Wednesday, 25 December 2024

दो अति महान व्यक्तित्व जिनकी तत्कालीन शासकों ने उनकी सत्यनिष्ठ विचारधारा के कारण सदा उपेक्षा ही की, और वे बिना किसी सरकारी मान्यता के Unsung Heros की तरह हमारे मध्य से चले गए ---

 दो अति महान व्यक्तित्व जिनकी तत्कालीन शासकों ने उनकी सत्यनिष्ठ विचारधारा के कारण सदा उपेक्षा ही की, और वे बिना किसी सरकारी मान्यता के Unsung Heros की तरह हमारे मध्य से चले गए ---

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(१) मेरी दृष्टि में इस शताब्दी में वैदिक परंपरा के महानतम दार्शनिक -- स्व.श्री रामस्वरूप अग्रवाल (१९२० - २६ दिसंबर १९९८) थे। उनसे बड़ा कोई दार्शनिक भारत में पिछली एक शताब्दी में कोई दूसरा नहीं हुआ। वे अपने नाम के साथ अग्रवाल नहीं लिखते थे, सिर्फ रामस्वरूप ही लिखते थे। उनका जन्म सं १९२९ में हरियाणा के सोनीपत में एक गर्ग गौत्रीय अग्रवाल परिवार में हुआ था। वे जीवन भर अविवाहित रहे। दिल्ली में उन्होंने अर्थशास्त्र का अध्ययन किया, लेकिन सारा जीवन धर्म, ज्ञान, और सामाजिक चिंतन में ही व्यतीत किया। वे एक बहुत ही उच्च स्तर के महान योगसाधक भी थे।
उनका निधन २६ दिसंबर १९९८ को हुआ। आज उनकी २४ वीं पुण्यतिथि पर उनको सादर नमन और श्रद्धांजलि।
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उनके प्रमुख शिष्य श्री सीताराम गोयल (१६ अक्टूबर १९२१ - ३ दिसंबर २००३) थे, जिन्हें मैं इस शताब्दी का महानतम इतिहासकार कहता हूँ। इनका जन्म भी हरियाणा में हुआ था। सन १९५१ से १९९८ तक श्री सीताराम गोयल ने ३० से अधिक पुस्तकें और सैंकड़ों लेख लिखे। बेल्जियन विद्वान कोएनराड एल्स्ट ने लिखा है कि गोयल की बातों का या उनकी पुस्तकों में दिए तथ्यों का आज तक कोई खंडन नहीं कर सका है।
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वर्तमान में भारतीयता के प्रति जो इतनी सजगता देखने में आ रही है, उसका श्रेय मैं श्री गोयल के लेखन को देता हूँ। वे एक महान कर्मयोगी थे। दिल्ली में उन्होंने "वॉयस ऑफ इंडिया" नाम के प्रकाशन की स्थापना की, जो अभी भी चल रहा है। उपरोक्त दोनों महान विभूतियों का साहित्य वहीं पर उपलब्ध है।
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श्री रामस्वरूप जी का पुण्य स्मरण स्वयं में एक पुण्य कर्म है। उन्हें शत शत नमन।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ दिसंबर २०२२

भगवान के भजन के लिए यह मौसम बहुत अच्छा है (बुढ़ापा सबसे खराब चीज है)

 भगवान के भजन के लिए यह मौसम बहुत अच्छा है (बुढ़ापा सबसे खराब चीज है)

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"दुनिया भी अजब सराय फानी देखी,
हर चीज यहां की आनी जानी देखी।
जो आके ना जाये वो बुढ़ापा देखा,
जो जा के ना आये वो जवानी देखी।।"
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पिछले दो दिनों से बड़ी भयंकर शीत-लहर चल रही है। बाहर बर्फीली हवाएँ चल रही हैं। पहाड़ों में बर्फ गिरती है तो भौगोलिक कारणों से उनकी शीत लहर सीधी इधर ही आती है।
Electric Room Heater का उपयोग शयन कक्ष में करना पड़ रहा है। इटली की हमारी एक सत्संगी बहिन ने एक बिजली से गरम होने वाली गद्दी भी भेज रखी है, जिसे बिस्तर की चद्दर के नीचे लगाते ही बिस्तर गरम हो जाता है। बुढ़ापे में सर्दी सहन नहीं होती। यह बुढ़ापा बहुत खराब चीज है।
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यमराज भी सर्दी के मौसम में ही बड़े-बूढ़ों पर अपनी परम कृपा करते हैं। अभी उनकी कृपा नहीं चाहिए। कुछ भजन-बंदगी-साधना-तपस्या तो की ही नहीं है, इसलिए यम महाराज का यहाँ क्या काम? जब भगवान के भजनों से हृदय तृप्त हो जाएगा, तब भगवान के संकेत मात्र से यह संसार छोड़ देंगे। यमराज महाराज इधर आने का कष्ट न उठायें। वैसे भी उनका यहाँ स्वागत नहीं है -- "चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः॥"
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहि माम्।
चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्ष माम्॥
रत्नसानुशरासनं रजताद्रिश्रृङ्गनिकेतनं
शिञ्जिनीकृतपन्नगेश्वरमच्युतानलसायकम् ।
क्षिप्रदग्धपुरत्रयं त्रिदशालयैरभिवन्दितं
चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः।।"
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दिन-रात भगवान का चिंतन हो। अन्य कोई बात चेतना में न रहे। तब बाहर के मौसम से कोई अंतर नहीं पड़ेगा। भगवान का चिंतन करते करते ही उनकी चेतना में ब्रह्मरंध्र के मार्ग से सूर्यमंडल में एक दिन गमन हो जायेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ दिसंबर २०२२

हमारे जीवन का प्रथम, अंतिम और एकमात्र लक्ष्य/उद्देश्य -- "ईश्वर की प्राप्ति" है ---

 हमारे जीवन का प्रथम, अंतिम और एकमात्र लक्ष्य/उद्देश्य -- "ईश्वर की प्राप्ति" है। इसके लिए कोई से भी साधन हों -- भक्ति, योग, तंत्र आदि सब स्वीकार्य हों।

