Saturday 30 September 2017

मेरी दृष्टी में भारत की सभी समस्याएँ और उन सब का समाधान :---

मेरी दृष्टी में भारत की सभी समस्याएँ और उन सब का समाधान :---
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भारत की एकमात्र समस्या राष्ट्रीय चरित्र की है | यह कोई गहरी समस्या नहीं है | इसका समाधान भी कोई जटिल नहीं है | इसके अतिरिक्त भारत की अन्य कोई समस्या नहीं है | जब राष्ट्रीय चरित्र जागृत होगा तो अन्य सब समस्याएँ तिरोहित हो जायेंगी |
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इसका समाधान बाहर नहीं बल्कि प्रत्येक भारतीय के भीतर है | इसे जानने के लिए सबसे पहिले प्रखर राष्ट्रवाद को जगाना होगा | यदि मैं यह कहूँ कि भारत की सभी समस्याओं के समाधान के लिए सबसे पहली आवश्यकता 'हिन्दू राष्ट्रवाद' है तो मैं गलत नहीं हूँ | यहाँ हिंदुत्व से मेरा अभिप्राय एक ऊर्ध्वमुखी चेतना से है | हिंदुत्व एक ऊर्ध्वमुखी वैचारिक चेतना है जो मनुष्य को देवत्व की ओर अग्रसर करती है | ऐसे लोगों की भूमि ही 'भारतवर्ष' है |
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भारतीयों के स्वाभिमान को जगाने की सबसे पहली आवश्यकता है | भारत का वर्तमान इतिहास तो भारत के शत्रुओं का लिखा हुआ है | भारत के सही इतिहास की जानकारी सबको देना सबसे पहली सीढ़ी है | अनेक संस्थाएँ इस कार्य में लगी हुई हैं | भारत का सही इतिहास सबको पढ़ाया जाए तो भारतीयों में एक निज गौरव और स्वाभिमान की भावना जागृत होगी | जब प्रत्येक भारतीय में स्वाभिमान जागृत होगा तभी उनका सर्वश्रेष्ठ बाहर आयेगा |
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विश्व के जितने भी देशों ने प्रगति की है उसके पीछे मूल कारण उनका राष्ट्रवाद था | अन्य देशों का राष्ट्रवाद उनके पड़ोसियों के लिए घातक रहा है पर भारत का राष्ट्रवाद समस्त सृष्टि के लिए कल्याणकारी होगा क्योंकि भारतीय दर्शन सबके कल्याण की कामना करता है और सर्वस्व में वासुदेव के दर्शन कराता है |
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भारत का भविष्य भारत के प्रखर राष्ट्रवाद में है, पूरी पृथ्वी का भविष्य भारत के भविष्य पर निर्भर है, और पूरी सृष्टि का भविष्य पृथ्वी के भविष्य पर निर्भर है क्योंकि इस पृथ्वी पर भारत में ही परमात्मा की अभिव्यक्ति सर्वाधिक हुई है | अगर भारत का अभ्युदय नहीं हुआ तो इस विश्व का सम्पूर्ण विनाश निश्चित है | सिर्फ और सिर्फ हिंदुत्व ही इस विनाश से रक्षा कर सकता है | यहाँ मैं यह भी कहना चाहूँगा की भारतवर्ष कोई भूखंड नहीं है यह हमारी साक्षात् माता है | भारतवर्ष ही सनातन धर्म है जिस पर सारी सृष्टि टिकी हुई है और सनातन धर्म ही भारतवर्ष है | जो भी संस्थाएँ इस दिशा में जुटी हुई हैं वे सब सही कार्य कर रही हैं | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
३० सितम्बर २०१३

एक महान आदर्श गृहस्थ योगी .......

एक महान आदर्श गृहस्थ योगी .......
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पुराण पुरुष योगिराज श्री श्री पं.श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय का जन्म सन ३० सितम्बर १८२८ ई. को कृष्णनगर (बंगाल) के समीप धुरनी ग्राम में हुआ था| इनके परम शिवभक्त पिताजी वाराणसी में आकर बस गए थे| श्यामाचरण ने वाराणसी के सरकारी संस्कृत कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की| संस्कृत के अतिरिक्त अंग्रेजी, बंगला, उर्दू और फारसी भाषाएं सीखी| पं.नागभट्ट नाम के एक प्रसिद्ध शास्त्रज्ञ महाराष्ट्रीय पंडित से इन्होनें वेद, उपनिषद और अन्य शास्त्रों व धर्मग्रंथों का अध्ययन किया|
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पं.देवनारायण सान्याल वाचस्पति की पुत्री काशीमणी से इनका १८ वर्ष की उम्र में विवाह हुआ| २३ साल की उम्र में इन्होने सरकारी नौकरी कर ली| उस समय सरकारी वेतन अत्यल्प होता था अतः घर खर्च पूरा करने के लिये ये नेपाल नरेश के वाराणसी में अध्ययनरत पुत्र को गृहशिक्षा देने लगे| तत्पश्चात काशीनरेश के पुत्र और अन्य कई श्रीमंत लोगों के पुत्र भी इनसे गृहशिक्षा लेने लगे|
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हिमालय में रानीखेत के समीप द्रोणगिरी पर्वत की तलहटी में इनको गुरुलाभ हुआ| इनके गुरू हिमालय के अमर संत महावतार बाबाजी थे जो आज भी सशरीर जीवित हैं और अपने दर्शन उच्चतम विकसित आत्माओं को देते हैं| गुरू ने इनको आदर्श गृहस्थ के रूप में रहने का आदेश दिया और ये गृहस्थी में ही रहकर संसार का कार्य करते हुए कठोर साधना करने लगे|
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जैसे फूलों की सुगंध छिपी नहीं रह सकती वैसे ही इनकी प्रखर तेजस्विता छिपी नहीं रह सकी और अनेक मुमुक्षुगण इनके पास आने लगे| ये अपने गृहस्थ शिष्यों को गृहस्थाश्रम में ही रहकर साधना करने का आदेश देते थे क्योंकि गृहस्थाश्रम पर ही अन्य आश्रम निर्भर हैं| इनके शिष्यों में अनेक प्रसिद्ध सन्यासी भी थे जैसे स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरी, स्वामी केशवानंद ब्रह्मचारी, स्वामी प्रणवानंद गिरी, स्वामी केवलानंद, स्वामी विशुद्धानंद सरस्वती, स्वामी बालानंद ब्रह्मचारी आदि|
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कश्मीर नरेश, काशी नरेश और बर्दवान नरेश भी इनके शिष्य थे| इसके अतिरिक्त उस समय के अनेक प्रसिद्ध व्यक्ति जो कालांतर में प्रसिद्ध योगी भी हुए इनके शिष्य थे जैसे पं.पंचानन भट्टाचार्य, पं.भूपेन्द्रनाथ सान्याल, पं.काशीनाथ शास्त्री, पं.नगेन्द्रनाथ भादुड़ी, पं.प्रसाद दास गोस्वामी, रामगोपाल मजूमदार आदि| सामान्य लोगों के लिये भी इनके द्वार खुले रहते थे| वाराणसी में वृंदाभगत नाम के इनके एक डाकिये शिष्य ने कठोर साधना द्वारा योग की परम सिद्धियाँ प्राप्त की थीं|
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लाहिड़ी महाशय ने न तो कभी किसी संस्था की स्थापना की, न कोई आश्रम बनवाया, न कभी कोई सार्वजनिक प्रवचन दिया और न कभी किसी से कुछ रुपया पैसा माँग कर लिया| अपने घर की बैठक में ही पद्मासन में बैठ कर शाम्भवी मुद्रा में साधनारत रहते थे और अपना सारा खर्च अपनी अत्यल्प पेंशन और बच्चों को गृहशिक्षा देकर पूरा करते थे|
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ये गुरूदक्षिणा में मिले सारे रुपयों को अपने किसी भी निजी काम में न लेकर हिमालय के साधुओं की सेवा में उनकी आवश्यकता पूर्ति हेतु भिजवा दिया करते थे| इनके घर में शिवपूजा और गीतापाठ नित्य होता था| शिष्यों के लिये नित्य गीतापाठ अनिवार्य था| अपना सारा रुपया पैसा ये अपनी पत्नी को दे दिया करते और अपने पास कुछ भी नहीं रखते थे| अपनी डायरी बंगला भाषा में नित्य लिखते थे| शिष्यों को दिए प्रवचनों को इनके एक शिष्य पं.भूपेन्द्रनाथ सान्याल बंगला भाषा में लिपिबद्ध कर लेते थे| उनका सिर्फ वह ही साहित्य उपलब्ध है|
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सन २६ सितम्बर १८९५ ई. को इन्होने कई घंटों तक अपने शिष्यों को गीता के कई गूढ़ श्लोकों की व्याख्या की और पद्मासन में ध्यानस्थ होकर सचेतन देहत्याग किया| इनका अंतिम संस्कार एक गृहस्थ का ही हुआ| शरीर छोड़ने के दूसरे दिन तीन विभिन्न स्थानों पर एक ही समय में इन्होने अपने तीन शिष्यों को सशरीर दर्शन दिए और अपने प्रयाण की सूचना दी| इनके देहावसान के ९० वर्ष बाद इनके पोते ने इनकी डायरियों के आधार पर इनकी जीवनी लिखी| इसके अतिरिक्त स्वामी सत्यानन्द गिरी ने भी बंगला भाषा में इनकी जीवनी लिखी थी| इनके कुछ साहित्य का तो हिंदी, अंग्रेजी और तेलुगु भाषाओँ में अनुवाद हुआ है, बाकी बंगला भाषा में ही है|
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अंग्रेजी तिथि के अनुसार आज उनकी १८९वीं जयंती पर ऐसे महान आदर्श गृहस्थ योगी को कोटि कोटि नमन !
ॐ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं, भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ||
ॐ ॐ ॐ ||
 आश्विन शु.१०, वि.सं.२०७४
३० सितम्बर २०१७
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पुनश्चः :----
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हरेक गृहस्थ व्यक्ति का एक सामान्य प्रश्न कि घर-गृहस्थी का, कमाने खाने का झंझट ---- और इन सब के बाद कैसे साधना करें ? श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय ने अपने जीवन से इस प्रश्न का उत्तर दिया| एक अति अल्प वेतन वाली नौकरी करते हुए, घर पर बच्चों को गृह शिक्षा देते हुए प्राप्त हुए कुछ रुपयों से घर का खर्चा चलाया| कभी किसी से कुछ नहीं लिया| काशी, बर्दवान और कश्मीर नरेश उनके शिष्य थे जिनसे वे कुछ भी ले सकते थे, पर कभी कुछ नहीं लिया| गुरुदक्षिणा में प्राप्त रुपये भी हिमालय में तपस्यारत साधुओं की सेवा में भिजवा देते थे| सामाजिक कार्यों में संलग्न रहते थे पर एक क्षण भी नष्ट नहीं करते थे| समय मिलते ही पद्मासन में बैठकर ध्यानस्थ हो जाते थे| नींद की आवश्यकता उनकी देह को नहीं थी| पूरी रात उनकी बैठक में पूरे भारत से खिंचे चले आये साधक और भक्त भरे रहते थे| एक आदर्श गृहस्थ योगी का जीवन उन्होंने जीया जिसने हज़ारो लोगों को प्रेरणा दी|
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परमहंस योगानंद ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक "योगी कथामृत" के एक पूरे अध्याय में उनका जीवन चरित्र लिखा है| श्री अशोक कुमार चट्टोपाध्याय द्वारा लिखित "पूराण पुरुष" नामक पुस्तक में भी उनकी प्रामाणिक जीवनी और उपदेश उपलब्ध हैं| उनके श्री चरणों में कोटि कोटि प्रणाम| उनकी कृपा सदा बनी रहे|
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मुकुंद लाल घोष का जन्म इनके आशीर्वाद से ही हुआ था| मुकुंद लाल घोष ही कालान्तर में परमहंस योगानंद के नाम से विश्व प्रसिद्ध हुए |

सभी हिन्दुओं के लिए एक सर्वमान्य मूलभूत साधना पद्धति क्या हो सकती है ? ....

