Sunday, 4 June 2017

साधना का पथ कठिन है .....

साधना का पथ कठिन है .....
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देवता भी नहीं चाहते कि कोई जीवात्मा मुक्त हो| वे भी एक मुमुक्षु के मार्ग में निरंतर यथासंभव बाधाएँ उत्पन्न करते हैं| आसुरी शक्तियाँ तो चाहती ही हैं कि कैसे भी साधक भ्रष्ट हो और वे उसे अपने अधिकार में कर लें|
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लौकिक विघ्न दूर किये बिना धर्म का पालन असंभव है| आजकल घर-परिवारों और समाज का वातावरण इतना विषाक्त है कि नित्य नैमित्तिक कर्म करना और सदाचार का पालन करना अत्यंत कठिन होता जा रहा है| अतः ब्रह्मनिष्ठ सद् गुरू का आश्रय, निरंतर सत्संग, वैराग्य और अभ्यास अति आवश्यक है|
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बहुत दुर्लभ दृढ़ता वाला मुमुक्षु ही विघ्नों को लाँघ कर साक्षात्कार कर सकता है| परमात्मा ही करुणा कर के निरंतर प्रेरणा देते रहते हैं| नित्य नियमित उपासना आवश्यक है अन्यथा मुमुक्षुत्व ही लुप्त हो जाता है| साधना स्वयं के वश की नहीं है| अपने इष्ट देव को ही साधक, साध्य और साधना बनाना सर्वाधिक आसान है|
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ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ |||

