Monday 31 July 2017

प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चलती है हमारी मनमर्जी से नहीं .......

प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चलती है हमारी मनमर्जी से नहीं .......
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प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चलती है, उन नियमों को समझने का प्रयास न करना हमारी भूल है, प्रकृति की नहीं| समुद्र में ज्वार-भाटा तो आता ही रहता है जो प्रकृति के नियमानुसार बिलकुल सही समय पर आता है, उसमें एक क्षण की भी भूल नहीं होती| जो इस विषय के जानकार होते हैं वे वर्षों पहले ही गणना कर के बता देते हैं कि पृथ्वी के किस किस भाग पर किस समय ज्वार आयेगा, कब तक रहेगा, वहाँ समुद्र का जल स्तर उस समय कितना होगा, व महत्वपूर्ण नक्षत्रों और चन्द्रमा की उस समय क्या स्थिति होगी| समुद्रों में जो नौकानयन करते हैं उनके पास हर वर्ष एक वर्ष आगे तक का एक पंचांग (Almanac) रहता है जिसमें यह पूरी जानकारी रहती है| उस पंचांग को वही समझ सकता है जिसको नौकानयन की विद्या आती है, अन्य कोई नहीं|
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ऐसे ही संसार में जन्म-मरण और संचित/प्रारब्ध कर्मफलों की प्राप्ति आदि का ज्ञान निश्चित रूप से कहीं न कहीं और किसी न किसी को ज्ञात अवश्य है| यदि हमें नहीं ज्ञात है तो इसमें दोष हमारे अज्ञान का है, प्रकृति का नहीं| यदि हमें नहीं पता है तो उसका अनुसंधान करना पड़ेगा|
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जैसे समुद्र में ज्वार-भाटे को रोका नहीं जा सकता वैसे ही जन्म-मरण और प्रारब्ध कर्मों से प्राप्त होने वाले फलों को कोई रोक नहीं सकता है| महात्मा लोग कहते हैं कि वेदों में जीवनमुक्त होने का पूरा ज्ञान है| पर उसे समझने की पात्रता भी चाहिए और सही समझाने वाला भी चाहिए|
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जितना अब तक इस लेख में लिखा गया है, उससे अधिक लिखने का मुझे न तो अधिकार है और न मेरी पात्रता है|
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जिसे डॉक्टरी पढनी है उसे मेडिकल कॉलेज में भर्ती होना होगा, जिसे इंजीनियरिंग पढनी है उसे इंजीनियरिंग कॉलेज में भर्ती होना होगा, जिसे जो भी विद्या पढनी है उसे उसी तरह के महाविद्यालय में प्रवेश लेना होगा| पासबुक पढ़कर या नक़ल मार कर कोई हवाई जहाज का पायलट या समुद्री जहाज का कप्तान नहीं बन सकता है|
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वैसे ही श्रुतियों यानि वेदों -उपनिषदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें किसी श्रौत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध आचार्य की खोज करनी होगी और नम्रता से निवेदन करना होगा, तभी वे अनुग्रह करके हमारा मार्गदर्शन करेंगे, अन्यथा नहीं| वहाँ ट्यूशन फीस, डोनेशन और रुपयों का लोभ देने से काम नहीं चलेगा| दो-चार लाख रूपये खर्च कर बिना पढ़े हम पीएचडी की डिग्री तो प्राप्त कर सकते हैं पर ब्रह्मविद्या का ज्ञान नहीं|
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हे प्रभु, मोह और तृष्णा से हमें मुक्त करो, धर्माचरण में आने वाले कष्टों से पार जाने की शक्ति दो, शास्त्राज्ञाओं को समझने व उनका पालन करने की क्षमता दो, विविदिषा व वैराग्य दो| हमें अपनी पूर्णता दो और अपने साथ एक करो|
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ॐ शांति शांति शांति | ॐ ॐ ॐ ||


कृपाशंकर
३१ जुलाई २०१७

इस देह में हम जीवन्मुक्त होने के लिए ही आये हैं ......

इस देह में हम जीवनमुक्त होने के लिए ही आये हैं .....
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इस देह में हम जीवनमुक्त होने के लिए ही आये हैं| सभी गुणों से हमें मुक्त होना ही होगा| जैसे तमोगुण और रजोगुण में विकृतियाँ हैं वैसे ही सतोगुण में भी हैं| इन तीनों गुणों से परे हो कर ही हम कामनाओं से मुक्त हो सकते हैं| कामनाओं से मुक्ति ही जीवन्मुक्ति है|

भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है ....

