स्वभाव और अभाव .......
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इन दो शब्दों को समझ लेने पर आध्यात्मिक यात्रा अति सरल हो जाती है| मैं भी इसी का पाठ अभी तक पढ़ रहा हूँ| इससे परे नहीं जा पाया हूँ| जब मैं स्वभाव में जीता हूँ तब मैं पूर्णतः सकारात्मक होता हूँ| जब अभाव में होता हूँ तब बहुत अधिक नकारात्मक हो जाता हूँ| अभाव है उस वस्तु या उस तत्व का जो हमारे पास नहीं है| अभाव माया है, अभाव मृत्यु के सामान है|
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स्वभाव है परमात्मा में जीना| हमारा वास्तविक "स्व" तो परमात्मा है| परमात्मा की चेतना में जीना ही हमारा वास्तविक और सही स्वभाव है| हम अपने स्वभाव में जीएँ और स्वभाव के विरुद्ध जो कुछ भी है उसका परित्याग करें|
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निरंतर अभ्यास करते करते परमात्मा व गुरु की असीम कृपा से निरंतर ब्रह्म-चिंतन और भक्ति ही हमारा स्वभाव बन जाता है| जब भगवान ह्रदय में आकर बैठ जाते हैं तब वे फिर बापस नहीं जाते| यह स्वाभाविक अवस्था कभी न कभी तो सभी को प्राप्त होती है|
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सरिता प्रवाहित होती है, पर किसी के लिए नहीं| प्रवाहित होना उसका स्वभाव है| व्यक्ति .. स्वयं को व्यक्त करना चाहता है, यह उसका स्वभाव है| हमें किसी से कुछ अपेक्षा नहीं होती और किसी से कुछ भी नहीं चाहिए पर स्वयं को व्यक्त करते हैं, यह भी हमारा स्वभाव है| जो लोग सर्वस्व यानि समष्टि की उपेक्षा करते हुए इस मनुष्य देह के हित की ही सोचते हैं, प्रकृति उन्हें कभी क्षमा नहीं करती| वे सब दंड के भागी होते हैं| समस्त सृष्टि ही अपना परिवार है और समस्त ब्रह्माण्ड ही अपना घर| यह देह रूपी वाहन और यह पृथ्वी भी बहुत छोटी है अपने निवास के लिए| अपना प्रेम सर्वस्व में पूर्णता से व्यक्त हो|
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जो मेरी बात को समझते हैं मैं उनका भी आभारी हूँ और जिन्होंने नहीं समझा है उनका भी| आप सब मेरी निजात्माएँ हैं, आप परमात्मा के साकार रूप हो| आप सब मेरे प्राण हो| आप को मेरा अनंत असीम अहैतुकी परम प्यार| आप सब अपनी पूर्णता को उपलब्ध हों, यही मेरी शुभ कामना है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः :----
(१) व्याघ्रः सेवति काननं च गहनं सिंहो गुहां सेवते
हंसः सेवति पद्मिनीं कुसुमितां गृधः श्मशानस्थलीम् |
साधुः सेवति साधुमेव सततं नीचोऽपि नीचं जनम्
या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते ||
बाघ घने वन में और सिंह गुफा में रहता है, हंस विकसित कमलिनी के पास रहता है और गिद्ध श्मशान भूमि में| वैसे ही साधु, साधु की, और नीच, नीच की संगती करता है; जन्मजात स्वभाव किसी से छूटता नहीं है|
(२) निम्नोन्नतं वक्ष्यति को जलानाम्
विचित्रभावं मृगपक्षिणां च |
माधुर्यमिक्षौ कटुतां च निम्बे
स्वभावतः सर्वमिदं हि सिद्धम् ||
जल को ऊँचाई और गहराई किसने दिखायी? पशु-पक्षियों को विचित्रता किसने सीखाई? गन्ने में मधुरता और नीम में कड़वापन कौन लाया? यह सब स्वभावसिद्ध है|
(३) स्वभावो न उपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा |
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् ||
उपदेश देकर स्वभाव बदला नहीं जाता| पानी को खूब गर्म करने के पश्चात् भी वह पुनः (स्वभावानुसार) शीतल हो जाता है|
