Saturday, 29 September 2018

जैसी हमारी श्रद्धा और विश्वास होते है वैसे ही हम बन जाते हैं .....

जैसी हमारी श्रद्धा और विश्वास होते है वैसे ही हम बन जाते हैं .....
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हमारा निर्माण संस्कारों द्वारा होता है| संस्कार चिंतन से बनते हैं| जैसा हमारा चिंतन होता है वैसे ही हम बन जाते हैं| भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं .....
"सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत| श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः||१७:३||"
अर्थात् हे भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व (स्वभाव संस्कार) के अनुरूप होती है| यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है|
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जैसी जिसकी श्रद्धा और विश्वास होता है वैसा ही उसका स्वरूप हो जाता है|
"श्रद" का अर्थ होता है हृदय, और "धा" का अर्थ है जो धारण किया है| जिस भाव को हमने हृदय में धारण किया है वही हमारी श्रद्धा है|
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जिस परमात्मा को हमने वरण कर लिया है उसके अतिरिक्त हृदय में अन्य कोई भी भाव न हो, स्वयं के पृथक अस्तित्व का भी, तभी हम श्रद्धावान हैं| बार बार निरंतर इसका अभ्यास करना पड़ता है|
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मेरे एक सम्बन्धी का छोटा लड़का अपनी लम्बाई में ठिगना था, उसकी लम्बाई नहीं बढ़ रही ही थी| घर में सब उसे छोटू बोलकर बुलाते थे, अतः उसके मन में यह भाव बैठ गया कि मैं सचमुच ही छोटू हूँ, और उसकी लम्बाई बढ़नी बंद हो गयी| एक दिन उसने अपनी व्यथा मुझे बताई| मैंने तुरंत ही उसका नाम बदल कर उत्कर्ष करा दिया और उसे सलाह दी कि वह निरंतर यह भाव रखे कि मैं लंबा हूँ| उसके घर वालों ने भी उसे छोटू बोलना बंद कर दिया| अप्रत्याशित रूप से दो वर्षों में ही उसकी लम्बाई बढ़ कर ४'११" से ५'११" हो गयी|
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इन पंक्तियों के सारे पाठक समझदार और विद्वान हैं, अतः और नहीं लिखना चाहता| जो हमारे हृदय में भाव हैं वे ही हमारी श्रद्धा है, और जो हमारी श्रद्धा है, वही हम हैं| आप सब निजात्माओं को नमन !
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हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२९ सितम्बर २०१८

हमारा जीवन परमात्मा को समर्पित हो .....

हमारा जीवन परमात्मा को समर्पित हो| जीवन जब परमात्मा को समर्पित कर ही दिया है तब कोई चिंता नहीं करनी चाहिए| परमात्मा का ही यह जीवन है अतः वे स्वयं ही इसकी चिंता करें| गीता में भगवान का शाश्वत वचन है .....
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम योग है, और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम क्षेम है| अपने अनन्य भक्तों का ये दोनों ही काम परमात्मा स्वयं करते हैं| अनन्यदर्शी भक्त अपने लिये योगक्षेम सम्बन्धी कोई चेष्टा नहीं करते, क्योंकि जीने और मरने में उनकी आस्था नहीं होती| भगवान ही उनके अवलंबन होते हैं, और भगवान ही उनका योगक्षेम चलाते हैं|
इन फेफड़ों से इन नासिकाओं के माध्यम से भगवान ही सांस ले रहे हैं| इस हृदय में वे ही धड़क रहे हैं| उनका जीवन है, जब तक वे चाहें, तब तक इसे जीयें| जब इस से वे तृप्त हो जाएँ तब इसे समाप्त कर दें| यह उनकी स्वतंत्र इच्छा है, हमारी नहीं|
हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२९ सितम्बर २०१८

साधना गहन हो .....

