Thursday, 1 November 2018

(वासुदेवः सर्वम् इति) सब नामरूपों से परे भगवान वासुदेव ही सर्वस्व हैं .....

(वासुदेवः सर्वम् इति) सब नामरूपों से परे भगवान वासुदेव ही सर्वस्व हैं .....
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हम उन्हें प्रेम से कुछ भी कहें, वे भगवान सब नामरूपों से परे हैं| मैं उन्हें "परमशिव" कहता हूँ, वे ही मेरे सर्वस्व हैं| अगर किसी से मिलना ही हो तो मैं ऐसे ही लोगों से मिलता हूँ जो निरंतर भगवान का स्मरण करते हैं, अन्यथा मुझे अकेले ही रहना अच्छा लगता है| जिनके हृदय में भगवान नहीं है ऐसे लोगों से मैं दूर रहता हूँ| सामाजिकता के नाते ही समाज में अनेक लोगों से मिलना पड़ता है| पर स्वतंत्र इच्छा से मैं हर किसी से नहीं मिलता| स्वतंत्र इच्छा से मैं उन्हीं से मिलता हूँ जिनके जीवन में .. "वासुदेवः सर्वम्" है|
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||
इसका भावार्थ है .....
बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि यह सब वासुदेव है ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है|
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उन के समान या उन से अधिक और कोई भी नहीं है| एक लाख में से कोई दो या तीन व्यक्ति ही ऐसे होते हैं जो अपने पूर्ण ह्रदय से भगवान से प्रेम करते हैं| जो निरंतर भगवान का स्मरण करते हैं ऐसे सभी महात्माओं को मैं नमन करता हूँ| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ नवम्बर २०१८

सब फालतू बातें छोड़कर आइये अब एक लम्बी यात्रा की तैयारी करें .....

