Monday 19 December 2016

क्रिसमस पर विशेष (Special on Christmas) ..... (1)

क्रिसमस पर विशेष (Special on Christmas) .....   (1)
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मैं वह कृष्ण (Christ) चैतन्य हूँ जो सदा आपके साथ है|
आपका और इस सृष्टि का जन्म हुआ उससे पूर्व भी मैं था| 
मैं प्रभु की आत्मा हूँ जो प्रत्येक अणु के ह्रदय में है|
आप सदा मेरी दृष्टी में हैं पर आप मुझे देख नहीं सकते|
आप के अस्तित्व के हर भाग को मैं अपना सम्पूर्ण अहैतुकी परम प्रेम प्रदान करता हूँ|
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वास्तव में मैं स्वयं ही परम प्रेम हूँ|
मैं ही परमात्मा की सर्वव्यापकता हूँ|
मैं ही आपके हृदयों में धडकता हूँ|
मैं ही आपका जीवन हूँ|
मैं और मेरे पिता एक है|
मैं उन का अमृत पुत्र हूँ|
जिस दिन आपका जन्म हुआ, मैं भी आपके भीतर जन्मा था|
मेरा जन्म आपके ह्रदय और मन के एक एकांत और शांत कोने में हुआ|
मैं ही आपके भीतर का कृष्ण हूँ|
मैं निरंतर आपके साथ हूँ|
मैं ही परमात्मा का एकमात्र पुत्र हूँ और मैं स्वयं ही परमात्मा हूँ|
मुझ में और उन में कोई भेद नहीं है| सोsहं|
शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि|
|| ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ तत्सत्|
Father, Son and the Holy Ghost.
{ॐ (The Holy Ghost is the sound of Om, or the Word),
तत् (Son is the Krishna or Christ Consciousness),
सत् (Father is God)}.
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पुनश्चः --------- जन्म से कोई पापी नहीं है| आप पापी नहीं हैं| आप परमात्मा के दिव्य अमृत पुत्र हैं| जो परमात्मा का है वह आपका है, उस पर आपका जन्मसिद्ध अधिकार है|
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किसी पिता का पुत्र भटक जाए तो पिता क्या प्रसन्न रह सकता है| भगवान भी आप के दूर जाने से व्यथित हैं| भगवान के पास सब कुछ है पर आपका प्रेम नहीं है जिसके लिए वे भी तरसते हैं| क्या आप अपना अहैतुकी प्रेम उन्हें बापस नहीं दे सकते? उन्होंने भी तो आप को हर चीज बिना किसी शर्त के दी है| आप अपना सम्पूर्ण प्रेम उन्हें बिना किसी शर्त के दें|
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आप भिखारी नहीं हैं| आपके पास कोई भिखारी आये तो आप उसे भिखारी का ही भाग देंगे| पर अपने पुत्र को आप सब कुछ दे देंगे| वैसे ही परमात्मा के पास आप भिखारी के रूप में गए तो आपको भिखारी का ही भाग मिलेगा पर उसके दिव्य पुत्र के रूप में जाएंगे तो भगवान अपने आप को आप को दे देंगे|
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मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही परमात्मा की प्राप्ति है| आप स्वयं को उन्हें सौंप दें, आप उनके हो जाएँ पूर्ण रूप से तो भगवन भी आपके हो जायेंगे पूर्ण रूप से| अपने ह्रदय का सम्पूर्ण प्रेम बिना किसी शर्त के उन्हें दो| ईश्वर को पाना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है|
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यही इस अवसर का सन्देश है|
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Dec.20, 2013,

नित्य प्रार्थना .....

"ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम्
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ||"
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"वसुदॆव सुतं दॆवं कंस चाणूर मर्दनम् | दॆवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दॆ जगद्गुरुम् ||"
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"वंशीविभूषितकरान्नवनीरादाभात् ,
पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् |
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविंदनेत्रात् ,
कृष्णात्परं किमपि तत्वमहम् न जाने ||"
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"मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं | यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ||"
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हे प्रभु, आपकी परम कृपा से अब कोई कामना कभी उत्पन्न न हो|
कभी भी मेरा कोई पृथक अस्तित्व ना रहे| बस तुम रहो और तुम ही तुम रहो|
तुम्हें मेरा नमन है| तुम्हारी जय हो|
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव|
यद भद्रं तन्न आ सुव || यजुर्वेद ३०.३
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यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै जेष्ठाय ब्रह्मणे नमः
अथर्व -१०/८/१
ॐ ॐ ॐ ||

"धूजणी" छूट रही है ......

"धूजणी" छूट रही है ......
शीत लहर यानि ठंडी हवाओं से जब कंपकंपी सी होती है उसे राजस्थान की मारवाड़ी भाषा में "धूजणी" कहते हैं| ठिठुरन को कहीं कहीं "दाहो" भी कहते हैं| सर्दी का सबसे बड़ा आनंद यह कि इसमें गर्मी नहीं लगती| हम मनपसंद के खूब गर्म कपड़े पहिन सकते हैं, खूब अच्छा भोजन कर सकते हैं| इस हाड कंपा देने वाली ठण्ड का भी एक अलग आनंद है|
आप सब से एक प्रार्थना है .....
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आप के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी विद्यालय तो अवश्य ही होंगे| सरकारी विद्यालयों में गरीब बालक ही पढ़ते हैं जबकि प्रशिक्षित अध्यापक सरकारी विद्यालयों में ही होते हैं|
आपके आसपास के किसी ग्रामीण सरकारी विद्यालय में कोई गरीब बालक/बालिका हो जिनके माता-पिता उनके लिए ऊनी वस्त्र खरीदने में असमर्थ हो तो यह हमारा दायित्व बन जाता है कि हम बिना कोई अहसान दिखाए, उनके लिए गर्म वस्त्रों की व्यवस्था करें| गरीब बच्चों की पहिचान कर उनके लिए गर्म स्वेटर, टोपी और मोज़े व जूते अवश्य बाँटें|
यह एक अवसर दिया है भगवान ने हमें सेवा करने का, जिसका लाभ अवश्य उठायें| आपके आसपास कोई वंचित ना हो, इसका ध्यान रखें| आप नर के रूप में नारायण की ही सेवा कर रहे हैं|
ॐ ॐ ॐ ||

अपनी सोच औरों से ऊंची रखें .......

