परमात्मा की अनंतता हमारी भी अनंतता है .......
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"ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम् ,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलं अचलं सर्वधी साक्षिभूतम् ,
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गगुरुं तं नमामि ||"
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लङ्घयते गिरिं | यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ||"
ॐ ॐ ॐ
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जिस तरह आकाश में विचरण करते हुए पक्षियों का कोई पदचिह्न या सुनिश्चित पथ नहीं होता, वे जहाँ पर भी हैं वहीँ से अपने लक्ष्य की ओर निकल पड़ते हैं वैसे ही भगवान के भक्त जहाँ पर भी हैं, वहीँ से अपने लक्ष्य परमात्मा की ओर चल पड़ते हैं| उनकी कोई शर्त नहीं होती| उन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मार्गदर्शन स्वयं परमात्मा से ही प्राप्त होता है| उनका समर्पण सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के प्रति होता है| उन्हें आवश्यकता है सिर्फ प्रभु के प्रति अहैतुकी परम प्रेम, गहन अभीप्सा और समर्पण भाव की जो उन्हें प्रभु की अनंतता में प्रवेश करा ही देता है| जब प्रभु के प्रति परम प्रेम होगा तो यम-नियमादी सारे गुण स्वतः ही अपने आप खिंचे चले आते हैं|
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अपनी साधना से पूर्व अपने गुरु और गुरु परम्परा को प्रणाम करें| मेरुदंड उन्नत रहे यानि सीधे बैठें, शिवनेत्र होकर भ्रूमध्य में एक प्रकाश की कल्पना करें और उस प्रकाश को सम्पूर्ण ब्रह्मांड में फैला दें| चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है, कहीं भी अन्धकार नहीं है| जीभ को भी ऊपर की ओर पीछे मोड़ कर तालू से सटा दें| बिलकुल तनाव मुक्त हो जाएँ| अब यह भाव करें की वह समस्त सर्वव्यापी प्रकाश आप स्वयं ही हैं| सृष्टि में दूर से दूर भी जो प्रकाश है वह भी आप हैं| कुछ नक्षत्र ऐसे भी हैं जिनका प्रकाश लाखों वर्ष पूर्व चला था जिसे पृथ्वी पर पहुँचने में अभी लाखों वर्ष और लग जायेंगे, उनका प्रकाश भी आप ही हैं| दृष्टि बिना तनाव के भ्रूमध्य में ही रहे| बीच में एक-दो बार देह को देख लें और दृढ़ता से यह संकल्प करें कि आप यह देह नहीं हैं| आप परमात्मा की अनंतता हैं, और वह अनंत आकाश ही आपका घर है| सारी सृष्टि आपके अस्तित्व में समाहित है और आप सारी सृष्टि में व्याप्त हैं|
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हर सांस के साथ यह भाव करें कि आप वह सर्वव्यापी प्रकाश हैं| वह प्रकाश ही प्रभु का प्रेम है| आप स्वयं ही वह प्रेम हैं| जब सांस अन्दर जाए तो मानसिक रूप से दीर्घ "सोSSSSS" और सांस बाहर आये तब दीर्घ "हं....." का मानसिक रूप से जप करें| इससे विपरीत भी कर सकते हैं| यह अजपा-जप कहलाता है| जब भी समय मिले और जब भी दोनों नासिकाओं से सांस चल रही हो, इसका अभ्यास करें| यह भाव सदा रखने का अभ्यास करते रहें कि आप वह अनंत आकाश हैं और यथासंभव खूब अजपा-जप का अभ्यास करें|
{अगर नाक में कोई समस्या हो जैसे DNS या Allergy की तो उसका उपचार किसी अच्छे ENT सर्जन से करवा लें| हठयोग में भी नाक से सम्बंधित अनेक क्रियाएँ हैं जो नासिका मार्ग का शोधन करती हैं|}
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गुरुरूप ब्रह्म की परम कृपा से जिनकी कुण्डलिनी जागृत है, वे मेरुदंडस्थ सुषुम्ना नाड़ी में गुरु प्रदत्त बीजमंत्रों के साथ घनीभूत प्राणऊर्जा का मूलाधार से आज्ञाचक्र के मध्य अपनी गुरु परम्परानुसार सचेतन विचरण करें| आज्ञाचक्र योगियों का ह्रदय है| अपनी चेतना को प्रयासपूर्वक सदा आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य उत्तरासुषुम्ना में रखने का अभ्यास करें| वहीँ कूटस्थ में ध्यान करें| जब भ्रूमध्य में कूटस्थ ज्योति के दर्शन होने लगें तब शनेः शनेः उसे भी सहस्त्रार में अपनी चेतना के साथ ले जाएँ| आपकी चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में ही रहनी चाहिए| जब नाद की ध्वनी सुने उसे भी सहस्त्रार में ले जाइए| गुरुकृपा से जिनकी उत्तरा सुषुम्ना का द्वार खुल गया है वे उत्तरा सुषुम्ना में ही ध्यान करें|