गंगा दशहरा :---

गंगा दशहरा :---
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ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी को हस्त नक्षत्र में भागीरथ की तपस्या से माँ गंगा का भारत की इस पावन धरा पर अवतरण हुआ था| अतः इस दिन को गंगा दशहरा के नाम से जाना जाने लगा| आज गंगा दशहरा के दिन गंगा-स्नान का विशेष महत्व है| कई श्रद्धालू गंगा स्नान के पश्चात पितृ तर्पण और दान-पुण्य भी करते हैं|
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सेतुबंध रामेश्वर की प्रतिष्ठा भी ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी को हुई थी| महर्षि याज्ञवल्क्य का जन्म भी ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी को हुआ था|
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श्री गंगा स्तोत्र... (रचना : आदि जगद्गुरु शंकराचार्य)
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दॆवि! सुरॆश्वरि! भगवति! गङ्गॆ त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गॆ ।
शङ्करमौलिविहारिणि विमलॆ मम मतिरास्तां तव पदकमलॆ ॥ 1 ॥
[हे देवी ! सुरेश्वरी ! भगवती गंगे ! आप तीनो लोको को तारने वाली हो... आप शुद्ध तरंगो से युक्त हो... महादेव शंकर के मस्तक पर विहार करने वाली हो... हे माँ ! मेरा मन सदैव आपके चरण कमलो पर आश्रित है...
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भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमॆ ख्यातः ।
नाहं जानॆ तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ 2 ॥
[ हे माँ भागीरथी ! आप सुख प्रदान करने वाली हो... आपके दिव्य जल की महिमा वेदों ने भी गई है... मैं आपकी महिमा से अनभिज्ञ हू... हे कृपामयी माता ! आप कृपया मेरी रक्षा करें...
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हरिपदपाद्यतरङ्गिणि गङ्गॆ हिमविधुमुक्ताधवलतरङ्गॆ ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ 3 ॥
[ हे देवी ! आपका जल श्री हरी के चरणामृत के समान है... आपकी तरंगे बर्फ, चन्द्रमा और मोतिओं के समान धवल हैं... कृपया मेरे सभी पापो को नष्ट कीजिये और इस संसार सागर के पार होने में मेरी सहायता कीजिये...
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तव जलममलं यॆन निपीतं परमपदं खलु तॆन गृहीतम् ।
मातर्गङ्गॆ त्वयि यॊ भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ 4 ॥
[हे माता ! आपका दिव्य जल जो भी ग्रहण करता है, वह परम पद पता है... हे माँ गंगे ! यमराज भी आपके भक्तो का कुछ नहीं बिगाड़ सकते...
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पतितॊद्धारिणि जाह्नवि गङ्गॆ खण्डित गिरिवरमण्डित भङ्गॆ ।
भीष्मजननि हॆ मुनिवरकन्यॆ पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्यॆ ॥ 5 ॥
[हे जाह्नवी गंगे ! गिरिवर हिमालय को खंडित कर निकलता हुआ आपका जल आपके सौंदर्य को और भी बढ़ा देता है... आप भीष्म की माता और ऋषि जह्नु की पुत्री हो... आप पतितो का उद्धार करने वाली हो... तीनो लोको में आप धन्य हो...
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कल्पलतामिव फलदां लॊकॆ प्रणमति यस्त्वां न पतति शॊकॆ ।
पारावारविहारिणिगङ्गॆ विमुखयुवति कृततरलापाङ्गॆ ॥ 6 ॥
[ हे माँ ! आप अपने भक्तो की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली हो... आपको प्रणाम करने वालो को शोक नहीं करना पड़ता... हे गंगे ! आप सागर से मिलने के लिए उसी प्रकार उतावली हो जिस प्रकार एक युवती अपने प्रियतम से मिलने के लिए होती है...
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तव चॆन्मातः स्रॊतः स्नातः पुनरपि जठरॆ सॊपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गङ्गॆ कलुषविनाशिनि महिमॊत्तुङ्गॆ ॥ 7 ॥
[हे माँ ! आपके जल में स्नान करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता... हे जाह्नवी ! आपकी महिमा अपार है... आप अपने भक्तो के समस्त कलुशो को विनष्ट कर देती हो और उनकी नरक से रक्षा करती हो...
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पुनरसदङ्गॆ पुण्यतरङ्गॆ जय जय जाह्नवि करुणापाङ्गॆ ।
इन्द्रमुकुटमणिराजितचरणॆ सुखदॆ शुभदॆ भृत्यशरण्यॆ ॥ 8 ॥
[हे जाह्नवी ! आप करुणा से परिपूर्ण हो... आप अपने दिव्य जल से अपने भक्तो को विशुद्ध कर देती हो... आपके चरण देवराज इन्द्र के मुकुट के मणियो से सुशोभित हैं... शरण में आने वाले को आप सुख और शुभता (प्रसन्नता) प्रदान करती हो...
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रॊगं शॊकं तापं पापं हर मॆ भगवति कुमतिकलापम् ।
त्रिभुवनसारॆ वसुधाहारॆ त्वमसि गतिर्मम खलु संसारॆ ॥ 9 ॥
[ हे भगवती ! मेरे समस्त रोग, शोक, ताप, पाप और कुमति को हर लो... आप त्रिभुवन का सार हो और वसुधा (पृथ्वी) का हार हो... हे देवी ! इस समस्त संसार में मुझे केवल आपका ही आश्रय है...
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अलकानन्दॆ परमानन्दॆ कुरु करुणामयि कातरवन्द्यॆ ।
तव तटनिकटॆ यस्य निवासः खलु वैकुण्ठॆ तस्य निवासः ॥ 10 ॥
[हे गंगे ! प्रसन्नता चाहने वाले आपकी वंदना करते हैं... हे अलकापुरी के लिए आनंद-स्रोत... हे परमानन्द स्वरूपिणी... आपके तट पर निवास करने वाले वैकुण्ठ में निवास करने वालो की तरह ही सम्मानित हैं...
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वरमिह नीरॆ कमठॊ मीनः किं वा तीरॆ शरटः क्षीणः ।
अथवाश्वपचॊ मलिनॊ दीनस्तव न हि दूरॆ नृपतिकुलीनः ॥ 11 ॥
[ हे देवी ! आपसे दूर होकर एक सम्राट बनकर जीने से अच्छा है आपके जल में मछली या कछुआ बनकर रहना... अथवा तो आपके तीर पर निर्धन चंडाल बनकर रहना...
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भॊ भुवनॆश्वरि पुण्यॆ धन्यॆ दॆवि द्रवमयि मुनिवरकन्यॆ ।
गङ्गास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरॊ यः स जयति सत्यम् ॥ 12 ॥
[हे ब्रह्माण्ड की स्वामिनी ! आप हमें विशुद्ध करें... जो भी यह गंगा स्तोत्र प्रतिदिन गाता है... वह निश्चित ही सफल होता है...
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यॆषां हृदयॆ गङ्गा भक्तिस्तॆषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकन्ता पञ्झटिकाभिः परमानन्दकलितललिताभिः ॥ 13 ॥
[ जिनके हृदय में गंगा जी की भक्ति है... उन्हें सुख और मुक्ति निश्चित ही प्राप्त होते हैं... यह मधुर लययुक्त गंगा स्तुति आनंद का स्रोत है...
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गङ्गास्तॊत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।
शङ्करसॆवक शङ्कर रचितं पठति सुखीः तव इति च समाप्तः ॥ 14 ॥
[भगवत चरण आदि जगद्गुरु द्वारा रचित यह स्तोत्र हमें विशुद्ध कर हमें वांछित फल प्रदान करे...

साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण .... इन सब में भेद करना मात्र अज्ञानता है .....

साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण .... इन सब में भेद करना मात्र अज्ञानता है .....
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इस सृष्टि में कुछ भी निराकार नहीं है| जो भी सृष्ट हुआ है वह साकार है| एक बालक चौथी कक्षा में पढ़ता है, और एक बालक बारहवीं में पढता है, सबकी अपनी अपनी समझ है| जो जिस भाषा और जिस स्तर पर पढता है उसे उसी भाषा और स्तर पर पढ़ाया जाता है| जिस तरह शिक्षा में क्रम होते हैं वैसे ही साधना और आध्यात्म में भी क्रम हैं| एक सद्गुरू आचार्य को पता होता है कि किसे क्या उपदेश और साधना देनी है, वह उसी के अनुसार शिष्य को शिक्षा देता है|
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मेरा इस देह में जन्म हुआ उससे पूर्व भी परमात्मा मेरे साथ थे, इस देह के पतन के उपरांत भी वे ही साथ रहेंगे| वे ही माता-पिता, भाई-बहिन, सभी सम्बन्धियों और मित्रों के रूप में आये| यह उन्हीं का प्रेम था जो मुझे इन सब के रूप में मिला| वे ही मेरे एकमात्र सम्बन्धी और मित्र हैं| उनका साथ शाश्वत है|
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जो लोग समाज में बड़े आक्रामक होकर मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, वे भी या तो अपने गुरु के भौतिक चेहरे का ध्यान करते हैं, या ज्योति, नाद या किसी मन्त्र का जप करते हैं| यह भी साकार साधना ही है|
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वेदांत में जो ब्रह्म है, जिसे परब्रह्म भी कहते हैं, साकार रूप में वे ही भगवान श्रीकृष्ण के रूप में आये थे|| उनकी शिक्षाएँ श्रुतियों का सार है|
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किसी भी तरह के वाद-विवाद में न पड़ कर अपना समय नष्ट न करें और उसका सदुपयोग परमात्मा के अपने प्रियतम रूप के ध्यान में लगाएँ|
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कमर को सीधी कर के बैठें भ्रूमध्य में ध्यान करें और एकाग्रचित्त होकर उस ध्वनी को सुनते रहें जो ब्रह्मांड की ध्वनी है| हम यह देह नहीं है, परमात्मा की अनंतता हैं| अपनी सर्वव्यापकता पर ध्यान करें| ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
०४ जून २०१६

