आत्मा नित्य-मुक्त है, और भगवान के साथ तो हम सदा से ही एक हैं ---
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भगवान को प्राप्त करने से अधिक आसान और सरल इस सृष्टि में अन्य कुछ भी नहीं है। आत्मा नित्य मुक्त है, और भगवान को तो हम सदा से ही प्राप्त हैं। हमें सिर्फ उस अज्ञान रूपी माया के आवरण को ही हटाना है जिसने हमें हर ओर से घेर रखा है। एक ही भाव निरंतर अपने मन में रहना चाहिए कि मेरे द्वारा जो भी कार्य संपादित हो रहा है उसके कर्ता स्वयं भगवान हैं। मैं तो निमित्त मात्र हूँ। इन पैरों से स्वयं भगवान चल रहे हैं, इन हाथों से वे ही कार्य कर रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, इन कानों से वे ही सुन रहे हैं। इस हृदय में वे ही धडक रहे हैं, इन नासिकाओं से वे ही सांसें ले रहे हैं, और यह जीवन भी वे ही जी रहे हैं। एकमात्र अस्तित्व उन्हीं का है।
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वास्तव में हमारा एकमात्र संबंध भगवान से ही है। इस जन्म से पूर्व भी वे ही साथ में थे और मृत्यु के बाद भी वे ही साथ में रहेंगे। वे ही हरेक सगे-संबंधी-मित्र के रूप में आये। माता-पिता, भाई-बहिन,और हर संबंधी से जो भी प्रेम और स्नेह हमें मिला है, वह भगवान का ही प्रेम था जो उनके माध्यम से व्यक्त हुआ। शत्रु भी वे हैं, शत्रु के साथ युद्ध भी वे ही कर रहे हैं, और शत्रु का संहार भी वे ही कर रहे हैं। युद्धभूमि में शत्रु का संहार करते समय भी हमारे मन में कोई घृणा न हो, उनका संहार भी बड़े प्रेम से भगवान को ही कर्ता बनाकर करें।
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अपने सारे अच्छे-बुरे कर्म, हर अच्छाई-बुराई, हर पुण्य-पाप, सब कुछ, यहाँ तक कि स्वयं को भी बापस भगवान के हाथों में सौंप देना चाहिए। यही भगवान की प्राप्ति का सरलतम मार्ग है। भगवान की प्राप्ति के मार्ग में कोई भी नियम आडे नहीं आता, यदि किसी नियम से बाधा आती है तो उस नियम को ही छोड़ दो। नियम हमारे लिए हैं, न कि हम नियमों के लिए। हमारे ऊपर कोई बंधन नहीं है, हम सब बंधनों से मुक्त हैं। एक ही बंधन है और वह बंधन है स्वयं भगवान का। भगवान सब नियमों और शास्त्रों से परे हैं। जब उन्हें समर्पित हो गए हैं तो हम सब पाशों से मुक्त हैं।
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माया की शक्ति बड़ी दुरूह है। इससे बचने की एक ही उपाय है कि हम निरन्तर भगवान की चेतना में रहें। हम कितना भी दुर्धर्ष संघर्ष करें स्वयं के प्रयासों से माया के पार कभी भी नहीं जा सकते। भक्ति के समक्ष माया शक्तिहीन हो जाती है। अतः माया से हमारी रक्षा सिर्फ भक्ति के द्वारा ही हो सकती है। भक्ति से ही हमें ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति होती है। परमात्मा से परम प्रेम ही भक्ति है।
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अंत में पिंडदान और श्राद्ध के बारे में भी दो-चार पंक्तियाँ लिखना चाहता हूँ। भगवान का ध्यान करते समय प्राण-तत्व घनीभूत होकर सूक्ष्म देह के मूलाधारचक्र में व्यक्त होता है। इसे ही कुंडलिनी महाशक्ति कहते हैं। यह कुंडलिनी ही सबसे बड़ा पिंड है। सुषुम्ना मार्ग से मेरुदंडस्थ सभी चक्रों से होते सहस्त्रारचक्र में भगवान श्रीहरिः के चरण कमलों में इसका समर्पण पिंडदान है। कुंडलिनी बापस बार बार नीचे की ओर लौट आती है। इसे बार बार उठा कर ऊपर ले जाना पड़ता है। श्रद्धा के साथ यही क्रिया की जाये तो यही श्राद्ध है।
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कई बार चेतना ब्रह्मरंध्र से बाहर निकल कर सूक्ष्म जगत की अनंतता से भी परे के एक आलोकमय जगत में जाकर परमशिव को प्रणाम कर बापस लौट आती है। यह एक सामान्य से भी अधिक सामान्य बात है, कोई विशेष उपलब्धि नहीं है। इस शरीर से चेतना का बाहर निकलना और बापस आना -- साधना मार्ग की छोटी-मोटी घटनाएँ है, इनको कोई महत्व नहीं देना चाहिए। अन्यथा ये बाधाएँ भी बन सकती हैं।
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असली उपलब्धि है -- भगवान से परमप्रेम, उनका नित्य निरंतर स्मरण और उनमें समर्पण। और कुछ भी लिखने योग्य नहीं है। भगवान से परम प्रेम करो, और उनका सदा स्मरण करते हुए स्वयं को उनमें समर्पित कर दो। यही सबसे बड़ा यज्ञ है, यही सबसे बड़ी साधना है, और यही उपासना है। जो भी साधन भगवान की ओर न ले जाये वह हमारे किसी काम का नहीं है। जो भगवान का बोध कराये, वही ज्ञान है, बाकी सब अज्ञान है। जो परमात्मा से प्रेम जागृत करे, वही विद्या है, बाकी सब अविद्या है।
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मैंने जो कुछ भी लिखा है वह मेरा निजी अनुभव है, अतः मुझे न तो किसी से कोई बहस करनी है, न किसी से इस विषय पर कोई बात करनी है, और न ही किसी बात का किसी को प्रमाण देना है। अंत में तीन बातें कहना चाहता हूँ -- (१) भगवान से प्रेम करो। (२) भगवान से खूब प्रेम करो। (३) भगवान से हर समय प्रेम करो॥ इति॥
भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्मगण को नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१ अप्रेल २०२२