आत्म-तत्व में स्थिति -- भगवान की प्राप्ति है ---
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परमात्मा के महासागर में मोती ही मोती भरे पड़े हैं| आवश्यकता है गहरे गोते लगाने की, तभी मोती मिलेंगे| मोती नहीं मिलते तो दोष सागर का नहीं, हमारी डुबकी का है|
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युवावस्था में जो साधक आध्यात्मिक क्षेत्र में आते हैं, उन्हे खेचरी-मुद्रा का अभ्यास कर के इसमें दक्षता प्राप्त कर लेनी चाहिए| वे साधक वास्तव में भाग्यशाली हैं, जिन्हें खेचरी-मुद्रा सिद्ध है, और जिन्होने आतंरिक प्राणायाम द्वारा सुषुम्ना में प्रवाहित हो रहे प्राण-तत्व को नियंत्रित कर लिया है|
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मौन की सिद्धि खेचरी में ही संभव है, और जिन्हें मौन की सिद्धि है, वे ही मुनि कहलाते हैं| वे ब्रह्मरंध्र-सहस्त्रार से टपकने वाले सोमरस -- अमृत का पान करके भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि पर विजय प्राप्त कर सकते हैं|
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ब्रह्मा का कमण्डलु तालुरंध्र है, और हरिः का चरण सहस्त्रार है| सहस्त्रार से जो अमृत की धारा तालुरन्ध्र में ऊर्ध्वजिव्हा पर आकर गिरती है, वह अनेक सिद्धियाँ प्रदान करती हैं| वे जितना चाहें उतने समय तक समाधिस्थ रह सकते हैं|
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ऊर्ध्व में स्थिति प्राप्त होने पर ब्रह्मज्ञान यानि आत्मज्ञान का उदय होता है| उस अवस्था में रमण करने का नाम "राम" है| जो साधक सदा आत्मा में रमण करते हैं, वे स्वयं राममय हो जाते हैं| उनके लिए "राम" तारकमंत्र है| मृत्युकाल में "राम" नाम जिसके स्मरण में रहे वे स्वयं ही ब्रह्ममय हो जाते हैं| आत्म-तत्व में स्थिति -- भगवान की प्राप्ति है|
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श्रौत्रीय ब्रहमनिष्ठ सिद्ध गुरु से उपदेश लेकर उनकी आज्ञा से पूर्ण भक्ति पूर्वक --अजपा-जप, नाद-श्रवण और सूक्ष्म प्राणायाम का अभ्यास नित्य करना चाहिए| गुरुकृपा से भगवान की प्राप्ति अवश्य होगी| ॐ तत्सत् || ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
कृपाशंकर
३१ मार्च २०२१
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पुनश्च:_:---
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ |
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ ||
अर्थ : जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है. लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते.