Sunday 7 May 2017

योगदा के सिर्फ चार ही गुरू हैं ---

योगदा के सिर्फ चार ही गुरू हैं ---- महावतार बाबाजी, श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय, स्वामी श्री युक्तेश्वर जी और परमहंस योगानन्दजी|
भगवान श्री कृष्ण तों साक्षात भगवान हैं|
जीसस क्राइस्ट तों ऊपर से थोपे हुए हैं| वे किसी भी रूप मे गुरू नहीं हैं|
योगदा सत्संग को कुटिलता से सेल्फ रिअलाएज़शन फेलोशिप चर्च ने खरीद लिया धीरे धीरे ईसाईयत थोप रहे हैं| यहाँ के मालिक अमेरिकन लोग हैं|
Tanuja Thakur
May 7, 2012 at 4:47PM
Once a seeker asked me why in one organisation Lord Krushna is worshipped along with Jesus , even if the founder was a hindu saint ?
The answer is very simple the saint was given the mission to preach in the west , so just to impress the christain folk there , he went for a psychological appeasement and told about the teachings of bible and kept the photograph of Jesus but he tried to teach all the those western people who came to learn sadhana about vedic sanatan dharm , hence he gave them bhartiya attire ,asked them to read sanskrut , but alas his dsiciples could not understand the implied meaning of the master's action and now that organisation is more like a christian misssionary with no spiritual base !

"खान" शब्द की उत्पत्ति .......

"खान" शब्द की उत्पत्ति .......
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कुछ विद्वानों के अनुसार "खान" शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के "कान्ह" शब्द से हुई है जो भगवान श्रीकृष्ण का ही एक नाम था| भगवान श्रीकृष्ण के देवलोक गमन के बाद भी सैंकड़ों वर्षों तक पूरे विश्व में उनकी उपासना की जाती थी| प्राचीन संस्कृत साहित्य में जिस शिव भक्त "किरात" जाति का उल्लेख है, वह "मंगोल" जाति ही है| उन में "कान्ह" शब्द बहुत सामान्य था जो अपभ्रंस होकर "हान" हो गया| चीन के बड़े बड़े सामंत स्वयं के नाम के साथ "हान" की उपाधी लगाते थे| यही "हान" शब्द और भी अपभ्रंस होकर "खान" हो गया| प्रसिद्ध इतिहासकार श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक का भी यही मत था|
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मंगोलिया के महा नायक चंगेज़ खान का वास्तविक नाम मंगोल भाषा में "गंगेश हान" था| यह उसका हिन्दू नाम था और वह किसी देवी का उपासक था| बाद में उसके वंश में कुबलई खान ने बौद्ध मत स्वीकार किया और बौद्ध मत का प्रचार किया| कुबलई खान के समय ही चीनी लिपि का अविष्कार हुआ| कुबलाई खान का राज्य उत्तर में साईबेरिया की बाइकाल झील से दक्षिण में विएतनाम तक, और पूर्व में कोरिया से पश्चिम में कश्यप सागर तक था| पिछले एक हज़ार में हुआ वह इस पृथ्वी के सबसे बड़े भूभाग का शासक था| उसने तिब्बत में प्रथम दलाई लामा की नियुक्ति की| पर उसकी एक भूल से उसके साथ ही मंगोल साम्राज्य का पतन भी हो गया था| (कुबलई शब्द कैवल्य का अपभ्रंस लगता हैै). रूसी भाषा में चीन को "किताई" कहते हैं, और वहाँ के प्राचीन साहित्य में मंगोलों के लिए किरात शब्द का प्रयोग हुआ है|
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जिन विद्वानों को "खान" शब्द की उत्पत्ति की प्रामाणिक जानकारी है कृपया अवगत कराने की कृपा करें| धन्यवाद |

क्या पराई वस्तु पर चर्चा सार्थक है ? .......

क्या पराई वस्तु पर चर्चा सार्थक है ? .......
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प्रिय शिवस्वरूप निजात्मगण, ॐ नमो नारायण !