अपनी सोच औरों से ऊंची रखें .......
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एक आदमी ने देखा कि एक गरीब बच्चा उसकी कीमती कार को बड़े गौर से निहार रहा है। आदमी ने उस लड़के को कार में बिठा लिया।
लड़के ने कहा :- आपकी कार बहुत अच्छी है, बहुत कीमती होगी ना ?
आदमी :- हाँ, मेरे भाई ने मुझे भेंट में दी है।
लड़का (कुछ सोचते हुए) :- वाह ! आपके भाई कितने अच्छे हैं !
आदमी :- मुझे पता है तुम क्या सोच रहे हो, तुम भी ऐसी कार चाहते हो ना ?
लड़का :- नहीं ! मैं आपके भाई की तरह बनना चाहता हूँ।
“अपनी सोच हमेशा ऊँची रखें, दूसरों की अपेक्षाओं से कहीं अधिक ऊँची” |

आत्म सूर्य .....

आत्म सूर्य .....
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एक सूर्य और है वह है आत्म सूर्य जिसके दर्शन योगियों को कूटस्थ में होते हैं|
उस कूटस्थ सूर्य में योगी अपने समस्त अस्तित्व को विलीन कर देता है| उस सूर्य को ज्योतिर्मय ब्रह्म भी कह सकते हैं|

पहिले एक स्वर्णिम आभा के दर्शन होते हैं फिर उसके मध्य में एक नीला प्रकाश फिर उस नीले प्रकाश में एक श्वेत पंचकोणीय नक्षत्र जिस पर योगी ध्यान करते हैं| उस पंचकोणीय नक्षत्र का भेदन करने पर योगी की चेतना परमात्मा के साथ एक हो जाती है| उसका कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता|

पंचमुखी महादेव उसी पंचकोणीय नक्षत्र के प्रतीक हैं| यह योग मार्ग की सबसे बड़ी साधना है| यह श्वेत ज्योति ही कूटस्थ ब्रह्म है|
आरम्भ में योगी अजपा जाप द्वारा कूटस्थ पर ध्यान करते हैं फिर वहीं अनहद प्रणव सुनता है जिसका ध्यान करते करते सुक्ष्म देह्स्थ मेरुदंड के चक्र जागृत होने लगते हैं| सुषुम्ना में प्राण तत्व की अनुभूति होती है और शीतल (सोम) व उष्ण (अग्नि) धाराओं के रूप में ऊर्जा मूलाधार से मेरुशीर्ष व आज्ञाचक्र के मध्य प्रवाहित होने लगती है|
सुषुम्ना में भी तीन उप नाड़ियाँ -- चित्रा, वज्रा और ब्राह्मी हैं जो अलग अलग अनुभूतियाँ देती हैं|
गुरुकृपा से आज्ञाचक्र का भेदन होकर सहस्त्रार में प्रवेश होता है| गुरू प्रदत्त कुछ बीजमंत्रों के साथ इस ऊर्जा का सुषुम्ना में सचेतन प्रवाह होने लगता है जिसका उद्देश्य समस्त चक्रों की चेतना का कूटस्थ में विलय है|

सबसे बड़ी शक्ति जो आपको ईश्वर की और ले जा सकती है वह है -- अहैतुकी परम प्रेम| उस प्रेम के जागृत होने पर साधक को स्वयं परमात्मा से ही मार्गदर्शन मिलने लगता है| वह अहैतुकी परम प्रेम आप सब में जागृत हो|
ओम् तत् सत्|
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करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ....