सभी हिन्दुओं के लिए एक सर्वमान्य मूलभूत साधना पद्धति क्या हो सकती है ?
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मेरे विचार से .... (१) सूर्य नमस्कार व्यायाम, (२) अनुलोम-विलोम प्राणायाम, (३) गायत्री मन्त्र का जप, और (४) ओंकार पर ध्यान, ...... ये सर्वमान्य हो सकते हैं. इन पर कोई विवाद नहीं है.
जैसे एक सामान्य नागरिक संहिता की बात कही जाती है, वैसे ही सामान्य मूलभूत साधना पद्धति भी सभी हिन्दुओं की होनी चाहिए.
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भारत में जितने भी मत-मतान्तरों और पंथों का जन्म हुआ है, उनमें ये तथ्य सर्वमान्य हैं .....
(१) आत्मा की शाश्वतता, (२) पुनर्जन्म, और (३) कर्म फलों का सिद्धांत |
इनकी तरह सभी भारतीय साधना पद्धतियों में भी अनेक समानताएँ हैं जिन पर बिना किसी पूर्वाग्रह के विचार विमर्श कर के हमें समान बिन्दुओं को निर्धारित कर एक सर्वमान्य मूलभूत साधना पद्धति का भी निर्णय करना चाहिए| यह कार्य सभी धर्माचार्य ही मिलकर कर सकते हैं|
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कुछ सामान बिंदु हैं जिनका कोई विरोध नहीं है, जैसे .....
(१) हठयोग के आसन, प्राणायाम आदि |
(२) जप, कीर्तन और ध्यान |
जिस तरह एक सामान्य नागरिक संहिता की बात कही जाती है, उसी तरह एक सामान्य मूलभूत साधना पद्धति भी सभी हिन्दुओं की होनी ही चाहिए |

ॐ ॐ ॐ !!

Tuesday 26 September 2017

सृष्टिकर्ता के बनाए नियम अपरिवर्तनीय हैं ......

सृष्टिकर्ता के बनाए नियम अपरिवर्तनीय हैं ......
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मनुष्य द्वारा बनाए गए नियम परिवर्तित हो सकते हैं, पर परमात्मा द्वारा बनाए गए नियम सदा अपरिवर्तनीय हैं| जैसे सत्य बोलना, परोपकार करना आदि पहले पुण्य थे तो आज भी पुण्य हैं| झूठ बोलना, चोरी करना, हिंसा करना पाप था तो आज भी पाप है| परमात्मा के बनाए हुए नियम अटल हैं, और पूरी प्रकृति उनका पालन कर रही है|
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हम ने जन्म लिया था परमात्मा की प्राप्ति के लिए, पर कुबुद्धि से कुतर्क कर के स्वयं को तो भटका ही रहे हैं, अहंकारवश औरों को भी भटका रहे हैं| हम जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त होने का उपाय न करने के लिए तरह तरह के बहाने बना रहे हैं| सही शिक्षा जो हमें आत्मज्ञान की और प्रवृत करती है, उसको हमने साम्प्रदायिक और पुराने जमाने की बेकार की बात बताकर हीन मान लिया है|
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हम जहाँ भी हैं, वहीं से परमात्मा की ओर उन्मुख हो जाएँ निश्चित रूप से मार्गदर्शन मिल सकता है| परमात्मा की ओर उन्मुख तो होना ही पडेगा, आज नहीं तो फिर किसी अन्य जन्म में| अभी सुविधाजनक नहीं है तो अगले जन्मों की प्रतीक्षा करते रहिये| शुभ कामनाएँ| 

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ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
२७ सितम्बर २०१७

हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ?......

हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ?......
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योगिराज श्री श्री श्याचरण लाहिड़ी महाशय (30 सितम्बर 1828 – 26 सितम्बर 1895) की आज १२२ वीं पुण्यतिथि है| मैं उन्हीं की क्रियायोग मार्ग की परम्परा में दीक्षित हूँ, अतः निम्न पंक्तियाँ उन्हें प्रणाम निवेदित करता हुआ उन की पुण्य स्मृति में लिख रहा हूँ .....
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हे मृत्यु, तेरी विजय कहाँ है ? हे मृत्यु, तेरा दंश कहाँ है ? जीवन और मृत्यु दोनों ही प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं| कभी प्रकाश हावी हो जाता है और कभी अन्धकार, पर विजय सदा प्रकाश की ही होती है यद्यपि अन्धकार के बिना प्रकाश का कोई महत्त्व नहीं है| सृष्टि द्वंद्वात्मक यानि दो विपरीत गुणों से बनी है| जीवन और मृत्यु भी दो विपरीत गुण हैं, पर मृत्यु एक मिथ्या भ्रम मात्र है, और जीवन है वास्तविकता| जीवात्मा कभी मरती नहीं है, सिर्फ अपना चोला बदलती है, अतः विजय सदा जीवन की ही है, मृत्यु की नहीं|
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भगवान श्रीकृष्ण का वचन है ....
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहणाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही" ||
जिस प्रकार मनुष्य फटे हुए जीर्ण वस्त्र उतार कर नए वस्त्र धारण कर लेता है, वैसे ही यह देही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है|
(गीता में आस्था रखने वालों को समाधियों, मक़बरों और कब्रों की पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि दिवंगत आत्मा तो तुरंत दूसरा शरीर धारण कर लेती है| महापुरुष तो परमात्मा के साथ सर्वव्यापी हैं)
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जीवात्मा सदा शाश्वत है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ...
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः | न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः" ||
जीवात्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती"|
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भगवान श्रीकृष्ण ने ही कहा है ....
"न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे"||
जीवात्मा अनादि व अनन्त है| यह न कभी पैदा होता है और न मरता है| यह कभी होकर नहीं रहता और फिर कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है| यह (अज) अजन्मा अर्थात् अनादि, नित्य और शाश्वत सनातन है|
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शरीर के मरने वा मारे जाने पर भी जीवात्मा मरती नहीं है| बाइबिल के अनुसार भी ...
{1 Corinthians 15:54-55New International Version (NIV)}
54 "When the perishable has been clothed with the imperishable, and the mortal with immortality, then the saying that is written will come true: “Death has been swallowed up in victory.”[a]
55 “Where, O death, is your victory?
Where, O death, is your sting?”[b]
Footnotes:
1 Corinthians 15:54 Isaiah 25:8
1 Corinthians 15:55 Hosea 13:14
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श्री श्री लाहिड़ी महाशय अपनी देहत्याग के दूसरे दिन प्रातः दस बजे दूरस्थ अपने तीन शिष्यों के समक्ष एक साथ एक ही समय में अपनी रूपांतरित देह में यह बताने को साकार प्रकट हुए कि उन्होंने अपनी उस भौतिक देह को त्याग दिया है, और उन्हें उनके दर्शनार्थ काशी आने की शीघ्रता नहीं है| उनके साथ उन्होंने और भी बातें की| समय समय पर उन्होंने अपने अनेक शिष्यों के समक्ष प्रकट होकर उन्हें साकार दर्शन दिए हैं| विस्तृत वर्णन उनकी जीवनियों में उपलब्ध है|
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सचेतन देहत्याग के पूर्व उन्होंने कई घंटों तक गीता के श्लोकों की व्याख्या की और अचानक कहा कि "मैं अब घर जा रहा हूँ"| यह कह कर वे अपने आसन से उठ खड़े हुए, तीन बार परिक्रमा की और उत्तराभिमुख हो कर पद्मासन में बैठ गए और ध्यानस्थ होकर अपनी नश्वर देह को सचेतन रूप से त्याग दिया| पावन गंगा के तट पर मणिकर्णिका घाट पर गृहस्थोचित विधि से उनका दाह संस्कार किया गया| वे मनुष्य देह में साक्षात शिव थे|
ऐसे महान गृहस्थ योगी को नमन करते हुए मैं इस लेख का समापन करता हूँ|
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
आश्विन शुक्ल ६, विक्रम संवत २०७४.
२६ सितम्बर २०१७

नवरात्रों में किये जाने वाले "गरबा" का उद्देश्य सिर्फ जगन्माता की भक्ति है .....

नवरात्रों में किये जाने वाले "गरबा" का उद्देश्य सिर्फ जगन्माता की भक्ति है .....
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नवरात्रों में किये जाने वाले "गरबा" नृत्य का एकमात्र उद्देश्य जगन्माता की भक्ति है| मैं गुजरात की संस्कृति से अच्छी तरह परिचित हूँ| चालीस पचास वर्ष पूर्व तक गरबों में सिर्फ भजन ही गाये जाते थे, संगीत भी हृदय और कानों को प्यारा लगता था| सारे स्त्री और पुरुष सब अति भक्तिभाव से विभोर होकर नृत्य करते थे| यह उत्सव अपने भक्तिभाव को प्रकट करने का ही उत्सव होता था| पर अब कुछ अपवादों को छोड़कर बहुत अधिक विकृति आ गयी है| इसका कारण सिनेमा का असर भी हो सकता है और समय का प्रभाव भी|
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अब धीरे धीरे यह उत्सव एक आडम्बर हो गया है| फिल्मी धुनो पर थिरकते हुए गरबा करना, भक्तों का अत्यधिक सज धज कर आना, और जगन्माता को रिझाने की बजाय विपरीत लिंग (Opposite Sex) को रिझाने का प्रयास ..... क्या पतन नहीं है?
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इस से तो अच्छा है कि परिवार के सदस्य ही आपस में गरबा कर लें| भक्ति ही करनी है तो बाहरी दिखावे व बाहरी मनोरंजन की कोई आवश्यकता नहीं है|
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मैंने तो यहाँ अपनी भावनाओं को मात्र व्यक्त किया है| जो हो रहा है उस पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं है| मैं किसी की निंदा नहीं कर रहा हूँ, मेरा किसी से कोई द्वेष या अपेक्षा नहीं है| भगवान जो करेंगे वह अच्छा ही करेंगे| सभी को शुभ कामनाएँ| आप सब के ह्रदय में जगन्माता की भक्ति पूर्णतः जागृत हो|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
२६ सितम्बर २०१७

संसार की अथाह पीड़ा से मुक्ति का उपाय .... साक्षी भाव ....

संसार की अथाह पीड़ा से मुक्ति का
मुझे तो एक ही उपाय लगता है, और वह है ..... "साक्षी भाव" |

जितनी हमारी सामर्थ्य है, जितनी हमारी क्षमता और योग्यता है, उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ करें और बाकी सब परमात्मा को समर्पित कर साक्षी भाव में जीएँ| हम यह देह नहीं हैं, यह देह हमारा एक वाहन मात्र है जिस पर हम यह लोकयात्रा कर रहे हैं| पीड़ा है तो वह इस देह की पीड़ा है जिस के साक्षी होने को हम प्रारब्धानुसार बाध्य हैं|
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अपने विचारों को परमात्मा पर केन्द्रित कर दीजिये| हमारे माध्यम से स्वयं परमात्मा ही इस पीड़ा को भुगत रहे हैं| हमारे दुःख-सुख पाप-पुण्य सब उन्हीं के हैं| उन सच्चिदानंद भगवान परमशिव का कौन क्या बिगाड़ सकता है जिन का कभी जन्म ही नहीं हुआ| मृत्यु उसी की होती है जिसका जन्म होता है| हम उन परमात्मा के साथ अपनी चेतना को जोड़ें जो जन्म और मृत्यु से परे हैं| हम यह देह नहीं, शाश्वत अजर अमर चैतन्य आत्मा हैं|
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सारे कष्ट हमारे ही कर्मों के फल हैं जिन्हें हम रो कर भुगतें या हँस कर| पूर्व जन्मों में हमने मुक्ति के उपाय नहीं किये इस लिये यह कष्टमय जन्म लेना पड़ा| अब इस दुःख से स्थायी मुक्ति पाने की चेष्टा करें| यह वेदना और पीड़ा हमारी नहीं, परमात्मा की है| कोई भी पीड़ा स्थायी नहीं है, सिर्फ हमारे ह्रदय का प्रेम और आनंद ही स्थायी हैं|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
२३ सितम्बर २०१७

Friday 22 September 2017

हम जो कुछ भी हैं वह पूर्व जन्म के कर्मों से हैं .....

जीवन में कुछ लोग दूसरों की अपेक्षा अधिक प्रगति करते हैं, इसके पीछे उन सफल लोगों द्वारा जन्म-जन्मान्तरों में किये हुए परिश्रम का फल है | यह एक जन्म की ही नहीं अनेक जन्मों की कमाई का फल होता है | कोई माने या न माने पर कर्मफलों के हिन्दू सिद्धांत के अनुसार यह सही है | कोई व्यक्ति बहुत बुद्धिमान होता है और कोई कम बुद्धिमान होता है .... यह भी पूर्वजन्म के परिश्रम का फल ही है, कोई संयोग नहीं |

आध्यात्म में भी यही नियम है | जो उन्नत आत्माएँ हैं वे अपने पूर्व जन्मों में की हुई साधनाओं के कारण हैं | जो अभी परिश्रम कर रहे हैं उन्हें उनके परिश्रम का फल निश्चित रूप से भविष्य में मिलेगा | प्रकृति में यानि परमात्मा की सृष्टि में कहीं भी कोई अन्याय नहीं है, अन्याय है तो सिर्फ मनुष्य की सृष्टि में | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
आश्विन शु.२, वि.सं.२०७४
22/09/2017

जिन्हें मूर्ति पूजा से विरोध है वे स्वयं मूर्ति पूजा न करें ....,

जिन्हें मूर्ति पूजा से विरोध है वे स्वयं मूर्ति पूजा न करें, पर उन्हें क्या पीड़ा होती है जब अन्य श्रद्धालू मूर्ति पूजा करते हैं ? उन्हें अन्य किसी की आस्था पर प्रहार करने का कोई अधिकार नहीं है| ऐसे ही अन्य कई मतावलंबी हैं जिन्होनें हिन्दुओं का मत परिवर्तन करने का ठेका ले रखा है, कुछ ने तो हिंसा द्वारा और कुछ ने धूर्तता द्वारा| ये धूर्तता वाले अधिक खतरनाक हैं|

हमारी अस्मिता पर प्रहार हो रहे हैं| अपने स्वधर्म और स्वाभिमान की हमें रक्षा करनी ही होगी| यह तभी संभव है जब पहले हम स्वयं अपने स्वधर्म का पालन करें| स्वधर्म का पालन ही हमारी रक्षा करेगा | तभी भगवान हमारा साथ देंगे| ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
आश्विन शु.२, वि.सं.२०७४
22/09/2017

महत्व सिर्फ एक ही बात का है कि हम परमात्मा की दृष्टि में क्या हैं .....

