तो बहुत कुछ बाकी है, लेकन जितनी और जो उपासना होनी चाहिए, उतनी हो नहीं रही है। अतः सब कुछ भगवान पर छोड़ दिया है। जो करना है वह सब वे ही करेंगे, मेरे वश में कुछ भी संभव नहीं है। स्वयं पर कोई भी भार लेने में असमर्थ हूँ। सारी उपासना, उपास्य और उपासक वे ही हैं। दृष्टि, दृश्य और दर्शन भी वे ही हैं। स्वयं का पता नहीं कि जो सांसें चल रही हैं, वे कब तक चलेंगी। अब तो ये सांसें भी वे ही ले रहे हैं। जन्म-जन्मांतरों के सारे कर्म, उनके फल, सारी बुराइयाँ/अच्छाइयाँ सब कुछ उन्हें बापस सौंप दिया है। स्वयं को भी उन्हें समर्पित कर दिया है। मेरी कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं है, जो उन की इच्छा है वह ही मेरी इच्छा है।
.
मनुष्य जीवन का मूल उद्देश्य है -- "शिवत्व की प्राप्ति"। हम शिव कैसे बनें? शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस का उत्तर है -- कूटस्थ में ओंकार रूप में ज्योतिर्मय सर्वव्यापी शिव का ध्यान। यह किसी कामना की पूर्ती के लिए नहीं, बल्कि कामनाओं के नाश के लिए है। आते जाते हर साँस के साथ उनका चिंतन-मनन और समर्पण -- उनकी परम कृपा की प्राप्ति करा कर आगे का मार्ग प्रशस्त करता है। जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है -- "कामना और इच्छा की समाप्ति"
.
"शिव" का अर्थ शिवपुराण के अनुसार -- जिन से जगत की रचना, पालन और नाश होता है, जो इस सारे जगत के कण कण में संव्याप्त है, वे शिव हैं। जो समस्त प्राणधारियों की हृदय-गुहा में निवास करते हैं, जो सर्वव्यापी और सबके भीतर रम रहे हैं, वे शिव हैं। अमरकोष के अनुसार 'शिव' शब्द का अर्थ मंगल एवं कल्याण होता है। विश्वकोष में भी शिव शब्द का प्रयोग मोक्ष में, वेद में और सुख के प्रयोजन में किया गया है। अतः "शिव" का अर्थ हुआ आनन्द, परम मंगल और परम कल्याण। जिसे सब चाहते हैं और जो सबका कल्याण करने वाला है वही "शिव" है।
.
पूर्वजन्मों में जैसे कर्म किए थे उनके अनुसार इस जन्म में मैं एक ऐसे समाज में जन्मा जो घोर तमोगुण से मुक्त होने के लिए संघर्ष कर रहा था। जहाँ मेरा यानि इस शरीर का जन्म हुआ वह झुंझुनूं (राजस्थान) एक तमोगुणी गाँव (अब तो नगर है) है। वहाँ का समाज अब भी तमोगुण-प्रधान है। कुछ लोग अवश्य रजोगुणी हैं, लेकिन सतोगुणी तो कोई दो लाख में से एक व्यक्ति ही मिलेगा। जो स्वयं को श्रेष्ठ समझते हैं, उन लोगों की दृष्टि पराए धन और यौन-वासनाओं की पूर्ति पर ही रहती है। स्वयं को धार्मिक दिखाकर, यानि अच्छे बनने का ढोंग रचकर कैसे दूसरों को ठगा जाए, यही यहाँ के लोगों का चिंतन है।
.
मेरा यह पूरा जीवन तो इसी प्रयास में खप गया कि कैसे तमोगुण से मुक्त हुआ जाए।