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन |
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||


स्वामी रामसुखदास जी ने इसका अनुवाद यों किया है ......

"वेद तीनों गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं, हे अर्जुन तू तीनों गुणोंसे रहित हो जा, निर्द्वन्द्व हो जा, निरन्तर नित्य वस्तुमें स्थित हो जा योगक्षेमकी चाहना भी मत रख और परमात्मपरायण हो जा|"
इस श्लोक की आध्यात्मिक व्याख्या बहुत गहरी है| इन तीनों गुणों के प्रभाव से जो भी शरीर हमें मिलते हैं वे सब दुःदायक होते हैं| सब की अपनी अपनी पीड़ाएँ हैं| उपनिषदों में विस्तार से सभी के दोष बताये गए हैं| इस देह में दुबारा न आना पड़े इसकी भी विधी शास्त्रों में वर्णित है| यह संसार या कोई भी सांसारिक व्यक्ति हमारा इष्ट नहीं हो सकता|

ज्ञान प्राप्त करने के लिए कष्ट तो हमें उठाना ही पड़ेगा, संसार में धक्के भी खाने होंगे| अपने निज विवेक को काम में लें| सारे कार्य अपने निज विवेक के प्रकाश में करें|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

क्या परमात्मा से भी अधिक कोई अन्य वस्तु प्रिय हो सकती है ?....

क्या परमात्मा से भी अधिक कोई अन्य वस्तु प्रिय हो सकती है ?
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भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में कहा है .........

"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः |
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ||"

जिस (आत्म) लाभ को पाने के पश्चात् हम पाते हैं कि इससे अधिक अन्य कुछ भी प्राप्य नहीं है| उस (आत्म तत्व) में स्थित होने के पश्चात् बड़े से बड़ा दुःख भी हमें विचलित नहीं कर सकता|

इस से हम अंदाज़ कर सकते हैं की हम कहाँ और किस स्थिति में खड़े हैं|
कई बार मन में लालच आ जाता है, और हमें परमात्मा से भी अधिक लाभ अन्य वस्तुओं या अनुष्ठानों में दृष्टिगत होने लगता है जो यह स्पष्ट बताता है कि हम अभी तक निःस्पृह नहीं हुए हैं|

क्या परमात्मा से भी अधिक कोई अन्य वस्तु प्रिय हो सकती है ?

Thursday 27 July 2017

ब्रह्मविद्या के आचार्य और अधिकारी कौन हैं .....

ब्रह्मविद्या के आचार्य और अधिकारी कौन हैं .....
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ब्रह्मविद्या के आचार्य हैं --- भगवान सनत्कुमार, वे साक्षात मूर्तिमान ब्रह्मविद्या हैं|
उन्हीं की कृपा से सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी के मानस पुत्र नारद जी देवर्षि बने| ब्रह्मविद्या का ज्ञान सर्वप्रथम भगवन सनत्कुमार ने नारद जी को दिया था|
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जो धर्म का दान करते हैं और भगवद् महिमा का प्रचार कर नरत्व और देवत्व को उभारते हैं वे ही नारद हैं|
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द्वापर युग में भगवान सनत्कुमार ने विदुर जी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया था|
विदुर जी की प्रार्थना स्वीकार कर भगवान सनत्कुमार ने प्रकट होकर धृतराष्ट्र को भी ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया|
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महाभारत युद्ध से पूर्व धृतराष्ट्र ने विदुर जी से प्रार्थना की कि युद्ध में अनेक सगे-सम्बन्धी मारे जायेंगे और भयंकर प्राणहानि होगी, तो उस शोक को मैं कैसे सहन कर पाऊंगा?
विदुर जी बोले की मृत्यु नाम की कोई चीज ही नहीं होती| मृत्युशोक तो केवल मोह का फलमात्र होता है|
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धृतराष्ट्र की अकुलाहट सुनकर विदुर ने उन्हें समझाया कि इस अनोखे गुप्त तत्व को मैं भगवन सनत्कुमार की कृपा से ही समझ सका था पर ब्राह्मण देहधारी ना होने के कारण मैं स्वयं उस तत्व को अपने मुंह से व्यक्त नहीं कर सकता| मैं अपने ज्ञानगुरु मूर्त ब्रह्मविद्यास्वरुप भगवान सनत्कुमार का आवाहन ध्यान द्वारा करता हूँ|
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भगवन सनत्कुमार जैसे ही प्रकट हुए धृतराष्ट्र उनके चरणों में लोट गए और रोते हुए अपनी प्रार्थना सुनाई| तब भगवन सनत्कुमार ने धृतराष्ट्र को ब्रह्मविद्या के जो उपदेश दिए वह उपदेशमाला --- "सनत्सुजातीयअध्यात्म् शास्त्रम्" कही जाती है|
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भगवान सनत्कुमार का ही दूसरा नाम सनत्सुजात है| सनत्कुमार ही स्कन्द यानि कार्तिकेय हैं|
ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय|