सब फालतू बातें छोड़कर आइये अब एक लम्बी यात्रा की तैयारी करें .....
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मैं जो लिखने जा रहा हूँ वह पूरी सत्यनिष्ठा और पूर्ण ह्रदय से लिख रहा हूँ जिसका परमात्मा साक्षी हैं| इस समय मैं एक अति दिव्य चेतना में हूँ और भगवान की प्रेरणा मेरे साथ है| हमारी यात्रा बहुत लम्बी है, न तो सांसारिक जन्म उसका आरम्भ है, और न ही सांसारिक मृत्यु उसका अंत| उसकी तैयारी हमें इसी क्षण से करनी चाहिए|
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गीता के अध्याय ८ अक्षरब्रह्मयोग में भगवान कहते हैं .....
"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्‌| तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः||८:६||
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌||८:७||
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना| परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌||८:८||
कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः| सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌||८:९||
प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव| भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्‌- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्‌||८:१०||"
इसका भावार्थ निम्न है .....
"हे कुन्तीपुत्र! मनुष्य अंत समय में जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह उसी भाव को ही प्राप्त होता है, जिस भाव का जीवन में निरन्तर स्मरण किया है|
इसलिए हे अर्जुन! तू हर समय मेरा ही स्मरण कर और युद्ध भी कर, मन-बुद्धि से मेरे शरणागत होकर तू निश्चित रूप से मुझको ही प्राप्त होगा|
हे पृथापुत्र! जो मनुष्य बिना विचलित हुए अपनी चेतना (आत्मा) से योग में स्थित होने का अभ्यास करता है, वह निरन्तर चिन्तन करता हुआ उस दिव्य परमात्मा को ही प्राप्त होता है|
मनुष्य को उस परमात्मा के स्वरूप का स्मरण करना चाहिये जो कि सभी को जानने वाला है, पुरातन है, जगत का नियन्ता है, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है, सभी का पालनकर्ता है, अकल्पनीय-स्वरूप है, सूर्य के समान प्रकाशमान है और अन्धकार से परे स्थित है|
जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भक्ति मे लगा हुआ, योग-शक्ति के द्वारा प्राण को दोनों भौंहौं के मध्य में पूर्ण रूप से स्थापित कर लेता है, वह निश्चित रूप से परमात्मा के उस परम-धाम को ही प्राप्त होता है|"
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यह उपदेश सार है जिसका अर्थ बड़ा स्पष्ट है| अब इसे किस रूप में समझें यह समझने वाले की समस्या है| यही मुक्ति का मार्ग है| ब्रह्मचर्य का अर्थ ब्रह्म का आचरण है| हमारा आचरण ब्रह्ममय हो यही ब्रह्मचर्य है| इसी क्षण से हमें उस आचरण को अपनाना पड़ेगा| मेरे द्वारा जो लिखा जा रहा है वह तो एक संकेत मात्र है जिसका अनुसंधान हमें स्वयं स्वाध्याय द्वारा करना होगा|
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आगे भगवान कहते हैं .....
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च| मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्‌||८:१२||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्‌||८:१३||
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः| तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः||८:१४||
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्‌| नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः||८:१५||
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन| मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते||८:१६||
इसका भावार्थ निम्न है ....
"शरीर के सभी द्वारों को वश में करके तथा मन को हृदय में स्थित करके, प्राणवायु को सिर में रोक करके योग-धारणा में स्थित हुआ जाता है|
इस प्रकार ॐकार रूपी एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करके मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मनुष्य मेरे परम-धाम को प्राप्त करता है|
हे पृथापुत्र अर्जुन! जो मनुष्य मेरे अतिरिक्त अन्य किसी का मन से चिन्तन नहीं करता है और सदैव नियमित रूप से मेरा ही स्मरण करता है, उस नियमित रूप से मेरी भक्ति में स्थित भक्त के लिए मैं सरलता से प्राप्त हो जाता हूँ|
मुझे प्राप्त करके उस मनुष्य का इस दुख-रूपी अस्तित्व-रहित क्षणभंगुर संसार में पुनर्जन्म कभी नही होता है, बल्कि वह महात्मा परम-सिद्धि को प्राप्त करके मेरे परम-धाम को प्राप्त होता है|
हे अर्जुन! इस ब्रह्माण्ड में निम्न-लोक से ब्रह्म-लोक तक के सभी लोकों में सभी जीव जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते रह्ते हैं, किन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! मुझे प्राप्त करके मनुष्य का पुनर्जन्म कभी नहीं होता है|"
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यह यात्रा कहीं बाहर नहीं हमारे सूक्ष्म देह के मेरुदंड की सुषुम्ना नाड़ी में है| इसी क्षण हम भगवान को अपने हृदय में बैठाकर पूर्ण प्रेम से उन्हें अपने जीवन का केंद्रबिंदु बनाकर उन्हें अपना पूर्ण प्रेम देंगे तो उनके अनुग्रह से हमें निश्चित रूप से मार्गदर्शन प्राप्त होगा|
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आप सब दिव्य महान आत्माओं को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ नवम्बर २०१८

जल अपने स्वामी से मिला और शर्मा गया (The water met its Master and blushed) ....