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान,
रसरी आवत-जात ते सिल पर पड़त निशान ........
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जब भी हम भगवान का चिंतन करते हैं, उस समय .....
(1) शरीर और मन में कोई तनाव नहीं रहे, सिर्फ एक सजगता रहे|
(2) महत्व गहराई का है न कि अवधि का| जितना हमारे ह्रदय में प्रेम होगा उतनी ही गहराई होगी|
(3) मन का भटकना स्वाभाविक है| इसका महत्त्व नहीं है| भटके हुए मन को बापस लाने का ही महत्व है|
आर्य कहीं बाहर से नहीं आये थे .....   (संकलित लेख )
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हमारे देश मे मैकॉले के द्वारा जो विषय तै किये गए उनमे से एक था इतिहास विषय| जिसमे मैकौले ने यह कहा के भारतवासियों को उनका सच्चा इतिहास नहीं बताना है क्योंकि उनको गुलाम बनाके रखना है, इसलिए इतिहास को विकृत करके भारत मे पड़ाया जाना चाहिए| तो भारत के इतिहास पूरी तरह से उन्होंने विकृत कर दिया|
सबसे बड़ी विकृति जो हमारे इतिहास मे अंग्रेजो ने डाली जो आजतक ज़हर बन कर हमारे खून मे घूम रही है, वो विकृति यह है के “ हम भारतवासी आर्य कहीं बहार से आयें|” सारी दुनिया मे शोध हो जुका है के आर्य नाम की कोई जाती भारत को छोड़ कर दुनिया मे कहीं नही थी; तो बाहार से कहाँ से आ गए हम ? फिर हम को कहा गया के हम सेंट्रल एशिया से आये मने मध्य एशिया से आये| मध्य एशिया मे जो जातियां इस समय निवास करती है उन सभि जातियों के DNA लिए गए, DNA आप समझते है जिसका परिक्षण करके कोई भी आनुवांशिक सुचना ली जा सकती है| तो दक्षिण एशिया मे मध्य एशिया मे और पूर्व एशिया मे तीनो स्थानों पर रेहने वाली जातिओं के नागरिकों के रक्त इकठ्ठे करके उनका DNA परिक्षण किया गया और भारतवासियो का DNA परिक्षण किया गया| तो पता चला भारतवासियो का DNA दक्षिण एशिया, मध्य एशिया और पूर्व एशिया के किसी भी जाती समूह से नही मिलता है तो यह कैसे कहा जा सकता है की भारतवासी मध्य एशिया से आये, आर्य मध्य एशिया से आये ?
इसका उल्टा तो मिलता है की भारतवासी मध्य एशिया मे गए, भारत से निकल कर दक्षिण एशिया मे गए, पूर्व एशिया मे गए और दुनियाभर की सभि स्थानों पर गए और भारतीय संस्कृति, भारतीय सभ्यता और भारतीय धर्म का उन्होंने पूरी ताकत से प्रचार प्रसार किया| तो भारतवासी दूसरी जगह पे जाके प्रचार प्रसार करते है इसका तो प्रमाण है लेकिन भारत मे कोई बाहार से आर्य नाम की जाती आई इसके प्रमाण अभीतक मिले नही और इसकी वैज्ञानिक पुष्टि भी नही हुई| इतना बड़ा झूट अंग्रेज हमारे इतिहास मे लिख गए, और भला हो हमारे इतिहासकारों का उस झूट को अंग्रेजों के जाने के 65 साल बाद भी हमें पड़ा रहे है|
अभी थोड़े दिन पहले दुनिया के जेनेटिक विशेषज्ञ जो DNA RNA आदि की जांच करनेवाले विशेशाज्ञं है इनकी एक भरी परिषद् हुई थी और वो परिषद् का जो अंतिम निर्णय है वो यह कहता है के “ आर्य भारत मे कहीं बहार से नही आये थे, आर्य सब भारतवासी हि थे जरुरत और समय आने पर वो भारत से बहार गए थे|”
अब आर्य हमारे यहाँ कहा जाता है श्रेष्ठ व्यक्ति को, जो भी श्रेष्ठ है वो आर्य है, कोई ऐसा जाती समूह हमारे यहाँ आर्य नही है| हमारे यहाँ तो जो भी जातिओं मे श्रेष्ठ व्यक्ति है वो सब आर्य माने जाते है, वो कोई भी जाती के हो सकते है, ब्राह्मण हो सकते है, क्षत्रिय हो सकते है, शुद्र हो सकते है, वैश्य हो सकते है| किसी भी वर्ण को कोई भी आदमी अगर वो श्रेष्ठ आचरण करता है हमारे उहाँ उसको आर्य कहा जाता है, आर्य कोई जाती समूह नही है, वो सभि जाती समूह मे से श्रेष्ठ लोगों का प्रतिनिधित्व करनेवाला व्यक्ति है| ऊँचा चरित्र जिसका है, आचरण जिसका दूसरों के लिए उदाहरण के योग्य है, जिसका किया हुआ, बोला हुआ दुसरो के लिए अनुकरणीय है वो सभि आर्य है|
हमारे देश मे परम श्रेधेय और परम पूज्यनीय स्वामी दयानन्द जैसे लोग, भगत सिंह, नेताजी सुभाष चन्द्र बोसे, उधम सिंह, चंद्रशेखर, अस्फाकउल्ला खान, तांतिया टोपे, झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, कितुर चिन्नम्मा यह जितने भी नाम आप लेंगे यह सभि आर्य है, यह सभि श्रेष्ठ है क्योंकि इन्होने अपने चरित्र से दूसरों के लिए उदाहरण प्रस्तुत किये हैं| इसलिए आर्य कोई हमारे यहाँ जाती नहीं है| रजा जो उच्च चरित्र का है उसको आर्य नरेश बोला गया, नागरिक जो उच्च चरित्र के थे उनको आर्य नागरिक बोला गया, भगवान श्री राम को आर्य नरेश कहा जाता था, श्री कृष्ण को आर्य पुत्र कहा गया, अर्जुन को कई बार आर्यपुत्र का संबोधन दिया गया, युथिष्ठिर, नकुल, सहदेव को कई बार आर्यपुत्र का सम्बोधन दिया गया, या द्रौपदी को कई जगह आर्यपुत्री का सम्बोधन है| तो हमारे यहाँ तो आर्य कोई जाती समूह है हि नही, यह तो सभि जातियों मे श्रेष्ठ आचरण धारण करने वाले लोग, धर्म को धारण करने वाले लोग आर्य कहलाये है| तो अंग्रेजों ने यह गलत हमारे इतिहास मे डाल दिया|
आपने पूरी पोस्ट पड़ी इसलिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद !
वन्देंमातरंम्
भारत माता कि जय

क्या हमें आयातित विदेशी साधू संतों की आवश्यकता है ? .....

क्या हमें आयातित विदेशी साधू संतों की आवश्यकता है ????? 
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भारत साधू संतों और तपस्वियों की भूमि है| यहाँ की पवित्र नदियाँ, उनके किनारों की तपोभूमियाँ, हिमालय के वन और तपःस्थलियाँ , तीर्थस्थल और आध्यात्मिकता जिसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता| परमात्मा को पाने की अभीप्सा, अहैतुकी परम प्रेम की अवधारणा और भक्ति इन सब की कोई बराबरी नहीं है|
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भारत में आज यह स्थिति है कि कोई विदेशी भी साधुवेश में आकर धर्मोपदेश देने लगे तो हम अभिभूत हो जाते हैं| 
क्या भारत में साधू संतों की कमी है?
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क्या हमें विदेशों से संत आयात करने चाहियें?

इस विषय पर सभी मनीषियों से स्पष्ट रूप से अपने विचार व्यक्त करने की प्रार्थना है|

झूठी आजादी की कड़वी सच्चाई .......

