Friday 3 November 2017

मेरु शीर्ष ......

मेरु शीर्ष ......
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मेरुशीर्ष (Medulla Oblongata) मानव देह का सर्वाधिक संवेदनशील भाग है| मेरुदंड की समस्त शिराएँ यहाँ मस्तिष्क से जुड़ती हैं| पूरी देह का नियन्त्रण यहीं से होता है| इस स्थान की कोई शल्य क्रिया नहीं हो सकती| यहीं पर सूक्ष्म देहस्थ आज्ञा चक्र है|
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यह स्थान भ्रूमध्य की सीध में खोपड़ी में ठीक पीछे कि ओर होता है| जीवात्मा का निवास यहीं पर होता है| योगियों को यहीं पर सर्वव्यापी नादब्रह्म का श्रवण व सर्वव्यापी ज्योति के दर्शन होते हैं, जिसके लिए भ्रूमध्य में गुरु की आज्ञा से ध्यान करते हैं| मनुष्य की चेतना यहीं से नियंत्रित होकर ऊर्ध्वमुखी होती है| ब्रह्मांड कि ऊर्जा भी यहीं से प्रवेश कर के देह को जीवंत रखती है| इसी के ठीक थोडा सा ऊपर वह बिंदु है जहाँ हिन्दू शिखा रखते हैं| मनुष्य जीवन के सारे रहस्य यहीं छिपे हुए हैं|
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क्रियायोग साधना में योगी अपने गुरु की आज्ञानुसार गुरु प्रदत्त विधि से अपनी प्राण ऊर्जा को मानसिक रूप से सुषुम्ना पथ में मूलाधार चक्र से उठाकर स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि व आज्ञा .... चक्रों को भेदता हुआ ऊपर-नीचे गमन करता है|
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आज्ञा चक्र के जागृत होने पर कोई रहस्य, रहस्य नहीं रहता|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

गिद्ध दृष्टी .....

गिद्ध दृष्टी .....
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बहुत अधिक ऊँचाई पर उड़ता हुआ गिद्ध जब अपनी गिद्ध-दृष्टी से भूमि पर पड़ी हुई मृत लाश को देखता है तो उस पर टूट पड़ता है, वैसे ही मनुष्य का मन भी एक गिद्ध है, जो विषय-वासनाओं का चिंतन करते हुए अपनी गिद्ध-दृष्टी से उनकी पूर्ति के अवसर ढूँढ़ता रहता है और अवसर मिलते ही उन पर टूट पड़ता है|
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ऐसे ही कई लोगों की गिद्ध-दृष्टी होती है जो दूसरों से घूस लेने, दूसरों को ठगने व लूटने को लालायित रहते हैं| ऐसे लोग बातें तो बड़ी बड़ी करते हैं पर अन्दर उनके कूट कूट कर लालच व कुटिलता भरी रहती है|
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हे प्रभु, हम अपने विचारों के प्रति सदा सजग रहें और निरंतर आपकी चेतना में रहें| सब तरह के कुसंग, बुरे विचारों और प्रलोभनों से हमारी रक्षा करो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

"संतुष्टि".... जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है .....

"संतुष्टि".... जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है .....
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सभी साधू-संतों का मैं पूर्ण सम्मान करता हूँ| भारत के सभी प्रमुख सम्प्रदायों के अनेक संत महात्माओं से मेरा सत्संग हुआ है| हर प्रमुख सम्प्रदाय में एक से बढ़कर एक विद्वान् व तपस्वी संत हैं| कोई छोटा-बड़ा नहीं है, सभी आदरणीय हैं| स्वभाव से मेरी रूचि वेदान्त व योग दर्शन में है, अतः आचार्य शंकर की परम्परा से स्वभाववश मैं सर्वाधिक प्रभावित हूँ|
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श्रुतियों को समझने योग्य बुद्धि तो भगवान ने इस जन्म में नहीं दी है, पर फिर भी जितना इस सीमित और अति अल्प बुद्धि में समा सकता है, उतना न्यूनतम अनिवार्य और आवश्यक ज्ञान भगवान ने अवश्य दिया है|
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मुझे पूर्ण संतुष्टि है| जितना भी भगवान ने मेरी पात्रता के अनुसार मुझे दिया है, उस से अधिक और कुछ भी मुझे नहीं चाहिए| यह संतुष्टि और संतोष ही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है| मेरा जीवन चाहे हिमालय जितनी बड़ी बड़ी कमियों से भरा हो पर मैं इसे सफल मानता हूँ क्योंकि भगवान ने मुझे अपना प्रेम और संतोष-धन यानि संतुष्टि दी है| और चाहिए भी क्या?