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(यह विषय बहुत लंबा है और इसकी चर्चा को कोई अंत नहीं है अतः इसको यहीं विराम देता हूँ)
कृपा शंकर
२८ जुलाई २०१३

राष्ट्र की वर्तमान परिस्थितियाँ और हमारा दायित्व :---

२८ जुलाई २०१४
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राष्ट्र की वर्तमान परिस्थितियाँ और हमारा दायित्व :---
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राष्ट्र की वर्तमान परिस्थितियों और धर्म के इतने ह्रास से मैं अत्यधिक व्यथित रहा हूँ और लगभग निराश ही हो गया था| मात्र आध्यात्म में ही इसका समाधान ढूँढता रहा हूँ| पर अब एक नया दृष्टिकोण सामने आ रहा है|

भारतवर्ष की अस्मिता पर पिछले हज़ार बारह सौ वर्षों से इतने भयानक आक्रमण और अत्याचार हुए हैं की उसका दस लाखवाँ भाग भी किसी अन्य धर्म और संस्कृति पर होता तो वह कभी की समाप्त हो जाती| इतने अन्याय, अत्याचार, विध्वंश और आक्रमणों के पश्चात भी हम हिन्दू जीवित हैं|

भारतवर्ष में हिन्दू जाति अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए ही प्रयत्नशील रही है| इसके लिए उसने दासता भी सही, अत्याचार भी सहे, झुक कर भी रही कि कैसे भी हमारे अस्तित्व की रक्षा हो|

इस अस्तित्व की रक्षा के संघर्ष में अनेक बुराइयाँ हमारे में आ गईं| हम अपने आप में ही बहुत अधिक स्वार्थी और असंवेदनशील हो गए हैं| एक हीन भावना भी हमारे मध्य आ गई है|

इसमें मैं सोचता हूँ कि हिन्दुओं का क्या दोष है| ऐसा होना स्वाभाविक ही था| इसमें आत्म ग्लानी और हीनता के विचार नहीं आने चाहिए| अल्प मात्रा में ही सही जितना हमारे वश में हो सके उतना हमें स्वयं के उदाहरण द्वारा अच्छाई लाने का प्रयास करते रहना चाहिए| अल्प मात्र में ही सही हम अपनी कमियों और बुराइयों को दूर करें, अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दें, उन्हें अपने धर्म और संस्कृति का ज्ञान दें और स्वयं पर गर्व करना सिखाएँ| निश्चित रूप से हमारी कमियाँ दूर होंगी|

मेरे विचार से एक आध्यात्मिक राष्ट्रवाद ही वर्तमान समस्याओं का समाधान है| जीवन का केंद्रबिंदु परमात्मा को बनाकर ही कुछ सकारात्मक किया जा सकता है|

जय माँ भारती | जय सनातन धर्म | जय भारतीय संस्कृति | ॐ ॐ ॐ ||

२८ जुलाई २०१४

हमारा वर्ण, गौत्र और जाति क्या है ?

भीतर के अन्धकार से बाहर निकल कर तो देखो. अपनी चेतना को पूरी सृष्टि में और उससे भी परे विस्तृत कर दो. परमात्मा की अनंतता ही हमारी वास्तविक देह है. ॐ तत्सत् . ॐ ॐ ॐ ..

हे अनंत के स्वामी, हे सृष्टिकर्ता, जीवन और मृत्यु से परे मैं सदा तुम्हारे साथ एक हूँ.
मैं यह भौतिक देह नहीं, बल्कि तुम्हारी अनंतता और परम प्रेम हूँ. ॐ ॐ ॐ ..
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हमारा वर्ण, गौत्र और जाति क्या है ?
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विवाह के उपरांत जैसे पत्नी का गौत्र, वर्ण और जाति वही हो जाती है जो उसके पति की है; वैसे ही परमात्मा को समर्पित होते ही हमारी भी जाति "अच्युत" यानी वही हो जाती है जो परमात्मा की है| जाति, वर्ण आदि तो शरीर के होते हैं, आत्मा के नहीं| हम तो शाश्वत आत्मा हैं, यह देह नहीं; अतः आत्मा की चेतना जागृत होते ही हमारी न तो कोई जाति है, न कोई वर्ण और न कोई गौत्र| उस चेतना में हम शिव हैं, यह शरीर नहीं|
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"जाति हमारी ब्रह्म है, माता-पिता हैं राम|
गृह हमारा शुन्य में, अनहद में विश्राम||"

ब्रह्म यानि परमात्मा के सिवाय हमारी अन्य कोई जाति नहीं हो सकती| परमात्मा के सिवा न हमारी कोई माता है और न हमारा कोई पिता| शुन्य यानि परमात्मा की अनंतता ही हमारा घर है और ओंकार रूपी अनहद की ध्वनि का निरंतर श्रवण ही हमारा विश्राम है|
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वास्तव में यह सारा ब्रह्मांड ही हमारा घर है, और यह समस्त सृष्टि ही हमारा परिवार जिसके कल्याण के लिए हम निरंतर श्रम करते हैं| भगवान परमशिव ही हमारी गति हैं, और वे ही हमारे सर्वस्व हैं| हमारा उनसे पृथक होने का आभास एक मिथ्या भ्रम मात्र है, वे ही एकमात्र सत्य हैं| हम स्वयं को अब और सीमित नहीं कर सकते| हमारा एकमात्र सम्बन्ध भी सिर्फ और सिर्फ परमात्मा से ही है|
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इस दैहिक सांसारिक चेतना से ऊपर उठकर ही हम कोई वास्तविक कल्याण का कार्य कर सकते हैं| हमारे लिए सबसे बड़ी सेवा और सबसे बड़ा यानी प्रथम अंतिम व एकमात्र कर्त्तव्य है .... परमात्मा को उपलब्ध होना| बाकी सब भटकाव है|
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रात्री को सोने से पूर्व भगवान का गहनतम ध्यान कर के सोएँ| सोएँ इस तरह जैसे जगन्माता की गोद में निश्चिन्त होकर सो रहे हो| प्रातः उठते ही एक गहरा प्राणायाम कर के कुछ समय के लिए भगवान का ध्यान करें| दिवस का प्रारम्भ सदा भगवान के ध्यान से होना चाहिए| दिन में जब भी समय मिले भगवान का फिर ध्यान करें| उनकी स्मृति निरंतर बनी रहे| यह शरीर चाहे टूट कर नष्ट हो जाए, पर परमात्मा की स्मृति कभी न छूटे|
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आप सब परमात्मा के साकार रूप हैं, आप सब ही मेरे प्राण हैं| आप सब को नमन|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२७ जुलाई २०१७
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पुनश्चः :---
राष्ट्रहित में यह लिख रहा हूँ| राष्ट्र की जो वर्त्तमान समस्याएँ हैं उनका समाधान यही है कि सर्वप्रथम हम सब में भारत की अस्मिता यानि सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति पर गर्व हो, हम अपने पर थोपे हुए झूठे हीनता के बोध से मुक्त हों| हमें आवश्यकता है एक ब्रह्मतेज की जो साधना द्वारा ही उत्पन्न हो सकता है| हम अपनी चेतना को परमात्मा से जोड़कर ही कोई सकारात्मक रूपांतरण कर सकते हैं, अन्यथा नहीं| भारत एक आध्यात्मिक धर्म-सापेक्ष राष्ट्र है| भारत की आत्मा आध्यात्मिक है, अतः एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति ही भारत का उद्धार कर सकती है|
ॐ ॐ ॐ ||

विश्व का सबसे बड़ा गोसेवा केंद्र -------

July 27, 2014.
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विश्व का सबसे बड़ा गोसेवा केंद्र -------
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कल हरियाली अमावास्या थी| पारंपरिक तौर से प्रकृति प्रेमी हिन्दू लोग हरियाली अमावस्या को वन-विहार के लिए जाते हैं| पर मैंने कुछ गोसेवकों व गोरक्षकों के साथ विश्व के सबसे बड़े गौ सेवा केंद्र श्रीकृष्ण गोपाल गोसेवा समिति (गो चिकित्सालय) नागौर (राजस्थान) जाने और गो चिकित्सालय के संचालक श्री श्री १००८ महामंडलेश्वर स्वामी कुशालगिरी जी महाराज का सत्संग लाभ लेने का निर्णय लिया|
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यह गो चिकित्सालय नागौर-जोधपुर राजमार्ग ६५ पर नागौर से मात्र ४ किलोमीटर दूर है|
वहाँ की शानदार व्यवस्था देखकर मैं हतप्रभ रह गया| विश्व में ऐसा अद्भुत गो सेवा केंद्र अन्यत्र कहीं भी नहीं है| अनाथ, अशक्त, रुग्ण, वृद्ध और असहाय हजारों गायों की सेवा और उपचार का एकमात्र केंद्र है यह|
व्यवसायिक रूप से उपयोगी गायों की सेवा तो सब करते हैं पर व्यवसायिक रूप से अनुपयोगी गायों को हिन्दू लोग ही या तो कसाइयों को बेच देते हैं या मरने के लिए आवारा छोड़ देते हैं| पर इस गोलोक महातीर्थ में एक भी दुधारू गाय नहीं है| हजारों रुग्ण वृद्ध और असहाय गायें हैं जिनकी निरंतर बड़ी आत्मीयता से सेवा होती है|
यहाँ १६ तो पशु अम्बुलेंस हैं जो २०० किलोमीटर तक के क्षेत्र में घायल या रुग्ण गायों को लेकर आती हैं| अनेक गो भक्त पशु चिकित्सक व सैंकड़ों गो सेवक यहाँ दिन रात काम करते हैं| आधुनिकतम अंतर्राष्ट्रीय स्तर की गो सेवा सुविधाएँ यहाँ उपलब्ध हैं|
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प्रत्येक हिन्दू गो सेवक को इस गोलोक महातीर्थ की यात्रा एक बार अवश्य करनी चाहिए| इतना ही नहीं पूरा सहयोग भी करना चाहिए और यहाँ से प्रेरणा लेकर इस तरह के गो चिकित्सालय अन्यत्र भी खोलने चाहियें|
e-mail : godhamsevatirth@gmail.com
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सायंकाल बापस जयपुर होते हुए आये और जयपुर के पास बगरू गाँव की रामदेव गौशाला का भ्रमण किया| मेरे विचार से यह राजस्थान की दूसरी सबसे बड़ी गोशाला है जो परम पूज्य संत शिरोमणी श्री नारायण दास जी महाराज त्रिवेणी धाम के आशीर्वाद, प्रेरणा और जनसहयोग से चलती है| यहाँ निराश्रित गोवंश की भी रक्षा होती है|
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यहाँ अमावस्या भगवन्नाम संकीर्तन में भाग लिया और प्रसाद ग्रहण किया| देर रात्रि को बापस घर लौटे|
जो श्रद्धालु जयपुर आते हैं, उन्हें यदि समय मिले तो इस गोशाला का भ्रमण अवश्य करना चाहिए|
उपरोक्त दोनों स्थानों पर जाने से उतना ही संतोष मिला जितना मथुरा वृन्दावन की तीर्थयात्रा से मिलता है| .
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राजस्थान में विश्व की सबसे बड़ी --- पथमेड़ा की गोशाला का भ्रमण तो अब तक नहीं कर पाया हूँ पर वहाँ के संत स्वामी दत्तशरणानन्द जी महाराज का सतसंग लाभ ले चूका हूँ|

जय गोमाता ! जय गोपाल ! सनातन हिन्दू धर्म की जय हो | भारत माता की जय हो |

२७ जुलाई २०१४

भूत को भगाएँ, न कि उसके शिकार को .......

भूत को भगाएँ, न कि उसके शिकार को .......
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अगर किसी व्यक्ति पर भूत यानि आसुरी प्रेतात्मा चढ़ जाए तो उस व्यक्ति का क्या दोष है? आवश्यकता तो उसे उस भूत से मुक्ति दिलाने की है| वह तो उस भूत का एक शिकार मात्र है|
वह भूत कई रूपों में आता है जैसे किसी आसुरी विचारधारा के रूप में जो कोई मत या सम्प्रदाय या पंथ बन जाती है|

ठन्डे दिमाग से चिंतन करेंगे तो पाएँगे कि बीमारी का कारण उस भूत में है, न कि उस व्यक्ति में| अतः बिना किसी उत्तेजना या क्रोध से शांतिपूर्वक चिंतन मनन कर के पता करें कि कौन तो भूतवाधा से ग्रस्त व्यक्ति हैं और वह भूत क्या है|

फिर यह भी सोचिये कि उस भूत को आप कैसे उतार सकते हैं| अगर आपको बोध हो जाए कि उस भूतबाधा को कैसे दूर कर सकते हैं तो जुट जाइए अपने प्रयास में|

इस समय विश्व पर कुछ असुरों का आधिपत्य छाया हुआ है| वे असुर असत्य और अन्धकार की शक्तियाँ हैं| उस असत्य और अन्धकार को दूर करने का प्रयास करें, ना कि उनके शिकार हुए लोगों को बुरा बताने का|
आशा है आप मेरी बात समझ गए होंगे|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

धरती के स्वर्ग का दुर्भाग्य ......

