Sunday 23 October 2016

स्वयं की पीड़ा .....

मैं स्वयं की पीड़ा, स्वयं का दुःख और कष्ट तो सहन कर लेता हूँ, पर जो लोग मुझ से जुड़े हुए हैं उनका कष्ट सहन नहीं कर पाता| देखा जाय तो सारी सृष्टि वास्तव में मुझ से ही जुड़ी है|
यह संसार सचमुच दुःख का सागर है| सुख और दुःख से परे की भी कोई तो स्थिति अवश्य ही होगी? असत्य और अन्धकार की शक्तियाँ ही इस समय छाई हुई हैं| कोई इसे माया कहता है, कोई कुछ और, पर ये भी असत्य नहीं हैं|
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कोई कहता है ...... मनुष्य का अहंकार दुखी है, कोई कर्मों का खेल बताता है, तो कोई कुछ और| दुःखी मनुष्य बेचारा ठगों के चक्कर में पड़ जाता है जो आस्थाओं के नाम पर उसका सब कुछ ठग लेते हैं|
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हे प्रभु, यह सृष्टि तुम्हारी है, यह तुम्हारी ही रचना है और तुम स्वयं ही इसके जिम्मेदार हो| सारे सुख-दुःख तुम्हारे हैं| सबकी रक्षा करो| सबको दुखों से मुक्त करो|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

साधनाओं का पुस्तकीय ज्ञान और गुरु-प्रदत्त ज्ञान ..........

साधनाओं का पुस्तकीय ज्ञान और गुरु-प्रदत्त ज्ञान ..........
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पुस्तकों से और विद्वानों से प्राप्त ज्ञान मात्र बौद्धिक होता है | वह अवचेतन मन में और चित्त में नहीं उतरता |
योग और तंत्र मार्ग में कई साधनाएँ गोपनीय रखी गयी हैं, इसका एकमात्र कारण यह है कि उनका परिणाम दुधारी तलवार की तरह है | उन साधनाओं में साधनाकाल में आचार विचार के बड़े कठोर नियमों जैसे ...यम, नियम...आदि का पालन करना पड़ता है, अन्यथा साधक को कभी ठीक न होने वाली गंभीर दिमागी विकृति हो सकती है | वह आसुरी शक्तियों का एक उपकरण भी बन सकता है | देवता के स्थान पर वह असुर भी बन सकता है | इसलिए पात्रता देखकर ही सद्गुरु शिष्य को उनका ज्ञान देता है और साधनाकाल में सद्गुरु अपने शिष्य की रक्षा भी करता है | मेरा एक सहकर्मी अधिकारी बड़ा प्रखर विद्वान्. चरित्रवान और अच्छा ध्यानयोग साधक था पर कालान्तर में कुसंगति के प्रभाव से आसुरी स्वभाव का होकर एक शराबी, मांसाहारी और परस्त्रीगामी भ्रष्ट असुर हो गया | उसके सारे सद्गुण समाप्त हो गए |
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अपनी बौद्धिक जिज्ञासा को शांत करने के लिए साधनाओं के बारे में जानने में कोई बुराई नहीं है | पर साधना सदा एक ब्रह्मनिष्ठ श्रोत्रिय (जो वेद उपनिषद् आदि श्रुतियों का ज्ञाता और उनका अनुगामी हो) सिद्ध सद्गुरु के मार्गदर्शन में ही आरम्भ करनी चाहिए | सद्गुरु से प्राप्त ज्ञान सीधा गहन चेतना में उतरता है और गुरु का सान्निध्य निरंतर हर प्रकार की भावी विपत्तियों से रक्षा भी करता है |
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भगवान की अहैतुकी भक्ति निरापद है | उसमें कोई खतरा नहीं है | भक्ति के बिना किसी भी मार्ग की साधना सफल नहीं होतीं | भगवान से प्रार्थना करने पर निश्चित रूप से मार्गदर्शन प्राप्त होता है|
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आप सब निजात्माओं को सादर नमन | ॐ नमः शिवाय | ॐॐॐ ||

परमात्मा के लिए एक अभीप्सा यानि एक अतृप्त प्यास सदा ह्रदय में रहे .....

परमात्मा के लिए एक अभीप्सा यानि एक अतृप्त प्यास सदा ह्रदय में रहे .....
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परमात्मा की उपस्थिति का निरंतर आभास रहे| यही उपासना है| उपास्य के गुण उपासक में आये बिना नहीं रहते| परमात्मा की प्राप्ति की तड़प में समस्त इच्छाएँ विलीन हों और अचेतन मन में छिपी वासनाएँ नष्ट हों|
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परमात्मा को पाने की लगन होगी तो प्रकृति पूर्ण सहयोग करेगी| जब भी समय मिले भ्रूमध्य में पूर्ण भक्ति के साथ ध्यान कीजिये| निष्ठा और साहस के साथ हर बाधा को पार करें| अपने आप धीरे धीरे ध्यान का केंद्र सहस्त्रार हो जाएगा|
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परमात्मा से सिर्फ परमात्मा के लिए ही प्रार्थना करें| अन्य प्रार्थनाएँ महत्वहीन हैं| परमात्मा की शक्ति सदा हमारे साथ है| उससे जुड़कर ही हमारे शिव संकल्प पूर्ण हो सकते हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

शुभ काम में देरी ना करो .....