जल अपने स्वामी से मिला और शर्मा गया (The water met its Master and blushed)
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सौ वर्ष पूर्व की बात है इंग्लैण्ड के ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में एक युवा विद्यार्थी धर्म शास्त्र की अनिवार्य परीक्षा दे रहा था| समय सीमा थी दो घंटे और प्रश्न एक ही था| प्रश्न था .... Write about the religious and spiritual meaning in the miracle of Christ turning water into wine. अर्थात ईसा मसीह ने पानी को शराब में परिवर्तित करने का जो चमत्कार किया, उसका धार्मिक व आध्यात्मिक महत्त्व क्या है?
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परीक्षार्थियों की भीड़ भरी कक्षा में वह युवा विद्यार्थी पूरे दो घंटों तक बैठा रहा और उत्तर पुस्तिका में कुछ भी नहीं लिखा| अन्य परीक्षार्थी पृष्ठ पर पृष्ठ भरे जा रहे थे| समय सीमा समाप्त हो गयी पर इस विद्यार्थी ने एक शब्द भी नहीं लिखा| परीक्षा के Proctor यानि परीक्षक ने विद्यार्थी से आग्रह किया कि कुछ तो लिख दो| युवा विद्यार्थी ने तुरंत एक वाक्य लिख दिया| जब परीक्षा का परिणाम आया तब उस विद्यार्थी के सबसे अधिक अंक थे|
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वह युवा विद्यार्थी बाद में बड़ा होकर अंग्रेजी भाषा का प्रख्यात हुआ कवि Lord Byron था| जो एक पंक्ति का उत्तर उसने लिखा, वह था .... “The water met its Master and blushed."
अर्थात .... "जल अपने स्वामी से मिला और शर्मा गया|"
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(बाईबल के Gospel of John में एक कथा आती है कि काना नाम के एक स्थान पर ईसा मसीह अपनी माता और शिष्यों के साथ एक विवाह समारोह में उपस्थित थे| वहां अतिथियों को परोसी जा रही शराब समाप्त हो गयी| मेजबान को बड़ी परेशानी हो गयी, तो ईसा मसीह ने अपनी माता की बात मान कर V का एक संकेत किया तो वहाँ रखा जल शराब में परिवर्तित हो गया| यह उनका प्रथम चमत्कार था|)

कृपा शंकर
३० अक्तूबर २०१८

भगवान कहाँ हैं? वे निरंतर मेरे साथ मेरे कूटस्थ चैतन्य में हैं ....

भगवान कहाँ हैं? वे निरंतर मेरे साथ मेरे कूटस्थ चैतन्य में हैं .....
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||" १५:६||
अर्थात् उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि| जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन (संसार को) नहीं लौटते हैं? वह मेरा परम धाम है||
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अब प्रश्न उठता है कि ऐसा कौन सा स्थान है जो स्वयं ज्योतिर्मय है और जहाँ जाने के बाद कोई बापस नहीं लौटता? भगवान तो अचिन्त्य हैं|
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श्रुति भगवती भी कहती है .....
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः| तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ||" (कठोपनिषद् २:२:१५)
अर्थात् ''वहाँ सूर्य प्रकाशमान नहीं हो सकता तथा चन्द्रमा आभाहीन हो जाता है, समस्त तारागण ज्योतिहीन हो जाते हैं; वहाँ विद्युत् भी नहीं चमकती, न ही कोई पार्थिव अग्नि प्रकाशित होती है| कारण, जो कुछ भी प्रकाशमान् है, वह 'उस' की ज्योति की प्रतिच्छाया है, 'उस' की आभा से ही यह सब प्रतिभासित होता है|''
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निश्चित रूप से गुरुकृपा से मैं यह कह सकता हूँ कि वह स्थान मेरा कूटस्थ है जहाँ ज्योतिर्मय ब्रह्म नित्य प्रज्वलित है, और जहाँ से प्रणव की ध्वनि निरंतर निःसृत हो रही है| गुरु महाराज की परमकृपा से ही मुझे इसका अनुभूतिजन्य बोध हुआ है| गुरु के आदेश से मुझे वहीं स्थित भी होना है| वही मेरा आश्रम है, वही मेरी गंगोत्री है, और वही मेरा तीर्थराज प्रयाग है|
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते||" १५:१६||
अर्थात इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं| समस्त भूत क्षर हैं और कूटस्थ अक्षर कहलाता है||
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सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर नाशवान् और कूटस्थ (जीवात्मा) अविनाशी कहा जाता है| इस अव्यय और अक्षर आत्मा को वेदान्त में कूटस्थ कहते हैं| कूट का अर्थ है निहाई, जिसके ऊपर स्वर्ण को रखकर एक स्वर्णकार नवीन आकार प्रदान करता है| इस प्रक्रिया में स्वर्ण तो परिवर्तित होता है, परन्तु निहाई अविकारी ही रहती है| कूटस्थ ब्रह्म नित्य है|
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में संभव हो तो ठीक है अन्यथा जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करते रहें| समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी| उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है जिसमें स्थिति ही योगमार्ग की उच्चतम उपलब्धी है|
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ॐ श्री गुरुभ्यो नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० अक्टूबर २०१८