महत्व सिर्फ एक ही बात का है कि हम परमात्मा की दृष्टि में क्या हैं .....
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दूसरों के विचारों के अनुकूल चलना, दूसरों का जीवन जीना, दूसरों को सिर्फ प्रसन्न रखने के लिए अपनी भावनाओं का दमन, और अपने सद्विचारों का परित्याग करना ..... यह हमारे पतन का एक मुख्य कारण है | कौन क्या कह रहे हैं, कौन क्या सोच रहे हैं, इस बात का वास्तव में कोई महत्त्व नहीं है, चाहे वे कितने भी प्रिय हों | महत्त्व सिर्फ एक ही बात का है कि हम परमात्मा की दृष्टी में क्या हैं | हमारा कार्य सिर्फ परमात्मा को प्रसन्न कर के उनके साथ जुड़ना है, न कि उन लोगों से जो हमें उन से दूर कर रहे हैं |
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भगवान भुवनभास्कर आदित्य जब अपने पथ पर अग्रसर होते हैं तो वे क्या यह सोचते हैं कि मार्ग का तिमिर उनके बारे में क्या विचार कर रहा है ? वे तो अपने मार्ग पर निरंतर चलते रहते हैं | उन्हें अपने मार्ग में कहीं अन्धकार का अवशेष भी नहीं मिलता | वे यह चिंता नहीं करते कि मार्ग में क्या घटित हो रहा है | महत्व इस बात का भी नहीं है कि अपने साथ क्या हो रहा है | जिन परिस्थितियों और घटनाओं से हम निकलते हैं वे हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं | हर परिस्थिति कुछ सीखने का अवसर है |
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जो नारकीय जीवन हम जी रहे हैं उससे तो अच्छा है कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास करते हुए हम अपने प्राण न्योछावर कर दें | या तो यह देह रहेगी या अपने लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति ही होगी | हमारे आदर्श तो मार्तंड अंशुमाली भुवन भास्कर भगवान सूर्य हैं जो निरंतर प्रकाशमान और गतिशील हैं | उनकी तरह कूटस्थ में अपने आत्म-सूर्य की ज्योति को सतत् प्रज्ज्वलित रखो और उस दिशा में उसका अनुसरण करते हुए निरंतर अग्रसर रहो | एक ना एक दिन हम पाएँगे कि आत्म-सूर्य की वह ज्योतिषांज्योति हम स्वयं ही हैं |
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ॐ नमः शिवाय | हे भगवान परम शिव, आपकी जय हो, आप ही मेरे जीवन हैं | एक क्षण के दस लाखवें भाग के लिए भी मैं आपसे कभी दूर न रहूँ | जो आप हैं वह ही मैं हूँ | आप ही मेरी गति और पूर्णता हैं, मैं आपके साथ एक हूँ | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
आश्विन शु.२, वि.सं.२०७४
22/09/2017

ये शारदीय नवरात्र समष्टि के लिए मंगलमय हों ....

|| ये शारदीय नवरात्र समष्टि के लिए मंगलमय हों ||
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कृपया मुझे क्षमा करें, जो मैं लिखने जा रहा हूँ, वह छोटे मुँह वाली बड़ी बात है | मुझे इतनी बड़ी बात नहीं लिखनी चाहिए | मैं कोई धर्माचार्य नहीं हूँ | पर एक अकिंचन निष्ठावान साधक के रूप में तो लिख ही सकता हूँ |

"मनुष्य की कोई भी शक्ति, चाहे वह कितनी भी विध्वंशक या नकारात्मक हो, परमात्मा की इच्छा के सामने नहीं टिक सकती | परमात्मा से जुड़ कर ही हम अपने जीवन का कोई श्रेष्ठतम कार्य कर सकते हैं | जीवन में यदि हम कोई भी स्थायी अच्छा कार्य करना चाहें तो परमात्मा से जुड़ना ही पड़ेगा |"

"परमात्मा का अधिकाधिक गहनतम ध्यान करें, और उस चेतना में ही दिन भर के सारे सांसारिक कार्य करें| सारे कार्य परमात्मा के लिए ही करें, और फिर समर्पित होकर परमात्मा को ही अपने माध्यम से कार्य करने दें | परमात्मा को स्वयँ के माध्यम से प्रवाहित होने दें | परमात्मा की अनंतता और पूर्णता में स्वयं को विलीन कर दें |

इस से अधिक लिखने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
२१ सितम्बर २०१७

अति संक्षिप्त और सरलतम भाषा में नवरात्रों का महत्व :----

अति संक्षिप्त और सरलतम भाषा में नवरात्रों का महत्व :----
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भारतीय संस्कृति में जगन्माता की आराधना के पर्व नवरात्रों का एक विशेष महत्व है| यह भारतीय संस्कृति के सर्वाधिक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक उत्सवों में से एक है| इसका ज्ञान प्रत्येक भारतीय को होना चाहिए| परमात्मा की जगन्माता के रूप में भी साधना भारतीय संस्कृति की एक विशेषता है| इस पर्व में भगवान श्रीराम की भी उपासना उनके भक्त करते हैं| जगन्माता का प्राकट्य मुख्यतः तीन रूपों में है ..... (१)महाकाली (२)महालक्ष्मी और (३)महासरस्वती| नवरात्रों की आराधना माँ के उपरोक्त तीन रूपों की प्रीति के लिए होती है| इनका सम्मिलित रूप दुर्गा है|
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(१) महाकाली:--- जीवन के श्रेष्ठतम जीवन मूल्यों को अर्जित करने के लिए चित्त की समस्त विकृतियों को नष्ट करना आवश्यक है जो महाकाली की साधना द्वारा होता है| महाकाली हमारे भीतर की दुष्ट वृत्तियों का नाश कर देती है| 'महिष' तमोगुण का प्रतीक है| आलस्य, अज्ञान, जड़ता और अविवेक ये सब तमोगुण हैं| महिषासुर वध हमारे भीतर के तमोगुण के विनाश का प्रतीक है| महाकाली का बीजमंत्र 'क्लीम्' है|
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(२) महालक्ष्मी:--- उपनिषदों में परमात्मा से प्रार्थना की जाती है कि हमें सांसारिक वैभव तभी प्रदान करना जब हममें सभी सदगुण पूर्ण रूप से विकसित हो जाएँ| बिना आत्मानुशासन और आत्म-संयम के भौतिक संपदा नष्ट हो जाती है|
श्रुति भगवती का उपदेश है ..... "अश्माभव परशुर्भव हिरण्यमस्तृताम् भव |" इसका भावार्थ है कि तूँ चट्टान की तरह अडिग बन, परशु की तरह तीक्ष्ण बन, और स्वर्ण की तरह पवित्र बन| महासागर में चट्टान पर विकराल लहरें प्रहार करती रहती हैं, लगातार आंधियाँ और तूफ़ान आते रहते हैं पर चट्टान अपने स्थान पर अडिग रहती है| जिस पर परशु गिरे वह तो कट ही जाता है, और जो परशु पर गिरे वह भी कट जाता है| स्वर्ण को पवित्र माना गया है| स्वर्ण को छूने वाला भी पवित्र बन जाता है| कोई भी दोष और पाप हमें छू भी न पाए| यह तभी संभव होता है जब हमारा चित्त शुद्ध हो| चित्त को शुद्ध कर के महालक्ष्मी हमें सभी सदगुण प्रदान करती हैं| महालक्ष्मी का बीजमंत्र 'ह्रीम्' है|
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(३) महासरस्वती:--- गीता में भगवान कहते हैं -- 'अपनी आत्मा का ज्ञान ही ज्ञान है, वही मेरी विभूति है, वही मेरी महिमा है|' आत्मज्ञान के सर्वोत्तम रूप की प्राप्ति महासरस्वती की आराधना से होती है| महासरस्वती का बीजमंत्र 'ऐम्' (अईम्) है|
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नवार्णमन्त्र ---- महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली से प्रार्थना ही है कि माँ मेरी अज्ञानरुपी ग्रंथियों का नाश करो|
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भगवान श्रीराम :--- जब चित्त की अशुद्धियाँ नष्ट हो जाएँ, हमारा चित्त सदगुणों से संपन्न हो जाए और आत्मज्ञान की प्राप्ति हो जाए तब चित्त में 'भगवान श्रीराम' का जन्म होता है| वे जो सब के हृदयों में रमण कर रहे हैं वे ही भगवान श्रीराम हैं| भगवान श्रीराम वह सच्चिदानंद ब्रह्म हैं जिनमें समस्त योगी सदैव रमण करते हैं| राम, ज्ञान के स्वरूप हैं; सीताजी भक्ति हैं; और अयोध्या हमारा ह्रदय है| भगवान राम ने भी शक्ति की उपासना की थी क्योंकि उन्हें समुद्र लांघना था| यह समुद्र अविद्द्या और अविवेक का महासागर है| अपने भीतर के शत्रुओं को नष्ट करने के लिए इसे पार करना ही पड़ेगा|
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प्रभु का स्मरण होते ही मेरा चित्त स्तब्ध होजाता है और वाणी अवरुद्ध हो जाती है, और मैं कुछ ही करने में असमर्थ हो जाता हूँ| हे जगन्माता यह सब आपकी ही महिमा है| आपकी जय हो|
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ॐ गुरु ! जय माँ ! जय श्री राम ! ॐ नमः शिवाय !
सत्य सनातन धर्म की जय ! भारत माता की जय ! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
२० सितम्बर २०१४

Tuesday 19 September 2017

भारत में सामान्यतः प्रचलित भोजन विधि :-----

भारत में सामान्यतः प्रचलित भोजन विधि :-----
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भोजन एक यज्ञ है जिसमें साक्षात पर ब्रह्म परमात्मा को ही भोजन अर्पित किया जाता है जिस से पूरी समष्टि का भरण पोषण होता है| जो हम खाते हैं वह वास्तव में हम नहीं खाते हैं, स्वयं भगवान ही उसे वैश्वानर जठराग्नि के रूप में ग्रहण करते हैं| अतः परमात्मा को निवेदित कर के ही भोजन करना चाहिए| बिना परमात्मा को निवेदित किये हुए किया हुआ भोजन पाप का भक्षण है| भोजन भी वही करना चाहिए जो भगवान को प्रिय है| तुलसीदल उपलब्ध हो तो उसे भोजन पर अवश्य रखें| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय|
(१) भोजन से पूर्व शुद्ध स्थान पर बैठकर निम्न मन्त्रों का मानसिक या वाचिक पाठ करें ......

अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर प्राण वल्लभे | ज्ञान वैराग्य सिध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति ||
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: | प्राणापानसमायुक्त:पचाम्यन्नंचतुर्विधम् ||
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् | ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ||
ॐ सहनाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्वि नावधीतमस्तु | मा विद्विषावहै || ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
(२) भोजन से पूर्व इस मन्त्र से आचमन करें :-- "ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा" |
(३) फिर छोटे छोटे प्रथम पाँच हर ग्रास के साथ क्रमशः निम्न मन्त्र मानसिक रूप से कहें....
ॐ प्राणाय स्वाहा ||१|| ॐ व्यानाय स्वाहा ||२|| ॐ अपानाय स्वाहा ||३|| ॐ समानाय स्वाहा ||४|| ॐ उदानाय स्वाहा ||५||
>>>>> फिर धीरे धीरे भोजन इस भाव से करें कि जैसे साक्षात भगवान नारायण स्वयं भोजन कर रहे हैं, जिस से समस्त सृष्टि का भरण-पोषण हो रहा है| <<<<<
(४) भोजन के पश्चात् इस मन्त्र से आचमन करें :--
"ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा" |
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रसोई घर में भोजन बनाकर गृहिणी द्वारा इन तीन मन्त्रों से, नमक रहित तीन छोटे छोटे ग्रासों से अग्नि को जिमाना चाहिए .....
ॐ भूपतये स्वाहा ||१|| ॐ भुवनपतये स्वाहा ||२|| ॐ भूतानां पतये स्वाहा ||३||
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और भी थोड़ा बहुत परिवर्तन स्थान स्थान पर है, पर मूलभूत बात यही है कि जो भी हम खाते हैं वह हम नहीं खाते हैं, बल्कि साक्षात् परमात्मा को ही अर्पित करते हैं|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

सीमित और अल्प बुद्धि द्वारा मैं शास्त्रों को नहीं समझ सकता ....