झूठी आजादी की कड़वी सच्चाई .......
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1. 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन को ब्रिटिश सरकार कुछ ही हफ्तों में कुचल कर रख देती है।
2. 1945 में ब्रिटेन विश्वयुद्ध में ‘विजयी’ देश के रुप
में उभरता है।
3. ब्रिटेन न केवल इम्फाल-कोहिमा सीमा पर आजाद हिन्द फौज को पराजित करता है, बल्कि जापानी सेना को बर्मा से भी निकाल बाहर करता है।
4. इतना ही नहीं, ब्रिटेन और भी आगे बढ़कर सिंगापुर तक को वापस अपने कब्जे में लेता है।
5. जाहिर है, इतना खून-पसीना ब्रिटेन ‘भारत को आजाद करने’ के लिए तो नहीं ही बहा रहा है। अर्थात् उसका भारत से लेकर सिंगापुर तक अभी जमे रहने का इरादा है।
6. फिर 1945 से 1946 के बीच ऐसा कौन-सा चमत्कार होता है कि ब्रिटेन हड़बड़ी में भारत छोड़ने का निर्णय ले लेता है ?
हमारे शिक्षण संस्थानों में आधुनिक भारत का जो इतिहास पढ़ाया जाता है,उसके पन्नों में सम्भवतः
इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा।
हम अपनी ओर से भी इसका उत्तर जानने की कोशिश नहीं करते- क्योंकि हम बचपन से ही सुनते आये हैं-
दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल,
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल।
इससे आगे हम और कुछ जानना नहीं चाहते।
(प्रसंगवश- 1922 में असहयोग आन्दोलन को जारी रखने पर जो आजादी मिलती,उसका पूरा श्रेय गाँधीजी को जाता। मगर “चौरी-चौरा” में ‘हिंसा’ होते ही उन्होंने अपना ‘अहिंसात्मक’ आन्दोलन वापस ले लिया,जबकि उस वक्त अँग्रेज घुटने टेकने ही वाले थे।
दरअसल गाँधीजी ‘सिद्धान्त’ व ‘व्यवहार’ में अन्तर नहीं रखने वाले महापुरूष हैं,इसलिए उन्होंने यह फैसला लिया।
हालाँकि एक दूसरा रास्ता भी था- कि गाँधीजी ‘स्वयं अपने आप को’ इस आन्दोलन से अलग करते हुए इसकी कमान किसी और को सौंप देते।
मगर यहाँ ‘अहिंसा का सिद्धान्त’ भारी पड़ जाता है- ‘देश की आजादी’ पर।)
यहाँ हम 1945-46 के घटनाक्रमों पर एक निगाह डालेंगे और उस ‘चमत्कार’ का पता लगायेंगे,जिसके कारण और भी सैकड़ों वर्षों तक भारत में जमे रहने
की ईच्छा रखने वाले अँग्रेजों को जल्दीबाजी में फैसला बदलकर भारत से जाना पड़ा।
(प्रसंगवश- जरा अँग्रेजों द्वारा भारत में किये गये ‘निर्माणों’ पर नजर डालें- दिल्ली के ‘संसद भवन’ से लेकर अण्डमान के ‘सेल्यूलर जेल’ तक- हर निर्माण 500 से 1000 वर्षों तक कायम रहने एवं इस्तेमाल में लाये जाने के काबिल है।)
***
लालकिले के कोर्ट-मार्शल के खिलाफ देश के नागरिकों ने जो उग्र प्रदर्शन किये,उससे साबित हो गया कि जनता की सहानुभूति आजाद हिन्द सैनिकों के साथ है।
इस पर भारतीय सेना के जवान दुविधा में पड़ जाते हैं।
फटी वर्दी पहने,आधा पेट भोजन किये,बुखार से तपते, बैलगाड़ियों में सामान ढोते और मामूली बन्दूक हाथों में लिये बहादूरी के साथ “भारत माँ की आजादी के लिए” लड़ने वाले आजाद हिन्द सैनिकों को हराकर एवं बन्दी बनाकर लाने वाले ये भारतीय जवान ही तो थे,
जो “महान ब्रिटिश सम्राज्यवाद की रक्षा के लिए” लड़ रहे थे।
अगर ये जवान सही थे,तो देश की जनता गलत है;
और अगर देश की जनता सही है,तो फिर ये जवान गलत थे।
दोनों ही सही नहीं हो सकते।
सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रुप लिया,फिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रुप में फूटकर बाहर आने लगा।
फरवरी 1946 में,जबकि लालकिले में मुकदमा चल ही रहा था, रॉयल इण्डियन नेवी की एक हड़ताल बगावत में रुपान्तरित हो जाती है।
* कराची से मुम्बई तक और विशाखापत्तनम से कोलकाता तक जलजहाजों को आग के हवाले कर दिया जाता है।
देश भर में भारतीय जवान ब्रिटिश अधिकारियों के आदेशों को मानने से इनकार कर देते हैं।
मद्रास और पुणे में तो खुली बगावत होती है।
इसके बाद जबलपुर में बगावत होती है,जिसे दो हफ्तों में दबाया जा सका।
45 का कोर्ट-मार्शल करना पड़ता है।
यानि लालकिले में चल रहा आजाद हिन्द सैनिकों का कोर्ट-मार्शल देश के सभी नागरिकों को तो उद्वेलित करता ही है,सेना के भारतीय जवानों की प्रसिद्ध “राजभक्ति” की नींव को भी हिला कर रख देता है।
जबकि भारत में ब्रिटिश राज की रीढ़ सेना की यह “राजभक्ति” ही है!
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बिल्कुल इसी चीज की कल्पना नेताजी ने की थी।
जब (मार्च’44 में) वे आजाद हिन्द सेना लेकर इम्फाल-कोहिमा सीमा पर पहुँचे थे।