पता नहीं, भगवान श्रीकृष्ण का यह आदेश जीवन में कब फलीभूत होगा --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
अर्थात् -- "हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है, तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित, और आत्मवान् बनो॥"
.
आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में जो इसकी व्याख्या की है उसका सार है कि विवेक बुद्धि से रहित कामपरायण पुरुषों के लिए वेद त्रैगुण्यविषयक यानि तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परंतु हे अर्जुन, तूँ असंसारी, निष्कामी, तथा निर्द्वन्द्व हो। सुख-दुःख के हेतु जो परस्पर विरोधी युग्म हैं, उनका नाम द्वन्द्व है, उनसे रहित हो, और नित्य सत्त्वस्थ तथा निर्योगक्षेम हो। अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने का नाम योग है, और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम क्षेम है। योगक्षेम को प्रधान मानने वाले की कल्याणमार्ग में प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है, अतः तू योगक्षेम को न चाहने वाला हो। आत्मवान् हो अर्थात् (आत्मविषयों में) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठान में लगे हुये के लिये यह उपदेश है।
.
शैव आगमों के आचार्य भगवान दुर्वासा ऋषि हैं। मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ। उन्होंने मुद्गल ऋषि को आशीर्वाद दिया था कि तुम्हारे वंश में कभी कोई भूख से नहीं मरेगा। तपस्यारत मुद्गल ऋषि कई दिनों से भूखे थे। कई दिनों के बाद उन्हें खाने को कुछ आहार मिला। जब वे भोजन करने बैठे तब आचमन करते ही दुर्वासा ऋषि पधारे। उन्होंने वह भोजन दुर्वासा ऋषि को करा दिया। दुर्वासा वह सारा भोजन कर लिए, और जाते जाते मुद्गल ऋषि को तो भूख-प्यास से मुक्त कर गए और यह आशीर्वाद भी दे गए कि तुम्हारे वंश में कभी कोई भूख से नहीं मरेगा। तब से कोई भी मुद्गल गौत्रीय ब्राह्मण कभी भूख से तो नहीं मरा है। मुझे आज से साठ वर्ष पूर्व ही गृह त्याग कर विरक्त हो जाना चाहिए था। जीवन के ये इतने वर्ष व्यर्थ ही गए। लेकिन मेरे प्रारब्ध में जो था, वही हुआ। और जन्म लेने की इच्छा अब नहीं है। भगवान यदि फिर जन्म दे तो भक्ति, ज्ञान और वैराग्य अपनी पूर्णता में जन्म के समय से ही हो। मैं जीव नहीं, जीवनमुक्त अवस्था में परमशिव को ही व्यक्त करूँ।
.
भगवान ने ही यह सब लिखा दिया। उन्हीं को यह जीवन समर्पित है।
ॐ तत्सत् ! ॐ स्वस्ति !
ॐ नमःशिवाय ॐ नमःशिवाय ॐ नमःशिवाय !! महादेव महादेव महादेव !!
शिवोहं शिवोहं, अहं ब्रह्मास्मि, अयमात्मा ब्रह्म !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
१४ फरवरी २०२३

मुझे निमित्त बनाकर भगवान स्वयं ही अपनी साधना कर रहे हैं ---

 जीवन के इस संध्याकाल में जहां भी भगवान ने मुझे रखा है, वहीं पर भगवान से मुझे अब मानसिक रूप से निरंतर साधना/उपासना की प्रेरणा मिल रही है। मुझे निमित्त बनाकर भगवान स्वयं ही अपनी साधना कर रहे हैं। लौकिक जीवन में मेरे आदर्श श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय हैं। भगवान श्रीकृष्ण की परमकृपा से मुझे पूरा मार्गदर्शन प्राप्त है। किसी भी तरह का कोई संशय नहीं है। यह अवशिष्ट जीवन भगवान को पूर्णतः समर्पित है। भगवान स्वयं ही यह जीवन जी रहे हैं, और जीयेंगे।

.
मेरे लिए अभी और लिखने के लिए कुछ नहीं बचा है। जो कुछ भी लिखने की प्रेरणा भगवान से मिली, वह सब खूब लिखा है। अब इस संसार से मन पूर्णतः तृप्त हो गया है, किसी भी तरह की कोई आकांक्षा नहीं रही है। इस बचे हुए जीवनकाल में भगवान जिन-जिन संत-महात्माओं और सदगृहस्थों से मिलवायेंगे उन सब से अवश्य मिलूँगा। जहाँ कोई बहुत प्रेम से बुलायेंगे, तो वहाँ भी क्षमतानुसार अवश्य जाऊँगा। यह अंतःकरण भगवान को समर्पित है।
.
सारा अवशिष्ट जीवन भगवान के ध्यान, उपासना और स्वाध्याय में ही बीत जायेगा। जब भी भगवान का आदेश होगा तब ब्रह्मरंध्र के मार्ग से स्वयं ही इस शरीर का त्याग कर के सचेतन रूप से भगवान के धाम चले जायेंगे।
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥ (गीता)
"अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्‌।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥८:२१॥" (गीता)
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकम्
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ (कठोपनिषद २-२-१५)
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ फरवरी २०२५



वियोग का असह्य कष्ट ---

 मैं वियोग के एक ऐसे असह्य कष्ट में हूँ, जिसके निवारण के किसी उपाय का मुझे बोध नहीं है। समय निकला जा रहा है, मेरी बात को समझने वाला भी कोई नहीं है।

.
मेरे बाईं ओर अंधकार से घिरे अपने वाहन भैंसे पर बिराजमान यमराज मुस्कराते हुये मेरी ओर देख रहे हैं। उनके भैंसे के गले में बँधी घंटी की ध्वनि बड़ी कर्कश है, लेकिन उसमें भी एक बड़ा प्रबल आकर्षण है, जो भोगों की आकांक्षा है।
मेरे दाहिने ओर प्रकाशमय स्वयं भगवान शिव अपने धर्मरूपी वाहन वृष के ऊपर बैठे हुए अभय मुद्रा में मुझे निर्भय होने का आश्वासन दे रहे हैं। उनके वाहन बैल के गले में बँधी घंटी से प्रणव की ध्वनि आ रही है। उनके प्रकाशमय सौम्य जटामंडल में भगवती गंगा की शीतलता है -- जो मेरा आत्मतत्त्व है।
.
मैंने शिव का वरण कर लिया है, अब कोई विकल्प नहीं रहा है। संसार के किसी काम का नहीं हूँ, फिर भी शाश्वत शिव के साथ एक हूँ। ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ फरवरी २०२५

द्वैत-भाव से की गयी उपासना, अद्वैत भाव से अधिक आनंददायक है ---

अद्वैत-भाव से की गई साधना से द्वैत-भाव अधिक आनंददायक है, क्योंकि अद्वैत-दर्शन में विरह-रस नहीं है। विरह का भी एक आनंद है। भगवान भी निशाना लेकर बड़े यत्न से खींच-खींच कर साधते हुए अपने प्रेम का बाण चलाते हैं, जो चित्त के आर-पार हो जाता है। उनकी यह सधी हुई मार ही हमारी वेदना है।

.
विरह की अग्नि असहनीय है। भगवान से अलग हो चुकी आत्मा को स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता है। दिन और रात, धूप और छाँह -- कहीं भी सुख नहीं है। प्राण तो उनके विरह में ही तप कर समाप्त हो जायेंगे। इस पीड़ा को या तो मारने वाला जानता है, या फिर इसे भोगने वाला ही। विरह को ही वियोग अवस्था कहते हैं। भगवान् के विरह में हृदय में इतना ताप होता है कि सम्पूर्ण अग्नि और सूर्य भी वैसी जलन नहीं पैदा कर सकते। वियोग संयोग का पोषक होने के कारण रसस्वरूप है। हिन्दी साहित्य भरा पड़ा है विरह की साहित्यिक रचनाओं से।
.
गीता में भगवान कहते हैं --
"मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥१२:२॥"
अर्थात् - मुझमें मन को एकाग्र करके नित्ययुक्त हुए जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे, मेरे मत से, युक्ततम हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं॥
>
"क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥१२:५॥"
अर्थात् - परन्तु उन अव्यक्त में आसक्त हुए चित्त वाले पुरुषों को क्लेश अधिक होता है, क्योंकि देहधारियों से अव्यक्त की गति कठिनाईपूर्वक प्राप्त की जाती है॥"
.
सभी को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१३ फरवरी २०२५