अपनी अति अल्प और अति सीमित बुद्धि द्वारा शास्त्रों को समझने का प्रयास मेरे लिए ऐसे ही है जैसे एक छोटी सी कटोरी में अथाह महासागर को भरने का प्रयास | बुद्धि में क्षमता नहीं है कुछ भी समझने की | अब तो वह कटोरी ही महासागर में फेंक दी है | और करता भी क्या ? अन्य कुछ संभव ही नहीं था |
जब परमात्मा समक्ष ही हैं, कोई दूरी ही नहीं है, साक्षात ह्रदय में बैठे हैं तो बस उनके बारे में क्या जानना ? उन में खो जाने यानि उन में रमण करने में ही सार्थकता है | सारी बुद्धि को तिलांजलि दे दी है | कोई बौद्धिक ही नहीं किसी भी तरह की आध्यात्मिक चर्चा अब नहीं करना चाहूँगा | हमारा अस्तित्व ही परमात्मा है, वही उस परम तत्व को व्यक्त करेगा |
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

हृदय की गहन पीड़ा .....

हृदय की गहन पीड़ा .....
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आत्मा और हृदय में सदा एक घनीभूत अभीप्सा थी कि सारा जीवन परमात्मा के ध्यान में ही व्यतीत किया जाए, व एक अनुकूल वातावरण में, ऐसे ही लोगों के साथ रहा जाए जो सदा परमात्मा का ध्यान करते हों| पर इस जीवन के प्रारब्ध में ऐसा होना नहीं लिखा था| निम्न प्रकृति और अवचेतन में छिपे सूक्ष्मतम नकारात्मक संस्कारों ने इस मायावी संसार से परे कभी नहीं होने दिया| पर इसकी पीड़ा सदा बनी रही|
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जीवन एक अनंत सतत प्रक्रिया है| हर संकल्प और हर अभीप्सा अवश्य पूर्ण होती है| आत्मा की अभीप्सा सिर्फ परमात्मा के लिए ही होती है, वह निश्चित ही कभी न कभी तो पूर्ण होगी ही| अभी तो किसी भी तरह की कोई अपेक्षा व कोई कामना नहीं है, और न ही भगवान से कोई प्रार्थना है| जैसी हरि इच्छा वही मेरी इच्छा| पूर्वजन्मों की कुछ वासनाएँ अवशिष्ट थीं इसलिए यह जन्म लेना पड़ा| अब और कोई वासना न रहे|
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हमारा जन्म इसीलिये होता है कि पूर्वजन्मों में हमने मुक्ति का कोई उपाय नहीं किया| इसमें दोष हमारा ही है, किसी अन्य का नहीं| इस जन्म में भी यह बात जब तक समझ में आती है तब तक बहुत देर हो जाती है|
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परमात्मा के साकार रूप आप सभी निजात्माओं को नमन ! आप सब के ह्रदय में परमात्मा का अहैतुकी परम प्रेम जागृत हो| सभी का कल्याण हो|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
आश्विन कृ.१२, वि.सं.२०७४
१७ सितम्बर २०१७

इस अनंतता में मेरा कोई भविष्य नहीं है, क्या मैं इन काल-खण्डों में ही बँधा रहूँगा? ........

इस अनंतता में मेरा कोई भविष्य नहीं है, क्या मैं इन काल-खण्डों में ही बँधा रहूँगा? ........
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इस अनंतता में मेरा कोई भविष्य नहीं है| अब तक का यह जीवन एक स्वप्न था, भविष्य भी मात्र एक कल्पना है| पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है जिससे दिन रात बनते हैं, और काल-खंडों का निर्माण होता है| इस जीवन से पूर्व भी पता नहीं मैनें कितने अज्ञात जन्म लिए, कितने जीवन जीये, वह सब अज्ञात है| भविष्य भी एक कोरी कल्पना है|
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क्या मैं इन काल-खण्डों में ही बँधा रहूँगा? नहीं नहीं बिलकुल नहीं| इस काल-खंड से परे मैं सूर्य हूँ, मैं प्रकाश हूँ, मैं बार बार इस जीवन का आनंद लेने आता हूँ| मैं स्वयं ही आनंद हूँ| मैं स्वयं ही अनंतता हूँ| मेरी कोई आयु नहीं है, मैं अनंत हूँ| मैं परमात्मा की अनंतता हूँ, मैं परमात्मा का आनंद हूँ| मैं ही परम ब्रह्म और मैं ही परम शिव हूँ| किसी भी तरह की लघुता और सीमितता मुझे स्वीकार नहीं है| मेरा न कोई आदि है और न कोई अंत| यह प्रकृति जगन्माता है जो निरंतर अपना कार्य कर रही है| मैं ही जगन्माता का समस्त सौन्दर्य हूँ|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
आश्विन कृष्ण १२, वि.सं. २०७४
१७ सितम्बर २०१७

परमात्मा ही एकमात्र सत्य है .....

परमात्मा ही एकमात्र सत्य है .....

कुछ छोटे-मोटे कंकर भी नदी का प्रवाह परिवर्तित कर देते हैं| कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो मनुष्य की चिंतनधारा और विश्व के घटनाक्रम को बदल देती हैं| कभी भी कुछ भी हो सकता है जो हमारी कल्पना के बाहर होता है| भूतकाल में घटित हुई कई घटनाओं के बारे हम सोचते हैं तो हम उन्हें अविश्वसनीय पाते हैं|
मैनें भी जीवन में बहुत कुछ देखा है जो उस समय सत्य था पर अब विश्वास नहीं होता कि ऐसा भी कभी हुआ था| कुछ काल पश्चात यह संसार एक स्वप्न सा लगने लगता है| भूतकाल एक स्वप्न है| हमारा वर्त्तमान भी कल को एक स्वप्न हो जाएगा| क्या यह संसार भी परमात्मा के मन का एक स्वप्न मात्र है? सत्य क्या है इसकी तो हमें खोज करनी होगी| मेरे निज अनुभव से मेरे लिए तो परमात्मा ही एकमात्र सत्य है|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||


कृपा शंकर
आश्विन कृष्ण १२, वि.सं. २०७४
१७ सितम्बर २०१७

Saturday 16 September 2017

रूस-जापान का युद्ध और भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर उसका प्रभाव ......

रूस-जापान का युद्ध और भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर उसका प्रभाव ......
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अंग्रेजों ने भारतीयों पर बहुत अधिक अत्याचार किये और भारतीयों को इतना अधिक आतंकित कर दिया था कि भारत के जनमानस में एक सामान्य धारणा बैठ गयी कि गोरी चमड़ी वाले योरोपियन लोग एक श्रेष्ठतर जाति के लोग हैं जिन्हें कभी पराजित नहीं किया जा सकता| पर सन १९०५ ई.में मंचूरिया पर हुए एक युद्ध में जापान ने रूस को पूरी तरह से पराजित कर दिया था, जिससे भारतीयों में यह आत्म-विश्वास जागृत हुआ कि जब जापान जैसा एक एशियाई देश रूस जैसे महा शक्तिशाली देश को हरा सकता है तो हम भारतीय भी ब्रिटेन को पराजित कर सकते हैं| इस से भारतीय क्रांतिकारियों को बल मिला और उन्होंने एक नई ऊर्जा और उत्साह से भारत में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को बढ़ाकर अंग्रेजों के ह्रदय भय से भर दिए|
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कभी मुझे समय मिलेगा तो भूमध्य सागर में फ़्रांस और ब्रिटेन की नौसेनाओं के बीच हुए एक भयानक युद्ध के बारे में भी लिखूँगा जिसमें अपनी एक ज़रा सी गलत सोच के कारण फ्रांस लगभग जीता हुआ युद्ध हार गया था| उस युद्ध में ब्रिटेन की जीत ने भारत में अंग्रेजी शासन को पक्का कर दिया| उस युद्ध में अगर फ्रांस जीतता तो वह भारत पर से अंग्रेजों के अधिकार को छीनकर अपना राज्य स्थापित कर लेता|
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यहाँ बात जापान रूस के बीच हुए युद्ध के बारे में है| समयाभाव के कारण मैं विस्तार से उसका वर्णन करने में असमर्थ हूँ| पर यह बात मेरे पाठकों को बता देना चाहता हूँ कि रूस में हुई बोल्शेविक क्रान्ति की नीव यहीं से पड़ी| रूसी बोल्शेविक क्रांति कोई सर्वहारा की क्रांति नहीं थी, एक सैनिक विद्रोह था जो वोल्गा नदी में खड़े एक नौसैनिक जहाज "अवरौरा" से आरंभ हुआ| जो विद्रोही सैनिक बहुमत में थे वे बोल्शेविक कहलाए, और जो अल्पमत में वहाँ के रूसी शासक जार के पक्ष में थे वे मेन्शेविक कहलाए| इन दोनों पक्षों में गृहयुद्ध हुआ| बोल्शेविक सिपाहियों का कोई नेता नहीं था| अतः पेरिस में निर्वासित जीवन बिता रहा व्लादीमीर इलिविच लेनिन जर्मनी की मदद से चोरी-छिपे रूस में आया और इस सैनिक विद्रोह का नेता बन गया, और इस विद्रोह को सर्वहारा की क्रांति का रूप देकर मार्क्सवादी साम्यवादी सता स्थापित कर दी| कभी समय मिला तो इस विषय पर भी लिखूंगा|
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अभी तो आध्यामिक लेख ही ठाकुर जी लिखवा रहे हैं| ॐ तत्सत | ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः : --- चीन में भी साम्यवादी सत्ता माओ के लॉन्ग मार्च से नहीं, बल्कि स्टालिन की सेना के टैंकों की सहायता से से आई थी जिसे मार्क्सवादी इतिहासकारों ने छिपाया है| सारी साम्यवादी सत्ताएँ धोखे और छल-कपट से आईं और अपने पीछे एक भयानकतम विनाश लीला छोड़ गईं|

चीन और जापान सदा पारंपरिक शत्रु रहे हैं .....

चीन और जापान सदा पारंपरिक शत्रु रहे हैं .....
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चीनी शासकों की सदा जापान विजय की इच्छा रही पर वे कभी सफल नहीं हो पाए| पिछले एक हज़ार वर्षों में अंग्रेज़ी साम्राज्य से पूर्व इस पृथ्वी पर सबसे अधिक शक्तिशाली और पराक्रमी राजा कुबलई ख़ान (Хубилай хаан) (忽必烈) (२३ सितम्बर १२१५ – १८ फ़रवरी १२९४) हुआ है जो मंगोल साम्राज्य का पाँचवा ख़ागान (सबसे बड़ा ख़ान शासक) चीन का शासक था| वह बौद्ध धर्म को मानता था| उसने सन १२६० से १२९४ ई.तक शासन किया| वह युआन वंश का संस्थापक था| उसका राज्य उत्तर में साइबेरिया से लेकर दक्षिण में विएतनाम और अफगानिस्तान तक, और पूर्व में कोरिया से लेकर पश्चिम में कश्यप सागर तक था| महाभारत के समय के बाद से इतने बड़े भूभाग पर राज्य अंग्रेजों से पूर्व किसी ने भी नहीं किया था| वह पृथ्वी के २०% भूभाग का स्वामी था| उसी के समय चीनी लिपि का आविष्कार हुआ था| मार्को पोलो भी उसी के समय चीन गया था| उसके समय से पहले ही बौद्ध धर्म चीन और जापान का राजधर्म हो गया था|
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कुबलई खान की सबसे बड़ी इच्छा थी जापान पर विजय करने की जिसे उसके पूर्वज नहीं कर पाए थे| मंगोल जाति अत्यधिक क्रूर थी| वह जापान के द्वीपों पर आकमण करती और जापानी महिलाओं पर तो बहुत क्रूरता बरतती| सन १२७४ ई में उसने जापान पर पहला आक्रमण किया जो सफल नहीं हुआ| मंगोल सेना के घुड़सवारों के मार्ग में जापानियों ने खूब खाइयाँ खोद दीं जिस से वे आगे न बढ़ सकें, और खूब कुशलता से जापानियों ने युद्ध किया| चीनी मंगोल सेना विफल रही और लौट गयी|
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फिर उसने सन १२८१ ई.में जापान पर सबसे बड़ा आक्रमण किया | हजारों नौकाओं में लाखों सैनिक और हज़ारों घोड़े लाद कर के उसकी सेना दो स्थानों से समुद्री मार्ग से जापान की ओर बढ़ी .... एक तो कोरिया से और दूसरी चीन की मुख्य भूमि से| इस विशाल सेना को कोई भी नहीं रोक सकता था| पर जब तक वो सेना जापान सागर में जापान तट पर पहुँचती उससे पूर्व ही एक भयानक समुद्री तूफ़ान आया और कुबलई खान का सारा बेड़ा लाखों सैनिकों, हज़ारो घोड़ों और हज़ारो नौकाओं के साथ समुद्र में गर्क हो गया| यहाँ से चीन में मंगोल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया| जापान में समुद्री तूफानों को पवित्र वायु मानते हैं क्योंकि उन्होंने जापान की विदेशी आक्रमणकारियों से सदा रक्षा की है|
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इसके बाद भी चीन के सभी शासकों की इच्छा रही जापान को विजित करने की पर कर नहीं पाए| द्वितीय विश्व युद्ध में जापान ने चीन पर अधिकार कर लिया था| जापानी तो मंगोलों से भी अधिक क्रूर निकले| उन्होंने चीन में बहुत अधिक क्रूर और निर्मम अत्याचार किये| जापानियों ने चीन में ही नहीं, कोरिया, विएतनाम मलय प्रायद्वीप, बर्मा व अंडमान-निकोबार में भी सभी जगह बड़े क्रूर अत्याचार किये| अन्य देशों ने तो जापान को क्षमा कर दिया पर चीन और उत्तरी कोरिया ने नहीं| चीन जापान का हर अवसर पर और हर स्थान पर विरोध करता है| वह कैदियों से मुफ्त में सामान बनवाकर इतना सस्ता बेचता है सिर्फ जापान की अर्थव्यवस्था को हानि पहुँचाने के लिए|
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भारत और जापान का समीप आना भी चीन को बुरा लग रहा है जापान से द्वेष के कारण| अगले पंद्रह-बीस वर्षों तक तो चीन और जापान मित्र नहीं बन सकेंगे| भविष्य की कोई कह नहीं सकता| पर चीन की काट के लिए भारत की जापान के साथ मित्रता बड़ी आवश्यक है|


