Friday 13 September 2019

यह संसार ..... आत्मा से परमात्मा के बीच की यात्रा में एक रंगमंच मात्र है| इस रंगमंच पर अपना भाग ठीक से अदा नहीं करने तक बार बार यहीं लौट कर आना पड़ता है| माया के आवरण से परमात्मा दिखाई नहीं देते| यह आवरण विशुद्ध भक्ति से ही हटेगा जिसके हटते ही इस नाटक का रचेता सामने दिखाई देगा| सारे विक्षेप भी भक्ति से ही दूर होंगे| प्रभु के श्रीचरणों में शरणागति और पूर्ण समर्पण ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है| गहन से गहन निर्विकल्प समाधी में भी आत्मा को वह तृप्ति नहीं मिलती जो विशुद्ध भक्ति में मिलती है| .मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि ..... पराभक्ति ही है|
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हे प्रभु, हमें अपने ध्यान से विमुख मत करो| हमारा यह देह रुपी साधन सदा स्वस्थ और शक्तिशाली रहे, हमारा ह्रदय पवित्र रहे, व मन सब प्रकार की वासनाओं से मुक्त रहे| हमें सदा के लिए अपनी शरण में ले लो| हर प्रकार की परिस्थितियों से हम ऊपर उठें और स्वयं की कमजोरियों के लिए दूसरों को दोष न दें| हमें अपनी शरण में लो ताकि हमारा समर्पण पूर्ण हो|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
८ सितंबर २०१९

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पुनश्च :---
जीवन अपनी पूर्णता यानि परम शिवत्व में जागृति है, कोई खोज नहीं| परम शिवत्व ही हमारी शाश्वत जिज्ञासा और गति है| हमारे पतन का एकमात्र कारण हमारे मन का लोभ और गलत विचार हैं| जिसे हम खोज रहे हैं वह तो हम स्वयं ही हैं| जीवन में यदि किसी से मिलना-जुलना ही है तो अच्छी सकारात्मक सोच के लोगों से ही मिलें, अन्यथा परमात्मा के साथ अकेले ही रहें| हम परमात्मा के साथ हैं तो सभी के साथ हैं, और सर्वत्र हैं| भगवान ने हमें विवेक दिया है, जिसका उपयोग करते हुए अपनी वर्तमान परिस्थितियों में जो भी सर्वश्रेष्ठ हो सकता है, वह कार्य निज विवेक के प्रकाश में करें| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

पूरी समष्टि का हित देखें, इस देह मात्र का या इससे जुड़े व्यक्तियों का ही नहीं .....

पूरी समष्टि का हित देखें, इस देह मात्र का या इससे जुड़े व्यक्तियों का ही नहीं .....
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः| ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः||१२:४||"
अर्थात .... इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं||
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वास्तव में यह सम्पूर्ण सृष्टि ही हमारी देह है| हम इस से पृथक नहीं हैं| इसे हम ध्यान साधना द्वारा ही ठीक से समझ सकते हैं| भगवान वासुदेव की परम कृपा हम सब पर निरंतर बनी रहे| वे स्वयं ही हमें अपने वचनों का सही अर्थ समझा सकते हैं|

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
७ सितंबर २०१९

"श्रीराधा" .....

एक बार मुझे प्रेरणा मिली कि मैं जगन्माता के सौम्य रूप का ध्यान करूँ| मेरे समक्ष जगन्माता के दो ही सौम्य रूप सामने आये ..... एक भगवती सीता जी का और एक भगवती श्रीराधा जी का| तत्व रूप में मुझे उनमें कोई भेद दृष्टिगत नहीं हुआ| मैं जिस किसी भी रूप का ध्यान करता वह अनंत विस्तृत होकर ज्योतिर्मय हो जाता और प्रेमानन्द की असीम अनुभूति होती| एक विराट ज्योति और आनंद के अतिरिक्त चैतन्य में अन्य कुछ भी अनुभूत नहीं होता| अब तो मैं उन्हें किसी भी नाम-रूप में सीमित नहीं कर सकता| जगन्माता, जगन्माता ही हैं, जो समस्त सृष्टि का पालन-पोषण कर रही हैं, जन्म दे रही हैं और संहार कर रही हैं| हम उन्हें सीमित नहीं कर सकते|
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मेरे लिए भगवती श्रीराधा ... "परमात्मा की वह परमप्रेममयी शक्ति हैं जिन्होंने समस्त सृष्टि को धारण कर रखा है|" इससे अधिक कुछ भी कहने में असमर्थ हूँ| कुछ रहस्य, रहस्य ही रहते हैं, उन्हें व्यक्त नहीं किया जा सकता|
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सद्गुरु का आशीर्वाद और आज्ञा प्राप्त कर जगन्माता का ध्यान उत्तरा-सुषुम्ना में कीजिए| गुरुकृपा से जगन्माता के परमप्रेम की अवश्य अनुभूति होगी|
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भगवान हमारे पिता भी है और माता भी| जैसी भी हमारी भावना होती है उसी के अनुसार वे स्वयं को व्यक्त करते हैं| हम उन्हें बाध्य नहीं कर सकते| उनकी परम कृपा हम सब पर बनी रहे|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
६ सितंबर २०१९