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

हम यह देह नहीं बल्कि सम्पूर्ण अस्तित्व हैं .....

हम यह देह नहीं बल्कि सम्पूर्ण अस्तित्व हैं .....
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हम यह देह नहीं, परमात्मा की सर्वव्यापकता हैं| परमात्मा के साथ वैसे ही एक हैं, जैसे महासागर में जल की एक बूँद| जल की यह बूँद जब तक महासागर से जुड़ी हुई है, अपने आप में स्वयं ही महासागर है| पर महासागर से दूर होकर वह कुछ भी नहीं है| वैसे ही परमात्मा से दूर होकर हम कुछ भी नहीं हैं|
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यह सृष्टि ..... प्रकाश और अन्धकार की मायावी लीला का एक खेल मात्र है| परमात्मा ने समष्टि में हमें अपना प्रकाश फैलाने और अपने ही अन्धकार को दूर करने का दायित्व दिया है| उसकी लीला में हमारी पृथकता का बोध, माया के आवरण के कारण एक भ्रममात्र है|
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हमारा स्वभाव परम प्रेम है| जब भी समय मिले शांत स्थिर होकर बैठिये| कमर सीधी ओर दृष्टि भ्रूमध्य में स्थिर रखिये| अपनी चेतना को इस देह से परे, सम्पूर्ण सृष्टि और उससे भी परे जो कुछ भी है, उसके साथ जोड़ दीजिये| हम यह देह नहीं, बल्कि सम्पूर्ण अस्तित्व हैं|
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प्रयासपूर्वक अपनी चेतना को कूटस्थ में यानि आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में रखिये| वहाँ दिखाई दे रही ब्रह्मज्योति और सुन रही प्रणव ध्वनि रूपी अनाहत नाद हम स्वयं ही हैं, यह नश्वर देह नहीं| हर श्वास के साथ वह प्रकाश और भी अधिक तीब्र और गहन हो रहा है और सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्माण्ड और सृष्टि को आलोकित कर रहा है| कहीं भी कोई असत्य और अन्धकार नहीं है| यह ज्योति और नाद हम स्वयं हैं, यह देह नहीं ..... यह भाव बार बार कीजिये| यह हमारा ही आलोक है जो सम्पूर्ण सृष्टि को ज्योतिर्मय बना रहा है| इस भावना को दृढ़ से दृढ़ बनाइये| नित्य कई बार इसकी साधना कीजिये|
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परमात्मा के संकल्प से यह सृष्टि बनी है| हम भी उसके अमृतपुत्र और उसके साथ एक हैं| जो कुछ भी परमात्मा का है वह हमारा ही है| हम कोई भिखारी नहीं हैं| परमात्मा को पाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| परमात्मा का संकल्प ही हमारा संकल्प है| प्रकृति की प्रत्येक शक्ति हमारा सहयोग करने को बाध्य है|
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निरंतर भगवान का स्मरण करते रहो| जब भूल जाओ तब याद आते ही फिर स्मरण प्रारम्भ कर दो| याद रखो कि भगवान स्वयं ही अपना स्मरण कर रहे हैं| उन्हीं की चेतना में रहो| जैसे एक मोटर साइकिल की देखभाल करते हैं वैसे ही इस देहरूपी मोटर साइकिल की भी देखभाल करते रहो| यह देह एक motor cycle ही है जिसकी maintenance भी एक कला है, उस कला से इस motor cycle की maintenance करते रहो क्योंकि यह लोकयात्रा इसी पर पूरी करनी है|
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०२ नवम्बर २०१७