छोटी-मोटी प्रार्थना, दिखावे की धार्मिकता, गृहस्थ होने की बाध्यता का बहाना, और भी अनेक बहाने, ....... इनका कोई लाभ नहीं है| सप्ताह में कम से कम एक दिन तो ऐसा हमें निकालना चाहिए जिसमें कई घंटों तक हम परमात्मा की गहराई से डूब सकें| परमात्मा के आनंद का आभास इतना घना है कि उसको सहन करने का अभ्यास करना पड़ता है| एक असंयमी भोगी व्यक्ति उसे सहन नहीं कर सकता| मैं यहाँ जो कहना चाहता हूँ उसे निश्चित रूप से इन पंक्तियों को पढ़ने वाले समझ चुके हैं|
हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२९ सितम्बर २०१८

अगले वर्ष के अंत से पूर्व ही महा विनाश का समय आने वाला है जो सब कुछ बदल देगा ....

अगले वर्ष के अंत से पूर्व ही महा विनाश का समय आने वाला है जो सब कुछ बदल देगा ....
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म्लेच्छ अतृप्त सुक्ष्म आत्माओं का एक भयानक समुह पुरे देश में जनमानस के मन मस्तिष्क को प्रभावित कर रहा है| उनका विनाश सात्विक यज्ञ से ही होगा|
भारत में एक दैवीय सत्ता ही महाविनाश के स्वरूप को बदल रही है| अन्यथा आज जो सीरिया में हो रहा है, वह इस देश में कब का हो चुका होता| एक आध्यात्मिक शक्ति भारत की रक्षा कर रही है|
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भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री को भी आने वाले संकट और भारत पर उसके पड़ने वाले प्रभाव का पता है| इसीलिये सेना को सशक्त बनाया जा रहा है|
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ऊँट किस करवट बैठेगा कुछ कहा नहीं जा सकता पर भूमिका बन रही है|

हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् !
२९ सितम्बर २०१८

पंडित शिवराम भक्त जनेऊधारी .....

आजकल एक राजनेता स्वयं को पंडित शिव/रामभक्त जनेऊधारी कहते हैं| इनके पिताजी एक रोमन कैथोलिक ईसाई थे, जिनका विवाह इटली के एक चर्च में रोबर्टो नाम से एन्टोनिया माईनो से हुआ जो उस समय इटली की नागरिक थी| बाद में इनका विवाह वैदिक विधी से इलाहाबाद की एक प्रसिद्ध महिला ने अपने घर पर करवाया था| ये जो पढाई करने केम्ब्रीज़ गए थे वह तो कभी पूरी कर नहीं पाए और जिस दारूखाने में दारू पीते थे वहाँ दारू पिलाने वाली इटालियन बार गर्ल एंटोनिया माईनो को अपना दिल दे बैठे, जो उन्हें इटली ले गयी और एक चर्च में विवाह कर लिया| दिल्ली के एक चर्च में इन्होनें ईसाई दंपत्ति के रूप में अपने विवाह का पंजीकरण भी करवाया था| जनेऊधारी पंडित जी के दादा ज़नाब फ़िरोज़ खान पुत्र ज़नाब नवाब अली खान थे| इनकी कब्रें इलाहाबाद में हैं| 

क्या ये शिव/राम भक्त पंडित जनेऊधारी जी बताएँगे कि उनका ऋषिगौत्र और प्रवर क्या है? इनका वेद कौन सा है? कौन सी उनके वेद की शाखा और सूत्र है? इनके पूर्वजों का मूल स्थान कौन सा है? किस पंडित ने किस वर्ष में उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया था? क्या उन्हें संध्या विधि और गायत्री मंत्र का ज्ञान है? क्या वे किसी ब्राहमणोचित कर्म का पालन करते हैं?

हिन्दुओं में एक सर्वमान्य मूलभूत साधना पद्धति हो .....