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अब इस समय साधना की सारी विधियों का महत्व समाप्त हो गया है। साधना की सारी पद्धतियाँ अब भूतकाल का विषय रह गयी हैं। वर्तमान में महत्व रहा है सिर्फ -- "परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूतियों" का जो प्रेम और आनंद के रूप में अनुभूत और व्यक्त हो रही हैं।
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नदियों का प्रवाह महासागर की ओर होता है। लेकिन एक बार महासागर में मिलने के पश्चात नदियों का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जाता है। फिर महासागर का ही अवशेष रहता है। जो जलराशि महासागर से मिल गई हैं, वह बापस नदियों में नहीं जाना चाहती हैं। इसी तरह अब सारे पंथों और सिद्धांतों का कोई महत्व नहीं रहा है। भगवान हैं, इसी समय है, यही पर हैं, हर समय और सर्वत्र हैं। वे हैं, बस यही महत्वपूर्ण है। भगवान की आनंद रूपी जलराशि में तैर रहे हैं, उनकी जलराशि बन कर उनके महासागर में विलीन हो गये हैं। यही भाव सदा बना रहे।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ दिसंबर २०२३

हम परमब्रह्म परमशिव परमात्मा की ब्राह्मी-चेतना, यानि कूटस्थ-चैतन्य में, प्रयासपूर्वक निरंतर बने रहेंगे ---

 हम परमब्रह्म परमशिव परमात्मा की ब्राह्मी-चेतना, यानि कूटस्थ-चैतन्य में, प्रयासपूर्वक निरंतर बने रहेंगे ---

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अंततः भगवत्-प्राप्ति/आत्म-साक्षात्कार/कैवल्य-मोक्ष ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य और सनातन-धर्म का सार है। परमात्मा ही हमारा लक्ष्य है। वे हर समय हमारे समक्ष अपने परम ज्योतिर्मय रूप में हैं। उनके पथ पर कहीं कोई अंधकार नहीं है। हमारी दृष्टि उन पर ही स्थिर रहे, हम उन्हीं की चेतना में सदा उनकी ओर ही अग्रसर रहें। राग-द्वेष व अहंकार से मुक्त होकर हम वीतराग होंगे। हमारी प्रज्ञा परमात्मा में स्थिर होगी और हम स्थितप्रज्ञ होंगे। हमारी चेतना निरंतर कूटस्थ-चैतन्य में होगी, और हम सदा ब्राह्मी-स्थिति में रहेंगे।
हम सदा हर समय परमब्रह्म परमात्मा के साथ एक हैं। उनमें और हमारे में कोई भेद नहीं है। अब इसी क्षण से जब भी समय मिलेगा तब, और विशेषकर रात्रि की निःस्तब्धता में यथासंभव अधिकाधिक समय गुरु प्रदत्त विधि से परमात्मा की उपासना/ध्यान आदि में ही व्यतीत करेंगे।
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हर समय परमात्मा का स्मरण करते हुए ही हमें अपनी उपासना की अवधि का समय भी बढ़ा कर २४ घंटों में से कम से कम ८ घंटों का करना है। अब से प्रतिदिन कम से कम ८ घंटे भगवान का विधिवत ध्यान करेंगे, जो दो टुकड़ों में भी कर सकते हैं। परमात्मा ही हमारा अपना स्वरूप है। हम यह मनुष्य शरीर नहीं, सर्वव्यापी परमात्मा के साथ एक हैं। हम अपनी चेतना के उच्चतम बिन्दु पर परमशिव परमात्मा के अनंत परम ज्योतिर्मय रूप का ध्यान करें। पृष्ठभूमि में मंत्र का श्रवण भी निरंतर होता रहे। हम स्वयं मंत्रमय और परम ज्योतिर्मय हैं। सबसे बड़े गुरु तो भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हैं, वे जगतगुरु हैं। कभी तो वे अपनी त्रिभंग-मुद्रा में, या कभी शांभवी-मुद्रा में हर समय हमारे साथ रहते है।
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भारत को सबसे बड़ा खतरा अधर्म से है। हमारी साधना से ही धर्म की जय होगी, और अधर्म का नाश होगा। आज के दिन से ही भारत और सनातन धर्म की रक्षा के लिए अधिकाधिक साधना करें। किसी भी तरह के वाद-विवाद आदि में न पड़ें। हमारा लक्ष्य वाद-विवाद नहीं, परमात्मा की प्राप्ति है। भगवान का ध्यान हमें चिन्ता मुक्त कर देता है| तत्पश्चात हम केवल निमित्त मात्र बन जाते हैं| हमारे माध्यम से भगवान ही सारे कार्य करते हैं।
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भारतवर्ष में मनुष्य देह में जन्म लेकर भी यदि कोई भगवान की भक्ति ना करे तो वह अभागा है। भगवान के प्रति परम प्रेम, समर्पण और समष्टि के कल्याण की अवधारणा सिर्फ भारत की ही देन है। सनातन धर्म का आधार भी यही है। पहले निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करो, फिर जीवन के सारे कार्य श्रेष्ठतम ही होंगे। परमात्मा को पूर्ण ह्रदय से प्रेम करो, फिर सब कुछ प्राप्त हो जाएगा। धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ दिसंबर २०२४

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ---

भगवान श्रीगणेश और जगन्माता को नमन करते हुए कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूँ। ध्यान-साधना का एकमात्र उद्देश्य है -- आत्म-साक्षात्कार यानि Self-Realization। एक बार परमात्मा की अनुभूति हो जाये तो साधक को उनसे परमप्रेम हो जाता है, और वह इधर-उधर अन्यत्र कहीं भी नहीं भागता। इस समय मध्यरात्रि है, और परमात्मा की चेतना में जो भी भाव आ रहे हैं, उन्हें ही यहाँ व्यक्त कर रहा हूँ।