१५ सितम्बर २०१७

प्रभु को आना ही पड़ेगा .....

प्रभु को आना ही पड़ेगा .....
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वेदांत की दृष्टी से तो एकमात्र "मैं" ही हूँ, मेरे अतिरिक्त दूसरा कोई अन्य नहीं है | सब प्राणी मेरे ही प्रतिविम्ब हैं | मैं विभिन्न रूपों में स्वयं से ही मिलता रहता हूँ | मैं द्वैत भी हूँ और अद्वैत भी, मैं साकार भी हूँ और निराकार भी, एकमात्र अस्तित्व मेरा ही है | सोहं, ॐ ॐ ॐ मैं ही हूँ | मैं ही परमशिव हूँ और मैं ही परमब्रह्म हूँ, मैं यह देह नहीं हूँ |
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परमात्मा प्रदत्त विवेक हम सब को प्राप्त है | उस विवेक के प्रकाश में ही उचित निर्णय लेकर सारे कार्य करने चाहिएँ | वह विवेक ही हमें एक-दुसरे की पहिचान कराएगा और यह विवेक ही बताएगा कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं |
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परमात्मा के संकल्प से सृष्टि बनी है अतः वे सब कर्मफलों से परे हैं | अपनी संतानों के माध्यम से वे ही उनके फलों को भी भुगत रहे हैं | हम कर्म फलों को भोगने के लिए अपने अहंकार और ममत्व के कारण ही बाध्य हैं | माया के बंधन शाश्वत नहीं हैं, उनकी कृपा से एक न एक दिन वे भी टूट जायेंगे | वे आशुतोष हैं, प्रेम और कृपा करना उनका स्वभाव है | वे अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकते |
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परमात्मा के पास सब कुछ है पर एक ही चीज की कमी है, जिसके लिए वे भी सदा तरसते हैं, और वह है ..... "हमारा प्रेम" | उन्हें प्रसन्नता भी तभी होती है जब उन्हें हमारा परम प्रेम मिलता है | कभी न कभी तो हमारे प्रेम में भी पूर्णता आ ही जाएगी, और कृपा कर के हमसे वे हमारा समर्पण भी करवा लेंगे |
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कोई भी पिता अपने पुत्र के बिना सुखी नहीं रह सकता | जितनी पीड़ा मुझे परमात्मा से वियोग की है, उससे अधिक पीड़ा परमात्मा को मुझसे वियोग की है | वे भी मेरे बिना नहीं रह सकते | एक न एक दिन तो वे आयेंगे ही, अवश्य आयेंगे, उन्होंने मुझे जहाँ भी रखा है, वहीं उन्हें आना ही पड़ेगा | मैं कहीं भी नहीं जाऊँगा | मुझे उनके दिए जीवन से पूर्ण संतुष्टि और तृप्ति है |
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कोई प्रार्थना नहीं है, सब प्रार्थनाएँ व्यर्थ हैं | क्या अपने माँ-बाप से मिलने के लिए भी कोई प्रार्थना करनी पडती है ? अब तो प्रार्थना करना फालतू सी बात लगती है | यह तो मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है | मेरी न कोई माँग है और न ही कोई प्रार्थना | जो मैं हूँ सो हूँ, यह मेरा स्वभाव है |
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तत्वमसि | सोहं | अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||

१५ सितम्बर २०१७

Thursday 14 September 2017

वर्तमान परिस्थितियों में सनातन धर्म के लिए हम क्या कर सकते हैं ?


प्रश्न : वर्तमान परिस्थितियों में सनातन धर्म के लिए हम क्या कर सकते हैं ?

उत्तर : वर्तमान परिस्थितियों में एकमात्र कार्य जो हम सनातन धर्म के लिए कर सकते हैं वह है .... "निज जीवन में धर्म का पालन" | अन्य लोग क्या कर रहे हैं और क्या नहीं कर रहे हैं इसकी चिंता छोड़कर निज जीवन को धर्ममय बनाओ | इसे हम सब अच्छी तरह समझते हैं | स्वयं को धोखा न दें | दुर्भाग्य से वर्तमान में भारत की शिक्षा व्यवस्था और भारत के समाचार माध्यम सनातन धर्म के विरुद्ध हैं, उन पर धर्म विरोधियों का अधिकार है, इस कारण हमारे दिमाग में गलत बातें भरी हुई हैं |
आज़ादी के पश्चात् पहली बार देश में एक राष्ट्रवादी सरकार आई है, जिसका निकट भविष्य तक कोई विकल्प नहीं है | व्यवस्था में अति शीघ्र परिवर्तन नहीं लाया जा सकता, धीरे धीरे सब सुधरेगा | शीघ्र परिवर्तन लाने वाली क्रांतियों ने सर्वत्र विनाश ही विनाश किया है | माली चाहे वृक्ष में सौ घड़े जल नित्य दे पर फल तो ऋतू आने पर ही होंगे |

हर साँस परमात्मा को समर्पित हो | हम अकेले भी होंगे तो भी परमात्मा सदा हमारे साथ रहेंगे |
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

ह्रदय में परम प्रेम, काम पर विजय, सत्यपरायणता और समभाव ... ये आध्यात्मिकता के लक्षण हैं ....

ह्रदय में परम प्रेम, काम पर विजय, सत्यपरायणता और समभाव ... ये आध्यात्मिकता के लक्षण हैं ....
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यह बात बिना किसी संदेह के भगवान ने स्पष्ट कर दी है कि जब तक मन में कामनाएँ हैं तब तक हम माया के आवरण में हैं, और कामवासना तो सबसे बड़ी बाधा है| माया के दो अस्त्र है .... आवरण और विक्षेप .... जिनसे मुक्ति हरिकृपा से ही मिलती है| इनसे मुक्त हुए बिना परमात्मा का आभास नहीं हो सकता|
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भगवान सत्यनारायण हैं| सत्य ही परमात्मा है .... यह अनुभूति का विषय है, बौद्धिक नहीं| परमात्मा ही एकमात्र सत्य हैं| यह बात ध्यान में ही समझ में आती है, अतः इस पर बौद्धिक चर्चा करना व्यर्थ है|
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समभाव में स्थिति ही ज्ञानी होने का लक्षण है| ज्ञान का स्त्रोत परमात्मा है, पुस्तकें नहीं| पुस्तकों का काम प्रेरणा देना और एक आधार तैयार करना है| ज्ञान की प्राप्ति परमात्मा की कृपा से ही होती है, बाकी सब तो उसकी भूमिका मात्र है| चाहे स्वयं यमराज ही प्राण लेने सामने आ जाये तो भी किसी तरह के शोक, भय, दुःख और मलाल का न होना, ज्ञानी होने का लक्षण है|
विश्व की सारी धन-संपदा मिल जाए तो भी कोई हर्ष न हो, किसी भी तरह का लोभ न हो, यह ज्ञानी होने का लक्षण है|
सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु आदि किसी भी तरह की परिस्थिति में विचलित न होना, यह ज्ञानी होने का लक्षण है|
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अभी अभी हमारे मोहल्ले की माताएँ पास के ही एक मंदिर से नित्य की तरह नियमित प्रभात-फेरी "श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा" भजन गाते गाते निकाल रही हैं| उनकी मधुर वाणी सुनकर भाव विह्वल हो गया हूँ, और हृदय का परम प्रेम जाग उठा है| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय|
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ॐ तत्सत् | श्रीहरि | ॐ ॐ ॐ ||

१२ सितम्बर २०१७

Sunday 10 September 2017

दूसरों के गले काट कर कोई बड़ा नहीं बन सकता ....

दूसरों के गले काट कर कोई बड़ा नहीं बन सकता. दूसरों की ह्त्या कर के, पराई संपत्ति का विध्वंश कर के, और दूसरों को हानि पहुंचा कर कोई महान नहीं बनता. दूसरों को मारकर, और दूसरों को हानि पहुंचाकर लोग महान और पूर्ण बनना चाहते हैं, पर उनके लिए ऐसी पूर्णता एक मृगतृष्णा ही रहती है.
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पूर्णता बाहरी संसार में नहीं है. पूर्णता निजात्मा में ही संभव है. पूर्णता की खोज में मनुष्य ने पूँजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद, फासीवाद, सेकुलरवाद, जैसे अनेक वाद खोजे, और अनेक कलियुगी मत-मतान्तरों, पंथों व सम्प्रदायों का निर्माण किया. पर किसी से भी मनुष्य को सुख-शांति नहीं मिली. इन्होने मनुष्यता को कष्ट ही कष्ट दिए.
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आज भी मानवता अशांत है और दूसरों के विनाश में ही पूर्णता खोज रही है. पर इतने नरसंहार और विध्वंश के पश्चात भी उसे कहीं सुख शांति नहीं मिल रही है. अभी भी अधिकाँश मानवता की यही सोच है कि जो हमारे विचारों से असहमत हैं उनका विनाश कर दिया जाए. पर क्या इस से उन्हें सुख शान्ति मिल जायेगी? कभी नहीं मिलेगी.
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पूर्णता स्वयं की आत्मा में ही हो सकती है, जो परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण से ही व्यक्त होती है. यह जो इतनी भयंकर मार-काट, अन्याय, और हिंसा हो रही है, अप्रत्यक्ष रूप से यह मनुष्य की निराशाजनक रूप से पूर्णता की ही खोज है. मनुष्य सोचता है कि दूसरों के गले काटकर वह बड़ा बन जाएगा, पर सदा असंतुष्ट ही रहता है और आगे भी दूसरोंके गले काटने का अवसर ढूंढता रहता है|
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पूर्ण तो सिर्फ परमात्मा ही है जिस से जुड़ कर ही हम पूर्ण हो सकते हैं, दूसरों के गले काट कर, या पराई संपत्ति का विध्वंश कर के नहीं.
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यहाँ मैं बाइबिल में (Matthew 26:52) ईसा मसीह को उद्धृत कर रहा हूँ ..... "Put your sword back in its place," Jesus said to him ...
"Those who use the sword will die by the sword. ... Then Jesus said to him, "Put your sword back into its place; for all those who take up the sword shall perish by the sword. ... Everyone who uses a sword will be killed by a sword.
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श्रुति भगवती पूर्णता के बारे में कहती है .....
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||"

शांति मन्त्र ......
"ॐ सहनाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै |
तेजस्वि नावधीतमस्तु | मा विद्विषावहै ||
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||"
ॐ ॐ ॐ ||
१० सितम्बर २०१७

धर्म का उद्देश्य परमात्मा का साक्षात्कार है ....

