भगवान के जिस भी रूप का ध्यान करते हैं, हम वही बन जाते हैं ---
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निरंतर भगवान की चेतना में रहें। उन्हें एक क्षण के लिए भी न भूलें। यदि भूल जाएँ तो याद आते ही उनका स्मरण आरंभ कर दें।
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८:६॥"
अर्थात् -- हे कौन्तेय ! (यह जीव) अन्तकाल में जिस किसी भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, वह सदैव उस भाव के चिन्तन के फलस्वरूप उसी भाव को ही प्राप्त होता है।।
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥" (गीता)
अर्थात् -- इसलिये तू सब समयमें मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। मेरेमें मन और बुद्धि अर्पित करनेवाला तू निःसन्देह मेरेको ही प्राप्त होगा।
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
अर्थात् -- सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ॥
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
अर्थात् -- जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है॥
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
अर्थात् -- हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात् -- सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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गुरु तत्व, आत्म-तत्व, और परमात्मा एक हैं। इनमें कोई भेद नहीं है। हम स्वयं को भगवान से पृथक मानते हैं, तो पृथक हैं, एक मानते हैं तो एक हैं। वास्तव में स्वयं में, गुरु में और भगवान में कोई भेद नहीं होता। हम भगवान के जिस भी रूप का ध्यान करते हैं, हम वही बन जाते हैं।
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गीता के पंद्रहवें अध्याय का प्रथम श्लोक ही यदि समझ में या जाए तो सारी दुविधा दूर हो जाती है --
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
अर्थात् -- श्री भगवान् ने कहा -- (ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को) ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं; जिसके पर्ण छन्द अर्थात् वेद हैं, ऐसे (संसार वृक्ष) को जो जानता है, वह वेदवित् है॥
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परमात्मा का ध्यान करते करते एक दिन मेरी सारी चेतना ब्रह्मरंध्र के मार्ग से इस शरीर से बाहर निकल गई, और एक ऐसे सूक्ष्म लोक में पहुँच गई जहाँ आलोक ही आलोक था। कहीं कोई अंधकार नहीं था। लेकिन पाया कि वह लोक तो बहुत नीचे है, उसके ऊपर भी अनंत ब्रह्मांड है। फिर यह एक नित्य की दिनचर्या ही बन गई कि ध्यान इस शरीर से बाहर अनंत ब्रह्मांड में ही होने लगा। चेतना इस देह से बाहर निकल जाती और अनंत ब्रह्मांड में विस्तृत हो जाती। उस अनंतता का ध्यान करते करते एक दिन एक ब्रह्मज्योति के दर्शन हुए जिससे सारे संशय दूर हो गए। वह अनंत ब्रह्मज्योति ही एक श्वेत पञ्चकोणीय नक्षत्र में परिवर्तित हो गई। उस पञ्चकोणीय नक्षत्र को ही मैं "परमशिव" और "पञ्चमुखी महादेव" कहता हूँ, वही मेरा उपास्य है। यही वह ऊर्ध्वमूलस्थ ज्योतिषाम्ज्योति है, जिसके बारे में भगवान ने कहा है --
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक:।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।"
श्रुति भगवती भी कहती है --
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥"
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आचार्य शंकर के अनुसार संसार से विरक्त हुए व्यक्ति को ही भगवत् तत्त्व जानने का अधिकार है, अन्य को नहीं। संसार रूपी वृक्ष ऊर्ध्वमूल वाला है। काल की अपेक्षा भी सूक्ष्म, सबका कारण, नित्य और महान् होने के कारण अव्यक्त माया-शक्ति युक्त ब्रह्म सबसे ऊँचा कहा जाता है। वही इसका मूल है। भगवान की कृपा से ही यह समझा जा सकता है।
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हारिये न हिम्मत, बिसारिए न हरिःनाम। जितना भी सामर्थ्य है, उसी के अनुसार लगे रहो। चाहे संसार छूट जाए, लेकिन भगवान न छूटें। अभी से आरंभ कर अंत समय तक भगवान की चेतना में लगे रहो।
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कीटक नाम का एक साधारण सा कीड़ा भँवरे से डर कर कमल के फूल में छिप जाता है। भँवरे का ध्यान करते करते वह स्वयं भी भँवरा बन जाता है। वैसे ही हम भी निरंतर परमशिव का ध्यान करते करते स्वयं परमशिव बन सकते हैं। भगवान के लिये एक बेचैनी, तड़प और घनीभूत प्यास बनाए रखें।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
११ मार्च २०२३