उनका आह्वान था- जैसे ही भारत की मुक्ति सेना भारत की सीमा पर पहुँचे,देश के अन्दर भारतीय नागरिक आन्दोलित हो जायें और ब्रिटिश सेना के भारतीय जवान बगावत कर दें।
इतना तो नेताजी भी जानते होंगे कि-
1. सिर्फ तीस-चालीस हजार सैनिकों की एक सेना के बल पर दिल्ली तक नहीं पहुँचा जा सकता,और
2. जापानी सेना की ‘पहली’ मंशा है- अमेरिका द्वारा बनवायी जा रही (आसाम तथा बर्मा के जंगलों से होते हुए चीन तक जानेवाली) ‘लीडो रोड’ को नष्ट करना; भारत की आजादी उसकी ‘दूसरी’ मंशा है।
ऐसे में,नेताजी को अगर भरोसा था,तो भारत के अन्दर ‘नागरिकों के आन्दोलन’ एवं ‘सैनिकों की बगावत’ पर।
...मगर दुर्भाग्य,कि उस वक्त देश में न आन्दोलन हुआ और न ही बगावत।
इसके भी कारण हैं।
पहला कारण,सरकार ने प्रेस पर पाबन्दी लगा दी थी और यह प्रचार (प्रोपागण्डा) फैलाया था कि जापानियों ने भारत पर आक्रमण किया है।
सो,सेना के ज्यादातर भारतीय जवानों की यही धारणा थी।
दूसरा कारण,फॉरवर्ड ब्लॉक के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था,अतः आम जनता के बीच इस बात का प्रचार नहीं हो सका कि इम्फाल-कोहिमा सीमा पर जापानी सैनिक नेताजी के नेतृत्व में युद्ध कर रहे हैं।
तीसरा कारण,भारतीय जवानों का मनोबल बनाये रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नामी-गिरामी भारतीयों को सेना में कमीशन देना शुरु कर दिया था।
इस क्रम में महान हिन्दी लेखक सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सयायन 'अज्ञेय' भी 1943 से 46 तक सेना में रहे और वे ब्रिटिश सेना की ओर से भारतीय जवानों का मनोबल बढ़ाने सीमा पर पहुँचे थे।
(ऐसे और भी भारतीय रहे होंगे।)
चौथा कारण,भारत का प्रभावशाली राजनीतिक दल काँग्रेस पार्टी गाँधीजी की ‘अहिंसा’ के रास्ते आजादी पाने का हिमायती था,उसने नेताजी के समर्थन में जनता को लेकर कोई आन्दोलन शुरु नहीं किया।
(ब्रिटिश सेना में बगावत की तो खैर काँग्रेस पार्टी कल्पना ही नहीं कर सकती थी।
- ऐसी कल्पना नेताजी-जैसे तेजस्वी नायक के बस की बात है।
...जबकि दुनिया जानती थी कि इन “भारतीय जवानों” की “राजभक्ति” के बल पर ही अँग्रेज न केवल भारत पर, बल्कि आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं।)
पाँचवे कारण के रुप में प्रसंगवश यह भी जान लिया जाय कि भारत के दूसरे प्रभावशाली राजनीतिक दल भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी ने ब्रिटिश सरकार का साथ देते हुए आजाद हिन्द फौज को जापान की 'कठपुतली सेना' (पपेट आर्मी) घोषित कर रखा था।
नेताजी के लिए भी अशोभनीय शब्द तथा कार्टून का इस्तेमाल उन्होंने किया था।
***
खैर,जो आन्दोलन एवं बगावत 1944 में नहीं हुआ,
वह डेढ़-दो साल बाद होता है और लन्दन में राजमुकुट यह महसूस करता है कि भारतीय सैनिकों की जिस “राजभक्ति” के बल पर वे आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं,उस “राजभक्ति” का क्षरण शुरू हो गया है...
और अब भारत से अँग्रेजों के निकल आने में ही
भलाई है।
वर्ना जिस प्रकार शाही भारतीय नौसेना के सैनिकों ने बन्दरगाहों पर खड़े जहाजों में आग लगाई है,उससे तो अँग्रेजों का भारत से सकुशल निकल पाना ही एक दिन असम्भव हो जायेगा...
और भारत में रह रहे सारे अँग्रेज एक दिन मौत के घाट उतार दिये जायेंगे।
लन्दन में ‘सत्ता-हस्तांतरण’ की योजना बनती है।
भारत को तीन भौगोलिक तथा दो धार्मिक हिस्सों में बाँटकर इसे सदा के लिए शारीरिक-मानसिक रूप से अपाहिज बनाने की कुटिल चाल चली जाती है।
और भी बहुत-सी शर्तें अँग्रेज जाते-जाते भारतीयों पर लादना चाहते हैं।
(ऐसी ही एक शर्त के अनुसार रेलवे का एक कर्मचारी आज तक वेतन ले रहा है,जबकि उसका पोता पेन्शन पाता है।)
इनके लिए जरूरी है कि सामने वाले पक्ष को भावनात्मक रूप से कमजोर बनाया जाय।
लेडी एडविना माउण्टबेटन के चरित्र को देखते हुए
बर्मा के गवर्नर लॉर्ड माउण्टबेटन को भारत का अन्तिम वायसराय बनाने का निर्णय लिया जाता है-
लॉर्ड वावेल के स्थान पर।
एटली की यह चाल काम कर जाती है।
नेहरूजी को लेडी एडविना अपने प्रेमपाश में बाँधने में सफल रहती हैं और लॉर्ड माउण्टबेटन के लिए उनसे शर्तें मनवाना आसान हो जाता है।
(लेखकद्वय लैरी कॉलिन्स और डोमेनिक लेपियरे द्वारा भारत की आजादी पर रचित प्रसिद्ध पुस्तक “फ्रीडम एट मिडनाईट” में एटली की इस चाल को रेखांकित किया गया है।)
***
बचपन से ही हमारे दिमाग में यह धारणा बैठा दी गयी
है कि ‘गाँधीजी की अहिंसात्मक नीतियों से’ हमें आजादी मिली है।
इस धारणा को पोंछकर दूसरी धारणा दिमाग में बैठाना कि ‘नेताजी और आजाद हिन्द फौज की सैन्य गतिविधियों के कारण’ हमें आजादी मिली-