धर्म का उद्देश्य परमात्मा का साक्षात्कार है| जिससे परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता वह धर्म नहीं, अधर्म है| हमारे भी जीवन का प्रथम, अंतिम और एकमात्र उद्देश्य परमात्मा को उपलब्ध यानि पूर्णतः समर्पित होकर परमात्मा के साथ एक होना है| हमारा जीवन धर्ममय हो|
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मैनें देश-विदेश में यह प्रश्न अनेक लोगों से पूछा है कि धर्म का उद्देश्य क्या है? सिर्फ भारत के संत स्वभाव के कुछ लोगों ने ही यह उत्तर दिया कि धर्म का उद्देश्य परमात्मा का साक्षात्कार है, अन्यथा प्रायः सभी का इनमें से एक उत्तर था ..... (१) एक श्रेष्ठतर मनुष्य बनना, (२) जन्नत यानि स्वर्ग की प्राप्ति, (३) आराम से जीवनयापन, (४) सुख, शांति और सुरक्षा|
भारत में भी अधिकाँश लोगों का मत है .... बच्चों का पालन पोषण करना, दो समय की रोटी कमाना, कमा कर घर में चार पैसे लाना आदि ही धर्म है| यदि भगवान का नाम लेने से घर में चार पैसे आते हैं तब तो भगवान की सार्थकता है, अन्यथा भगवान बेकार है| अधिकाँश लोगों के लिए भगवान एक साधन है जो हमें रुपये पैसे प्राप्त कराने योग्य बनाता है, साध्य तो यह संसार है|
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सिर्फ भारत में ही, वह भी सनातन हिन्दू धर्म के कुछ अति अति अल्पसंख्यक लोगों के अनुसार ही परमात्मा की प्राप्ति यानि परमात्मा को उपलब्ध होना ही जीवन का वास्तविक उद्देश्य है| परमात्मा की प्राप्ति का अर्थ है .... अपने अस्तित्व का परमात्मा में पूर्ण समर्पण| कोई दो लाख में से एक व्यक्ति ही भगवान को अहैतुकी प्रेम करता है| सौभाग्य से हम भी उन अति अति अल्पसंख्यक लोगों में आते हैं| हम भीड़ का भाग नहीं हैं|
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मेरा यह स्पष्ट मत है कि जिससे परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती वह धर्म नहीं, अधर्म है| यदि हमने सारे ग्रंथों का अध्ययन कर लिया, खूब भजन-कीर्तन कर लिए, खूब धर्म-चर्चाएँ कर लीं, और खूब तीर्थ यात्राएँ कर लीं, पर परमात्मा का साक्षात्कार नहीं किया है तो सब व्यर्थ हैं|
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जीव ही नहीं, सारी सृष्टि और सारी सृष्टि से परे भी जो कुछ है वह परमात्मा ही है| हम सब भी उस परमात्मा के अंश हैं| अंश भी समर्पित होकर परमात्मा के साथ एक हो सकता है, जैसे जल की एक बूँद महासागर में मिल कर महासागर बन जाती है, वैसे ही जीव भी परमात्मा में समर्पित होकर परमात्मा ही बन जाता है| परमात्मा ही सर्वस्व है|
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जब हम किसी चीज की कामना करते हैं, तब परमात्मा ही उस कामना के रूप में आ जाते हैं, पर स्वयं का बोध नहीं कराते| हम जब तक कामनाओं पर विजय नहीं पाते तब तक परमात्मा का बोध नहीं कर सकते| परमात्मा को प्रेम का विषय बना कर ही कामनाओं को जीत सकते हैं| काम, क्रोध, लोभ, मोह और राग-द्वेष ही हमारे वास्तविक शत्रु हैं| परमात्मा तो नित्य प्राप्त है| परमात्मा ही हमारा स्वरूप है| जीव ही नहीं, समस्त सृष्टि ही परमात्मा है, हम स्वयं भी वह स्वयं हैं| हर ओर परमात्मा ही परमात्मा है| उस अज्ञात परमात्मा को अपने से एक समझते हुए ही उससे पूर्ण प्रेम और समर्पण करना होगा| अन्य कोई मार्ग नहीं है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
१० सितम्बर २०१७

Friday 8 September 2017

ध्यान साधना .....

ध्यान साधना .....
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निरंतर अपने शिव-स्वरुप का ध्यान करो| शिवमय होकर शिव का ध्यान करो| पवित्र देह और पवित्र मन के साथ, एक ऊनी कम्बल पर कमर सीधी रखते हुए पूर्व या उत्तर की ओर मुँह कर के बैठ जाओ| भ्रूमध्य में भगवान शिव का ध्यान करो|
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वे पद्मासन में शाम्भवी मुद्रा में बैठे हुए हैं, उनके सिर से ज्ञान की गंगा प्रवाहित हो रही है, और दसों दिशाएँ उनके वस्त्र हैं| धीरे धीरे उनके रूप का विस्तार करो| आपकी देह, आपका कमरा, आपका घर, आपका नगर, आपका देश, यह पृथ्वी, यह सौर मंडल, यह आकाश गंगा, सारी आकाश गंगाएँ, और सारी सृष्टि व उससे परे भी जो कुछ है वह सब शिवमय है| उस शिव रूप का ध्यान करो|
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वह शिव आप स्वयं हो| आप यह देह नहीं बल्कि साक्षात शिव हो| बीच में एक-दो बार आँख खोलकर अपनी देह को देख लो और बोध करो कि आप यह देह नहीं हो बल्कि शिव हो| उस शिव रूप में यथासंभव अधिकाधिक समय रहो|
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सारे ब्रह्मांड में ओंकार की ध्वनी गूँज रही है, उस ओंकार की ध्वनी को निरंतर सुनो| हर आती-जाती साँस के साथ यह भाव रहे कि मैं "वह" हूँ .... "हँ सः" या "सोsहं" | यही अजपा-जप है, यही प्रत्याहार, धारणा और ध्यान है| यही है शिव बनकर शिव का ध्यान, यही है सर्वोच्च साधना|
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यह साधना उन्हीं को सिद्ध होती है जो निर्मल, निष्कपट है, जिन में कोई कुटिलता नहीं है और जो सत्यनिष्ठ और परम प्रेममय हैं| उपरोक्त का अधिकतम स्वाध्याय करो| भगवान परमशिव की कृपा से आप सब समझ जायेंगे|
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भगवान परमशिव सबका कल्याण करेंगे| अपने अहंकार का, अपने अस्तित्व का, अपनी पृथकता के बोध का उनमें समर्पण कर दो|
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जिसे हम खोज रहे हैं वह तो हम स्वयं ही हैं| शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!

निज विवेक का उपयोग .....

निज विवेक का उपयोग .....
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जीवन अति अल्प है, शास्त्र अनंत हैं, न तो उन्हें समझने की बौद्धिक क्षमता है, और न इतना समय और धैर्य | परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा और तड़प अति तीब्र हो और चारों ओर का वातावरण और परिस्थितियाँ विपरीत हों, तो क्या किया जाये? यह एक शाश्वत प्रश्न है|
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हर व्यक्ति की परिस्थितियाँ, संसाधन, सोच और आध्यात्मिक विकास अलग अलग होता है, अतः कोई सर्वमान्य सामान्य उत्तर असंभव है|
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यहाँ एक ही उत्तर हो सकता है, और वह है निज विवेक का उपयोग|
भगवान ने हमें विवेक दिया है, जिसका उपयोग करते हुए अपनी वर्त्तमान परिस्थितियों में जो भी सर्वश्रेष्ठ हो सकता है, वह करें| सारे कार्य निज विवेक के प्रकाश में करें|

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उच्च स्तर की आध्यात्मिक साधना अपनी गुरु परम्परा के अनुसार ही करें |
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ॐ तत्सत् | हर हर महादेव ! ॐ ॐ ॐ ||

हमारे पतन का कारण हमारे मन का लोभ और गलत विचार हैं .....

हमारे पतन का कारण हमारे मन का लोभ और गलत विचार हैं .....
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हमारे पतन का कारण हमारे मन का लोभ और हमारे गलत विचार हैं, अन्य कोई कारण नहीं हो सकते| जैसा हम सोचते हैं और जैसे लोगों के साथ रहते हैं, वैसी ही परिस्थितियों का निर्माण हमारे चारों ओर हो जाता है, और हम भी वैसे ही बन जाते हैं| मन का लोभ हमारे पतन का मुख्य कारण है| इस सांसारिक लोभ की दिशा हमें परमात्मा की ओर मोड़नी होगी| लोभ हो, पर हो सिर्फ परमात्मा का, अन्य किसी विषय का नहीं|
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अपने प्रारब्ध कर्मों के फलस्वरूप जो भी परिस्थितियाँ हमें मिली हैं, उन से ऊपर तो हमें उठना ही होगा| इसका एकमात्र उपाय है ..... परमात्मा का ध्यान, ध्यान और ध्यान व समर्पण| अन्य कोई उपाय नहीं है|
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किसी अन्य को दोष देना व्यर्थ है| दुर्बलता स्वयं में ही होती है| बाहर की समस्त समस्याओं का समाधान स्वयं के भीतर ही है| अपनी विफलताओं के लिए हर समय परिस्थितियों को दोष देना उचित नहीं है| हम कभी स्वयं को परिस्थितियों का शिकार न समझें| इससे कोई लाभ नहीं होगा, बल्कि परिस्थितियाँ और भी विकट होती जाएँगी| अच्छी सकारात्मक सोच के मित्रों के साथ रहें| सब मित्रों का एक परम मित्र परमात्मा है जिसकी शरण लेने से सोच भी बदलेगी और परिस्थितियाँ भी बदलेंगी|
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सद्साहित्य के अध्ययन और परमात्मा के नियमित ध्यान से विपरीत से विपरीत परिस्थितियों से जूझने और उनसे ऊपर उठने की शक्ति मिलती है| जीवन के रणक्षेत्र में आहें भरना और स्वयं पर तरस खाना एक कमजोर मन की कायरता ही है| जो साहस छोड़ देते हैं वे अपने अज्ञान की सीमाओं में बंदी बन जाते हैं| जीवन अपनी समस्याओं से ऊपर उठने का एक निरंतर संघर्ष है|
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हमें हर समस्या का समाधान करने का और हर विपरीत परिस्थिति से ऊपर उठने के लिए संघर्ष करने का परमात्मा द्वारा दिया हुआ एक पावन दायित्व है जिससे हम बच नहीं सकते| यह हमारे विकास के लिए प्रकृति द्वारा बनाई गई एक आवश्यक प्रक्रिया है जिसका होना अति आवश्यक है| हमें इसे भगवान का अनुग्रह मानना चाहिए| बिना समस्याओं के कोई जीवन नहीं है| यह हमारी मानसिक सोच पर निर्भर है कि हम उनसे निराश होते हैं या उत्साहित होते हैं|
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जब हम परिस्थितियों के सामने समर्पण कर देते हैं या उनसे हार मान जाते हैं, तब हमारे दुःखों और दुर्भाग्य का आरम्भ होता है|, इसमें किसी अन्य का क्या दोष ??? नियमों को न जानने से किये हुए अपराधों के लिए किसी को क्या क्षमा मिल सकती है? नियमों को न जानना हमारी ही कमी है|
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हमें चाहिए कि हम निरंतर परमात्मा को अपने ह्रदय में रखें और अपने सारे दुःख-सुख, सारे संचित और प्रारब्ध कर्मों के फल व कर्ताभाव अपने प्रियतम मित्र परमात्मा को सौंप दें| इस दुःख, पीड़ाओं, कष्टों और त्रासदियों से भरे महासागर को पार करने के लिए अपनी जीवन रूपी नौका की पतवार उसी परम मित्र को सौंप कर निश्चिन्त हो जाएँ|
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यह संसार ..... आत्मा से परमात्मा के बीच की यात्रा में एक रंगमंच मात्र है| इस रंगमंच पर अपना भाग ठीक से अदा नहीं करने तक बार बार यहीं लौट कर आना पड़ता है| माया के आवरण से परमात्मा दिखाई नहीं देते| यह आवरण विशुद्ध भक्ति से ही हटेगा जिसके हटते ही इस नाटक का रचेता सामने दिखाई देगा| सारे विक्षेप भी भक्ति से ही दूर होंगे|
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प्रभु के श्रीचरणों में शरणागति और पूर्ण समर्पण ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है| गहन से गहन निर्विकल्प समाधी में भी आत्मा को वह तृप्ति नहीं मिलती जो विशुद्ध भक्ति में मिलती है| .मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि ..... पराभक्ति ही है|
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हे प्रभु, हमें अपने ध्यान से विमुख मत करो| हमारा यह देह रुपी साधन सदा स्वस्थ और शक्तिशाली रहे, हमारा ह्रदय पवित्र रहे, व मन सब प्रकार की वासनाओं से मुक्त रहे| हमें सदा के लिए अपनी शरण में ले लो| हर प्रकार की परिस्थितियों से हम ऊपर उठें और स्वयं की कमजोरियों के लिए दूसरों को दोष न दें| हमें अपनी शरण में लो ताकि हमारा समर्पण पूर्ण हो|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
८ सितम्बर २०१६

म्यांमा(र) (बर्मा) के बारे में कुछ पंक्तियाँ .....