शुभ काम में देरी ना करो .....
जो कल करना है सो आज करो, और जो आज करना है वह अभी करो|
सर्वाधिक शुभ कार्य है ..... भक्तिपूर्वक परमात्मा का ध्यान, जिसे आगे पर ना टालें|
मैं योगमार्ग का एक साधक हूँ अतः वही कहने का प्रयास करता हूँ जो निज जीवन में होता है| बाकी का मुझे कोई ज्ञान नहीं है| लिखने में कई बार अशुद्धि भी हो जाती है, जिसका जब भी अवसर मिलता है संशोधन कर लेता हूँ|
पिछलें कुछ दिनों में कुछ लेखों में चक्रभेद/ग्रंथिभेद आदि की कुछ चर्चाएँ की है| उसी क्रम में आगे की कुछ और चर्चा भी करते हैं|
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कुछ महीनों तक अजपा-जप और ओंकार का ध्यान करते करते साधक को मेरुदंड के निचले भाग में ऐसी अनुभूति होने लगती है जैसे कोई पीछे गुदा से कुछ ऊपर के भाग पर ठोकर मार रहा हो, या कुछ सनसनाहट सी ऊपर की ओर उठ रही हो| यह एक स्वाभाविक अनुभूति है जिसमें घबराने की कोई बात नहीं है| जब साँस लेते हैं तब ऐसे लगता है जैसे कोई विद्युत प्रवाह ऊपर उठ रहा हो, और साँस छोड़ते समय वह प्रवाह नीचे जा रहा हो| कई बार भक्ति के अतिरेक में या किसी महात्मा के सत्संग में ऐसी अनुभूति और भी अधिक प्रबल हो जाती है| यह सुषुम्ना में कुण्डलिनी का जागरण है| >>>>> इसकी किसी से चर्चा भी नहीं करनी चाहिए| यह एक व्यक्तिगत और गोपनीय अनुभूति है|<<<<<
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यह सुषुम्ना में प्राण ऊर्जा का संचलन है| श्वास-प्रश्वास इसी की प्रतिक्रया है| अब साधक की दृष्टी तो भ्रूमध्य पर रहे, चेतना सर्वव्यापी रहे, पर सजगता उस ऊर्जा संचलन पर रहे|
जब हम साइकिल चलाते हैं तब पैडल भी मारते हैं, हेंडल भी पकड़ते हैं, ब्रेक पर अंगुली भी रखते है, सामने भी देखते हैं, और यह भी याद रखते हैं कि कहाँ जाना है| इतने सारे काम एक साथ करने पड़ते हैं अन्यथा हम साइकिल नहीं चला पाएंगे|
वैसे ही यह ध्यान साधना है जिसमें परमात्मा की सर्वव्यापकता का भी ध्यान करते हैं, गुरु प्रदत्त बीज मन्त्र का मानसिक चेतना में जाप भी करते हैं, दृष्टी भ्रूमध्य पर भी रखते हैं, और मेरु दंड में हो रही उठक -पटक के प्रति सजग भी रहते हैं, और प्रेमपूर्वक अपने अहं का समर्पण भी करते हैं| इतने सारे काम एकसाथ करने पड़ते हैं, अन्यथा हम साधना नहीं कर पाएंगे|
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अब प्रयासपूर्वक सुषुम्ना नाड़ी में अपनी चेतना को स्वाभाविक रूप से नाभि से ऊपर के चक्रों में ही रखेंगे| ऐसा करते करते यानि ऐसा बनते बनते हमारी बात बन जायेगी|
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अब और भी आगे की चर्चा करते हैं|
आज्ञाचक्र से सुषुम्ना दो भागों में विभक्त हो जाती है| एक भाग भ्रूमध्य की ओर से सहस्त्रार को जाता है, जो परासुषुम्ना है, और दूसरा भाग सीधा सहस्त्रार की ओर जाता है, वह "उत्तरा सुषुम्ना" है| यह उत्तरा सुषुम्ना का द्वार सिर्फ विशेष गुरुकृपा से ही खुलता है| परमात्मा की कृपा से यदि उत्तरा सुषुम्ना में प्रवेश हो जाए तब चेतना को निरंतर वहीं रखने का प्रयास करन चाहिए|
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गुरुकृपा से जब कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है तब वह मूलाधार से आज्ञाचक्र तक के क्षेत्र में विचरण करती है| आज्ञाचक्र का भेदन होने पर वह भ्रूमध्य से सहस्त्रार में प्रवेश करती है|
उत्तरा सुषुम्ना में जागृत कुण्डलिनी "परम कुण्डलिनी" या "परा कुण्डलिनी" कहलाती है| यह उत्तरा सुषुम्ना का मार्ग महामोक्षदायी और सूर्य की तरह ज्योतिर्मय है| इसमें ब्रह्मा, विष्णु और महादेव की शक्तियाँ निहित हैं| इसमें अपनी चेतना को लाकर साधक साधना द्वारा शिवमय हो सकता है| पर इसमें प्रवेश सिद्ध गुरु की परम कृपा से ही होता है| गुरु शिष्य का परम हितैषी होता है| वह न केवल भगवद्प्राप्ति का मार्ग बताता है, शिष्य की भावी विपत्तियों से रक्षा भी करता है|
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यह साधना स्वभाव बन जानी चाहिए| इस दुःखपूर्ण संसार से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय है ..... स्व-भाव, अर्थात आत्मज्ञान| इस स्वभाव का ही दूसरा नाम है 'चिदाकाश'|
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यहाँ जो बताया गया है वह सिर्फ परिचयात्मक ही है| अब बापस साधना पथ पर लौटेगे| गुरु कृपा से साधना द्वारा ही यहाँ तक पहुँच सकते हैं|
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विषय बहुत लंबा है अतः यहीं विराम दे रहा हूँ| पूर्व जन्मों के अच्छे कर्मों से जब भगवान के प्रति भक्ति जागृत होती है तब भगवान गुरु के रूप में आकर मार्गदर्शन देते हैं और रक्षा भी करते हैं|
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आप सब में हृदयस्थ भगवन नारायण को प्रणाम |
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