हमारे पतन का कारण और बचने के उपाय :--

हमारे पतन का कारण और बचने के उपाय :--
(स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के सत्संग से संकलित और साभार संपादित लेख)
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हमारे पतन का कारण हमारे मनोविकार हैं जो राग-द्वेष, क्रोध, भय, शोक और अभिमान से उत्पन्न होते हैं| इनसे बचने का उपाय यही है कि हम अपनी इच्छाओं यानि कामनाओं का शमन करें और उनसे मुक्त हों| इसके लिए हमें जीवन की आवश्यकताओं को कम करना होगा| संग्रह उतना ही करें जितना अति आवश्यक हो, उससे अधिक नहीं| संतोष व संयम दोनों ही आवश्यक हैं| मन के संतोष से करोड़पति और दरिद्र का भेद नही रहता| तृष्णायुक्त धनवान.... दरिद्र से बुरा है, और तृष्णा-विरत निर्धन ....धनवान से अधिक सुखी तथा स्वस्थ है| मन में संतोष होगा तो उसमें विकार उत्पन्न होने का कारण ही नहीं रहेगा|
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विषयों पर निरंतर ध्यान से कामवासना उत्पन्न होती है, जिसकी पूर्ती न होने से क्रोध उत्पन्न होता है| क्रोध से मोह अर्थात् कर्तव्याकर्तव्य की अज्ञानता उत्पन्न होती है, जिस से मनुष्य बारंबार भूलें करता है, इसे ही स्मृतिनाश कहते हैं| स्मृतिनाश से बुद्धिनाश हो जाता है और फिर सर्वनाश निश्चित् है|
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आहार की शुद्धता से मन की शुद्धि होती है| मन की शुद्धि से बुद्धि संतुलित होती हैं, फिर स्मृति लाभ होता है और आत्मज्ञान प्राप्त होता है|
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मानसिक आरोग्य के लिए मनोनिग्रह का अभ्यास सर्वोपरि है| मनोनिग्रह द्वारा विषयासक्ति से निश्चित छुटकारा मिलता है| मनोनिग्रह सात्त्विक आचरणों से सुगमता पूर्वक साध्य होता है| सात्त्विक आचरणों की भूमिका का निर्माण संध्या-वन्दन, अग्निहोत्र, ध्यान, जप और दान आदि आदर्श प्रवृतियों से होता है|
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शरीर और मन का अन्योनाश्रय सम्बन्ध है| शारीरिक क्षीणता से जब मस्तिष्क कमजोर होता है तो अनिद्रा, अस्थिरता, भ्रम, अशान्ति, भय, घबराहट आदि लक्षण उत्पन्न होते है जो मानसिक उद्वेगोँ को बढ़ाते हैं| बाल्यकाल में ही वेदोक्त स्वस्थवृत का अभ्यास रहे तो रात-दिन परिश्रम करने पर भी शारीरिक क्षीणता नही होती और जीवन मेँ मानसिक आनन्द बना रहता है|
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छात्र जीवन आजकल कुछ विचित्र होता जा रहा है| शिक्षक गुरुओं के प्राचीन दायित्व से कतराते हैं और छात्रों का संग भी कुछ विकृत होता जा रहा है| इस कारण बहुत पहले से ही बालक या तरुण का मानसिक और शारीरिक विकास यथोचित नही हो पा रहा है| माता-पिता या अभिभावक को बालक के विकास की ओर विशेष सतर्कता बरतने की आवश्यकता होती है ताकि उन से "प्रज्ञापराध" न हो|
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मानसिक स्वास्थ्य हमारे शारिरीक स्वास्थ्य की आधारशिला है| स्वस्थ मन के बिना स्वस्थ शरीर की कल्पना गलत है| वस्तुतः शरीर की प्रमुख संचालिका गति-शक्ति मन ही है| शरीर उसका आवरण मात्र है| भीतर के तत्त्व का सीधा और प्रत्यक्ष प्रभाव आवरण पर होता है| मन की स्थिति का प्रतिबिम्ब शरीर पर निश्चित पड़ता है| जिसका अन्तःकरण स्वस्थ होगा, उसका शरीर निश्चित ही स्वस्थ होगा| मन तो बीज है| बीज के अनुरूप ही वृक्ष और फल होता है|
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हमारा मन सदा स्वस्थ रहे, इसके लिए दैनिक जीवन में संयम-नियम, संतोष और मनोनिग्रह का अभ्यास निरन्तर करना चाहिए| इस अभ्यास का सर्वोत्तम साधन अध्यात्म-भावना पूर्वक परमात्मा की उपासना करना है| इसके लिए आपको कोई धन खर्च करना न पड़ेगा, बस थोड़ा ध्यान, थोड़ा स्मरण और थोड़ा अपनी ओर लोटने का प्रयत्न करना है| नारायण। नारायण|| नारायण|||
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(स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के सत्संग से संकलित और साभार संपादित)