मुझे स्वयं को पता नहीं है कि जिस विषय पर मैं चर्चा करना चाहता हूँ उस पर चर्चा करने की मुझमें पात्रता और योग्यता है भी या नहीं| फिर भी मैं अपने विचारों को व्यक्त करने का दुःसाहस कर रहा हूँ| पर इसे वे ही समझ पायेंगे जिनकी रूचि आध्यात्म में है| कोई त्रुटी हो तो क्षमा करें|
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इसका आरम्भ एक कहानी से कर रहा हूँ|
एक जिज्ञासु राजा के दरबार में एक परम ज्ञानी ऋषि पधारे| राजा ने उनसे ईश्वर को पाने का मार्ग जानने की जिज्ञासा व्यक्त की| ऋषि ने एक शर्त रखी और राजा का राज्य एक घंटे के लिए माँग लिया|
राजा ने संकल्प कर के अपना पूरा राज्य एक घंटे के लिए ऋषि को सौंप दिया| सिंहासन पर बैठते ही ऋषि ने राजा को भूमि पर बैठा दिया और आदेश दिया की तुम सिर्फ मेरा ही चिंतन करोगे क्योंकि मैं तुम्हारा स्वामी हूँ, तुम अन्य किसी का भी चिंतन नहीं करोगे|
दस पंद्रह मिनटों के पश्चात् अन्तर्यामी ऋषि ने राजा से कहा कि तुम चोर हो| राजा ने प्रतिवाद किया और नम्रता से पूछा कि मैं चोर कैसे हूँ| ऋषि ने कहा कि अभी भी मैं कुछ समय के लिए और राजा हूँ, तुम्हारी सारी धन-संपदा, वैभव और राज्य इस समय मेरा है| तुम अभी भी उसके बारे में सोच रहे हो जो तुम्हारा नहीं है, अतः तुम चोर हो| फिर मेरा आदेश था कि तुम सिर्फ मेरा ही चिंतन करोगे जिसे तुम नहीं मान रहे हो इसलिए भी तुम चोर हो|
राजाको बात समझ में आ गयी|
जब पचास मिनट पूरे हो गए तो अंतर्यामी ऋषि ने देखा कि राजा का मन अब स्थिर और शांत है| उन्होंने राजा को पूछा कि तुम्हें अब क्या दिखाई दे रहा है? राजा का उत्तर था कि मुझे तो अब आपके सिवा अन्य कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा है| सब कुछ आप में है और आप ही सब कुछ हैं|
ऋषि ने राजा को तुरंत बापस अपना राज्य संभालने को कहा और उपदेश दिया की सब कुछ परमात्मा का है अतः उनका ही चिंतन निरंतर करो और उनकी ही आज्ञा मानते हुए अपने राजधर्म का निर्वाह करते रहो|
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जो मैं कहना चाहता था वह मैंने इस कहानी के माध्यम से व्यक्त कर दिया|
जो लोग प्रभु को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें निरंतर प्रभु का ही चिंतन करना होगा, अन्य किसी का भी नहीं| हमारा नियोक्ता भी वह ही है और स्वामी भी वह ही है| अतः हर कार्य सिर्फ उसी की प्रसन्नता के लिए हो, अन्य किसी की प्रसन्नता के लिए नहीं| यदि वह हमारे कार्य से प्रसन्न है तो अन्य किसी की अप्रसन्नता का कोई महत्व नहीं है|

किसी भी मुमुक्षु को पर चर्चा से बचना होगा| परचर्चा संसारी लोगों के लिए है, मुमुक्षुओं के लिए नहीं|
इससे हमारी ऊर्जा और समय की बचत होगी जिसका सदुपयोग परमात्मा के चिंतन और ध्यान साधना में कर सकते हैं| अनावश्यक कार्य करने से आवश्यक कार्य करने का समय नहीं मिल पाता जिससे चित्त अशांत रहता है| यह अशांति का एक सबसे बड़ा कारण है| चित्त शांत होगा तभी प्रेम का उदय होगा और तभी हम अपने प्रेमास्पद को पा सकते हैं| परचर्चा राग-द्वेष को भी उत्पन्न करती है जो सबसे बड़ी बाधा है|

परमात्मा का चिंतन सबसे बड़ी सेवा है क्योंकि आप सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एक हैं| परमात्मा के चिंतन से सारे सद्गुण आप में यानि इस सृष्टि में आते हैं|

मैं स्वयं भी परमात्मा से उधार माँगे हुए समय का पूर्ण सदुपयोग करने का अब से निरंतर प्रयास करूंगा| कभी भटक जाऊं तो मुझे मार्ग पर लाने का आप सब का अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है|

आप सब शिवस्वरुप निजात्मगण को सादर नमन ! ॐ नमो नारायण ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर

प्रणव नाद से बड़ा कोई मन्त्र नहीं है, आत्मानुसंधान से बड़ा कोई तंत्र नहीं है, और अपनी निज आत्मा (आत्म-तत्व) कि पूजा से बड़ी कोई पूजा नहीं है .....

