रथस्य वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते | इस शरीर रूपी रथ में जो आत्मा को देखता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता|
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"पीत्वा पीत्वा पुनर्पीत्वा, यावत् पतति भूतले| उत्थाय च पुनर्पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते ||"
(तन्त्रराज-तन्त्र)
अर्थात् पीये, पीये और बारंबार पीये, तब तक पीये जब तक पीकर भूमि पर न गिर जाए | उठ कर जो फिर से पीता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता|
(यह तंत्र की भाषा है जिसे कोई अधिकृत योगी गुरु ही समझा सकता है)
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यहाँ भूमि-तत्व के मूलाधार-चक्र में स्थित कुण्डलिनी महाशक्ति के जागृत हो कर सुषुम्ना मार्ग से ऊपर उठ कर सहस्त्रार-चक्र में परमशिव के साथ विहार यानि मिलन का वर्णन है| विहार के पश्चात कुण्डलिनी नीचे मूलाधार-चक्र में पुनश्चः लौट आती है| पुनः बार बार उसे उठाकर सहस्त्रार-चक्र तक लाकर परमशिव से मिलन कराने पर पुनर्जन्म नहीं होता|
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इस क्रिया-योग को बार बार करने पर एक आनंददायी मादकता सी होती है| सौन्दर्य लहरी के नौवें श्लोक में आचार्य शंकर ने महाशक्ति कुण्डलिनी के परमशिव के साथ विहार का वर्णन किया है....
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"पीत्वा पीत्वा पुनर्पीत्वा, यावत् पतति भूतले| उत्थाय च पुनर्पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते ||"
(तन्त्रराज-तन्त्र)
अर्थात् पीये, पीये और बारंबार पीये, तब तक पीये जब तक पीकर भूमि पर न गिर जाए | उठ कर जो फिर से पीता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता|
(यह तंत्र की भाषा है जिसे कोई अधिकृत योगी गुरु ही समझा सकता है)
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यहाँ भूमि-तत्व के मूलाधार-चक्र में स्थित कुण्डलिनी महाशक्ति के जागृत हो कर सुषुम्ना मार्ग से ऊपर उठ कर सहस्त्रार-चक्र में परमशिव के साथ विहार यानि मिलन का वर्णन है| विहार के पश्चात कुण्डलिनी नीचे मूलाधार-चक्र में पुनश्चः लौट आती है| पुनः बार बार उसे उठाकर सहस्त्रार-चक्र तक लाकर परमशिव से मिलन कराने पर पुनर्जन्म नहीं होता|
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इस क्रिया-योग को बार बार करने पर एक आनंददायी मादकता सी होती है| सौन्दर्य लहरी के नौवें श्लोक में आचार्य शंकर ने महाशक्ति कुण्डलिनी के परमशिव के साथ विहार का वर्णन किया है....
"महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं,
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि |
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्त्वा कुलपथं.
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसे ||९||
हे पराशक्ति कुण्डलिनी रूपे भगवती ! तुम मूलाधार में पृथ्वीतत्व, मणिपूर (संहार क्रम में, स्वाधिष्ठान के बदले) में जल-तत्व, स्वाधिष्ठान में अग्नि-तत्व (मणिपुर), हृदय के अनाहत चक्र में मरुत् रूप में, तथा उसके ऊपर विशुद्धि-चक्र में आकाश-तत्व, तथा भ्रूमध्य के आज्ञा-चक्र में मनस्तत्त्व को पार कर के, कुलपथ (बांस जैसे सुषुम्ना मार्ग) को भेदते हुये सहस्रार-पद्म में पति परमेश्वर के साथ रह कर विहार करती हो|
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ॐ श्रीगुरुभ्यो नमः ! ॐ गुरु ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१९
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पुनश्चः :----
"सुधाधारासारैश्चरणयुगलान्तर्विगलितैः
प्रपञ्चं सिञ्चन्ती पुनरपि रसाम्नायमहसः|
अवाप्य स्वां भूमिं भुजगनिभमध्युष्टवलयं
स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणि||१०|| इस मन्त्र में कुण्डलिनी का मूलाधार में आना लिखा है|
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि |
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्त्वा कुलपथं.
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसे ||९||
हे पराशक्ति कुण्डलिनी रूपे भगवती ! तुम मूलाधार में पृथ्वीतत्व, मणिपूर (संहार क्रम में, स्वाधिष्ठान के बदले) में जल-तत्व, स्वाधिष्ठान में अग्नि-तत्व (मणिपुर), हृदय के अनाहत चक्र में मरुत् रूप में, तथा उसके ऊपर विशुद्धि-चक्र में आकाश-तत्व, तथा भ्रूमध्य के आज्ञा-चक्र में मनस्तत्त्व को पार कर के, कुलपथ (बांस जैसे सुषुम्ना मार्ग) को भेदते हुये सहस्रार-पद्म में पति परमेश्वर के साथ रह कर विहार करती हो|
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ॐ श्रीगुरुभ्यो नमः ! ॐ गुरु ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१९
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पुनश्चः :----
"सुधाधारासारैश्चरणयुगलान्तर्विगलितैः
प्रपञ्चं सिञ्चन्ती पुनरपि रसाम्नायमहसः|
अवाप्य स्वां भूमिं भुजगनिभमध्युष्टवलयं
स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणि||१०|| इस मन्त्र में कुण्डलिनी का मूलाधार में आना लिखा है|