म्यांमा(र) (बर्मा) के बारे में कुछ पंक्तियाँ ......
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म्यांमा(र) (पुराना नाम ब्रह्मदेश और कालान्तर में बर्मा) में अनेक हिन्दू भारतीय मारवाड़ी उद्योगपति और अन्य व्यवसायी स्थायी रूप से बस गये थे| वे बहुत समृद्ध थे| पर वहाँ साम्यवादी विचारधारा के सैनिक शासन के आने के बाद सभी भारतीय मूल के उद्योगपति और व्यवसायी बापस भारत लौट आये| मेरा ऐसे अनेक लोगों से परिचय हुआ है| एक तो हमारे ही नगर के बहुत अधिक प्रतिष्ठित दानवीर उद्योगपति स्व.सेठ चौथमल जी गोयनका थे| भारत में "विपश्यना" (विपासना) साधना पद्धति के सबसे बड़े गुरु आचार्य स्व.सेठ सत्यनारायण जी गोयनका भी बर्मा से ही बापस आये थे| मूल रूप से वे चूरू जिले के थे| अन्य भी अनेक लोगों से मेरा मिलना हुआ है जो दक्षिण भारत के नगरों में बस गए थे|
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सन १९३७ तक बर्मा भारत का ही भाग था| सन १९३७ में अंग्रेजों ने इसे भारत से पृथक कर दिया था| ४ जनवरी १९४८ को इसे ब्रिटेन से स्वतन्त्रता मिली| स्वतन्त्रता के बाद यहाँ अनेक गृहयुद्ध हुए| ब्रिटिश शासन के दौरान बर्मा दक्षिण-पूर्व एशिया के सबसे धनी देशों में से था| विश्व का सबसे बड़ा चावल-निर्यातक होने के साथ शाल (टीक) सहित कई तरह की लकड़ियों का भी बड़ा उत्पादक था| वहाँ के खदानों से टिन, चांदी, टंगस्टन, सीसा, तेल आदि प्रचुर मात्रा में निकाले जाते थे| द्वितीय विश्वयुद्ध में खदानों को जापानियों के कब्ज़े में जाने से रोकने के लिए अंग्रेजों ने भारी मात्रा में बमबारी कर के नष्ट कर दिया था| स्वतंत्रता के बाद दिशाहीन समाजवादी नीतियों ने जल्दी ही बर्मा की अर्थ-व्यवस्था को कमज़ोर कर दिया और सैनिक सत्ता के दमन और लूट ने बर्मा को दुनिया के सबसे गरीब देशों की कतार में ला खड़ा किया| यहाँ इतना अन्न होता था कि सड़क का एक कुत्ता भी भूखे पेट नहीं सोता था| पर समाजवादी नीतियों ने इस देश का इतना बुरा हाल कर दिया था कि आधी आबादी भूखे पेट सोने लगी थी|
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यहाँ भारत के अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर को कैद कर रखा गया और यहीं उसे दफ़नाया गया| बरसों बाद बाल गंगाधर तिलक को बर्मा की मांडले जेल में कैद रखा गया| रंगून और मांडले की जेलें अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों की गवाह हैं| बर्मा में बड़ी संख्या में गिरमिटिया मजदूर ब्रिटिश शासन की गुलामी के लिए बिहार से ले जाए गए थे और वे कभी लौट कर नहीं आ सके| उनके वंशज वहाँ रहते हैं| द्वितीय विश्वयुद्ध में यहाँ लाखों भारतीय सैनिक मारे गए थे| यह वो पवित्र धरती है जहां से सुभाष चंद्र बोस ने गरजकर कहा था कि तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा| जब नेताजी ने यहां से आजाद हिंद फौज का ऐलान किया तो भारत में अंग्रेजी शासन की जड़ें हिल गईं थीं| जब अंग्रेजों से भारत को स्वतंत्र कराने के लिए देश के वीरों को अपना घर छोड़ना पड़ता था तो म्यांमा(र) यानि बर्मा उनका दूसरा घर बन जाता था|
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आजकल वहाँ भारत के प्रधानमंत्री गए हुए हैं| भारत की सुरक्षा के लिए भारत के म्यानमा (र) से अच्छे सम्बन्ध होने अति आवश्यक हैं| बर्मा के सैनिक शासकों ने बंगाल की खाड़ी में "कोको" नाम का एक द्वीप चीन को लीज पर दे दिया था जहाँ से चीन भारत पर जासूसी करता है| बंगाल की खाड़ी में इस द्वीप पर चीन की उपस्थिति भारत के लिए खतरा है|


०६ सितम्बर २०१७

श्राद्ध पक्ष .....

श्राद्ध पक्ष .....
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आज से श्राद्ध पक्ष का प्रारम्भ है| श्राद्ध पक्ष में क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इस पर प्रामाणिक रूप से विचार करना चाहिए|
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सभी श्रद्धालू श्राद्ध तो मनाते हैं, पर कई कठिनाइयाँ भी आती हैं, जैसे भोजन के लिए ब्राह्मण देवता नहीं मिलते, गौ ग्रास के लिए देसी गाएँ नहीं मिलती, कौवों के तो दर्शन ही दुर्लभ हो गये है| छोटे कस्बों और गाँवों में तो यह समस्या कम है, पर बड़े नगरों में तो बहुत अधिक है|
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आज की पीढी को तो पता ही नहीं है कि श्राध्द कर्म कैसे करते हैं| लोगों की श्रद्धा भी कम होती जा रही है| पुरुषों की तुलना में महिलाओं को धर्म-कर्म का अधिक ज्ञान है| मुझे यह सत्य लिखने में तनिक भी संकोच नहीं है कि हिन्दू समाज में धर्म-कर्म यदि जीवित हैं तो कुछ कुछ संस्कारित महिलाओं के कारण ही जीवित हैं| महिलाओं में धार्मिकता पुरुषों से अधिक है| पर आज की जो महिलाओं की युवा पीढी है उसे तो धर्म-कर्म का बिलकुल भी ज्ञान नहीं है| जब तक वे बड़ी होंगी तब तक लगता है धर्म-कर्म सब समाप्त होने लगेंगे|
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मुझे तो भविष्य से कोई अपेक्षा नहीं है| जो उचित लगे वह निज जीवन काल में ही कर दो| भविष्य से कोई अपेक्षा मत रखो|
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पुनश्चः : यह मेरी कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं है| यह तो समाज की एक समस्या है | व्यक्तिगत रूप से मेरी कोई समस्या नहीं है |
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः : आधे से अधिक हिन्दू तो श्राद्ध को मानते ही नहीं हैं| बहुत ही अल्प संख्या में ऐसे हैं जो विधि-विधान से करते हैं| ब्राह्मणों के विरुद्ध इतना अधिक दुष्प्रचार हुआ है कि समाज के एक बड़े वर्ग ने तो ब्राह्मणों को निमंत्रित करना ही बंद कर दिया है| ब्राह्मण के स्थान पर वे लोग किसी तीर्थ स्थान पर जाकर साधुओं का भंडारा कर के आ जाते हैं| अधिकाँश ब्राह्मणों ने भी कर्मकांड बंद कर दिया है|
मुझे लगता है कि आज की अधिकाँश मानवता पितृदोष से ग्रस्त है| पर किसी को यह बात कहेंगे तो वह निश्चित रूप से हमारी हँसी ही उड़ायेगा| पितृदोष से मुक्त होने का सुअवसर यह श्राद्ध पक्ष है|

साक्षात्कार हमें स्वयं करना होगा ........

परमात्मा का साक्षात्कार हमें स्वयं करना होगा, दूसरों के साक्षात्कार से हमें मोक्ष नहीं मिल सकता, वह हमारे किसी काम का नहीं है >>>>
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परमात्मा का साक्षात्कार हमें स्वयं करना होगा | दूसरों द्वारा किये हुए साक्षात्कार हमारे किसी काम नहीं आयेंगे | कुछ सम्प्रदाय कहते हैं कि परमात्मा के एक ही पुत्र है, या एक ही पैगम्बर है, सिर्फ उसी में आस्था रखो तभी स्वर्ग मिलेगा, अन्यथा नर्क की शाश्वत अग्नि में झोंक दिए जाओगे |
कुछ सम्प्रदाय या समूह कहते हैं कि हमारे फलाँ फलाँ सदगुरु ने या महात्मा ने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया है, अतः उनका ही ध्यान करो, और उनकी ही भक्ति करो, उन्हीं में आस्था रखो, उनके आशीर्वाद से मोक्ष मिल जाएगा, आदि आदि आदि |
>>> ये सब बातें वेद विरुद्ध हैं जो हमें कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकतीं | फिर भी हम दूसरों के पीछे पीछे मारे मारे फिरते हैं कि संभवतः उनके आशीर्वाद से हमें परमात्मा मिल जाएगा | पर ऐसा होता नहीं है |
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वेदों के ऋषि तो कहते हैं कि परमात्मा का अपरोक्ष साक्षात्कार सभी को हो सकता है, मोक्ष के लिए स्वयं का किया हुआ आत्म-साक्षात्कार ही काम का है, दूसरे का साक्षात्कार हमें मोक्ष नहीं दिला सकता |
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कृष्ण यजुर्वेद शाखा के श्वेताश्वतरोपनिषद में जगत के मूल कारण, ओंकार साधना, परमात्मतत्व से साक्षात्कार, योग साधना, जगत की उत्पत्ति, संचालन व विलय के कारण, विद्या-अविद्या, मुक्ति, आदि का वर्णन किया गया है | ध्यान योग साधना का आरम्भ वेद की इसी शाखा से होता है | बाद में तो इसका विस्तार ही हुआ है |
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जिसने परमात्मा को जान लिया उसे किसी का भय नहीं हो सकता | विराट तत्व को जानने से स्थूल का भय, और हिरण्यगर्भ को जानने से सूक्ष्म का भय नहीं रहता है |

इस उपनिषद् व अन्य उपनिषदों का स्वाध्याय करो, और इनमें दी हुई पद्धति से ध्यान साधना करो, सारे संदेह दूर हो जायेंगे |
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भगवान परम शिव हमारा निरंतर कल्याण कर रहे हैं | अनेक रहस्य इन पंक्तियों को लिखते समय मेरे समक्ष हैं, पर मुझ में उनको व्यक्त करने की सामर्थ्य नहीं है | मैं तो प्रभु का एक उपकरण मात्र हूँ, और कुछ भी नहीं | आत्म-साक्षात्कार की विधियाँ उपनिषदों में दी हुई हैं, बिना आत्म-साक्षात्कार के मोक्ष का कोई उपाय नहीं है| कोई अन्य short cut यहाँ नहीं है |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
०४ सितम्बर २०१७
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पुनश्चः : -- उपरोक्त लेख जोधपुर के स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी को समर्पित है | उन्हीं के आतंरिक आशीर्वाद और प्रेरणा से मैं ये पंक्तियाँ लिख पाया, अन्यथा मेरी कोई सामर्थ्य नहीं है | स्वामी जी कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती जी के शिष्य हैं, और जोधपुर में बिराजते हैं |

अंग्रेजी तिथि से मेरा जन्म दिवस ......

अंग्रेजी तिथि से मेरा जन्मदिवस .....
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 ग्रेगोरियन पंचांग के अनुसार आज ३ सितम्बर २०१७ को यह देह रूपी वाहन ६९ वर्ष पुराना हो गया है | इस देहरूपी वाहन पर ही यह लोकयात्रा चल रही है |
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रामचरितमानस के उत्तरकांड में भगवान श्रीराम ने इस देह को भव सागर से तारने वाला जलयान, सदगुरु को कर्णधार यानि खेने वाला, और अनुकूल वायु को स्वयं का अनुग्रह बताया है | यह भी कहा है कि जो मनुष्य ऐसे साधन को पा कर भी भवसागर से न तरे वह कृतघ्न, मंदबुद्धि और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है |
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो | सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ||
करनधार सदगुरु दृढ़ नावा | दुर्लभ साज सुलभ करि पावा || ४३.४ ||

( यह मनुष्य का शरीर भवसागर [से तारने] के लिये (जहाज) है | मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है | सदगुरु इस मजबूत जहाज के कर्णधार (खेनेवाले) हैं | इस प्रकार दुर्लभ (कठिनतासे मिलनेवाले) साधन सुलभ होकर (भगवत्कृपासे सहज ही) उसे प्राप्त हो गये हैं | )
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ |
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ||४४||
( जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतध्न और मन्द-बुद्धि है और आत्महत्या करनेवाले की गति को प्राप्त होता है | )
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अतः भवसागर को पार करना और इस साधन का सदुपयोग करना भगवान श्रीराम का आदेश है | मुझे बहुत बड़ी संख्या में शुभ कामना सन्देश मिले हैं | मैं उन सभी का उत्तर इस प्रस्तुति द्वारा दे रहा हूँ |
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आप सब को सादर साभार नमन | आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्तियाँ हैं | सब का कल्याण हो | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
०३ सितम्बर २०१७.
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मेरी आयु एक ही है, और वह है ... "अनंतता" .....
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जिस मानव देहरूपी नौका पर मैं इस जीवन-मृत्यु रूपी भव सागर को पार कर रहा हूँ, ..... वह नौका, उसके कर्णधार सद् गुरू, अनुकूल वायुरूप परमात्मा, और यह भवसागर ..... सब एक ही हैं | "उनके" सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है | वास्तव में मैं यह देह नहीं अपितु अनंत शाश्वत चैतन्य हूँ | मेरी आयु एक ही है, और वह है ..... अनन्तता | परम प्रेम मेरा स्वभाव है | यह पृथकता का बोध ही माया है जो सत्य नहीं है | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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My age is infinity, so it is only one. This bodily boat on which I am sailing across the ocean of life and death, the helmsman .... my guru, favorable wind .... the Divine, and I, are all one. There is no separation. The feeling of separation is false. Om Thou art That. Om Om Om .