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"मैं अनंतानांत समस्त सृष्टि और उससे भी परे जो कुछ भी सृष्ट और असृष्ट है, वह हूँ, और अपने परम ज्योतिर्मय रूप में सर्वत्र व्याप्त हूँ। सब जीवों में मैं ही उपासना कर रहा हूँ। पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म और सब नियम मेरी ही रचना है। मैं अनन्य हूँ। उत्तरायण और दक्षिणायन दोनों ही मेरे मन की कल्पना हैं। मैं उनसे बहुत परे हूँ।"
(टिप्पणी :-- आंतरिक उत्तरायण और दक्षिणायण -- यह साधनाजन्य अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं। अतः इस विषय को यहीं छोड़ रहा हूँ, और कुछ भी नहीं लिख रहा। मुझे मुक्ति या मोक्ष की कामना नहीं है, अतः दक्षिणायण का आंतरिक मार्ग ही पसंद है।)
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भगवान कहते हैं --
"अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥८:२१॥"
अर्थात् -- जो अव्यक्त अक्षर कहा गया है, वही परम गति (लक्ष्य) है। जिसे प्राप्त होकर (साधकगण) पुनः (संसार को) नहीं लौटते, वह मेरा परम धाम है॥
The wise say that the Unmanifest and Indestructible is the highest goal of all; when once That is reached, there is no return. That is My Blessed Home.
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भगवान कहते हैं --
"वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥८:२८॥"
अर्थात् -- योगी पुरुष यह सब (दोनों मार्गों के तत्त्व को) जानकर वेदाध्ययन, यज्ञ, तप और दान करने में जो पुण्य फल कहा गया है, उस सबका उल्लंघन कर जाता है और आद्य (सनातन), परम स्थान को प्राप्त होता है॥
The sage who knows this, passes beyond all merit that comes from the study of the scriptures, from sacrifice, from austerities and charity, and reaches the Supreme Primeval Abode."
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भगवान हमें अनात्मा से तादात्म्य हटाकर, मन को आत्मस्वरूप में एकाग्र करना सिखा रहे हैं। संसार में रहते हुए, और सांसारिक कार्य करते हुए भी सदा अक्षरपुरुष ब्रह्म के साथ अनन्य-भाव से तादात्म्य स्थापित कर आत्मज्ञान में स्थिर रहने का प्रयत्न हमें करते रहना चाहिए।
(इसके लिए साधना करनी पड़ती है)
यहाँ भगवान कहते हैं कि हमें हमारे में थोड़ी-बहुत अत्यल्प मात्रा में जो भी योग्यता है, हमें ध्यान-साधना का अभ्यास करना चाहिये। इससे हम सब फलों का उल्लंघन कर सकते हैं। इसके नित्य नियमित अभ्यास से विवेक और वैराग्य दोनों ही जागृत होते हैं। बाकी सब भगवान की कृपा पर निर्भर है। हमारे ऊपर भगवान की कृपा बनी रहे, इसका उपाय निरंतर करना चाहिए।
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मैं भगवान श्रीकृष्ण को नमन करता हूँ कि उनकी परम कृपा से ही यह सब लिख पाया, अन्यथा मुझमें कोई योग्यता नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ दिसंबर २०२४

यदि जीसस क्राइस्ट हैं तो वर्तमान ईसाई रिलीजन से उनका कोई संबंध नहीं है। वर्तमान ईसाई रिलीजन मात्र एक चर्चवाद है --

हे ईसाई मज़हब के प्रचारको, तुम लोग पूरे विश्व में एक असत्य का अंधकार फैला रहे हो। तुम लोग चाहो तो अपने मत में आस्था रखो, पर हमारे गरीब और लाचार हिंदुओं का धर्मांतरण मत करो। हमारे सनातन धर्म की निंदा और हम पर झूठे दोषारोपण मत करो। तुम लोगों ने भारत में सबसे अधिक अत्याचार और नरसंहार किये हैं। भारत का सबसे अधिक अहित तुम लोगों ने किया है।

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ईश्वर को प्राप्त करना हम सब का जन्मसिद्ध अधिकार है। सभी प्राणी ईश्वर की संतान हैं। जन्म से कोई भी पापी नहीं है। सभी अमृतपुत्र हैं परमात्मा के। मनुष्य को पापी कहना सबसे बड़ा पाप है। अपने पूर्ण ह्रदय से परमात्मा को प्यार करो। यह झूठ है कि जीसस क्राइस्ट में आस्था वालों को ही मुक्ति मिलेगी और अन्य सब नर्क की अग्नि में अनंत काल तक तड़पाये जाएँगे। तुम्हारा तथाकथित परमेश्वर झूठा और दूसरों को दुःखदायी है।
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यह जीसस क्राइस्ट का सबसे बड़ा उपदेश है जिसकी उपेक्षा कर ईसाईयों ने सिर्फ मारकाट और नर संहार ही किये हैं ---
Sermon on the Mount ..... He said ..... "But seek ye first the kingdom of God and His righteousness, and all these things shall be added unto you." Matthew 6:33 KJV.
अर्थात् .... पहिले परमात्मा के राज्य को ढूंढो, फिर अन्य सब कुछ तुम्हें स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा।
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ईसाईयत में कर्मफलों का सिद्धांत .....
"He that leadeth into captivity shall go into captivity: he that killeth with the sword must be killed with the sword.
Revelation 13:10 KJV."
उपरोक्त उद्धरण प्राचीन लैटिन बाइबल की Revelation नामक पुस्तक के किंग जेम्स वर्ज़न से लिया गया है| एक धर्मगुरु अपने एक नौकर के कान अपनी तलवार से काट देता है जिस पर जीसस क्राइस्ट ने उसे तलवार लौटाने को कहा और उपरोक्त बात कही|
(विडम्बना है कि उसी जीसस क्राइस्ट के अनुयायियों ने पूरे विश्व में सबसे अधिक अत्याचार और नर-संहार किये).
All who will take up the sword will die by the sword.
Live by the sword, die by the sword.
जो दूसरों को तलवार से काटते हैं वे स्वयं भी तलवार से ही काटे जाते हैं ....
प्रकृति किसी को क्षमा नहीं करती| कर्मों का फल मिले बिना नहीं रहता।
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अपने कर्मों का फल सब को अवश्य मिलेगा। कोई इस से बच नहीं सकता। विश्व में अनेक अति गुप्त ईसाई संस्थाएँ हैं जो घोर कुटिलता और हिंसा से अभी भी पूरे विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहती हैं| ऐसी संस्थाओं से हमें अति सचेत रहना है| भारत की रक्षा तो भगवान ने ही की है, अन्यथा भारत तो उनके द्वारा अब तक नष्ट हो चुका होता।
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मेरे कई ईसाई मित्र हैं (रोमन कैथोलिक भी और प्रोटोस्टेंट भी) जिनके साथ मैं कई बार उनके चर्चों में गया हूँ और वहाँ की प्रार्थना सभाओं में भी भाग लिया है। दो बार इटली में वेनिस और कुछ अन्य नगरों में भी गया हूँ जहाँ खूब बड़े बड़े चर्च हैं जिनमें उपस्थिति नगण्य ही रहती है। यूरोप व अमेरिका के कई ईसाई पादरियों से मेरा परिचय रहा है। कुछ अमेरिकन व इटालियन ईसाई भक्तों से मैंने क्रिसमस पर Carols भी खूब सुने हैं। कुल मिलाकर मेरा अनुभवजन्य मत यही है कि जो जिज्ञासु ईसाई हैं उनको अपनी जिज्ञासाओं का समाधान सनातन हिन्दू धर्म में ही मिलता है, और इस बात की पूरी संभावना है कि विश्व के सारे समझदार ईसाई एक न एक दिन सनातन हिन्दू धर्म को ही अपना लेंगे।
कृपा शंकर
२५ दिसंबर २०२४