साक्षात परमात्मा के साथ सत्संग :---

साक्षात परमात्मा के साथ सत्संग :---
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(१) जितने समय तक हम परमात्मा का ध्यान करते हैं उतने समय तक हम निश्चित रूप से परमात्मा के साथ एक होते हैं| बाकी समय तो हमें दुनियाँ पकड़ लेती है| ध्यान के समय हम दुनियाँ की पकड़, गृह-नक्षत्रों व युग के प्रभाव, व हर तरह के कुसंग से दूर भगवान के साथ ही होते हैं| अतः भगवान के साथ जितना समय बीत जाय उतना ही अच्छा है| साक्षात परमात्मा के साथ हमारा सत्संग हो, इससे अच्छा और क्या हो सकता है? उस कालखंड में परमात्मा की कृपा से न तो कोई युग हमारा कुछ बिगाड़ सकता है और न कोई गृह-नक्षत्र| उस कालखंड में कोई कामना नहीं होती, हम कामना रहित होते हैं, स्वयं परमात्मा हमारे साथ होते हैं|
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भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि इस से बड़ा कोई अन्य लाभ या कोई अन्य उपलब्धि नहीं है.....

"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२|"
आत्मप्राप्तिरूप लाभ को पाकर जो उससे अधिक किसी अन्य लाभ को नहीं मानता, कोई दूसरा लाभ है ऐसा स्मरण भी नहीं करता, उस आत्मतत्त्व में स्थित हुआ योगी शस्त्राघात आदि बड़े भारी दुःखों द्वारा भी विचलित नहीं किया जा सकता|
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सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाए, सारी सृष्टि नष्ट हो जाए, तो भी कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, क्योंकि हम सृष्टिकर्ता परमात्मा के साथ एक हैं| भगवान को जिस भी रूप में जैसे भी हम मानते हैं, भगवान उसी रूप में हमारे समक्ष होते हैं| स्वयं भगवान का वचन है .....
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः||४:११||"
जिस प्रकार से जिस प्रयोजन से जिस फलप्राप्ति की इच्छा से भक्त मुझे भजते हैं उनको मैं भी उसी प्रकार भजता हूँ, अर्थात् उनकी कामना के अनुसार ही फल देकर मैं उन पर अनुग्रह करता हूँ|
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एक ही पुरुषमें मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व ..... ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते| हमें इन से भी परे जाना होगा| परमात्मा के सिवा हमें कुछ भी अन्य नहीं चाहिए| किसी अन्य की स्वप्न में भी कोई कामना न हो| परमात्मा का साथ शाश्वत है| इस जन्म से पूर्व भी वे हमारे साथ एक थे और इस जन्म के बाद भी वे ही हमारे साथ रहेंगे| जो कभी भी हमारा साथ न छोड़े वे ही हमारे शाश्वत मित्र हैं, अतः उनका साथ ही श्रेयस्कर है|
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>>> जो नारकीय जीवन हम इस संसार में जी रहे हैं उस से तो अच्छा है कि भगवान का गहनतम ध्यान करते करते हम इस शरीर महाराज को ही छोड़ दें|<<< पर जब इस शरीर महाराज में परमात्मा ही बिराजमान हो जाएँ तो इस की भी चिंता करने की हमें कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इसकी चिंता वे देहस्थ परमात्मा स्वयं ही करेंगे|
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(२) ध्यान हम कभी भी अकेले नहीं करते, पूरी सृष्टि हमारे साथ ध्यान करती है| हमारे माध्यम से स्वयं परमात्मा ध्यान करते हैं, हम तो परमात्मा को एक अवसर देते हैं हमारे माध्यम से प्रवाहित होने का| ध्यान तो हम करते हैं, पर इस से कल्याण सारी सृष्टि का होता है अतः इस से बड़ी सेवा और इस से बड़ी उपासना अन्य कुछ नहीं है|
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परमात्मा के साथ सत्संग ही सर्वश्रेष्ठ है| इसके लिए किसी के पीछे पीछे भागने की कोई आवश्यकता नहीं है| हम जहाँ हैं, वहीं परमात्मा हैं, वही तीर्थ है और वही सबसे बड़ा धाम है| हमारा सत्संग निरंतर सदा परमात्मा के साथ ही हो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० अक्टूबर २०१८

