Friday 1 April 2022

कर्म, भक्ति और ज्ञान में यथार्थतः कोई भेद नहीं है ---

 (संशोधित व पुनर्प्रेषित) कर्म, भक्ति और ज्ञान में यथार्थतः कोई भेद नहीं है ---

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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने तीन ही विषयों पर बात की है -- कर्म, भक्ति और ज्ञान। समग्रता से देखें तो इनमें कोई भेद नहीं है।
हमारे विचार, भाव, व कामनाएँ -- हमारे कर्म हैं। जो भी हम सोचते हैं, या चाहते हैं, -- वह हमारे कर्मों के खाते में जुड़ जाता है।
भगवान से परमप्रेम -- भक्ति है। भक्ति से हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) पवित्र होता है।
अन्तःकरण के पवित्र होने पर ज्ञान की सिद्धी होती है।
ज्ञान की सिद्धि से समत्व में स्थिति होती है। तब सिद्धी और असिद्धि में कोई भेद नहीं रहता।
यह समत्व ही गीता का योग है।
वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण सदा हमारे दृष्टिपथ में बने रहें। कभी भी हमारी दृष्टि से ओझल न हों। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३१ मार्च २०२१

आत्मा नित्य-मुक्त है, और भगवान के साथ तो हम सदा से ही एक हैं ---

 आत्मा नित्य-मुक्त है, और भगवान के साथ तो हम सदा से ही एक हैं ---

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भगवान को प्राप्त करने से अधिक आसान और सरल इस सृष्टि में अन्य कुछ भी नहीं है। आत्मा नित्य मुक्त है, और भगवान को तो हम सदा से ही प्राप्त हैं। हमें सिर्फ उस अज्ञान रूपी माया के आवरण को ही हटाना है जिसने हमें हर ओर से घेर रखा है। एक ही भाव निरंतर अपने मन में रहना चाहिए कि मेरे द्वारा जो भी कार्य संपादित हो रहा है उसके कर्ता स्वयं भगवान हैं। मैं तो निमित्त मात्र हूँ। इन पैरों से स्वयं भगवान चल रहे हैं, इन हाथों से वे ही कार्य कर रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, इन कानों से वे ही सुन रहे हैं। इस हृदय में वे ही धडक रहे हैं, इन नासिकाओं से वे ही सांसें ले रहे हैं, और यह जीवन भी वे ही जी रहे हैं। एकमात्र अस्तित्व उन्हीं का है।
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वास्तव में हमारा एकमात्र संबंध भगवान से ही है। इस जन्म से पूर्व भी वे ही साथ में थे और मृत्यु के बाद भी वे ही साथ में रहेंगे। वे ही हरेक सगे-संबंधी-मित्र के रूप में आये। माता-पिता, भाई-बहिन,और हर संबंधी से जो भी प्रेम और स्नेह हमें मिला है, वह भगवान का ही प्रेम था जो उनके माध्यम से व्यक्त हुआ। शत्रु भी वे हैं, शत्रु के साथ युद्ध भी वे ही कर रहे हैं, और शत्रु का संहार भी वे ही कर रहे हैं। युद्धभूमि में शत्रु का संहार करते समय भी हमारे मन में कोई घृणा न हो, उनका संहार भी बड़े प्रेम से भगवान को ही कर्ता बनाकर करें।
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अपने सारे अच्छे-बुरे कर्म, हर अच्छाई-बुराई, हर पुण्य-पाप, सब कुछ, यहाँ तक कि स्वयं को भी बापस भगवान के हाथों में सौंप देना चाहिए। यही भगवान की प्राप्ति का सरलतम मार्ग है। भगवान की प्राप्ति के मार्ग में कोई भी नियम आडे नहीं आता, यदि किसी नियम से बाधा आती है तो उस नियम को ही छोड़ दो। नियम हमारे लिए हैं, न कि हम नियमों के लिए। हमारे ऊपर कोई बंधन नहीं है, हम सब बंधनों से मुक्त हैं। एक ही बंधन है और वह बंधन है स्वयं भगवान का। भगवान सब नियमों और शास्त्रों से परे हैं। जब उन्हें समर्पित हो गए हैं तो हम सब पाशों से मुक्त हैं।
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माया की शक्ति बड़ी दुरूह है। इससे बचने की एक ही उपाय है कि हम निरन्तर भगवान की चेतना में रहें। हम कितना भी दुर्धर्ष संघर्ष करें स्वयं के प्रयासों से माया के पार कभी भी नहीं जा सकते। भक्ति के समक्ष माया शक्तिहीन हो जाती है। अतः माया से हमारी रक्षा सिर्फ भक्ति के द्वारा ही हो सकती है। भक्ति से ही हमें ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति होती है। परमात्मा से परम प्रेम ही भक्ति है।