जरा मुश्किल काम है।
अतः नीचे खुद अँग्रेजों के ही नजरिये पर आधारित
कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं,जिन्हें याद रखने पर शायद नयी धारणा को दिमाग में बैठाने में मदद मिले-
***
सबसे पहले, माईकल एडवर्ड के शब्दों में ब्रिटिश राज
के अन्तिम दिनों का आकलन:
“भारत सरकार ने आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चलाकर भारतीय सेना के मनोबल को मजबूत बनाने
की आशा की थी।
इसने उल्टे अशांति पैदा कर दी- जवानों के मन में
कुछ-कुछ शर्मिन्दगी पैदा होने लगी कि उन्होंने ब्रिटिश का साथ दिया।
अगर बोस और उनके आदमी सही थे- जैसाकि सारे देश ने माना कि वे सही थे भी- तो भारतीय सेना के भारतीय जरूर गलत थे।
भारत सरकार को धीरे-धीरे यह दीखने लगा कि ब्रिटिश राज की रीढ़- भारतीय सेना- अब भरोसे के लायक नहीं रही।
सुभाष बोस का भूत,हैमलेट के पिता की तरह, लालकिले (जहाँ आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चला) के कंगूरों पर चलने-फिरने लगा,और उनकी अचानक विराट बन गयी छवि ने उन बैठकों को बुरी तरह भयाक्रान्त कर दिया,जिनसे आजादी का रास्ता प्रशस्त होना था।”
***
अब देखें कि ब्रिटिश संसद में जब विपक्षी सदस्य प्रश्न पूछते हैं कि ब्रिटेन भारत को क्यों छोड़ रहा है,तब प्रधानमंत्री एटली क्या जवाब देते हैं।
प्रधानमंत्री एटली का जवाब दो विन्दुओं में आता है
कि आखिर क्यों ब्रिटेन भारत को छोड़ रहा है-
1. भारतीय मर्सिनरी (पैसों के बदले काम करने वाली- पेशेवर) सेना ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति वफादार नहीं रही,और
2. इंग्लैण्ड इस स्थिति में नहीं है कि वह अपनी (खुद की) सेना को इतने बड़े पैमाने पर संगठित एवं सुसज्जित कर सके कि वह भारत पर नियंत्रण रख सके।
***
यही लॉर्ड एटली 1956 में जब भारत यात्रा पर आते
हैं,तब वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल निवास में दो दिनों के लिए ठहरते हैं।
कोलकाता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश चीफ जस्टिस पी.बी. चक्रवर्ती कार्यवाहक राज्यपाल हैं।
वे लिखते हैं:
“... उनसे मेरी उन वास्तविक विन्दुओं पर लम्बी बातचीत होती है, जिनके चलते अँग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा।
मेरा उनसे सीधा प्रश्न था कि गाँधीजी का "भारत छोड़ो” आन्दोलन कुछ समय पहले ही दबा दिया गया था और 1947 में ऐसी कोई मजबूर करने वाली स्थिति पैदा नहीं हुई थी,जो अँग्रेजों को जल्दीबाजी में भारत छोड़ने को विवश करे,फिर उन्हें क्यों (भारत) छोड़ना पड़ा ?
उत्तर में एटली कई कारण गिनाते हैं,जिनमें प्रमुख है नेताजी की सैन्य गतिविधियों के परिणामस्वरुप भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों में आया ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में क्षरण।
वार्तालाप के अन्त में मैंने एटली से पूछा कि अँग्रेजों के भारत छोड़ने के निर्णय के पीछे गाँधीजी का कहाँ तक प्रभाव रहा ?
यह प्रश्न सुनकर एटली के होंठ हिकारत भरी मुस्कान
से संकुचित हो गये जब वे धीरे से इन शब्दों को चबाते हुए बोले, “न्यू-न-त-म!” ”
(श्री चक्रवर्ती ने इस बातचीत का जिक्र उस पत्र में किया है, जो उन्होंने आर.सी. मजूमदार की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑव बेंगाल’ के प्रकाशक को लिखा था।)
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यह कहा जा सकता है:-
1. अँग्रेजों के भारत छोड़ने के हालाँकि कई कारण थे, मगर प्रमुख कारण यह था कि भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों के मन में ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में कमी आ गयी थी और- बिना राजभक्त भारतीय सैनिकों के- सिर्फ अँग्रेज सैनिकों के बल पर सारे भारत को नियंत्रित करना ब्रिटेन के लिए सम्भव नहीं था।
2. सैनिकों के मन में राजभक्ति में जो कमी आयी थी, उसके कारण थे- नेताजी का सैन्य अभियान, लालकिले में चला आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा और इन सैनिकों के प्रति भारतीय जनता की सहानुभूति।
3. अँग्रेजों के भारत छोड़कर जाने के पीछे गाँधीजी
या काँग्रेस की अहिंसात्मक नीतियों का योगदान नहीं
के बराबर रहा।
सो,अगली बार आप भी ‘दे दी हमें आजादी ...’
वाला गीत गाने से पहले जरा पुनर्विचार कर लीजियेगा। (साभार संकलित)
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सदा सुमंगल,,,वन्देमातरम,,,
जय श्री राम