ध्यान किस का होता है ? .....

ध्यान किस का होता है ? .....
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ध्यान उसी का होता है जिस से हमें परमप्रेम होता है| बिना परमप्रेम के कोई ध्यान नहीं होता| इस परमप्रेम को ही भक्ति कहते हैं| अपने विचारों के प्रति सतत् सचेत रहिये| जैसा हम सोचते हैं वैसे ही बन जाते हैं| हमारे विचार ही हमारे "कर्म" हैं, जिनका फल हमें भोगना ही पड़ता है| मन की हर इच्छा, हर कामना एक कर्म या क्रिया है जिसकी प्रतिक्रिया अवश्य होती है| यही कर्मफल का नियम है| अतः हम स्वयं को मुक्त करें ..... सब कामनाओं से, सब संकल्पों से, सब विचारों से, और निरंतर शिव भाव में स्थित रहें| यह शिवभाव भी परमप्रेम का ही एक रूप है जिसमें हम स्वयं ही परमप्रेममय हो प्रेमास्पद के साथ एक हो जाते हैं, कहीं कोई भेद नहीं रहता| यही पराभक्ति है और यही वेदान्त है|
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प्रेमास्पद से पृथकता के भाव का होना ही सारे दुःखों, पीडाओं और कष्टों का कारण है| प्रेम तो हमें उस से हो गया है जिस का कभी जन्म ही नहीं हुआ है, और जिस की कभी मृत्यु भी नहीं होगी| जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु तो अवश्य ही होगी| पर जिसने कभी जन्म ही नहीं लिया, क्या वह मृत्यु को प्राप्त कर सकता है?
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हमारा एक अजन्मा स्वरुप भी है जो अनादि और अनंत है| वह ही हमारा वास्तविक अस्तित्व है| हम यह देह नहीं हैं, प्रभु की अनंतता हैं| उस अनंतता को ही प्रेम करें और उसी का ध्यान करें| यही शिव भाव है| उन सर्वव्यापी भगवान परम शिव में परम प्रेममय हो कर पूर्ण समर्पण करना ही उच्चतम साधना है, यही मुक्ति है, और यही लक्ष्य है| महासागर के जल की एक बूँद क्या महासागर से पृथक है? वह स्वयं भी महासागर ही है|
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निरंतर ब्रह्म चिंतन व स्वाध्याय में चित्त सदा रमा रहे| कूटस्थ में ब्रह्मज्योति निरंतर प्रज्ज्वलित रहे और अक्षर नादब्रह्म में हम लीन हो जाएँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ अक्तूबर २०१८

जापान पर भारत का प्रभाव .....