काबा के हिन्दू होने के प्रमाण --- (लेखक : Sanjay Tiwari)

 अरब की प्राचीन वैदिक संस्कृति : .

लगभग 1400 साल पहले अरब में इस्लाम का प्रादुर्भाव हुआ,
इससे पहले अरब के निवासी अपने पिछले 4000 साल के इतिहास को भूल चुके थे, और इस्लाम में इस काल को जिहालिया कहा गया है जिसका अर्थ है अन्धकार का युग,
परन्तु ये जिहालिया का युग मुहम्मद के अनुयाइयो द्वारा फैलाया झूठ है, इस्लाम से पहले वहां पर वैदिक संस्कृति थी, हमारे विभाग ने इस पर एक नहीं हजारो प्रमाण इकट्ठे कर लिए है,
और ये मुर्ख ये नहीं जानते की जब मुहम्मद के कहने पर वहां के सभी पुस्तकालय, देवालय, विद्यालय जला दिए तो इन्हें कैसे पता चला की वहां पर इस्लाम से पहले जाहिलिया का युग था,
असल में मुहम्मद जो की भविष्यपुराण के अनुसार राक्षस था, ने राजा भोज के स्वपन में आकर कहा था की आपका सनातन धर्म सर्वोत्तम है पर मैं उसे पुरे संसार से समेट कर उसे पैशाचिक दारुण धर्म में परिवर्तित कर दूंगा,
और वहां के लोग लिंग्विछेदी, दढ़ियल बिना मुछ के, ऊँची आवाज में चिल्लाने वाले(अजान), व्यभाचारी, कामुक और लुटेरे होंगे,
इसलिए ये जहाँ भी जाते है अराजकता फैला देते है, खुद मुस्लिम देश भी दुखी है,
इनके जिहालिया के युग का भांडा शायर ओ ओकुल में फूटता है, जिसमे लबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा जी ने अरब में वैदिक संस्कृति को प्रमाणित किया है,
“अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे।
व अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन।1।
वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन जिकरा।
वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंदतुन।2।
यकूलूनल्लाहः या अहलल अरज आलमीन फुल्लहुम।
फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन।3।
वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहे तनजीलन।
फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअन योवसीरीयोनजातुन।4।
जइसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुबातुन।
व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।5।”
अर्थात- (1) हे भारत की पुण्यभूमि (मिनार हिंदे) तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना। (2) वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश, जो चार प्रकाश स्तम्भों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, यह भारतवर्ष (हिंद तुन) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ। (3) और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान है, इनके अनुसार आचरण करो। (4) वह ज्ञान के भण्डार साम और यजुर है, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए, हे मेरे भाइयों! इनको मानो, क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते है। (5) और दो उनमें से रिक्, अतर (ऋग्वेद, अथर्ववेद) जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा देते है, और जो इनकी शरण में आ गया, वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता।
अरबी काव्य संग्रह ग्रंथ ‘ शायर-ए-ओकुल’ के 253वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता है जिसमें उन्होंने हिन्दे यौमन एवं गबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया है । .
‘उमर-बिन-ए-हश्शाम’ की कविता नयी दिल्ली स्थित मन्दिर मार्ग पर श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर (बिड़ला मन्दिर) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर के स्तम्भ (खम्बे) पर काली स्याही से लिखी हुई है, जो इस प्रकार है -
” कफविनक जिकरा मिन उलुमिन तब असेक ।