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गुरुकृपा से ब्रह्मरंध्र में ओंकार का ध्यान करते करते सर्वव्यापकता और भगवान शिव की अनुभूतियाँ होंगी| वहाँ जो ध्वनी सुनती है उसे सुनते रहो और ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का मानसिक जाप करते रहो| उस ध्वनि की लय से एकाकार हो जाओ|
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जब गुरुकृपा से विस्तार की अनुभूतियाँ होने लगें तब अभ्यास करते करते एक दिन गुरु का स्मरण कर सहस्त्रार से भी ऊपर उठ जाओ और अनंत आकाश में लाखों करोड़ों कोसों ऊपर चले जाओ| फिर लाखों करोड़ों कोसों दूर तक दायें और बाएं हर ओर दशों दिशाओं में फ़ैल जाओ| और धारणा करो कि यह अनंतता आप स्वयं हो| सारी सृष्टि आप में है और आप समस्त सृष्टि में हो| इस अनंतता की सीमा कहीं भी नहीं है पर केंद्र सर्वत्र है, और वह केंद्र स्वयं आप हो| यह गगन मंडल ही आपका घर है और आप स्वयं यह गगन मंडल हैं|
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कभी कभी अजपा-जाप करो, पर अधिकतः शिवस्वरूप ओंकार का ही ध्यान करो| शिव स्वरुप में अपनी स्वयं की आहुति दे दो यानि अपना सर्वस्व उन्हें समर्पित कर दें| अपना कुछ भी न हो, कोइ पृथकता न हो| यह भाव रखो की आप तो हो ही नहीं, सिर्फ भगवान शिव हैं, वे ही साधना कर रहे हैं| इस शिवभाव में दृढ़ता से रहो| साधक साध्य और साधन सब भगवान शिव हैं|
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जब गगन मंडल से मन भर जाए तब बापस अपने ह्रदय यानि आज्ञाचक्र में आ जाओ, और कभी भी बापस अपने घर उस गगन मंडल में चले जाओ| निरंतर शिवरूप गुरु ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का मानसिक जप करते रहो| भगवान शिव और सारे गुरु आपकी सदा रक्षा और मार्गदर्शन करेंगे|
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जाति, वर्ण, कुल, आदि की चेतना से ऊपर उठो| जैसे विवाह के बाद एक विवाहिता स्त्री की जाति, वर्ण और गौत्र अपने पति का हो जाता है, वैसे ही आपकी जाति, वर्ण और गौत्र वो ही है जो परमात्मा का है| आप परमात्मा के हैं और परमात्मा आपके हैं जो सदा आपके साथ हैं|
ॐ ॐ ॐ |
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लगभग चालीस वर्ष पूर्व गणेशपुरी के स्वामी मुक्तानंद जी की पुस्तक 'चित्तशक्तिविलास' पढी थी जिसमें उन्होंने अपने स्वयं के परलोकगमन आदि के अनुभव लिखे थे, एक नीले नक्षत्र के दर्शन के बारे में भी लिखा था| नीले और श्वेत नक्षत्रों के दर्शन के बारे में अनेक योगियों ने भी लिखा है| स्वामी राम ने भी अनेक दिव्य अनुभव लिखें हैं| एक श्री 'M' ने भी अनेक दिव्य अनुभवों को लिखा है| परमहंस योगानंद ने भी अनेक दिव्य अनुभवों और चमत्कारों के बारे में लिखा है|
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इस बारे में मेरा यह निवेदन है कि हमें अपनी चेतना में इस तरह के अनुभवों की अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिए क्योंकि हमारा लक्ष्य परमात्मा है, ये अनुभव नहीं| अपने अनुभव अपने गुरु या गुरुपरंपरा के किसी उन्नत संत के अतिरिक्त अन्य किसी से भी साझा नहीं करने चाहियें|
वैसे सभी उन्नत साधकों को अनेक चमत्कार और दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं पर उनकी परवाह नहीं करनी चाहिए| नीले और सफ़ेद सूक्ष्म लोकों के प्रकाश और पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र के दर्शन सभी उन्नत साधकों को होते हैं| ये एक तरह के मील के पत्थर हैं और कुछ नहीं| अपनी चेतना को इनसे भी परे सिर्फ परमात्मा में ले जाना है|
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कहीं भी मत देखो, कुछ भी मत देखो, सिर्फ अपना लक्ष्य परमात्मा सदा दृष्टिपथ में रहे|
गुरुकृपा ही केवलं | ॐ गुरु ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ गुरु ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ |
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ॐ नमः शिवाय | शिवोहं शिवोहं शिवोहं अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
19/12/2015