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इन दो शब्दों को समझ लेने पर आध्यात्मिक यात्रा अति सरल हो जाती है| मैं भी इसी का पाठ अभी तक पढ़ रहा हूँ| इससे परे नहीं जा पाया हूँ| जब मैं स्वभाव में जीता हूँ तब मैं पूर्णतः सकारात्मक होता हूँ| जब अभाव में होता हूँ तब बहुत अधिक नकारात्मक हो जाता हूँ| अभाव है उस वस्तु या उस तत्व का जो हमारे पास नहीं है| अभाव माया है, अभाव मृत्यु के सामान है|
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स्वभाव है परमात्मा में जीना| हमारा वास्तविक "स्व" तो परमात्मा है| परमात्मा की चेतना में जीना ही हमारा वास्तविक और सही स्वभाव है| हम अपने स्वभाव में जीएँ और स्वभाव के विरुद्ध जो कुछ भी है उसका परित्याग करें|
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निरंतर अभ्यास करते करते परमात्मा व गुरु की असीम कृपा से निरंतर ब्रह्म-चिंतन और भक्ति ही हमारा स्वभाव बन जाता है| जब भगवान ह्रदय में आकर बैठ जाते हैं तब वे फिर बापस नहीं जाते| यह स्वाभाविक अवस्था कभी न कभी तो सभी को प्राप्त होती है|
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सरिता प्रवाहित होती है, पर किसी के लिए नहीं| प्रवाहित होना उसका स्वभाव है| व्यक्ति .. स्वयं को व्यक्त करना चाहता है, यह उसका स्वभाव है| हमें किसी से कुछ अपेक्षा नहीं होती और किसी से कुछ भी नहीं चाहिए पर स्वयं को व्यक्त करते हैं, यह भी हमारा स्वभाव है| जो लोग सर्वस्व यानि समष्टि की उपेक्षा करते हुए इस मनुष्य देह के हित की ही सोचते हैं, प्रकृति उन्हें कभी क्षमा नहीं करती| वे सब दंड के भागी होते हैं| समस्त सृष्टि ही अपना परिवार है और समस्त ब्रह्माण्ड ही अपना घर| यह देह रूपी वाहन और यह पृथ्वी भी बहुत छोटी है अपने निवास के लिए| अपना प्रेम सर्वस्व में पूर्णता से व्यक्त हो|
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जो मेरी बात को समझते हैं मैं उनका भी आभारी हूँ और जिन्होंने नहीं समझा है उनका भी| आप सब मेरी निजात्माएँ हैं, आप परमात्मा के साकार रूप हो| आप सब मेरे प्राण हो| आप को मेरा अनंत असीम अहैतुकी परम प्यार| आप सब अपनी पूर्णता को उपलब्ध हों, यही मेरी शुभ कामना है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः :----
(१) व्याघ्रः सेवति काननं च गहनं सिंहो गुहां सेवते
हंसः सेवति पद्मिनीं कुसुमितां गृधः श्मशानस्थलीम् |
साधुः सेवति साधुमेव सततं नीचोऽपि नीचं जनम्
या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते ||
बाघ घने वन में और सिंह गुफा में रहता है, हंस विकसित कमलिनी के पास रहता है और गिद्ध श्मशान भूमि में| वैसे ही साधु, साधु की, और नीच, नीच की संगती करता है; जन्मजात स्वभाव किसी से छूटता नहीं है|
(२) निम्नोन्नतं वक्ष्यति को जलानाम्
विचित्रभावं मृगपक्षिणां च |
माधुर्यमिक्षौ कटुतां च निम्बे
स्वभावतः सर्वमिदं हि सिद्धम् ||
जल को ऊँचाई और गहराई किसने दिखायी? पशु-पक्षियों को विचित्रता किसने सीखाई? गन्ने में मधुरता और नीम में कड़वापन कौन लाया? यह सब स्वभावसिद्ध है|
(३) स्वभावो न उपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा |
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम् ||
उपदेश देकर स्वभाव बदला नहीं जाता| पानी को खूब गर्म करने के पश्चात् भी वह पुनः (स्वभावानुसार) शीतल हो जाता है|