Thursday 1 July 2021

मन में वासनात्मक विचार हैं तो भूल कर भी कोई आध्यात्मिक साधना नहीं करें ---

 मन में वासनात्मक विचार हैं तो भूल कर भी कोई आध्यात्मिक साधना नहीं करें ...

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आध्यात्मिक प्रगति के लिए वासनाओं से ऊपर उठना होगा क्योंकि अन्धकार और प्रकाश कभी एक साथ नहीं रह सकते| जिन्हें वासनाओं की पूर्ति ही करनी है वे आध्यात्म को भूल जाएँ| जहाँ काम-वासना है वहाँ ब्रह्मचिंतन या परमात्मा पर ध्यान की कोई संभावना नहीं है| वासनात्मक जीवन जी रहे लोगों को भूल कर भी आज्ञाचक्र पर ध्यान नहीं करना चाहिए अन्यथा मस्तिष्क के विकृत होने यानि पागलपन की शत-प्रतिशत संभावना है| जो मैं लिख रहा हूँ वह आध्यात्मिक साधना के अपने निज अनुभव से लिख रहा हूँ, कोई हवा में तीर नहीं मार रहा|
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"जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम|
तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम||"
जहाँ काम-वासना है वहाँ "राम" नहीं हैं, जहाँ "राम" हैं वहाँ काम-वासना नहीं हो सकती| सूर्य और रात्री एक साथ नहीं रह सकते|
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मनुष्य की सूक्ष्म देह में सुषुम्ना नाड़ी है जिसमें प्राण-तत्व ऊपर-नीचे प्रवाहित होती रहती है| यह प्राण तत्व ही हमें जीवित रखता है| इस प्राण तत्व की अनुभूति हमें ध्यान साधना में होती है| जब काम वासना जागृत होती है तब यह यह प्राण प्रवाह मूलाधार व स्वाधिष्ठान चक्र तक ही सीमित रह जाता है, और सारी आध्यात्मिक प्रगति रुक जाती है| परमात्मा के प्रेम की अनुभूतियाँ हृदय से ऊपर के चक्रों में ही होती है, जिनमें विचरण कामवासना से ऊपर उठ कर ही हो सकता है| कामुकता से ऊपर उठकर ही मनुष्य परमात्मा की ओर अग्रसर हो सकता है| मन में वासनात्मक विचार हैं तो भूल कर भी कोई आध्यात्मिक साधना नहीं करें|
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जो लोग काम वासनाओं की तृप्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं वे अन्धकार और असत्य की शक्तियाँ हैं| उनका अनुसरण घोर अंधकारमय नारकीय लोकों में ले जाता है| ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२ जुलाई २०२०
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पुनश्च:
वासनाओं से मुक्ति के लिए ...
आहार शुद्धि, अभ्यास, वैराग्य, स्वाध्याय, सत्संग, व कुसंग त्याग आवश्यक है.

सबसे अधिक महत्वपूर्ण है -- "आहार शुद्धि" ---

 सबसे अधिक महत्वपूर्ण है ... "आहार शुद्धि" ...

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कुछ भी आहार ग्रहण करने से पूर्व विचार करना चाहिए कि यह भोजन जो हम खा रहे हैं वह भगवान को भोग लगाने के योग्य है या नहीं| भगवान को भोग लगाने के योग्य है तभी उसे खाना चाहिए| बिना भगवान को अर्पित किए बिना जो कुछ भी हम खाते हैं वह पाप का ही भक्षण है| वास्तव में हम जो कुछ भी खाते हैं, वह हम नहीं भगवान स्वयं वैश्वानर के रूप में ग्रहण करते हैं|
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्||१५:१४||
मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ||
पेट में जठराग्नि वैश्वानर है जो प्राण और अपान वायु से संयुक्त हुआ .... भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, और चोष्य .... चार प्रकार के अन्नों को पचाता है| वैश्वानर अग्नि खाने वाला है और सोम खाया जानेवाला अन्न है| भगवान भोजन को खाते ही नहीं, पचाते भी हैं|
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अन्न से ही हमारा मन निर्मित होता है ... ‘अन्नमयं हि सोम्य मनः’ इति अन्नेन हि मन आप्यायते| ‘हे सोम्य! यह मन अन्नमय है।’ इस श्रुति के अनुसार अन्न से ही मन का पोषण होता है| जैसा हमारा अन्न होगा वैसा ही हमारा मन होगा|
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‘आहार की शुद्धि से अन्तःकरण की शुद्धि होती है, अन्तःकरण की शुद्धि से स्थिर स्मृति होती है| स्मृति की स्थिरता से समस्त बन्धनों से छुटकारा मिलता है|’ इस प्रकार श्रुतियों में ब्रह्म साक्षात्काररूप ज्ञान आहारशुद्धि के अधीन बतलाया गया है| ‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः| स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः’|
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होम करते समय हविष्य का हवन करते हैं| उसी प्रकार भोजन का ग्रास मुख में रखते हुए भावना करो कि 'यह हविष्य है एवं पेट में स्थित जठराग्नि में इसका हवन कर रहा हूँ।'
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भोजन पवित्र स्थान में एवं पवित्र पात्रों में बनाया हुआ होना चाहिए| भोजन बनाने वाला व्यक्ति भी शुद्ध, स्वच्छ, पवित्र एवं प्रसन्न होना चाहिए| अशुद्ध भोजन से तृप्ति एवं शांति नहीं मिल सकती| मासिक धर्म में आयी हुई महिला को भोजन नहीं बनाना चाहिए| अधर्म से उपार्जित धन से प्राप्त हुआ भोजन भी पाप का भक्षण है| धन की पवित्रता भी आवश्यक है|
ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
२ जुलाई २०२०