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"ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम् ,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलं अचलं सर्वधी साक्षिभूतम् ,
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गगुरुं तं नमामि ||"
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लङ्घयते गिरिं | यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ||"
ॐ ॐ ॐ
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जिस तरह आकाश में विचरण करते हुए पक्षियों का कोई पदचिह्न या सुनिश्चित पथ नहीं होता, वे जहाँ पर भी हैं वहीँ से अपने लक्ष्य की ओर निकल पड़ते हैं वैसे ही भगवान के भक्त जहाँ पर भी हैं, वहीँ से अपने लक्ष्य परमात्मा की ओर चल पड़ते हैं| उनकी कोई शर्त नहीं होती| उन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मार्गदर्शन स्वयं परमात्मा से ही प्राप्त होता है| उनका समर्पण सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के प्रति होता है| उन्हें आवश्यकता है सिर्फ प्रभु के प्रति अहैतुकी परम प्रेम, गहन अभीप्सा और समर्पण भाव की जो उन्हें प्रभु की अनंतता में प्रवेश करा ही देता है| जब प्रभु के प्रति परम प्रेम होगा तो यम-नियमादी सारे गुण स्वतः ही अपने आप खिंचे चले आते हैं|
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अपनी साधना से पूर्व अपने गुरु और गुरु परम्परा को प्रणाम करें| मेरुदंड उन्नत रहे यानि सीधे बैठें, शिवनेत्र होकर भ्रूमध्य में एक प्रकाश की कल्पना करें और उस प्रकाश को सम्पूर्ण ब्रह्मांड में फैला दें| चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है, कहीं भी अन्धकार नहीं है| जीभ को भी ऊपर की ओर पीछे मोड़ कर तालू से सटा दें| बिलकुल तनाव मुक्त हो जाएँ| अब यह भाव करें की वह समस्त सर्वव्यापी प्रकाश आप स्वयं ही हैं| सृष्टि में दूर से दूर भी जो प्रकाश है वह भी आप हैं| कुछ नक्षत्र ऐसे भी हैं जिनका प्रकाश लाखों वर्ष पूर्व चला था जिसे पृथ्वी पर पहुँचने में अभी लाखों वर्ष और लग जायेंगे, उनका प्रकाश भी आप ही हैं| दृष्टि बिना तनाव के भ्रूमध्य में ही रहे| बीच में एक-दो बार देह को देख लें और दृढ़ता से यह संकल्प करें कि आप यह देह नहीं हैं| आप परमात्मा की अनंतता हैं, और वह अनंत आकाश ही आपका घर है| सारी सृष्टि आपके अस्तित्व में समाहित है और आप सारी सृष्टि में व्याप्त हैं|
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हर सांस के साथ यह भाव करें कि आप वह सर्वव्यापी प्रकाश हैं| वह प्रकाश ही प्रभु का प्रेम है| आप स्वयं ही वह प्रेम हैं| जब सांस अन्दर जाए तो मानसिक रूप से दीर्घ "सोSSSSS" और सांस बाहर आये तब दीर्घ "हं....." का मानसिक रूप से जप करें| इससे विपरीत भी कर सकते हैं| यह अजपा-जप कहलाता है| जब भी समय मिले और जब भी दोनों नासिकाओं से सांस चल रही हो, इसका अभ्यास करें| यह भाव सदा रखने का अभ्यास करते रहें कि आप वह अनंत आकाश हैं और यथासंभव खूब अजपा-जप का अभ्यास करें|
{अगर नाक में कोई समस्या हो जैसे DNS या Allergy की तो उसका उपचार किसी अच्छे ENT सर्जन से करवा लें| हठयोग में भी नाक से सम्बंधित अनेक क्रियाएँ हैं जो नासिका मार्ग का शोधन करती हैं|}
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गुरुरूप ब्रह्म की परम कृपा से जिनकी कुण्डलिनी जागृत है, वे मेरुदंडस्थ सुषुम्ना नाड़ी में गुरु प्रदत्त बीजमंत्रों के साथ घनीभूत प्राणऊर्जा का मूलाधार से आज्ञाचक्र के मध्य अपनी गुरु परम्परानुसार सचेतन विचरण करें| आज्ञाचक्र योगियों का ह्रदय है| अपनी चेतना को प्रयासपूर्वक सदा आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य उत्तरासुषुम्ना में रखने का अभ्यास करें| वहीँ कूटस्थ में ध्यान करें| जब भ्रूमध्य में कूटस्थ ज्योति के दर्शन होने लगें तब शनेः शनेः उसे भी सहस्त्रार में अपनी चेतना के साथ ले जाएँ| आपकी चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में ही रहनी चाहिए| जब नाद की ध्वनी सुने उसे भी सहस्त्रार में ले जाइए| गुरुकृपा से जिनकी उत्तरा सुषुम्ना का द्वार खुल गया है वे उत्तरा सुषुम्ना में ही ध्यान करें|