आज भारत को आवश्यकता है ......

आज भारत को आवश्यकता है ......
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स्वामी विद्यारण्य, समर्थ स्वामी रामदास, गुरु तेगबहादुर व गुरु गोबिंद सिंह जी जैसे अनेकानेक महान गुरुओं की,
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महाराजा विक्रमादित्य, महाराजा समुद्रगुप्त, राजा दाहरसेन, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, हरिहर राय, बुक्का राय, महाराजा रणजीत सिंह, व तांत्या टोपे जैसे महान अनेकानेक शूरवीर क्षत्रियों की,
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और अनेकानेक ब्र्ह्मतेजयुक्त तपस्वियों की जो असत्य और अन्धकार की शक्तियों को पराभूत कर सकें |
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हे भारत माँ, वीर तेजस्वी आर्यपुत्रों को जन्म दे, और अपने द्वीगुणित परम वैभव के सिंहासन पर बिराजमान हो | 

ॐ ॐ ॐ ||

गायत्री मन्त्र : ======= (1) क्या इस मन्त्र के अन्य भी प्राचीन रूप हैं ? (2) क्या ऋषि विश्वामित्र से पूर्व भी इस मन्त्र का ज्ञान वैदिक ऋषियों को था ?

गायत्री मन्त्र :
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(1) क्या इस मन्त्र के अन्य भी प्राचीन रूप हैं ?
(2) क्या ऋषि विश्वामित्र से पूर्व भी इस मन्त्र का ज्ञान वैदिक ऋषियों को था ?
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एक संत का कथन हैं कि सर्वश्रेष्ठ पावक और तारक गायत्री मन्त्र को ऋषि विश्वामित्र ने देखा था अवश्य, पर महर्षि अगस्त्य ने भी ऋग्वेद के प्रथम मंडल के अंतर्गत पड़ने वाले १८८वें सूक्त में अपने द्वारा देखे गए मन्त्र के बारे में कहा है ------
"पुरोगा अग्निर्देवानाम् गायत्रेण समज्यते| स्वाहाकृतीषु रोचते||११
अर्थात, देवताओं में मुख्य अग्निदेवता गायत्री छंद में परिलक्षित होते हैं एवं अग्निरूप स्वाहा प्रदान के समय वह दीप्त होते हैं|
..
विश्वामित्र से बहुत पूर्व हुए थे अगस्त्य ऋषि| ऋग्वेद के सूत्र १६५ से १८१ तक के दृष्टा अगस्त्य मुनि थे| यहाँ यह सिद्ध होता है कि गायत्री मन्त्र का एक दूसरे स्वरुप में प्राचीन ऋषियों को ज्ञान था| इस मन्त्र के देवता है --- सविता|
इसका तात्पर्य यह निकलता है कि विश्वामित्र से पूर्व अगस्त्य ऋषि को इसका ज्ञान था|
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जिन श्रद्धेय संत ने उपरोक्त ज्ञान दिया उन्हीं के अनुसार सबसे पहिले शव्यावाश्व ऋषि ने प्राचीन ऋषियों की परमपूज्या गायत्री देवी के मन्त्र का दर्शन किया था|
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"ॐ तत्सवितुर्वृणीमहे वयं देवस्य भोजनं| श्रेष्ठम् सर्वधातमम् तुरं भगस्य धीमहि||"
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उपरोक्त मन्त्र में ऋषि कहते हैं ---- सबके सम्भजनीय (भग), द्द्योतनशील (देव), श्रुति प्रसिद्ध (तत् ) सविता के सर्वभोगप्रद (सर्वधातम) उत्कृष्ट (श्रेष्ठ) अज्ञानरूप शत्रुनाशक (तुर) और स्वकीय ज्ञानात्मक धन (भोजन) को पाने के लिए हम प्रार्थना करते हैं|
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यास्क रचित निरुक्त के अनुसार 'भोजन' शब्द 'धन' के अर्थ में कहा गया है, क्योंकि जगत में विद्या या वाग्देवी व्यतीत कोई और ऐसा धन नहीं होता है जिसे 'तुर' , 'श्रेष्ठ', एवम् 'सर्वधातम' कहा जा सकता हो| यह 'वाक्' प्रणवरूपी शब्दब्रह्म है|
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प्राचीन ऋषि लोग गायत्री मन्त्र को जपने से पूर्व --- भू र्भुवः स्वः , इन तीन व्याहृतियों को उच्चारित कर लेते थे| इन्हें महाव्याहृति भी कहा जाता है| ऋषिगण ॐ कार का उच्चारण कर उसी में समाहित (ध्यानमग्न) हो जाते थे|
इसलिए भगवान मनु ने 'स प्रणव व्याहृति' के संग गायत्री पाठ का परामर्श दिया है जिसका अन्य भी शास्त्रकारों ने समर्थन किया है|
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ॐ ॐ ॐ |

परमात्मा की अनंतता हमारी भी अनंतता है .......