आजकल भारत के प्रधान मंत्री जापान की यात्रा पर हैं जिसका सामरिक और टेक्नोलॉजी की दृष्टी से बहुत अधिक महत्त्व है| जापान की कई यादें मुझे भी आ रही हैं| वहाँ भारतीयों की संख्या खूब अच्छी है| नौकरी करने वाले भारतीय भी वहाँ खूब हैं और भारतीय व्यापारी भी वहाँ खूब हैं| जापान में अनेक स्थानों पर जाने, घूमने-फिरने और अनेक लोगों से मिलने-जुलने का अवसर मुझे कई बार खूब मिला है| एक बार सपत्नीक भी वहाँ जाने का मुझे अवसर मिला था| वहाँ सिर्फ भाषा की ही कठिनाई रही पर इस कारण कभी भी कोई परेशानी नहीं हुई| सारा कामकाज और पढाई-लिखाई उनकी स्वयं की जापानी भाषा में ही होता है| अंग्रेजी सिर्फ उन्हीं को आती है जो इसे एक भाषा के रूप में अपनी इच्छा से सीखते हैं|
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जापान पर सबसे अधिक प्रभाव 'बोधिधर्म' नाम के एक भारतीय बौद्ध भिक्षु का है जो ईसा की छठी शताब्दी में वहाँ महायान बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए गए थे| बोधिधर्म की पद्धति में ध्यान पर विशेष जोर था| संस्कृत का शब्द "ध्यान" अपभ्रंस होकर चीन में "चान" हुआ और जापान में "झेन" (ZEN) हुआ| बोधिधर्म द्वारा फैलाए हुए बौद्धधर्म का जो रूप वहाँ प्रचलित है, उसे झेन (ZEN) कहते हैं| बौद्धधर्म की इस पद्धति में ध्यान साधना का ही विशेष महत्त्व है| यह झेन मत कई शताब्दियों तक जापान का राजधर्म रहा|
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बोधिधर्म का जन्म दक्षिण भारत में पल्लव राज्य के राज परिवार में हुआ था| वे कांचीपुरम के राजा के पुत्र थे, लेकिन छोटी आयु में ही उन्होंने राज्य छोड़ दिया और भिक्षुक बन गए| भारत से समुद्री मार्ग से वे चीन के हुनान प्रान्त में गए और वहाँ के प्रसिद्ध शाओलिन मंदिर में लम्बे समय तक रहे| वहाँ से वे जापान गए| उनके बारे में अनेक कहानियाँ और किस्से प्रसिद्ध हैं जिनकी प्रामाणिकता के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता| बोधिधर्म के बारे में तो मुझे जो कुछ भी ज्ञात है वह जापान के याकोहामा नगर के सबसे बड़े बौद्ध मठ से प्राप्त परिचयात्मक साहित्य से है|
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जापान में बौद्ध मत चीन के माध्यम से एक भारतीय धर्मप्रचारक बोधिधर्म द्वारा आया| पर चीन में तो बौद्धधर्म सन ००६७ ई.में ही आ गया था| तीन-चार बार चीन जाने का अवसर मुझे मिला है| चीन में सरकारी पर्यटन विभाग द्वारा दी हुई एक पुस्तक में लिखा था कि सन ००६७ ई.में भारत से दो धर्मप्रचारक आये थे जिन्होनें चीन में बौद्ध धर्म फैलाया| उनके नाम भी उस पुस्तक में थे|
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भारत से दक्षिण दिशा की ओर में जो बौद्ध देश हैं उन में हीनयान बौद्धमत, और भारत के उत्तर में स्थित देशों में महायान बौद्धमत प्रचलित है| तिब्बत में महायान बौद्धधर्म का ही रूप बदल कर वज्रयान हो गया| इस विषय पर एक लेख भी कुछ वर्षों पूर्व मैनें लिखा था| कभी अवसर मिला तो हीनयान और महायान आदि के बारे में फिर कभी लिखूंगा| जापान ने इस्लाम को कभी भी अपने देश में नहीं आने दिया| वहाँ के लोग अपने देश और अपनी संस्कृति के प्रति बहुत संवेदनशील हैं|
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन !
कृपा शंकर
२८ अक्टूबर २०१८