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अंत में पिंडदान और श्राद्ध के बारे में भी दो-चार पंक्तियाँ लिखना चाहता हूँ। भगवान का ध्यान करते समय प्राण-तत्व घनीभूत होकर सूक्ष्म देह के मूलाधारचक्र में व्यक्त होता है। इसे ही कुंडलिनी महाशक्ति कहते हैं। यह कुंडलिनी ही सबसे बड़ा पिंड है। सुषुम्ना मार्ग से मेरुदंडस्थ सभी चक्रों से होते सहस्त्रारचक्र में भगवान श्रीहरिः के चरण कमलों में इसका समर्पण पिंडदान है। कुंडलिनी बापस बार बार नीचे की ओर लौट आती है। इसे बार बार उठा कर ऊपर ले जाना पड़ता है। श्रद्धा के साथ यही क्रिया की जाये तो यही श्राद्ध है।
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कई बार चेतना ब्रह्मरंध्र से बाहर निकल कर सूक्ष्म जगत की अनंतता से भी परे के एक आलोकमय जगत में जाकर परमशिव को प्रणाम कर बापस लौट आती है। यह एक सामान्य से भी अधिक सामान्य बात है, कोई विशेष उपलब्धि नहीं है। इस शरीर से चेतना का बाहर निकलना और बापस आना -- साधना मार्ग की छोटी-मोटी घटनाएँ है, इनको कोई महत्व नहीं देना चाहिए। अन्यथा ये बाधाएँ भी बन सकती हैं।
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असली उपलब्धि है -- भगवान से परमप्रेम, उनका नित्य निरंतर स्मरण और उनमें समर्पण। और कुछ भी लिखने योग्य नहीं है। भगवान से परम प्रेम करो, और उनका सदा स्मरण करते हुए स्वयं को उनमें समर्पित कर दो। यही सबसे बड़ा यज्ञ है, यही सबसे बड़ी साधना है, और यही उपासना है। जो भी साधन भगवान की ओर न ले जाये वह हमारे किसी काम का नहीं है। जो भगवान का बोध कराये, वही ज्ञान है, बाकी सब अज्ञान है। जो परमात्मा से प्रेम जागृत करे, वही विद्या है, बाकी सब अविद्या है।
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मैंने जो कुछ भी लिखा है वह मेरा निजी अनुभव है, अतः मुझे न तो किसी से कोई बहस करनी है, न किसी से इस विषय पर कोई बात करनी है, और न ही किसी बात का किसी को प्रमाण देना है। अंत में तीन बातें कहना चाहता हूँ -- (१) भगवान से प्रेम करो। (२) भगवान से खूब प्रेम करो। (३) भगवान से हर समय प्रेम करो॥ इति॥
भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्मगण को नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१ अप्रेल २०२२

हृदय में भक्ति हो, और योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की कृपा हो तो कुछ भी असंभव नहीं है ---

 हृदय में भक्ति हो, और योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की कृपा हो तो कुछ भी असंभव नहीं है ---

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खेचरी मुद्रा के महत्व पर जितना लिखूँ, उतना ही कम है| इसका अभ्यास किसी अच्छे सिद्ध योगी के मार्गदर्शन में किशोरावस्था से ही करने पर यह शीघ्र सिद्ध हो जाती है| इसके लिए योगावतार श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय ने "तालव्य क्रिया" नामक साधना पर ज़ोर दिया है| युवावस्था में भी इसके अभ्यास से यह सिद्ध हो जाती है| प्रोढ़ावस्था में इसकी सिद्धि अति कठिन है| फिर भी जितना हो सके उतना अभ्यास करना चाहिए| इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि खेचरी सिद्ध योगी की आधी आध्यात्मिक यात्रा तो इसके अभ्यास से ही पूरी हो जाती है|
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खेचरी मुद्रा सिद्ध होने पर मणिपुरचक्र से आज्ञाचक्र तक का सुषुम्ना मार्ग शीघ्र ही प्रशस्त हो जाता है, और सूक्ष्म प्राणायाम द्वारा प्राण-तत्व पर नियंत्रण बहुत आसान हो जाता है| प्राण-तत्व की अनुभूति और सिद्धि ही कुंडलिनी जागरण है| कुंडलिनी द्वारा आज्ञाचक्र के भेदन से ज्ञानक्षेत्र में प्रवेश होता है, और आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति स्वतः ही होने लगती है| खेचरी सिद्ध योगी को शीघ्र ही समाधि लाभ और समाधि में स्थिति होती है|
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१ अप्रेल २०२१