प्रणव नाद से बड़ा कोई मन्त्र नहीं है, आत्मानुसंधान से बड़ा कोई तंत्र नहीं है, और अपनी निज आत्मा (आत्म-तत्व) कि पूजा से बड़ी कोई पूजा नहीं है|

"नास्ति नादात परो मन्त्रो न देव: स्वात्मन: पर:
नानु सन्धात परा पूजा नहि तृप्ते: परम सुखं"
There is no mantra superior to Nada and there is no other deity superior to Atma. No worship is superior to the worship of soul.
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किसी भी साधना से लाभ उसका अभ्यास करने से है, उसके बारे में जानने मात्र से या उसकी विवेचना से नहीं है| आपके सामने मिठाई पडी है तो उसका आनंद उस को चखने और खाने में है, न कि उसकी विवेचना में| भगवान का लाभ उसकी भक्ति यानि उससे प्रेम करने में है न कि उसके बारे में की गयी बौद्धिक चर्चा में|
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प्रभु के प्रति प्रेम, समर्पण का भाव और भावों में शुद्धता हो तो कोई हानि होने की सम्भावना नहीं है| जब शिष्यत्व की पात्रता हो जाती है तब गुरु का पदार्पण भी जीवन में हो जाता है|
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मन्त्रयोग संहिता में आठ प्रमुख बीज मन्त्रों का उल्लेख है जो शब्दब्रह्म ओंकार की ही अभिव्यक्तियाँ हैं| लिंग पुराण के अनुसार ओंकार का प्लुत रूप नाद है| मन्त्र में पूर्णता "ह्रस्व", "दीर्घ" और "प्लुत" स्वरों के ज्ञान से ही आती है जिसके साथ पूरक मन्त्र की सहायता से विभिन्न सुप्त शक्तियों का जागरण होता है| वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक नाद, बिंदु और मुद्राओं व साधन क्रम का ज्ञान सद्गुरु ही करा सकता है|
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स्थिर तन्मयता (Stable total identification) ही नादानुसंधान है|
बीजमंत्रों, अजपा-जप, षटचक्र साधना, योनी मुद्रा में ज्योति दर्शन, और नाद व ज्योति तन्मयता, खेचरी मुद्रा, साधन क्रम आदि का ज्ञान गुरु की कृपा से ही हो सकता है| साधना में सफलता भी गुरु कृपा से ही होती है और ईश्वर लाभ भी गुरु कृपा से होता है|
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हम सब जीव से शिव बनें और परमात्मा में हमारी जागृति हो|
ॐ नमः शिवाय| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
फाल्गुन शु.३, वि..स.२०७२, 11March2016

परमात्मा माता है या पिता ? ......

परमात्मा माता है या पिता ? ......
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परमात्मा साकार भी है और निराकार भी| सारे रूप उसी के हैं| वैसे तो जो भी सृष्ट हुआ है वह साकार ही है, कुछ भी निराकार नहीं है| सर्वसामान्य साकार रूप तो ओंकार का यानि "ॐ" की ध्वनी है| ध्यान में दिखाई देने वाली ज्योति भी साकार है, परमात्मा की सर्वव्यापकता भी साकार है, और प्रणव नाद भी साकार है|
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परमात्मा की जगन्माता की परिकल्पना सर्वश्रेष्ठ है| जगन्माता के रूप में परमात्मा सर्वाधिक प्रेममय है यानि उसमें प्रेम की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हो सकती है| माँ से जितना प्रेम प्राप्त हो सकता है, उतना पिता से नहीं| अतः परमात्मा सर्वप्रथम माता है, फिर पिता| परमात्मा के मातृरूप की परिकल्पना ही सर्वश्रेष्ठ है|
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ॐ ॐ ॐ ||