भागवत मन्त्र और कुण्डलिनी साधना .....

भागवत मन्त्र और कुण्डलिनी साधना .....
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सामान्यतः योग साधक मूलाधार से सहस्त्रार तक क्रमशः --- लं, वं, रं, यं, हं, ॐ,ॐ, इन बीज मन्त्रों के साथ आरोहण करते हैं और विपरीत क्रम से अवरोहण करते हैं|
भागवत मन्त्र के प्रत्येक अक्षर के साथ प्रत्येक चक्र पर एक निश्चित विधि से (जो सार्वजनिक नहीं की जा सकती) क्रमशः आरोहण और अवरोहण करते हुए जप रुपी प्रहार करने से मेरु दंड में रूद्रग्रंथि, विष्णुग्रन्थि और ब्रह्मग्रन्थि का भेदन होता है| यह अति कठिन कार्य है| प्राण ऊर्जा भी जागृत होकर सुषुम्ना की ब्राह्मी उपनाड़ी में प्रवेश करती है, न कि चित्रा और वज्रा में|
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खेचरी मुद्रा में यदि साधना की जाये तो सफलता अति शीघ्र मिलती है| खेचरी का अभ्यास तो सभी को करना चाहिए| जो खेचरी नहीं कर सकते उन्हें भी ध्यान करते समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर जितना पीछे ले जा सकते हैं रखने का अभ्यास करना चाहिए|
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धीरे धीरे लम्बे अभ्यास के पश्चात चेतना अनाहत चक्र और सहस्त्रार के मध्य ही भ्रमण करने लगती है, नीचे के तीन चक्रों में नहीं उतरती| यह अति उच्च अवस्था है| जो और भी उच्च कोटि के साधक हैं उन की चेतना तो मस्तक ग्रंथि (आज्ञा चक्र) और सहस्त्रार के मध्य ही रहती है|
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मेरा तो व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि श्वास-प्रश्वास के प्रति और मेरुदंड व मस्तिष्क के चक्रों के प्रति सजग रहते हुए भागवत मन्त्र का निरंतर जाप करना चाहिए| यह मैं कोई आस्थावश नहीं बल्कि अपने अनुभव से लिख रहा हूँ| कोई आवश्यक नहीं है आप मेरे से सहमत ही हों|

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जब ओंकार की ध्वनि स्वतः ही सुननी आरम्भ हो जाए तो उसे ही सुनना चाहिए| उसकी भी एक विधि है| गायत्री मन्त्र के जाप की भी एक तांत्रिक विधि है जिससे भी कुंडलिनी जागरण होता है|
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ओंकार से बड़ा कोई मन्त्र नहीं है और आत्मानुसंधान से बड़ा कोई तंत्र नहीं है|
यह लेख मात्र एक परिचयात्मक है, मैं दुबारा कहता हूँ की मात्र परिचयात्मक लेख है पाठकों की रूचि जागृत करने के लिए|
कोई भी आध्यात्मिक साधना हो वह तब तक सफल नहीं होती जब तक आपके ह्रदय में परमात्मा के प्रति परम प्रेम और उसे पाने की अभीप्सा नहीं होती|
मैं आप सब में प्रभु को प्रणाम करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि आप सब में परम प्रेम जागृत हो|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || ॐ ॐ ॐ ||