मेरे विचार से सभी हिन्दुओं के लिए एक सर्वमान्य अविवादित मूलभूत साधना पद्धति ..... (१) सूर्य नमस्कार व्यायाम, (२) अनुलोम-विलोम प्राणायाम, (३) भगवान के अपने प्रियतम रूप का जप, ध्यान और भजन-कीर्तन ही हो सकती है| इसका अंतिम निर्णय तो सभी धर्माचार्य आपस में मिल कर करें| जैसे एक सामान्य नागरिक संहिता की बात कही जाती है, वैसे ही एक सामान्य मूलभूत साधना पद्धति भी सभी हिन्दुओं की होनी चाहिए|
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मैनें व्यवहारिक रूप से देखा है कि धर्म-शिक्षण के अभाव और आज के भागदौड़ के जीवन में विधिवत संध्या कर पाना असंभव है| अधिकाँश ब्राह्मणों को ही संध्या विधि का ज्ञान नहीं है| अंग्रेजी शिक्षा के कारण संस्कृत का शुद्ध उच्चारण और मन्त्र पढ़ना ब्राह्मण ही भूल रहे हैं| जो संध्या कर सकते हैं उन्हें संध्या करनी चाहिए| संधिक्षणों में की हुई साधना संध्या कहलाती है| चार सन्धिक्षण आते हैं ... प्रातः, सायं, मध्याह्म और मध्यरात्री| पर सबसे महत्वपूर्ण सन्धिक्षण है .... दो साँसों के मध्य का समय|
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जो लोग गुरूकुलों में पढ़े हैं उन्हें ही संस्कृत का सही उच्चारण आता है| बड़े बड़े पंडित भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ाते हैं जहाँ उन्हें कोई भारतीय संस्कार नहीं मिलते| वे पंडित भी अपने बालकों को संध्यादि कर्म नहीं सिखाते, यह हमारा दुर्भाग्य ही है| रही बात गुरुकुलों की तो दो ही तरह के बच्चे गुरुकुलों में भेजे जाते हैं ..... या तो जिनके माँ-बाप अत्यंत गरीब होते हैं, या किसी कारण से बच्चे अन्य विद्यालयों में पढ़ नहीं पाते| यह बात मैं व्यवहारिक रूप से कुछ गुरुकुलों को देख कर ही कह रहा हूँ| जो भी वर्तमान परिस्थिति में सर्वश्रेष्ठ है वह हमें करना चाहिए| अंतिम निर्णय तो धर्माचार्य ही करेंगे| कुम्भ के मेलों में सभी धर्माचार्यों को एक मंच पर आसीन होकर धर्म रक्षा के लिए विचार विमर्श करना चाहिए और एकमत से धर्मादेश देने चाहिएँ| साभार धन्यवाद !
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पुनश्चः : --- भारत में जितने भी मत-मतान्तरों और पंथों का जन्म हुआ है, उनमें ये तथ्य सर्वमान्य हैं ..... (१) आत्मा की शाश्वतता, (२) पुनर्जन्म, (३) कर्म फलों का सिद्धांत, (४) हठयोग के आसन, प्राणायाम आदि और (५) जप, कीर्तन और ध्यान| एक सामान्य मूलभूत साधना पद्धति भी सभी हिन्दुओं की होनी ही चाहिए|

श्राद्ध के बारे में यह मेरा एक निजी विचार है .....

