Monday 11 October 2021

सिर्फ परमात्मा (ब्रह्म) ही सत्य है ---

 सिर्फ परमात्मा (ब्रह्म) ही सत्य है .....

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सिर्फ परमात्मा ही सत्य हैं| यह आभासीय जगत उनका एक लीला-विलास है| हम एक शाश्वत-आत्मा, परमात्मा का अंश ही नहीं, उनके साथ एक हैं| हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है| हमारे चैतन्य में सिर्फ परमात्मा ही रहें|
गीता में भगवान कहते हैं .....
"समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः| ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्||९:२९||"
अर्थात् मैं समस्त भूतों में सम हूँ; न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय; परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ||
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"ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः| मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति||१५:७||"
अर्थात् इस जीव लोक में मेरा ही एक सनातन अंश जीव बना है| वह प्रकृति में स्थित हुआ (देहत्याग के समय) पाँचो इन्द्रियों तथा मन को अपनी ओर खींच लेता है अर्थात् उन्हें एकत्रित कर लेता है||
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गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं ...
"ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन विमल सहज सुख राशी |
सो माया वश भयो गोसाईं बंध्यो जीव मरकट के नाहीं ||"
अर्थात् जैसे बन्दर मुट्ठी बाँध के संकड़े मुँह वाले बर्तन में खुद ही फँसता है, वैसे ही जीव भी स्वयं की मान्यताओं से फँस जाता है|
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हमारा एकमात्र अस्तित्व परमात्मा है, हमारा एकमात्र संबंध परमात्मा से है, और हम परमात्मा से पृथक नहीं हैं| हमारा मत-मतांतर, हमारा सिद्धान्त, हमारा धर्म, हमारा सर्वस्व परमात्मा ही है| उस से पृथक कुछ भी नहीं है| जैसे समुद्र में जल की एक बूंद होती है, वैसे हम भी इस महासागर के अंश और स्वयं यह महासागर हैं|
ॐ तत्सत् || ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अक्तूबर २०२०