जगत मजूरी देत है, क्यों न दे भगवान ......

जगत मजूरी देत है, क्यों न दे भगवान ......
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मुझे जीवन में ऐसे अनेक साधक मिले हैं जो अपना दैनिक कार्य करते हुए भी नित्य नियम से कम से कम कुल तीन घंटों तक, और सप्ताह में एक दिन कुल आठ घंटों तक परमात्मा का ध्यान करते थे | मुझे ऐसे साधकों से बड़ी प्रेरणा मिलती थी | ऐसे ही साधकों से मिलने में आनंद आता है | ऐसे साधकों में नौकरी करने वाले भी थे और स्वतंत्र व्यवसाय करने वाले भी | कुछ परिचित लोगों ने तो सेवानिवृति के पश्चात् अपना पूरा समय ही परमात्मा का ध्यान और सेवा के लिए समर्पित कर दिया |
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मुझे स्वयं पर तरस आता है | जब नौकरी करता था तब नित्य कम से कम आठ-दस घंटों तक काम करना पड़ता था तब जाकर वेतन मिलता था | फिर भी नित्य दो-तीन घंटे भगवान के लिए निकाल ही लिया करता था |
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पर अब सेवा निवृति के पश्चात वे ही आठ-दस घंटे परमात्मा को नहीं दे सकता, बड़े शर्म की बात है | लानत है ऐसे जीवन पर | धीरे धीरे समय बढ़ाना चाहिए | प्रमाद और दीर्घसूत्रता जैसे विकार उत्पन्न हो रहे हैं, जिनसे विक्षेप हो रहा है | अतः साधू, सावधान ! संभल जा, अन्यथा सामने नर्क की अग्नि है |
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कोई प्रार्थना भी नहीं कर सकता | प्रार्थना तो उस से की जाती है जो स्वयं से दूर हो | प्रार्थना के लिए कुछ तो दूरी चाहिए | पर यहाँ तो कुछ दूरी है ही नहीं |

हे प्रभु, आप ने ह्रदय में तो बैठा लिया पर अपने ध्यान से विमुख मत करो |
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मित्रों को यही कहना चाहूँगा कि खूब ध्यान करो | यह संसार भी मजदूरी देता ही है, तो भगवान क्यों नहीं देंगे ? भगवान के लिए खूब मजदूरी करो | जितनी मजदूरी करोगे उससे अधिक ही मिलेगा |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

इस सृष्टि का भविष्य सनातन वैदिक धर्म पर निर्भर है .....

इस सृष्टि का भविष्य सनातन वैदिक धर्म पर निर्भर है .....
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परमात्मा की सर्वाधिक अभिव्यक्ति भारत में ही हुई है अतः इस पृथ्वी का भविष्य भारत पर निर्भर है, और भारत का भविष्य सनातन धर्म पर निर्भर है | इस समस्त सृष्टि का भविष्य भी इस पृथ्वी पर निर्भर है चाहे भौतिक रूप से अनन्त कोटि ब्रह्मांडों में यह पृथ्वी नगण्य है | धर्म विहीन सृष्टि का सम्पूर्ण विनाश सुनिश्चित है |
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जब भी किसी के ह्रदय में परमात्मा को पाने की अभीप्सा जागृत होती है तो वह भारत की ओर ही देखता है | सनातन धर्म पर बहुत अधिक सोची समझी कुटिलताओं द्वारा सर्वाधिक क्रूर बौद्धिक मर्मान्तक प्रहार असुर ईसाई मिशनरियों द्वारा हुए हैं, और अभी भी हो रहे हैं |
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अरब, फारस और मध्य एशिया से आये लुटेरों ने तो अत्यधिक भयावह नरसंहार, देवस्थानों का विध्वंस, और बलात् धर्म परिवर्तन ही किया, और अभी भी वे पाशविक शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण विश्व पर एकाधिकार की सोच रहे हैं |
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पर ईसाई आक्रान्ताओं ने तो बहुत सोच समझ कर कुटिल धूर्तता से भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था और कृषि व्यवस्था को नष्ट कर धर्म की जड़ें ही खोद दी हैं | उन्होंने हमारे अनेक धर्मग्रंथों में मिलावट कर के प्रक्षिप्त कर दिया, अधिकाँश धर्मग्रंथ नष्ट कर दिए और हमें बहुत अधिक बदनाम भी किया है | वे हमारी सारी धन संपदा को लूट कर हमें निर्धन बना गए, और अभी भी हम उनके मानसपुत्रों की दासता सह रहे हैं | उनके लिए उनका पंथ एक माध्यम है अपनी राजनीतिक सत्ता के विस्तार के लिए | ईश्वर भी एक माध्यम है उनके लिए, असली लक्ष्य तो अपने वर्चस्व का विस्तार है |
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जिन्होंने उनके मत की स्थापना की थी उन ईसा मसीह ने तो फिलिस्तीन से 13 वर्ष की उम्र में ही भारत आकर 30 वर्ष की उम्र तक यानि 17 वर्षों तक भारत में ही रह कर अध्ययन और साधना की थी | तत्पश्चात 3 वर्ष के लिए वे बापस फिलीस्तीन चले गए थे | वहाँ सनातन धर्म का प्रचार किया, व ३३ वर्ष की उम्र में सूली से जीवित बचकर भारत में ही बापस आकर 112 वर्ष तक की उम्र पाने के पश्चात कश्मीर के पहलगांव में देह त्याग किया था |
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भारत नष्ट नहीं होगा और सनातन धर्म भी कभी नष्ट नहीं होगा | नष्ट होगा तो हमारा अहंकार और हमारी पृथकता ही नष्ट होगी |
हमारा धर्म है ... आत्मज्ञान द्वारा निज जीवन में परमात्मा की अभिव्यक्ति | हम अपने निज जीवन में धर्म का पालन करें, यही धर्म की रक्षा होगी |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

हमारा पृथक अस्तित्व उस परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है .....

हमारा पृथक अस्तित्व उस परम प्रेम और परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है .....
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धरती ने ऐसा क्या तप किया है ? आकाश ने कौन सा योग किया है ? सूर्य-चन्द्रमा ने क्या कोई यज्ञ किया है ? सूर्य, चन्द्र और तारों को चमकने के लिए क्या साधना करनी पडती है ? पुष्प को महकने के लिए कौन सी तपस्या करनी पडती है ? महासागर को गीला होने के लिए कौन सा तप करना पड़ता है ?
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शांत होकर प्रभु को अपने भीतर बहने दो | उसकी उपस्थिति के सूर्य को अपने भीतर चमकने दो| जब उसकी उपस्थिति के प्रकाश से ह्रदय पुष्प की भक्ति रूपी पंखुड़ियाँ खिलेंगी तो उसकी महक हमारे ह्रदय से सर्वत्र फ़ैल जायेगी |
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जब हम कभी एक अति उत्तुंग पर्वत शिखर से नीचे की गहराई में झाँकते हैं तो वह डरावनी गहराई भी हमारे में झाँकती है | ऐसे ही जब हम नीचे से अति उच्च पर्वत को घूरते हैं तो वह पर्वत भी हमें घूरता है | जिसकी आँखों में हम देखते हैं, वे आँखें भी हमें देखती हैं | जिससे भी हम प्रेम या घृणा करते हैं, उससे वैसी ही प्रतिक्रिया कई गुणा होकर हमें ही प्राप्त होती है |
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जब हम प्रभु को प्रेम करते हैं तो वह प्रेम अनंत गुणा होकर हमें ही प्राप्त होता है | वह प्रेम हम स्वयं ही है | प्रभु में हम समर्पण करते हैं तो प्रभु भी हम में समर्पण करते हैं | जब हम शिवत्व में विलीन हो जाते हैं तो वह शिवत्व भी हम में ही विलीन हो जाता है और हम स्वयं साक्षात् शिव बन जाते हैं |
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जहाँ न कोई क्रिया-प्रतिक्रिया है, न कोई मिलना-बिछुड़ना है, कोई अपेक्षा या माँग नहीं है, जो बैखरी मध्यमा पश्यन्ति और परा से भी परे है, वह असीमता, अनंतता व सम्पूर्णता हम स्वयं ही हैं |
हमारा पृथक अस्तित्व उस परम प्रेम और परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है |
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

01 सितम्बर 2014

आत्मा में श्रद्धा .....

आत्मा में श्रद्धा .....
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आत्मा ही सत्य है, आत्मा ही तत्व है, आत्मा ही हमारा वास्तविक स्वरुप है, और आत्मा में श्रद्धा ही आलोक के सारे द्वार खोलती है | श्रद्धा ही सारे फल देती है और यह श्रद्धा ही है जिसने हमें यह जीवन दे रखा है | श्रद्धा हर प्रकार के भटकाव से हमारी रक्षा करती है |
श्रद्धा और विश्वास ही पुरुष व प्रकृति हैं, श्रद्धा और विश्वास ही भवानी शंकर हैं, श्रद्धा और विश्वास ही परम पिता और जगन्माता हैं |
संत तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस के आरम्भ में ही श्रद्धा-विश्वास के रूप में भवानी शंकर की वन्दना की है .....
भवानी शङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ | याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम् ||

हे प्रभु, हमारी श्रद्धा, हमारी आस्था कभी विचलित न हो |
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
३१ अगस्त २०१७

परमात्मा से कम हमें कुछ भी नहीं चाहिए >>>

परमात्मा से कम हमें कुछ भी नहीं चाहिए >>>>>
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अंतर्रात्मा की घोर व्याकुलता और तड़फ ...... वास्तव में परमात्मा के लिए ही होती है | हमारा अहंकार ही हमें परमात्मा से दूर ले जाता है | हमारी अंतर्रात्मा जो हमारा वास्तविक अस्तित्व है को आनंद सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के ध्यान में ही आता है | हमारी खिन्नता का कारण अहंकारवश अन्य विषयों की ओर चले जाना है | वास्तविक सुख, शांति, सुरक्षा और आनंद सिर्फ और सिर्फ परमात्मा में ही है, अन्यत्र कहीं भी नहीं |
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जितनी दीर्घ अवधी तक गहराई के साथ हम ध्यान करेंगे, उसी अनुपात में उतनी ही आध्यात्मिक प्रगति होगी | मात्र पुस्तकों के अध्ययन से संतुष्टि नहीं मिल सकती | पुस्तकों को पढने से प्रेरणा मिलती है, यही उनका एकमात्र लाभ है |
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जिसे उपलब्ध होने के लिए ह्रदय में एक प्रचंड अग्नि जल रही है, चैतन्य में जिसके अभाव में ही यह सारी तड़प और वेदना है, वह परमात्मा ही है | जानने और समझने योग्य भी एक ही विषय है, जिसे जानने के पश्चात सब कुछ जाना जा सकता है, जिसे जानने पर हम सर्वविद् हो सकते हैं, जिसे पाने पर परम शान्ति, परम संतोष व संतुष्टि प्राप्त हो सकती है, वह है ... परमात्मा |
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जिससे इस सृष्टि का उद्भव, स्थिति और संहार यानि लय होता है .... वह परमात्मा ही है | वह परमात्मा ही है जो सभी रूपों में व्यक्त हो रहा है | जो कुछ भी दिखाई दे रहा है या जो कुछ भी है, वह परमात्मा ही है | परमात्मा से भिन्न कुछ भी नहीं है | इसकी अनुभूति गहन ध्यान में ही होती है, बुद्धि से नहीं | परमात्मा अनुभव गम्य है, बुद्धि गम्य नहीं |
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सारी पूर्णता, समस्त अनंतता और सम्पूर्ण अस्तित्व परमात्मा ही है | उस परमात्मा को हम चैतन्य रूप में प्राप्त हों, उसके साथ एक हों | उस परमात्मा से कम हमें कुछ भी नहीं चाहिए |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
३१ अगस्त २०१७