श्राद्ध के बारे में यह मेरा एक निजी विचार है .....
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सिद्ध गुरु द्वारा प्रदत्त विधि से बीजमंत्रों का प्रयोग करते हुए निज चेतना और चंचल प्राण को बार बार मूलाधार चक्र से उठाकर सुषुम्ना मार्ग से होते हुए आज्ञाचक्र का भेदन कर उत्तरा सुषुम्ना में ज्योतिर्मय ब्रह्म परमात्मा को अर्पित करना भी पिण्डदान और तर्पण है| उत्तरा सुषुम्ना में ध्यान करने से प्राण तत्व की चंचलता धीरे धीरे कम होने लगती है और मन नियंत्रित होने लगता है जिससे दारुण दुःखदायी काम, क्रोध व लोभ आदि का शमन होने लगता है|
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लौकिक श्राद्ध तो करें ही पर वास्तविक संतुष्टि तो आत्मतत्व पर ध्यान से ही मिलती है| आत्मतत्व में स्थिति ही मेरी सीमित समझ से परमात्मा का साक्षात्कार है| यह हमारा सर्वोपरी दायित्व व सर्वोच्च सेवा है| इस से स्वतः ही सभी पित्तरों का उद्धार हो जाता है| आत्मतत्व में स्थिति ही हमारा परमधर्म है|
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जिन के विचार नहीं मिलते वे अपना समय नष्ट न करते हुए मेरी उपेक्षा कर दें और अपनी अपनी मान्यता पर दृढ़ रहें| किसी उग्र प्रतिक्रिया की आवश्यकता नहीं है|
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आप सब निजात्मगण को नमन ! हरि ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२८ सितम्बर २०१८
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पुनश्च: ---
इस शरीर को पिण्ड कहते हैँ। इसे परमात्मा को अर्पण करना ही पिण्डदान है । यही निश्चय करना है कि मुझे अपना जीवन ईश्वर को अर्पित करना है । जो अपना जीवन ईश्वर को समर्पित करता है उसी का जीवन सार्थक है और उसी का पिण्डदान सच्चा है ।
जीवन मृत्यु के त्रास से छुड़ाने वाला केवल सत्कर्म ही है और वह सत्कर्म भी अपना ही किया हुआ स्वयं ही अपनी आत्मा का उद्धार करता है । जीव स्वयं ही अपना उद्धार कर सकता है । श्रीगीता मेँ स्पष्ट कहा - "उद्धरेदात्मानाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।"
स्वयं अपने द्वारा ही अपनी आत्मा का संसार सागर से उद्धार करना है और अपनी आत्मा को अधोगति की ओर नही जाने देना है । ईश्वर के जो जीता है उसे मुक्ति अवश्य मिलती है । श्रुति भगवती कहती है - जब तक ईश्वर का अपरोक्ष अनुभव न हो , ज्ञान न हो तब तक मुक्ति नहीँ मिलती । मृत्यु के पहले जो भगवान का अनुभव करते हैँ , उन्हेँ ही मुक्ति मिलती है । परमात्मा के अपरोक्ष साक्षात्कार बिना मुक्ति नहीँ मिलती ।
"तमेव विदित्वादि मृत्युमेति नान्यः पंथा विद्यतेष्यनाय "
ईश्वर को जानकर ही हम मृत्यु का उल्लंघन कर पायेगे है । परमपद की प्राप्ति हेतु इसके अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीँ है । श्रीभगवान को जाने बिना कोई दूसरा उपाय नहीँ है । अन्यथा केवल श्राद्ध करने से कोई मुक्ति नहीँ मिलती । अपने पिण्ड का दान करने अर्थात् अपने शरीर को ही श्रीपरमात्मा को अर्पण करने से हमारा कल्याण होगा ।
अपना पिण्डदान हमे स्वयं अपने हाथोँ से ही करना होगा यही उत्तम होगा । जो पिण्ड मेँ है वही ब्रह्माण्ड मेँ है । हमे यह निश्चय करना चाहिए कि इस शरीर रुपी पिण्ड श्रीपरमात्मा को अर्पण करना है ।

मोक्ष के मार्ग पर हम अकेले ही हैं, अकेले ही हमें चलना पडेगा .....