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गुरुकृपा से ब्रह्मरंध्र में ओंकार का ध्यान करते करते सर्वव्यापकता और भगवान शिव की अनुभूतियाँ होंगी| वहाँ जो ध्वनी सुनती है उसे सुनते रहो और ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का मानसिक जाप करते रहो| उस ध्वनि की लय से एकाकार हो जाओ|
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जब गुरुकृपा से विस्तार की अनुभूतियाँ होने लगें तब अभ्यास करते करते एक दिन गुरु का स्मरण कर सहस्त्रार से भी ऊपर उठ जाओ और अनंत आकाश में लाखों करोड़ों कोसों ऊपर चले जाओ| फिर लाखों करोड़ों कोसों दूर तक दायें और बाएं हर ओर दशों दिशाओं में फ़ैल जाओ| और धारणा करो कि यह अनंतता आप स्वयं हो| सारी सृष्टि आप में है और आप समस्त सृष्टि में हो| इस अनंतता की सीमा कहीं भी नहीं है पर केंद्र सर्वत्र है, और वह केंद्र स्वयं आप हो| यह गगन मंडल ही आपका घर है और आप स्वयं यह गगन मंडल हैं|
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कभी कभी अजपा-जाप करो, पर अधिकतः शिवस्वरूप ओंकार का ही ध्यान करो| शिव स्वरुप में अपनी स्वयं की आहुति दे दो यानि अपना सर्वस्व उन्हें समर्पित कर दें| अपना कुछ भी न हो, कोइ पृथकता न हो| यह भाव रखो की आप तो हो ही नहीं, सिर्फ भगवान शिव हैं, वे ही साधना कर रहे हैं| इस शिवभाव में दृढ़ता से रहो| साधक साध्य और साधन सब भगवान शिव हैं|
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जब गगन मंडल से मन भर जाए तब बापस अपने ह्रदय यानि आज्ञाचक्र में आ जाओ, और कभी भी बापस अपने घर उस गगन मंडल में चले जाओ| निरंतर शिवरूप गुरु ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का मानसिक जप करते रहो| भगवान शिव और सारे गुरु आपकी सदा रक्षा और मार्गदर्शन करेंगे|
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जाति, वर्ण, कुल, आदि की चेतना से ऊपर उठो| जैसे विवाह के बाद एक विवाहिता स्त्री की जाति, वर्ण और गौत्र अपने पति का हो जाता है, वैसे ही आपकी जाति, वर्ण और गौत्र वो ही है जो परमात्मा का है| आप परमात्मा के हैं और परमात्मा आपके हैं जो सदा आपके साथ हैं|
ॐ ॐ ॐ |
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लगभग चालीस वर्ष पूर्व गणेशपुरी के स्वामी मुक्तानंद जी की पुस्तक 'चित्तशक्तिविलास' पढी थी जिसमें उन्होंने अपने स्वयं के परलोकगमन आदि के अनुभव लिखे थे, एक नीले नक्षत्र के दर्शन के बारे में भी लिखा था| नीले और श्वेत नक्षत्रों के दर्शन के बारे में अनेक योगियों ने भी लिखा है| स्वामी राम ने भी अनेक दिव्य अनुभव लिखें हैं| एक श्री 'M' ने भी अनेक दिव्य अनुभवों को लिखा है| परमहंस योगानंद ने भी अनेक दिव्य अनुभवों और चमत्कारों के बारे में लिखा है|
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इस बारे में मेरा यह निवेदन है कि हमें अपनी चेतना में इस तरह के अनुभवों की अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिए क्योंकि हमारा लक्ष्य परमात्मा है, ये अनुभव नहीं| अपने अनुभव अपने गुरु या गुरुपरंपरा के किसी उन्नत संत के अतिरिक्त अन्य किसी से भी साझा नहीं करने चाहियें|
वैसे सभी उन्नत साधकों को अनेक चमत्कार और दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं पर उनकी परवाह नहीं करनी चाहिए| नीले और सफ़ेद सूक्ष्म लोकों के प्रकाश और पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र के दर्शन सभी उन्नत साधकों को होते हैं| ये एक तरह के मील के पत्थर हैं और कुछ नहीं| अपनी चेतना को इनसे भी परे सिर्फ परमात्मा में ले जाना है|
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कहीं भी मत देखो, कुछ भी मत देखो, सिर्फ अपना लक्ष्य परमात्मा सदा दृष्टिपथ में रहे|
गुरुकृपा ही केवलं | ॐ गुरु ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ गुरु ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ |
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ॐ नमः शिवाय | शिवोहं शिवोहं शिवोहं अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
19/12/2015
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