Sunday 23 October 2016

भागवत मन्त्र और कुण्डलिनी साधना .....

भागवत मन्त्र और कुण्डलिनी साधना .....
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सामान्यतः योग साधक मूलाधार से सहस्त्रार तक क्रमशः --- लं, वं, रं, यं, हं, ॐ,ॐ, इन बीज मन्त्रों के साथ आरोहण करते हैं और विपरीत क्रम से अवरोहण करते हैं|
भागवत मन्त्र के प्रत्येक अक्षर के साथ प्रत्येक चक्र पर एक निश्चित विधि से (जो सार्वजनिक नहीं की जा सकती) क्रमशः आरोहण और अवरोहण करते हुए जप रुपी प्रहार करने से मेरु दंड में रूद्रग्रंथि, विष्णुग्रन्थि और ब्रह्मग्रन्थि का भेदन होता है| यह अति कठिन कार्य है| प्राण ऊर्जा भी जागृत होकर सुषुम्ना की ब्राह्मी उपनाड़ी में प्रवेश करती है, न कि चित्रा और वज्रा में|
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खेचरी मुद्रा में यदि साधना की जाये तो सफलता अति शीघ्र मिलती है| खेचरी का अभ्यास तो सभी को करना चाहिए| जो खेचरी नहीं कर सकते उन्हें भी ध्यान करते समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर जितना पीछे ले जा सकते हैं रखने का अभ्यास करना चाहिए|
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धीरे धीरे लम्बे अभ्यास के पश्चात चेतना अनाहत चक्र और सहस्त्रार के मध्य ही भ्रमण करने लगती है, नीचे के तीन चक्रों में नहीं उतरती| यह अति उच्च अवस्था है| जो और भी उच्च कोटि के साधक हैं उन की चेतना तो मस्तक ग्रंथि (आज्ञा चक्र) और सहस्त्रार के मध्य ही रहती है|
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मेरा तो व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि श्वास-प्रश्वास के प्रति और मेरुदंड व मस्तिष्क के चक्रों के प्रति सजग रहते हुए भागवत मन्त्र का निरंतर जाप करना चाहिए| यह मैं कोई आस्थावश नहीं बल्कि अपने अनुभव से लिख रहा हूँ| कोई आवश्यक नहीं है आप मेरे से सहमत ही हों|

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जब ओंकार की ध्वनि स्वतः ही सुननी आरम्भ हो जाए तो उसे ही सुनना चाहिए| उसकी भी एक विधि है| गायत्री मन्त्र के जाप की भी एक तांत्रिक विधि है जिससे भी कुंडलिनी जागरण होता है|
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ओंकार से बड़ा कोई मन्त्र नहीं है और आत्मानुसंधान से बड़ा कोई तंत्र नहीं है|
यह लेख मात्र एक परिचयात्मक है, मैं दुबारा कहता हूँ की मात्र परिचयात्मक लेख है पाठकों की रूचि जागृत करने के लिए|
कोई भी आध्यात्मिक साधना हो वह तब तक सफल नहीं होती जब तक आपके ह्रदय में परमात्मा के प्रति परम प्रेम और उसे पाने की अभीप्सा नहीं होती|
मैं आप सब में प्रभु को प्रणाम करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि आप सब में परम प्रेम जागृत हो|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || ॐ ॐ ॐ ||

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