 यज्ञ क्या है? और उसे कैसे करे? ---

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यज्ञ एक धार्मिक कृत्य है, पर जैसा मुझे समझ में आया है, उसके अनुसार ... जो भी कार्य समष्टि के कल्याण और परोपकार के लिए किया जाता है, वह "यज्ञ" है| समष्टि के लिए सर्वश्रेष्ठ कार्य जो कोई कर सकता है वह है ..... परमात्मा से अहैतुकी परमप्रेम, और समर्पण| यहाँ हम अपने मानित्व/अहं की आहुति परमात्मा को देते हैं| जब अहं समाप्त हो जाता है तब केवल परमात्मा ही बचते हैं| यही समष्टि की सबसे बड़ी सेवा और सबसे बड़ा यज्ञ है|
गीता में भगवान कहते हैं ...
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||"
अर्थात् अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है, और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है, ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञों में स्वयं को "जपयज्ञ" बताया है ....
"महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्| यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः||१०:२५||"
अर्थात् मैं महर्षियों में भृगु और वाणी (शब्दों) में एकाक्षर ओंकार हूँ| मैं यज्ञों में जपयज्ञ और स्थावरों (अचलों) में हिमालय हूँ||"
अग्नि पुराण के अनुसार ..... "जकारो जन्म विच्छेदः पकारः पाप नाशकः| तस्याज्जप इति प्रोक्तो जन्म पाप विनाशकः||"
इसका अर्थ है .... ‘ज’ अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा, ‘प’ अर्थात् पापों का नाश ..... इन दोनों प्रयोजनों को पूरा कराने वाली साधना को ‘जप’ कहते हैं|
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जहां तक मुझे समझ में आया है, ओंकार का निरतर मानसिक श्रवण और मानसिक जप ही वह यज्ञ है, जिसे भगवान श्रीकृष्ण बता रहे है| जिसे भगवान श्रीकृष्ण बता रहे हैं, वह ही निजी स्तर पर किया हुआ श्रेष्ठतम यज्ञ है
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इस जीवन में माता पिता की सेवा और सम्मान प्रथम यज्ञ है| उसके बिना अन्य यज्ञ सफल नहीं होते| वे लोग भाग्यशाली हैं जिन्हें माता पिता की सेवा का अवसर मिलता है| माता पिता का तिरस्कार करने वाले से उसके पितृगण प्रसन्न नहीं होते| उसके घर में कोई सुख शांति नहीं होती और उसके सारे यज्ञ-कर्म विफल होते हैं|
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इस ग्रह पृथ्वी के देवता 'अग्नि' हैं| अग्नि का अर्थ ऊर्जा भी होता है| भूगर्भ में जो अग्नि रूपी ऊर्जा है उस के कारण, और सूर्य से प्राप्त ऊर्जा के कारण ही इस पृथ्वी गृह पर जीवन है| भूगर्भस्थ अग्नि के कारण ही हमें सब प्रकार के रत्न, धातुएँ और वनस्पति प्राप्त होती हैं| ऋग्वेद का प्रथम मंत्र कहता है .....
"ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् | होतारं रत्नधातमम् ||"
यहाँ अग्नि का अर्थ ऊर्जा भी है| पुरोहित का अर्थ होता है जो इस पुर का हित देखता है| लौकिक रूप से इस पृथ्वी लोक पर परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक "अग्नि" है, उसी की ऊर्जा हमें जीवित रखती है| उस "अग्नि" में हम समष्टि के कल्याण के लिए कुछ विशिष्ट मन्त्रों के साथ आहुतियाँ देते हैं वह भी यज्ञ का एक रूप है| अग्नि देवता इस पृथ्वी के सबसे बड़े पुरोहित हैं|
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आजकल जिसे क्रियायोग कहते हैं उसमें विशिष्ट विधि द्वारा प्राण में अपान, और अपान में प्राण कि आहुतियाँ देते हैं| यह क्रियायोग भी एक यज्ञ है|
"अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे| प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः||४:२९||"
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परोपकार के लिए हम जो भी कार्य करते हैं वह भी यज्ञ की श्रेणी में आता है| भगवान की भक्ति भी एक यज्ञ है| परमात्मा की चर्चा "ज्ञान यज्ञ" है|
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हिरण्यगर्भ सूक्त के "कस्मै देवाय हविषा विधेम?" अर्थात हम किस देवता की प्रार्थना करें और किस देवता के लिए हवन करें, यजन करें, प्रार्थना करें? कौन सा देव है,जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा कर सके, हमको शांति प्रदान कर सके, हमें ऊँचा उठाने में सहायता दे सके? किस देवता को प्रणाम करें? ऐसा देव कौन है? मेरी समझ से ये वे देव हैं जिन्होनें मुझ में ही नहीं, पूरी सृष्टि में स्वयं को व्यक्त कर रखा है| उन्हीं परब्रह्म का ओंकार रूप में ध्यान ही सबसे बड़ा यज्ञ है|
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परमात्मा को पाने की प्रचंड अग्नि प्रज्ज्वलित कर, शिवभाव में स्थित होकर, प्रणव की चेतना से युक्त हो, हर साँस में सोsहं-हंसः भाव से उस प्रचंड अग्नि में अपने अस्तित्व की आहुतियाँ देकर प्रभु की सर्वव्यापकता और अनंतता में विलीन हो जाना सबसे बड़ा यज्ञ है| अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का प्रभु में पूर्ण समर्पण कर उनके साथ एकाकार हो जाना ही यज्ञ कि परिणिति है| ||इति||
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(इस लेख में लिखे विचार मेरे निजी विचार हैं| किसी के विचार मुझसे नहीं मिलते तो बिना बुरा माने अपने स्वयं के निजी विचार प्रस्तुत करें)
ॐ तत्सत् !! शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर बावलिया
झुंझुनूं (राजस्थान)
१२ अक्टूबर २०२०