कलुवन अमातातुल हवा व तजक्करू ।1।
न तज खेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा ।
वलुकएने जातल्लाहे औम असेरू ।2।
व अहालोलहा अजहू अरानीमन महादेव ओ ।
मनोजेल इलमुद्दीन मीनहुम व सयत्तरू ।3।
व सहबी वे याम फीम कामिल हिन्दे यौमन ।
व यकुलून न लातहजन फइन्नक तवज्जरू ।4।
मअस्सयरे अरव्लाकन हसनन कुल्लहूम ।
नजुमुन अजा अत सुम्मा गबुल हिन्दू ।5।
अर्थात् – (1) वह मनुष्य, जिसने सारा जीवन पाप व अधर्म में बिताया हो, काम, क्रोध में अपने यौवन को नष्ट किया हो। (2) अदि अन्त में उसको पश्चाताप हो और भलाई की ओर लौटना चाहे, तो क्या उसका कल्याण हो सकता है ? (3) एक बार भी सच्चे हृदय से वह महादेव जी की पूजा करे, तो धर्म-मार्ग में उच्च से उच्च पद को पा सकता है। (4) हे प्रभु ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत (हिंद) के निवास का दे दो, क्योंकि वहाँ पहुँचकर मनुष्य जीवन-मुक्त हो जाता है। (5) वहाँ की यात्रा से सारे शुभ कर्मो की प्राप्ति होती है, और आदर्श गुरूजनों (गबुल हिन्दू) का सत्संग मिलता है
अरब में लगभग 400-600 ईसा पूर्व चक्रवर्ती महाराज चन्द्रगुप्त ने सनातन धर्म की स्थापना की, पर शको के आक्रमण के बाद यहाँ से भारत का नियंत्रण लगभग कट चूका था,
अरब में तब घर घर में सनातनी देवी देवताओं की पूजा होती थी, शिक्षा के लिए विधिवत गुरुकुल थे, बड़े बड़े संग्रहालय और पुस्तकालय थे, वैदिक संस्कृति से ओतप्रोत अरब में चहुँ और सनातन धर्म का एकछत्र साम्राज्य था,
VIKRAMADITYA – THE GREAT HINDU EMPEROR
इसी काम में शक्वाहन के नेतृत्व में पुन: अरब में सनातन संस्कृति की स्थापना हुई,
महाभारत काल में कम्बोज के कुम्ब्ज राजा का वर्णन आता है, ठीक इसी प्रकार एक मितन्नी वंश का भी वर्णन आता है जो बाद में अरब की और पलायन कर गया था ।
अरब में लगभग 500 वर्ष तक मितन्नी वंश के राजाओं का शासन रहा जो की अहुर(असुर) वंश के थे,
इनके नाम है:
तुष्यरथ(दशरथ)
असुर निराही II
असुर दान I
असुर नसिरपाल I
असुर बानिपाल I
632 ईo के बाद यहाँ पर पैगम्बर मुहम्मद के रूप में इस्लाम की स्थापना हुई, इस्लाम की स्थापना के बाद अरब में व्यापक स्तर पर हिन्दुओ का नरसंहार हुआ,
काबा में स्थित सभी मूर्तियों को मुहम्मद द्वारा तोड़ दिया गया, परन्तु इसके उपरान्त भी मुहम्मद ने काबा में हजरे-असवद नाम के एक काले पत्थर को वहां पर रहने दिया और आज हर मुसलमान हज के समय उसके दर्शन अवश्य करता है,
असल में हजरे अस्वाद का हजरे हजर शब्द से बना है जो की हर का अपभ्रंश है, हर का अर्थ संस्कृत में शिव होता है और अस्वाद अश्वेत का ही अपभ्रंश है, चूँकि मुहम्मद के समय ये पत्थर सफ़ेद रंग का था जो की बाद में हज के समय आने वाले पापियों, दुराचारियो और व्यभाचारियो के द्वारा छुते रहने के कारण काला पड़ गया,
Black stone in kaaba
मक्का में काबा में स्थित भगवान् शिव भी सोचते होंगे की प्रतिवर्ष हजारो पापी अपने पापो की क्षमा याचना के लिए मक्का में इस आशा से आते है की उस शिवलिंग को के दर्शन मात्र से उनके पाप मिट जायेंगे,
यहाँ पर मुस्लीम बिना सिले २ कपडे लेते है एक पहन कर और दूसरा कंधे पर डाल कर काबा की घडी की उलटी दिशा में 7 परिक्रमा करते है, चूँकि मुहम्मद ने भविष्यपुराण के अनुसार पैशाचिक धर्म की स्थापना की थी, इसलिए नकारात्मक ऊर्जा को मुसलमानों में निरंतर भरे रखने के लिए वहां पर उलटी परिक्रमा का रिवाज रखा गया,
अब इस्लाम पर थोडा और जानकारी, इस्लामिक मत के अनुसार क़यामत के बाद हजरत मूसा ने इस धरती को पुन: बसाया था, जिसकी कहानी कुछ कुछ मतस्य पुराण से मिलती है,
मतस्य पुराण में प्रलय की कथा : मतस्य पुराण 11/38