मोक्ष के मार्ग पर हम अकेले ही हैं, अकेले ही हमें चलना पडेगा .....
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"आत्मतत्व" का जो बोध कराये वह "विद्या" है| विद्या हमें सब दुःखों, कष्टों व पीड़ाओं से "मुक्त" कराती है| विद्या हमें अज्ञान से "मुक्त" करती है| अन्य सब जिसे हम संसार में ज्ञान कहते हैं, वह "अविद्या" है|
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"समत्व" में स्थिति ही वास्तविक "ज्ञान" है| समत्व का अभाव ही "अज्ञान" है| इन्द्रिय सुखों की ओर प्रवृति हमारा अज्ञान है जो हमें परमात्मा से दूर करता है| परमात्मा से दूरी ही हमारे सब दुःखों का कारण है| एक ही अविनाशी परम तत्त्व का सर्वत्र दर्शन हमें समत्व में स्थित करता है|
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हम ने जन्म लिया था परमात्मा की प्राप्ति के लिए, पर कुबुद्धि से कुतर्क कर के स्वयं को तो भटका ही रहे हैं, अहंकारवश औरों को भी भटका रहे हैं| हम जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त होने का उपाय न करने के लिए तरह तरह के बहाने बनाते हैं| सही शिक्षा जो हमें आत्मज्ञान की ओर प्रवृत करती है, उसको हमने साम्प्रदायिक और पुराने जमाने की बेकार की बात बताकर हीन मान लिया है|
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हम जहाँ भी हैं, वहीं से परमात्मा की ओर उन्मुख हो जाएँ तो निश्चित रूप से मार्गदर्शन मिलेगा| परमात्मा की ओर उन्मुख तो होना ही पडेगा, आज नहीं तो फिर किसी अन्य जन्म में| अभी सुविधाजनक नहीं है तो अगले जन्मों की प्रतीक्षा करते रहिये|
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मनुष्य द्वारा बनाए गए नियम परिवर्तित हो सकते हैं, पर परमात्मा द्वारा बनाए गए नियम सदा अपरिवर्तनीय हैं| जैसे सत्य बोलना, परोपकार करना आदि पहले पुण्य थे तो आज भी पुण्य हैं| झूठ बोलना, चोरी करना, हिंसा करना पाप था तो आज भी पाप है| परमात्मा के बनाए हुए नियम अटल हैं, और पूरी प्रकृति उनका पालन कर रही है|
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दुःखों से निवृति ही "मोक्ष" है| मोक्ष के मार्ग पर हमें अकेले ही चलना पड़ता है| ॐ तत्सत् !
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आप सभी निजात्म गणों को सप्रेम नमन !
कृपा शंकर
२७ सितम्बर २०१८

योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय की पुण्य तिथि .....

पुराण-पुरुष योगिराज श्री श्री श्याचरण लाहिड़ी महाशय (३० सितम्बर १८२८ – २६ सितम्बर १८९५ ) की आज १२३ वीं पुण्यतिथि है| जीवात्मा कभी मरती नहीं है, सिर्फ अपना चोला बदलती है| भगवान श्रीकृष्ण का वचन है ....
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ||२:२२||"
अर्थात् जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है|
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जीवात्मा सदा शाश्वत है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ...
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः|
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः||२:२३||"
अर्थात् इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।।
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भगवान श्रीकृष्ण ने ही कहा है ....
"न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः|
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे||२:२०||"
अर्थात् यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है| यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है| शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता||
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पुराण-पुरुष योगिराज श्री श्री लाहिड़ी महाशय अपनी देहत्याग के दूसरे दिन प्रातः दस बजे दूरस्थ अपने तीन शिष्यों के समक्ष एक साथ एक ही समय में अपनी रूपांतरित देह में यह बताने को साकार प्रकट हुए कि उन्होंने अपनी उस भौतिक देह को त्याग दिया है, और उन्हें उनके दर्शनार्थ काशी आने की आवश्यकता नहीं है| उनके साथ उन्होंने और भी बातें की| समय समय पर उन्होंने अपने अनेक शिष्यों के समक्ष प्रकट होकर उन्हें साकार दर्शन दिए हैं| विस्तृत वर्णन उनकी जीवनियों में उपलब्ध है|
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सचेतन देहत्याग के पूर्व उन्होंने कई घंटों तक गीता के श्लोकों की व्याख्या की और अचानक कहा कि "मैं अब घर जा रहा हूँ"| यह कह कर वे अपने आसन से उठ खड़े हुए, तीन बार परिक्रमा की और उत्तराभिमुख हो कर पद्मासन में बैठ गए और ध्यानस्थ होकर अपनी नश्वर देह को सचेतन रूप से त्याग दिया| पावन गंगा के तट पर मणिकर्णिका घाट पर गृहस्थोचित विधि से उनका दाह संस्कार किया गया| वे मनुष्य देह में साक्षात शिव थे|
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ऐसे महान गृहस्थ योगी को नमन ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ सितम्बर २०१८