शुभ काम में देरी ना करो .....
जो कल करना है सो आज करो, और जो आज करना है वह अभी करो|
सर्वाधिक शुभ कार्य है ..... भक्तिपूर्वक परमात्मा का ध्यान, जिसे आगे पर ना टालें|
मैं योगमार्ग का एक साधक हूँ अतः वही कहने का प्रयास करता हूँ जो निज जीवन
में होता है| बाकी का मुझे कोई ज्ञान नहीं है| लिखने में कई बार अशुद्धि
भी हो जाती है, जिसका जब भी अवसर मिलता है संशोधन कर लेता हूँ|
पिछलें कुछ दिनों में कुछ लेखों में चक्रभेद/ग्रंथिभेद आदि की कुछ चर्चाएँ की है| उसी क्रम में आगे की कुछ और चर्चा भी करते हैं|
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कुछ महीनों तक अजपा-जप और ओंकार का ध्यान करते करते साधक को मेरुदंड के
निचले भाग में ऐसी अनुभूति होने लगती है जैसे कोई पीछे गुदा से कुछ ऊपर के
भाग पर ठोकर मार रहा हो, या कुछ सनसनाहट सी ऊपर की ओर उठ रही हो| यह एक
स्वाभाविक अनुभूति है जिसमें घबराने की कोई बात नहीं है| जब साँस लेते हैं
तब ऐसे लगता है जैसे कोई विद्युत प्रवाह ऊपर उठ रहा हो, और साँस छोड़ते समय
वह प्रवाह नीचे जा रहा हो| कई बार भक्ति के अतिरेक में या किसी महात्मा के
सत्संग में ऐसी अनुभूति और भी अधिक प्रबल हो जाती है| यह सुषुम्ना में
कुण्डलिनी का जागरण है| >>>>> इसकी किसी से चर्चा भी नहीं
करनी चाहिए| यह एक व्यक्तिगत और गोपनीय अनुभूति है|<<<<<
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यह सुषुम्ना में प्राण ऊर्जा का संचलन है| श्वास-प्रश्वास इसी की
प्रतिक्रया है| अब साधक की दृष्टी तो भ्रूमध्य पर रहे, चेतना सर्वव्यापी
रहे, पर सजगता उस ऊर्जा संचलन पर रहे|
जब हम साइकिल चलाते हैं तब
पैडल भी मारते हैं, हेंडल भी पकड़ते हैं, ब्रेक पर अंगुली भी रखते है, सामने
भी देखते हैं, और यह भी याद रखते हैं कि कहाँ जाना है| इतने सारे काम एक
साथ करने पड़ते हैं अन्यथा हम साइकिल नहीं चला पाएंगे|
वैसे ही यह
ध्यान साधना है जिसमें परमात्मा की सर्वव्यापकता का भी ध्यान करते हैं,
गुरु प्रदत्त बीज मन्त्र का मानसिक चेतना में जाप भी करते हैं, दृष्टी
भ्रूमध्य पर भी रखते हैं, और मेरु दंड में हो रही उठक -पटक के प्रति सजग भी
रहते हैं, और प्रेमपूर्वक अपने अहं का समर्पण भी करते हैं| इतने सारे काम
एकसाथ करने पड़ते हैं, अन्यथा हम साधना नहीं कर पाएंगे|
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अब
प्रयासपूर्वक सुषुम्ना नाड़ी में अपनी चेतना को स्वाभाविक रूप से नाभि से
ऊपर के चक्रों में ही रखेंगे| ऐसा करते करते यानि ऐसा बनते बनते हमारी बात
बन जायेगी|
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अब और भी आगे की चर्चा करते हैं|
आज्ञाचक्र से
सुषुम्ना दो भागों में विभक्त हो जाती है| एक भाग भ्रूमध्य की ओर से
सहस्त्रार को जाता है, जो परासुषुम्ना है, और दूसरा भाग सीधा सहस्त्रार की
ओर जाता है, वह "उत्तरा सुषुम्ना" है| यह उत्तरा सुषुम्ना का द्वार सिर्फ
विशेष गुरुकृपा से ही खुलता है| परमात्मा की कृपा से यदि उत्तरा सुषुम्ना
में प्रवेश हो जाए तब चेतना को निरंतर वहीं रखने का प्रयास करन चाहिए|
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गुरुकृपा से जब कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है तब वह मूलाधार से आज्ञाचक्र
तक के क्षेत्र में विचरण करती है| आज्ञाचक्र का भेदन होने पर वह भ्रूमध्य
से सहस्त्रार में प्रवेश करती है|
उत्तरा सुषुम्ना में जागृत
कुण्डलिनी "परम कुण्डलिनी" या "परा कुण्डलिनी" कहलाती है| यह उत्तरा
सुषुम्ना का मार्ग महामोक्षदायी और सूर्य की तरह ज्योतिर्मय है| इसमें
ब्रह्मा, विष्णु और महादेव की शक्तियाँ निहित हैं| इसमें अपनी चेतना को
लाकर साधक साधना द्वारा शिवमय हो सकता है| पर इसमें प्रवेश सिद्ध गुरु की
परम कृपा से ही होता है| गुरु शिष्य का परम हितैषी होता है| वह न केवल
भगवद्प्राप्ति का मार्ग बताता है, शिष्य की भावी विपत्तियों से रक्षा भी
करता है|
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यह साधना स्वभाव बन जानी चाहिए| इस दुःखपूर्ण संसार से
छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय है ..... स्व-भाव, अर्थात आत्मज्ञान| इस
स्वभाव का ही दूसरा नाम है 'चिदाकाश'|
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यहाँ जो बताया गया है वह
सिर्फ परिचयात्मक ही है| अब बापस साधना पथ पर लौटेगे| गुरु कृपा से साधना
द्वारा ही यहाँ तक पहुँच सकते हैं|
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विषय बहुत लंबा है अतः यहीं
विराम दे रहा हूँ| पूर्व जन्मों के अच्छे कर्मों से जब भगवान के प्रति
भक्ति जागृत होती है तब भगवान गुरु के रूप में आकर मार्गदर्शन देते हैं और
रक्षा भी करते हैं|
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आप सब में हृदयस्थ भगवन नारायण को प्रणाम |
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||