ठीक इसी प्रकार इस्लाम का अर्धचन्द्र सनातन संस्कृति से लिया गया है, भगवान् शंकर की पूजा करने वाले अरब वासियों ने भगवान् शिव के मस्तक पर स्थित अर्धचन्द्र को इस्लाम में स्थान दिया, चुकी देखने वाले बात ये है की इस्लामिक शहादा के झंडे में और मुहम्मद के मक्का फतह के समय वाले झंडे में ऐसा कुछ नहीं है, ये केवल अन्य गैर अरबी देशो में है जो बाद में इस्लामिक देश बन गये,
पूरी के जगन्नाथ मंदिर में भगवान् कृष्ण, बड़े भैया बलराम और बहन सुभद्रा के साथ विराजते है,
हर साल उनकी बड़ी झांकी निकलती है जिसमे दूर दूर से देश विदेश के श्रद्दालु आते है और भगवान् का रथ खींचते है,
पर आज तक मंदिर के शिखर पर लगे हुए ध्वज, धर्म पताका की ओर किसी का ध्यान संभवतया ही गया होगा,
मंदिर के शिखर पर लगी धर्म पताका में हिन्दू ध्वजों की तरह ही तिकोने आकार में भगवा वस्त्र और बीच में चाँद व् तारा चिन्हित है,
आमतौर पर ये चिन्ह इस्लामिक झंडो में लगता है पर इस पर भी एक गूढ़ रहस्य है जिसके विषय में मित्र विक्रमादित्य जी ने एक काफी विस्तृत लेख लिखा था और मंगोलिया सभ्यता के साथ चंगेजी खान के साथ सनातनी सभ्यता के कुछ प्रमाण भी दिखाए थे,
ठीक उसी प्रकार इन चिन्ह का मंगोलिया से सम्बन्ध है और मंगोलिया के ही चाँद तारा के इस चिंह को अधिकतर इस्लामिक देश(गैर अरब) प्रयोग करते है,
ये भी ध्यान देने वाली बात है की केवल अरब में किसी झंडे में चाँद तारा एक साथ नहीं है, अर्थात चाँद तारा इस्लामिक चिन्ह नहीं है, इस चाँद तारे का उपयोग सनातनी मंदिरो के अतिरिक्त केवल और केवल मंगोल की प्राचीन सभ्यता में हुआ है, जिसका एक प्रत्यक्ष प्रमाण आपके समक्ष है
Moon Star symbol on the flag of Jagannath Temple, Puri
एकेश्वरवाद का सिद्धांत भी सनातन धर्म से लिया गया है जहाँ पर देवी देवता और अवतार बहुत है पर इश्वर एक ही है, ॐ शिव, क्यूंकि शिव ही अजन्मा है,
और जिस जमजम के कुएं की ये बात करते है एक शिवलिंग उसमे भी है जिसकी पूजा खजूर के पत्तो से होती है,
इस प्रकार मक्का में एक नहीं, दो शिवलिंग है,
अब बात आती है मक्का में एक और प्रमाणिक स्त्रोत की, सभी जानते है की भगवान् वामन ने बलि के 100 यज्ञो द्वारा इंद्र पद प्राप्त करने के प्रयास को विफल करते हुए उससे तीन पग भूमि ली और उसमे चराचर जगत को २ पग में नाप कर तीसरे पद में राजा बलि को भी अपने अधीन कर लिया, भगवान् वामन का ये तीसरा पग और कही नहीं, मक्का में ही पड़ा था, इसका प्रमाण है मक्का में काबा के ठीक बाहर रखा एक स्तम्भ, जो की इस्लामिक मान्यता के अनुसार अब्राहम का है,
ये देखे :
feet of abraham outside kaaba
और यदि हम अब्राहम शब्द को देखे तो यह अ+ब्रह्म बनता है, जो परमपिता ब्रह्मा जी की और इंगित करता है, इसका एक प्रमाण शास्त्रों में यहाँ मिलता है :
एकं पदं ग्यायान्तु मक्कायान्तु द्वितीयं
तृतीयं स्थापितं दिव्यम मुक्ताए शुक्लस्य सन्निधो – हरिहर क्षेत्रमहात्म्य 7:6
अन्य प्रमाण :
जब मुहम्मद ने काबा और मक्का के पास स्थिति सभी सनातनी प्रमाणों को नष्ट कर दिया तब उसके बाद उसका पश्चाताप करने के लिए मुहम्मद ने विधिवत सनातन विधि से काबा में मंदिर की स्थापना की, इसका एक प्रमाण है काबा का अष्टकोणीय वास्तु, इसमें एक चतुर्भुज के ऊपर दूसरा चतुर्भुज टेढ़ा करके मंदिर स्थापना होती है और प्रत्येक सनातन मंदिर में यही विधान है,
ये देखे:
काबा का अष्टकोणीय वास्तु :
मक्का, अरब में खुदाई में मिला एक पुराना दीपक-
अरब में मिली सरस्वती माता की प्रतिमा :
ठीक इसी प्रकार जमजम गंगगंग का ही अपभ्रंश है, और अरब में किसी मुस्लिम के मरने पर उसके मुह में जमजम का पानी डाला जाता है ठीक उसी प्रकार जैसे हिन्दुओ के मुह में गंगाजल डाला जाता है,
कहते है की
मुहम्मद ने कालिदास द्वारा भस्म होने के बाद भविष्य पुराण के अनुसार राजा भोज के स्वप्न में आकर राक्षसी पैशाचिक धर्म की नींव रख कर सनातन धर्म का नाश करने की बात कही थी, इसी के फलस्वरूप कुरान में मुसलमानों को जिहाद का आदेश दिया, और हदीस बुखारी किताब २ के अनुसार इसका सबसे बड़ा शत्रु केवल भारत था, जिसे अरबी में हिन्द कहते है, भारत को ख़ास टारगेट करके ही मुहम्मद ने मुसलमानो को गजवा हिन्द के निर्देश दिए,
इसके बाद इस्लाम धीरे धीरे अन्य देशो में फैला जैसे की मिस्र,
जैसा की नाम से ही पता चलता है मिस्र एक सनातनी देश था जो की मिश्रा हिन्दुओ के नाम पर बना है, ठीक इसी प्रकार सीरिया का नाम सूर्य देश था जो कालांतर में सीरिया हो गया,
मिस्र में लगभग 3000 सालो तक सनातन धर्म की पताका फहराई गयी थी,
इसका प्रमाण है वहां पर लगभग 11 पीढ़ी तक राम नाम के शासको द्वारा शासन करना,
जिनके नाम है:
परमेश रामशेस
रामशेस I
रामशेस II
रामशेस III
रामशेस IV
रामशेस V महान
रामशेस VI
रामशेस VII
रामशेस VIII
रामशेस IX
रामशेस X
इसके अतिरिक्त महान राजा फ़राओ अपने उदर(पेट) व् मस्तक पर एक तिलक लगाते थेजो की हुबहू गोस्वामी तुलसीदास जैसा था.
अत: ये कहना की इस्लाम एक धर्म है गलत है,
संकलनकर्ता – Saffron Hindurashtra
और दिए प्रमाणों के बल पर मैं सभी मुस्लिम समाज को चुनौती देता हु की मेरे दिए प्रमाणों को नकारे या सत्य स्वीकार करे,
सत्य सनातन वैदिक धर्म की जय,

स्वामी विवेकानंद का संकल्प दिवस ---

स्वामी विवेकानंद का संकल्प दिवस ......

