जैसी हमारी श्रद्धा और विश्वास होते है वैसे ही हम बन जाते हैं .....
.
हमारा निर्माण संस्कारों द्वारा होता है| संस्कार चिंतन से बनते हैं| जैसा हमारा चिंतन होता है वैसे ही हम बन जाते हैं| भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं .....
"सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत| श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः||१७:३||"
अर्थात् हे भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व (स्वभाव संस्कार) के अनुरूप होती है| यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है|
.
जैसी जिसकी श्रद्धा और विश्वास होता है वैसा ही उसका स्वरूप हो जाता है|
"श्रद" का अर्थ होता है हृदय, और "धा" का अर्थ है जो धारण किया है| जिस भाव को हमने हृदय में धारण किया है वही हमारी श्रद्धा है|
.
जिस परमात्मा को हमने वरण कर लिया है उसके अतिरिक्त हृदय में अन्य कोई भी भाव न हो, स्वयं के पृथक अस्तित्व का भी, तभी हम श्रद्धावान हैं| बार बार निरंतर इसका अभ्यास करना पड़ता है|
.
मेरे एक सम्बन्धी का छोटा लड़का अपनी लम्बाई में ठिगना था, उसकी लम्बाई नहीं बढ़ रही ही थी| घर में सब उसे छोटू बोलकर बुलाते थे, अतः उसके मन में यह भाव बैठ गया कि मैं सचमुच ही छोटू हूँ, और उसकी लम्बाई बढ़नी बंद हो गयी| एक दिन उसने अपनी व्यथा मुझे बताई| मैंने तुरंत ही उसका नाम बदल कर उत्कर्ष करा दिया और उसे सलाह दी कि वह निरंतर यह भाव रखे कि मैं लंबा हूँ| उसके घर वालों ने भी उसे छोटू बोलना बंद कर दिया| अप्रत्याशित रूप से दो वर्षों में ही उसकी लम्बाई बढ़ कर ४'११" से ५'११" हो गयी|
.
इन पंक्तियों के सारे पाठक समझदार और विद्वान हैं, अतः और नहीं लिखना चाहता| जो हमारे हृदय में भाव हैं वे ही हमारी श्रद्धा है, और जो हमारी श्रद्धा है, वही हम हैं| आप सब निजात्माओं को नमन !
.
हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२९ सितम्बर २०१८
.
हमारा निर्माण संस्कारों द्वारा होता है| संस्कार चिंतन से बनते हैं| जैसा हमारा चिंतन होता है वैसे ही हम बन जाते हैं| भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं .....
"सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत| श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः||१७:३||"
अर्थात् हे भारत सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके सत्त्व (स्वभाव संस्कार) के अनुरूप होती है| यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जिस श्रद्धा वाला है वह स्वयं भी वही है|
.
जैसी जिसकी श्रद्धा और विश्वास होता है वैसा ही उसका स्वरूप हो जाता है|
"श्रद" का अर्थ होता है हृदय, और "धा" का अर्थ है जो धारण किया है| जिस भाव को हमने हृदय में धारण किया है वही हमारी श्रद्धा है|
.
जिस परमात्मा को हमने वरण कर लिया है उसके अतिरिक्त हृदय में अन्य कोई भी भाव न हो, स्वयं के पृथक अस्तित्व का भी, तभी हम श्रद्धावान हैं| बार बार निरंतर इसका अभ्यास करना पड़ता है|
.
मेरे एक सम्बन्धी का छोटा लड़का अपनी लम्बाई में ठिगना था, उसकी लम्बाई नहीं बढ़ रही ही थी| घर में सब उसे छोटू बोलकर बुलाते थे, अतः उसके मन में यह भाव बैठ गया कि मैं सचमुच ही छोटू हूँ, और उसकी लम्बाई बढ़नी बंद हो गयी| एक दिन उसने अपनी व्यथा मुझे बताई| मैंने तुरंत ही उसका नाम बदल कर उत्कर्ष करा दिया और उसे सलाह दी कि वह निरंतर यह भाव रखे कि मैं लंबा हूँ| उसके घर वालों ने भी उसे छोटू बोलना बंद कर दिया| अप्रत्याशित रूप से दो वर्षों में ही उसकी लम्बाई बढ़ कर ४'११" से ५'११" हो गयी|
.
इन पंक्तियों के सारे पाठक समझदार और विद्वान हैं, अतः और नहीं लिखना चाहता| जो हमारे हृदय में भाव हैं वे ही हमारी श्रद्धा है, और जो हमारी श्रद्धा है, वही हम हैं| आप सब निजात्माओं को नमन !
.
हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् ! हरि ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२९ सितम्बर २०१८