"ब्रह्मज्योति" के दर्शन ध्यान में ही होते हैं ---
.
कोई आवश्यक नहीं है कि मेरा अनुभव ही सत्य हो, लेकिन मेरा अनुभव तो यही कहता है कि हमें भगवान की सर्वप्रथम अनुभूति ज्योति, नाद, और आनंद के रूप में होती है। नेत्रों के गोलकों को बिना किसी तनाव के भ्रूमध्य की ओर रखने और भ्रूमध्य पर ध्यान करते करते कुछ माह की नियमित अजपा-जप की साधना के पश्चात ध्यान में एक ब्रह्मज्योति प्रकट होती है जो आरंभ में एक कोहरे जैसी होती है, तत्पश्चात् प्रचंड सूर्य की आभा जैसी हो जाती है, जिसमें कोई उष्णता नहीं, बल्कि शीतलता होती है।
.
यह तभी होता है जब आपका मेरुदण्ड उन्नत हो, ठुड्डी भूमि के समानान्तर, और आप स्वयं खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में हों। इसे ध्यान-मुद्रा भी कहते हैं। धीरे धीरे वह ज्योति सारे ब्रह्मांड में विस्तृत हो जाती है, लेकिन उस का केंद्र बदलता रहता है। धीरे धीरे उस ज्योति से प्रणव की ध्वनि भी सुनाई देने लगती है। आप उस सर्वव्यापी ज्योति के साक्षी रहते हुए, नाद का श्रवण व अजपा-जप करते रहें। उसी को अपना परमप्रेम और समर्पण करें। उस ज्योति और नाद को ही योग साधक "कूटस्थ" कहते हैं। कूटस्थ-चैतन्य में रहते रहते हमारी प्रज्ञा भी परमात्मा में स्थिर होने लगती है, और हमें स्थितप्रज्ञता और ब्राह्मीस्थिति की प्राप्ति होती है।
.
ध्यान में ब्रह्मज्योति के दर्शन, नाद का श्रवण, और आनंद की अनुभूति हमें परमात्मा का आभास कराती है। यह हमारी आध्यात्मिक प्रगति का सूचक है। संतुष्ट होकर मत बैठिये, परमात्मा के महासागर में अभी, और इसी समय से गहरी से गहरी डुबकी लगाना आरंभ कर दीजिये।
.
श्वेताश्वतरोपनिषद, श्रीमद्भगवद्गीता, रामचरितमानस, आदि अनेक ग्रन्थों में और संत-साहित्य में इसका बहुत अधिक वर्णन है, जिनका उल्लेख मैं इस लेख के विस्तार भय से नहीं कर रहा हूँ। किसी को कुछ सीखना है तो किसी ब्रह्मनिष्ठ आचार्य से सीखें। मैं समय नहीं दे सकूँगा। आप सब को नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ नवंबर २०२४