आज स्वामी विवेकानंद के संकल्प दिवस पर मैं सभी मित्रों का अभिनन्दन करता हूँ| आज ही के दिन एक महान घटना हुई थी जिससे भारतवर्ष के पुनरोदय का सूत्रपात हुआ था|
२५ दिसंबर १८९२ का दिन था| स्वामी विवेकानंद भारत माता की तत्कालीन दशा से अत्यधिक क्षुब्ध और व्यथित थे| उन्हें बहुत पीड़ा हो रही थी| ईश्वर से बस यही जानना चाहते कि पुण्यभूमि भारत का पुनः उत्थान कैसे हो|
उस समय वे तमिलनाडु के दक्षिणी छोर पर कन्याकुमारी में थे| अभीप्सा की प्रचंड अग्नि उनके ह्रदय में जल रही थी| उनसे और रहा नहीं गया और उन्होंने समुद्र में छलांग लगा ली और प्राणों की बाजी लगाकर उथल पुथल भरे समुद्र की लहरों में तैरते हुए दूर एक बड़े शिलाखंड पर चढ़ गए| उनके ह्रदय में बस एक ही भाव था कि भारत का उत्थान कैसे हो|
उस शिलाखंड पर तीन दिन और तीन रात वे समाधिस्थ रहे| उसके बाद उन्हें ईश्वर से मार्गदर्शन मिला और उनका कार्य आरम्भ हुआ|
उस समय भारत के लोगों में इतनी हीन भावना व्याप्त थी कि लोग कहते कि चाहे मुझे गधा कह दो पर हिंदू मत कहो| उन्होंने ही सबको गर्व से हिंदू कहना सिखाया| उन्हीं का प्रयास और भारत के मनीषियों का पुण्यप्रताप था कि आज हम गर्व से सिर ऊँचा कर के बैठे हैं|
आज फिर हमारे धर्म और राष्ट्र पर संकट के बादल छाये हुए हैं| उसकी रक्षा करने के लिये हमारे युवकों में वो ही उत्साह, तड़प और अभीप्सा चाहिए| ईश्वर से जुड़कर ही हम कुछ अच्छा कार्य कर सकते हैं| मैं सभी से प्रार्थना करता हूँ कि सनातन हिंदू धर्म की रक्षा के लिये ईश्वर को जीवन का केंद्र बिंदु बनाएँ| आगे का मार्ग ईश्वर स्वयं दिखाएँगे|
वंदे मातरम ! भारत माता की जय ! सनातन हिंदू धर्म की जय !
२५ दिसंबर २०१२

ईसा मसीह नाम का कोई व्यक्ति हुआ ही नहीं, यह रोमन राज्य द्वारा गढ़ी हुई कहानी है --- (लेखक : श्री अरुण कुमार उपाध्याय)

 क्रिसमस का अर्थ -- इसका ईसा मसीह से कोई सम्बन्ध नहीं है। आज कल कई इसाई लेखक मानते हैं कि इसा मसीह जैसा कोई व्यक्ति नहीं था, यह रोमन राज्य द्वारा गढ़ी हुई कहानी थी। कई बातें भगवान् कृष्ण की कथाओं से नकल की गयी हैं, जैसे हेरोद के शासन में छोटे बच्चों की हत्या। आज कल भारत में जन्माष्टमी की नकल पर ईसा जन्मदिन भी मना रहे हैं। जो ईसा को वास्तविक व्यक्ति मानते हैं, उनके अनुसार ईसा का जन्म ४ ई.पू. से पहले हुआ, किन्तु दिसम्बर नहीं मार्च या अप्रैल में। तुर्की के अंकारा के रोमन पुरालेख के अनुसार बाइबिल वर्णित हेरोद की मृत्यु १ ई. से कम से कम ४ वर्ष पूर्ब हो चुकी थी, जिसने बच्चों को मारने का आदेश दिया था। हेरोद के लिए कंस जैसा कोई कारण नहीं था। पर यदि उस समय ईसा पैदा हुए थे तो वह ४ ई.पू. के पहले हुए थे। ईसवी सन् का प्रचलन प्रायः ५३० ई. से आरम्भ हुआ तथा इसका आरम्भ ५३० वर्ष पूर्व कर दिया जब कुछ लोगों के अनुसार ईसा का जन्म हुआ था। (History of Calendar-Report of Panchanga Committe, part 3-pages 168, 170)।

