Thursday, 16 January 2025

उपासना ---

उपासना ---

दिन में २४ घंटे, सप्ताह में सातों दिन, हर क्षण प्रयास यही रहता है कि सहस्त्रार से ऊपर इस भौतिक शरीर महाराज से बाहर परमशिव की अनंत विराट चेतना में ही रहते हुये उनकी उपासना हो।
जब तक प्राणरूप में जगन्माता भगवती इस देह को जीवित रखना चाहती है, रखे। वे जो भी काम करवाना चाहती है, वह करवाये। यह शरीर महाराज और उससे जुड़ा अंतःकरण (मन बुद्धि चित्त अहंकार) सब कुछ उन्हीं का है, मेरा कुछ भी नहीं है। मेरा सम्पूर्ण जीवन परमशिव को समर्पित है।

देवासुर-संग्राम हर युग में सदा से ही चलते आये हैं, और चलते रहेंगे। वर्तमान में भी चल रहे हैं। हमें आवश्यकता है -- आत्म-साक्षात्कार, यानि भगवत्-प्राप्ति की। फिर जो कुछ भी करना है, वह स्वयं परमात्मा करेंगे। हम परमात्मा के उपकरण बनें, परमात्मा में स्वयं को विलीन कर दें। अब परमात्मा के बिना नहीं रह सकते, उन्हें इसी क्षण यहीं आना ही पड़ेगा।

जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह सब एक दिन अदृश्य हो जाएगा। वह प्रकाश ही सत्य है जो सभी दीपों में प्रकाशित है। स्वयं को जलाकर उस प्रकाश में वृद्धि करें, सारा अन्धकार एक रोग है जिस से मुक्त हुआ जा सकता है। वास्तव में हम प्रकाशों के प्रकाश -- ज्योतिषांज्योति हैं।

तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ जनवरी २०२३

भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भगवान के ध्यान में होती है ---

भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भगवान के ध्यान में होती है। इस बात को वे ही समझ सकते हैं, जो उनका नित्य नियमित निरंतर ध्यान कर उन्हें स्वयं के माध्यम से व्यक्त होने देते हैं। ध्यान में सहस्त्रारचक्र खुल जाता है, और हमारी चेतना इस भौतिक देह में न रहकर भगवान की ज्योतिर्मय विराट अनंतता के साथ एक हो जाती है। उस अनंतता में भी जितना ऊपर उठ सकते हो, उतना ऊपर उठ जाओ। उस ज्योतिर्मय ब्रह्म में एक सूर्यमण्डल के दर्शन होंगे। उस सूर्यमण्डल में भगवान पुरुषोत्तम का ध्यान किया जाता है। ध्यान में भगवान हमारे साथ एक हो जाते हैं। भगवान स्वयं ही कर्ता होते हैं। उनसे पृथक हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। उनके साथ एकाकार होना ही ब्राह्मी-स्थिति है। यही कूटस्थ-चैतन्य है। अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को भगवान पुरुषोत्तम में विलीन कर दें। ज्योतिषांज्योति हम स्वयं हैं। गीता में भगवान कहते हैं --
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥ (श्रीमद्भगवद्गीता)
श्रुति भगवती कहती है --
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकम्
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ (कठोपनिषद २-२-१५)
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गीता के पुरुषोत्तम-योग का कभी कभी स्वाध्याय करें, और सूर्यमण्डल में नित्य पुरुषोत्तम का दीर्घ व गहनतम ध्यान करें। सबसे बड़ी शक्ति जो हमें भगवान की ओर ले जा सकती है, वह है -- "परमप्रेम" यानि "अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति।" तब सारा मार्गदर्शन स्वयं भगवान ही करते हैं। वह परमप्रेम सब में जागृत हो।
ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ जनवरी २०२४