परमात्मा की अनंतता हमारी भी अनंतता है .......
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"ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम् , 
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलं अचलं सर्वधी साक्षिभूतम् ,
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गगुरुं तं नमामि ||"
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लङ्घयते गिरिं | यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ||"
ॐ ॐ ॐ
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जिस तरह आकाश में विचरण करते हुए पक्षियों का कोई पदचिह्न या सुनिश्चित पथ नहीं होता, वे जहाँ पर भी हैं वहीँ से अपने लक्ष्य की ओर निकल पड़ते हैं वैसे ही भगवान के भक्त जहाँ पर भी हैं, वहीँ से अपने लक्ष्य परमात्मा की ओर चल पड़ते हैं| उनकी कोई शर्त नहीं होती| उन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मार्गदर्शन स्वयं परमात्मा से ही प्राप्त होता है| उनका समर्पण सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के प्रति होता है| उन्हें आवश्यकता है सिर्फ प्रभु के प्रति अहैतुकी परम प्रेम, गहन अभीप्सा और समर्पण भाव की जो उन्हें प्रभु की अनंतता में प्रवेश करा ही देता है| जब प्रभु के प्रति परम प्रेम होगा तो यम-नियमादी सारे गुण स्वतः ही अपने आप खिंचे चले आते हैं|
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अपनी साधना से पूर्व अपने गुरु और गुरु परम्परा को प्रणाम करें| मेरुदंड उन्नत रहे यानि सीधे बैठें, शिवनेत्र होकर भ्रूमध्य में एक प्रकाश की कल्पना करें और उस प्रकाश को सम्पूर्ण ब्रह्मांड में फैला दें| चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है, कहीं भी अन्धकार नहीं है| जीभ को भी ऊपर की ओर पीछे मोड़ कर तालू से सटा दें| बिलकुल तनाव मुक्त हो जाएँ| अब यह भाव करें की वह समस्त सर्वव्यापी प्रकाश आप स्वयं ही हैं| सृष्टि में दूर से दूर भी जो प्रकाश है वह भी आप हैं| कुछ नक्षत्र ऐसे भी हैं जिनका प्रकाश लाखों वर्ष पूर्व चला था जिसे पृथ्वी पर पहुँचने में अभी लाखों वर्ष और लग जायेंगे, उनका प्रकाश भी आप ही हैं| दृष्टि बिना तनाव के भ्रूमध्य में ही रहे| बीच में एक-दो बार देह को देख लें और दृढ़ता से यह संकल्प करें कि आप यह देह नहीं हैं| आप परमात्मा की अनंतता हैं, और वह अनंत आकाश ही आपका घर है| सारी सृष्टि आपके अस्तित्व में समाहित है और आप सारी सृष्टि में व्याप्त हैं|
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हर सांस के साथ यह भाव करें कि आप वह सर्वव्यापी प्रकाश हैं| वह प्रकाश ही प्रभु का प्रेम है| आप स्वयं ही वह प्रेम हैं| जब सांस अन्दर जाए तो मानसिक रूप से दीर्घ "सोSSSSS" और सांस बाहर आये तब दीर्घ "हं....." का मानसिक रूप से जप करें| इससे विपरीत भी कर सकते हैं| यह अजपा-जप कहलाता है| जब भी समय मिले और जब भी दोनों नासिकाओं से सांस चल रही हो, इसका अभ्यास करें| यह भाव सदा रखने का अभ्यास करते रहें कि आप वह अनंत आकाश हैं और यथासंभव खूब अजपा-जप का अभ्यास करें|
{अगर नाक में कोई समस्या हो जैसे DNS या Allergy की तो उसका उपचार किसी अच्छे ENT सर्जन से करवा लें| हठयोग में भी नाक से सम्बंधित अनेक क्रियाएँ हैं जो नासिका मार्ग का शोधन करती हैं|}
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गुरुरूप ब्रह्म की परम कृपा से जिनकी कुण्डलिनी जागृत है, वे मेरुदंडस्थ सुषुम्ना नाड़ी में गुरु प्रदत्त बीजमंत्रों के साथ घनीभूत प्राणऊर्जा का मूलाधार से आज्ञाचक्र के मध्य अपनी गुरु परम्परानुसार सचेतन विचरण करें| आज्ञाचक्र योगियों का ह्रदय है| अपनी चेतना को प्रयासपूर्वक सदा आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य उत्तरासुषुम्ना में रखने का अभ्यास करें| वहीँ कूटस्थ में ध्यान करें| जब भ्रूमध्य में कूटस्थ ज्योति के दर्शन होने लगें तब शनेः शनेः उसे भी सहस्त्रार में अपनी चेतना के साथ ले जाएँ| आपकी चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में ही रहनी चाहिए| जब नाद की ध्वनी सुने उसे भी सहस्त्रार में ले जाइए| गुरुकृपा से जिनकी उत्तरा सुषुम्ना का द्वार खुल गया है वे उत्तरा सुषुम्ना में ही ध्यान करें|
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गुरुकृपा से ब्रह्मरंध्र में ओंकार का ध्यान करते करते सर्वव्यापकता और भगवान शिव की अनुभूतियाँ होंगी| वहाँ जो ध्वनी सुनती है उसे सुनते रहो और ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का मानसिक जाप करते रहो| उस ध्वनि की लय से एकाकार हो जाओ|
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जब गुरुकृपा से विस्तार की अनुभूतियाँ होने लगें तब अभ्यास करते करते एक दिन गुरु का स्मरण कर सहस्त्रार से भी ऊपर उठ जाओ और अनंत आकाश में लाखों करोड़ों कोसों ऊपर चले जाओ| फिर लाखों करोड़ों कोसों दूर तक दायें और बाएं हर ओर दशों दिशाओं में फ़ैल जाओ| और धारणा करो कि यह अनंतता आप स्वयं हो| सारी सृष्टि आप में है और आप समस्त सृष्टि में हो| इस अनंतता की सीमा कहीं भी नहीं है पर केंद्र सर्वत्र है, और वह केंद्र स्वयं आप हो| यह गगन मंडल ही आपका घर है और आप स्वयं यह गगन मंडल हैं|
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कभी कभी अजपा-जाप करो, पर अधिकतः शिवस्वरूप ओंकार का ही ध्यान करो| शिव स्वरुप में अपनी स्वयं की आहुति दे दो यानि अपना सर्वस्व उन्हें समर्पित कर दें| अपना कुछ भी न हो, कोइ पृथकता न हो| यह भाव रखो की आप तो हो ही नहीं, सिर्फ भगवान शिव हैं, वे ही साधना कर रहे हैं| इस शिवभाव में दृढ़ता से रहो| साधक साध्य और साधन सब भगवान शिव हैं|
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जब गगन मंडल से मन भर जाए तब बापस अपने ह्रदय यानि आज्ञाचक्र में आ जाओ, और कभी भी बापस अपने घर उस गगन मंडल में चले जाओ| निरंतर शिवरूप गुरु ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का मानसिक जप करते रहो| भगवान शिव और सारे गुरु आपकी सदा रक्षा और मार्गदर्शन करेंगे|
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जाति, वर्ण, कुल, आदि की चेतना से ऊपर उठो| जैसे विवाह के बाद एक विवाहिता स्त्री की जाति, वर्ण और गौत्र अपने पति का हो जाता है, वैसे ही आपकी जाति, वर्ण और गौत्र वो ही है जो परमात्मा का है| आप परमात्मा के हैं और परमात्मा आपके हैं जो सदा आपके साथ हैं|
ॐ ॐ ॐ |
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लगभग चालीस वर्ष पूर्व गणेशपुरी के स्वामी मुक्तानंद जी की पुस्तक 'चित्तशक्तिविलास' पढी थी जिसमें उन्होंने अपने स्वयं के परलोकगमन आदि के अनुभव लिखे थे, एक नीले नक्षत्र के दर्शन के बारे में भी लिखा था| नीले और श्वेत नक्षत्रों के दर्शन के बारे में अनेक योगियों ने भी लिखा है| स्वामी राम ने भी अनेक दिव्य अनुभव लिखें हैं| एक श्री 'M' ने भी अनेक दिव्य अनुभवों को लिखा है| परमहंस योगानंद ने भी अनेक दिव्य अनुभवों और चमत्कारों के बारे में लिखा है|
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इस बारे में मेरा यह निवेदन है कि हमें अपनी चेतना में इस तरह के अनुभवों की अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिए क्योंकि हमारा लक्ष्य परमात्मा है, ये अनुभव नहीं| अपने अनुभव अपने गुरु या गुरुपरंपरा के किसी उन्नत संत के अतिरिक्त अन्य किसी से भी साझा नहीं करने चाहियें|
वैसे सभी उन्नत साधकों को अनेक चमत्कार और दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं पर उनकी परवाह नहीं करनी चाहिए| नीले और सफ़ेद सूक्ष्म लोकों के प्रकाश और पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र के दर्शन सभी उन्नत साधकों को होते हैं| ये एक तरह के मील के पत्थर हैं और कुछ नहीं| अपनी चेतना को इनसे भी परे सिर्फ परमात्मा में ले जाना है|
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कहीं भी मत देखो, कुछ भी मत देखो, सिर्फ अपना लक्ष्य परमात्मा सदा दृष्टिपथ में रहे|
गुरुकृपा ही केवलं | ॐ गुरु ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ गुरु ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ |
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ॐ नमः शिवाय | शिवोहं शिवोहं शिवोहं अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
19/12/2015