यह कैलेण्डर जुलियस सीजर द्वारा ई.पू. ४६ में आरम्भ हुआ था जिसके लिए उसे मिस्र के ज्योतिषियों ने समझाया था कि ३६५ दिन का वर्ष हो तथा प्रति ४ वर्ष में १ दिन अधिक जोड़ा जाय। सीजर का आदेश था कि उत्तरायण आरम्भ से वर्ष आरम्भ हो जिसे सूर्य सिद्धान्त में देवताओं का वर्ष कहा गया है। उत्तरायण से आरम्भ सौर वर्ष को दिव्य दिन कहते हैं, जिसे लोकभाषा में बड़ा दिन कहा जाता है। किन्तु रोम के लोगों ने उत्तरायण के ७ दिन बाद वर्ष का आरम्भ किया जिस दिन विक्रम संवत् १० (गत) का पौष मास आरम्भ हो रहा था। अतः इस कैलेण्डर में उत्तरायण आरम्भ का दिन १ जनवरी के बदले २५ दिसम्बर हो गया। उसके बाद वर्ष गणना में अशुद्धियों के कारण अभी २२ दिसम्बर से उत्तरायण आरम्भ हो रहा है। ३१३९ ई.पू. में महाभारत युद्ध समाप्ति के ५० दिन बाद उत्तरायण आरम्भ हुआ था जिस दिन भीष्म पितामह ने देह त्याग किया। उस दिन माघ शुक्ल अष्टमी थी। मास का ३/४ भाग बाकी था, तथा गणना के अतिरिक्त वास्तव में शुक्ल पक्ष कहा जा सकता था। सायन मास गणना में जब सूर्य धनु राशि के अन्त में होगा तब उत्तरायण होता है। उस समय मार्गशीर्ष मास होगा तथा उत्तर गोलार्ध में सबसे बड़ी रात होगी। अतः मार्गशीर्ष को कृष्णमास कहते थे जो क्रिसमस शब्दा का मूल है। मासानां मागशीर्षोऽहं (गीता, १०/३५)। ३ मुख्य आदित्य हैं-मित्र, वरुण, अर्यमा। १२ मास के लिए १२ आदित्यों की अलग सूची है। ३ आदित्यों में सबसे निकट सौरमण्डल का आदित्य मित्र है क्योंकिनिकट के व्यक्ति को मित्र कहते हैं। वरुण तथा अर्यमा ब्रह्माण्ड, पूर्ण विश्व के आदित्य हैं (जिस रूप से इन रचनाओं का आदि हुआ था। अतः वर्ष आरम्भ में मित्र रूप सान्ता क्लाज आता है। यहां सन्त (सान्ता) का अर्थ दयालु नहीं है, बल्कि ईसाइयत का प्रचार करने वाला है जिसके लिये सन्त (?) जेवियर ने गोआ में २ लाख से अधिक लोगों की क्रूरता पूर्वक हत्या की थी। यहां सान्ता क्लाज भी भारतीय सन्तों की नकल है।
क्रिसमस का अर्थ-इसका ईसा मसीह से कोई सम्बन्ध नहीं है। आज कल कई इसाई लेखक मानते हैं कि इसा मसीह जैसा कोई व्यक्ति नहीं था, यह रोमन राज्य द्वारा गढ़ी हुई कहानी थी। कई बातें भगवान् कृष्ण की कथाओं से नकल की गयी हैं, जैसे हेरोद के शासन में छोटे बच्चों की हत्या। आज कल भारत में जन्माष्टमी की नकल पर ईसा जन्मदिन भी मना रहे हैं। जो ईसा को वास्तविक व्यक्ति मानते हैं, उनके अनुसार ईसा का जन्म ४ ई.पू. से पहले हुआ, किन्तु दिसम्बर नहीं मार्च या अप्रैल में। तुर्की के अंकारा के रोमन पुरालेख के अनुसार बाइबिल वर्णित हेरोद की मृत्यु १ ई. से कम से कम ४ वर्ष पूर्ब हो चुकी थी, जिसने बच्चों को मारने का आदेश दिया था। हेरोद के लिए कंस जैसा कोई कारण नहीं था। पर यदि उस समय ईसा पैदा हुए थे तो वह ४ ई.पू. के पहले हुए थे। ईसवी सन् का प्रचलन प्रायः ५३० ई. से आरम्भ हुआ तथा इसका आरम्भ ५३० वर्ष पूर्व कर दिया जब कुछ लोगों के अनुसार ईसा का जन्म हुआ था। (History of Calendar-Report of Panchanga Committe, part 3-pages 168, 170)।
यह कैलेण्डर जुलियस सीजर द्वारा ई.पू. ४६ में आरम्भ हुआ था जिसके लिए उसे मिस्र के ज्योतिषियों ने समझाया था कि ३६५ दिन का वर्ष हो तथा प्रति ४ वर्ष में १ दिन अधिक जोड़ा जाय। सीजर का आदेश था कि उत्तरायण आरम्भ से वर्ष आरम्भ हो जिसे सूर्य सिद्धान्त में देवताओं का वर्ष कहा गया है। उत्तरायण से आरम्भ सौर वर्ष को दिव्य दिन कहते हैं, जिसे लोकभाषा में बड़ा दिन कहा जाता है। किन्तु रोम के लोगों ने उत्तरायण के ७ दिन बाद वर्ष का आरम्भ किया जिस दिन विक्रम संवत् १० (गत) का पौष मास आरम्भ हो रहा था। अतः इस कैलेण्डर में उत्तरायण आरम्भ का दिन १ जनवरी के बदले २५ दिसम्बर हो गया। उसके बाद वर्ष गणना में अशुद्धियों के कारण अभी २२ दिसम्बर से उत्तरायण आरम्भ हो रहा है। ३१३९ ई.पू. में महाभारत युद्ध समाप्ति के ५० दिन बाद उत्तरायण आरम्भ हुआ था जिस दिन भीष्म पितामह ने देह त्याग किया। उस दिन माघ शुक्ल अष्टमी थी। मास का ३/४ भाग बाकी था, तथा गणना के अतिरिक्त वास्तव में शुक्ल पक्ष कहा जा सकता था। सायन मास गणना में जब सूर्य धनु राशि के अन्त में होगा तब उत्तरायण होता है। उस समय मार्गशीर्ष मास होगा तथा उत्तर गोलार्ध में सबसे बड़ी रात होगी। अतः मार्गशीर्ष को कृष्णमास कहते थे जो क्रिसमस शब्दा का मूल है। मासानां मागशीर्षोऽहं (गीता, १०/३५)। ३ मुख्य आदित्य हैं-मित्र, वरुण, अर्यमा। १२ मास के लिए १२ आदित्यों की अलग सूची है। ३ आदित्यों में सबसे निकट सौरमण्डल का आदित्य मित्र है क्योंकिनिकट के व्यक्ति को मित्र कहते हैं। वरुण तथा अर्यमा ब्रह्माण्ड, पूर्ण विश्व के आदित्य हैं (जिस रूप से इन रचनाओं का आदि हुआ था। अतः वर्ष आरम्भ में मित्र रूप सान्ता क्लाज आता है। यहां सन्त (सान्ता) का अर्थ दयालु नहीं है, बल्कि ईसाइयत का प्रचार करने वाला है जिसके लिये सन्त (?) जेवियर ने गोआ में २ लाख से अधिक लोगों की क्रूरता पूर्वक हत्या की थी। यहां सान्ता क्लाज भी भारतीय सन्तों की नकल है।