तारक मंत्र "राम" के बारे में मेरे अनुभूतिजन्य विचार ---

 तारक मंत्र "राम" के बारे में मेरे अनुभूतिजन्य विचार ---

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दो अक्षरों वाला यह "राम" नाम, तारक मंत्र है| यह अपने आप में पूर्ण है| इसके आगे या पीछे कुछ भी लगाने की आवश्यकता नहीं है| इसका जाप मूर्धा में करें| इसके जाप में देश-काल और शौच-अशौच का कोई निषेध नहीं है| दिन में चौबीस घंटे निरंतर किसी भी स्थान पर कहीं भी किसी भी समय इसका जप कर सकते है| एक ही आवश्यकता है कि इसका जप श्रद्धा-विश्वास और भक्ति से करें, अन्यथा नहीं| इसका निरंतर जप, भवसागर से तार देगा; यह भी एक कारण है कि इसे तारक मंत्र कहते हैं|
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तत्व रूप से और संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से "राम" नाम और प्रणव "ॐ" में कोई अंतर नहीं है| दोनों का फल एक है| इस विषय पर मैंने पहले भी बहुत विस्तार से लिखा है| गीता में और उपनिषदों में ॐ की महिमा भरी पड़ी है| जब हम ध्यान करते हैं, तब सुषुम्ना नाड़ी चैतन्य हो जाती है, और हमें सुषुम्ना में प्राण-प्रवाह की अनुभूति होने लगती है| सुषुम्ना नाड़ी में प्रवाहित हो रहा प्राण जब नाभी के पीछे मणिपुर-चक्र से टकराता है तब वहाँ "रं" की सूक्ष्म ध्वनि उत्पन्न होती है| यही प्राण जब आज्ञा-चक्र से टकराता है तब "ओम्" की सूक्ष्म ध्वनि सुनाई देती है| यह "रं" और "ओम्" दोनों मिलकर "राम" बन जाते हैं| सहस्त्रार-चक्र में प्राण का स्पंदन और आवृति तीब्र और दीर्घ हो जाती हैं| तब वहाँ सिर्फ "ॐ" की ध्वनि ही सुनाई देती है| आज्ञाचक्र का भेदन कई जन्मों की साधना के बाद होता है| यह इतना आसान नहीं है|
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इसको तारक मंत्र इसलिए भी कहते हैं कि इसका ध्यान करते-करते कूटस्थ में एक तीब्र सफ़ेद ज्योति के दर्शन होने लगते हैं जो एक पंचकोणीय तारे के रूप में बदल जाती है| इसे ज्योतिर्मय ब्रह्म भी कहते हैं और पञ्चमुखी महादेव भी| इसमें से नाद रूप में ओंकार की ध्वनि निःसृत होती है| योग साधक उस नाद को सुनते-सुनते, और ज्योतिर्मय-ब्रह्म को देखते-देखते, उन में स्वयं का लय कर देते हैं| इस नाद और ज्योति को कूटस्थ कहते हैं| इस नक्षत्र का भेदन करना पड़ता है| इसके पीछे पराक्षेत्र है जहाँ प्रत्यक्ष परमात्मा का निवास है|
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कूटस्थ में ओंकार भी तारक मंत्र है, जिस का अंत समय में स्मरण करते-करते प्राण त्यागने हेतु भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं --
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव|
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं||८:१०||"
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है||
आगे भगवान कहते हैं .....
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च |
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||८:१३||"
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है||
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यह अति कठिन विषय है जिसको समझाने के लिए मैंने अपनी पूरी क्षमता का उपयोग किया है| यदि मैं किसी को समझा नहीं सका हूँ तो इसे अपनी असफलता मानता हूँ| यह विषय भगवान की कृपा से ही समझ में आता है| ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१ अप्रेल २०२१