धरती के स्वर्ग का दुर्भाग्य ......
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कश्यप ऋषि की तपोभूमि कश्मीर जो कभी वैदिक शिक्षा और शैव मत का केंद्र हुआ करती थी आज वहाँ दौलत-ए-इस्लामिया (Islamic State of Iraq & Syria) के काले झंडे लहराए जा रहे हैं| गज़वा-ए-हिन्द की शुरुआत हो चुकी है, और कब यह खुरासान बन जाए कुछ कह नहीं सकते|
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श्रीनगर को सम्राट अशोक ने बसाया था और जब चीनी यात्री ह्वैंसान्ग भारत आया था तो उसने कश्मीर में लगभग ढाई हज़ार प्राचीन मठों के अवशेष देखे थे| पाक अधिकृत कश्मीर में प्रसिद्ध वैदिक शारदा पीठ हुआ करती थी जिसकी अब कैसी स्थिति है, किसी को पता नहीं है|
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कश्मीर के दुर्भाग्य का आरम्भ तब से हुआ जब पश्चिम एशिया में मंगोल आक्रमणकारियों ने वहाँ की मुस्लिम जनसंख्या का जनसंहार करना आरम्भ किया और उनके दबाव से मुस्लिम शरणार्थी कश्मीर आने आरम्भ हुए|
कश्मीर के हिन्दुओं ने उन शरणार्थियों का स्वागत किया और उन्हें वहाँ बसाया| सन १३१३ में शाह मीर नामक एक ईरानी सपरिवार आकर वहाँ बसा| उसके पीछे पीछे जिहादियों के वहाँ आने की शृंखला बन गयी| सूफी बुलबुल शाह अपने साथ दो सौ से अधिक सूफी वहाँ लेकर आये जिन्होनें स्वयं को हिन्दू बताया| उनका एक शागिर्द नुरुद्दीन तो बहुत प्रसिद्ध हुआ था| उन्होंने यह प्रचार किया कि मोहम्मद हिन्दुओं का अवतार है| उन सूफियों ने अपने दुष्प्रचार से बहुत सारे हिन्दुओं को मुसलमान बनाया| इराक के बगदाद से मूसा सैयद ने अपने साथ सैंकड़ों मुसलमान प्रचारकों को वहाँ लाकर बसाया| महाराजा शाहदेव के समय में वहाँ एक गृहयुद्ध छिड़ गया था, जिसका लाभ उठाकर लद्दाख के बौद्ध राजकुमार रिन्छाना ने कश्मीर घाटी पर अधिकार कर लिया| शाहदेव प्राण बचाकर किश्तवाड़ भाग गए| राजकुमार रिन्छाना हिन्दू धर्म में दीक्षित होना चाहते थे पर पंडितों ने मना कर दिया अतः इससे चिढ़कर और सूफियों के प्रभाव से वे मुस्लिम धर्म में दीक्षित हो गए| इसकी पश्चात वहाँ जोरशोर से इस्लाम का प्रचार-प्रसार आरम्भ हो गया| सूफियों और सैयदों के प्रभाव से हिन्दुओं का उत्पीड़न सिकंदर बुतशिकन द्वारा आरम्भ हुआ| इस उत्पीड़न के पीछे ईरानी सूफी मीर अली हमदानी, और तुर्की के सूफी मूसा रेहना का भी दबाव था|
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दस हज़ार मंदिर ध्वस्त कर दिए गए, लाखों ब्राह्मणों की ह्त्या कर दी गयी, जिन लोगों ने इस्लाम कबूलने से इनकार कर दिया उन्हें बोरियों में बंद कर नदियों और झीलों में फेंक दिया गया| हिन्दू संस्कृति और संस्कृत भाषा का कश्मीर से नामोनिशान मिट गया| इस्लामीकरण का क्रम जो आरम्भ हुआ था वह आज भी चल रहा है|
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पंजाब के महाराज रणजीतसिंह जी ने कश्मीर को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था और अपने एक डोगरा राजपूत सेनानायक गुलाब सिंह को वहाँ का महाराजा बना दिया था| महाराजा गुलाब सिंह के समय कश्मीर के सारे मुसलमान बापस हिन्दू धर्म में आना चाहते थे| पर वहाँ के पंडितों ने मना कर दिया और महाराजा गुलाब सिंह से कहा कि यदि आपने मुसलमानों को हिन्दू बनने दिया तो हम सब नदी में डूबकर आत्महत्या कर लेंगे और आपको ब्रह्महत्या का पाप लगेगा| यह एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य था हिन्दुओं का| यदि ऐसा हो जाता तो कश्मीर की कोई समस्या ही नहीं होती|
तथाकथित आज़ादी के बाद तो नेहरू जी ने भी स्पष्ट कह दिया था कि देश का कोई मुसलमान हिन्दू नहीं बन सकता, और यदि कोई संगठन शुद्धि आंदोलन चला रहा है, तो वह हिन्दू धर्म के विरुद्ध है|
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कश्मीर के मुसलमानों के शरीर में खून तो भारतीय ऋषियों का ही है| यह कश्मीरियत और कश्मीरियों का सांप्रदायिक सौहार्द क्या है ? इसे कोई परिभाषित नहीं कर सका है|
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केंद्र में जिस भी दल की सरकार आती है, सत्ता में आते ही उस पर सेकुलरिज्म और तुष्टिकरण का नशा चढ़ जाता है|
बहुत सारी बातें है जिन्हें इस समय लिखना संभव नहीं है| इतना समय भी नहीं है और टाइप करने में भी अब बहुत जोर आता है|
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>>> यह सृष्टि परमात्मा की है, वही इसके लिए जिम्मेदार है| होगा तो वही जो उसकी इच्छा होगी| यदि उसकी यही इच्छा है कि पृथ्वी पर असत्य और अन्धकार का राज्य हो, तो सनातन धर्म विलुप्त हो जाएगा| यदि परमात्मा स्वयं को व्यक्त करना चाहेंगे तो सनातन धर्म की निश्चित रूप से पुनर्स्थापना होगी|
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मैं इस लेख पर की गयी किसी भी टिप्पणी का उत्तर नहीं दूंगा| इतना समय नहीं है| श्रावण का पवित्र महीना है, घर के एकांत में बैठकर या किसी शिवालय में जाकर भगवान शिव का ध्यान करें| अपनी रक्षा करने में हम समर्थ हों, और परमात्मा सदा हमारी रक्षा करें|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
 कृपा शंकर
२५ जुलाई 2017

मल, विक्षेप और आवरण .....

मल, विक्षेप और आवरण .....
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मल >>>>> हमारे पूर्व जन्मों के किये हुए सारे संचित पाप और पुण्य कर्म जो हमारे संस्कारों में परिवर्तित हो गए हैं .... वे मल दोष हैं| हमें उन से मुक्त होना ही होगा| बंधन तो बंधन ही हैं, चाहे वे स्वर्ण के हों या लौह के| बन्धनों से तो मुक्त होना ही होगा|
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विक्षेप >>>>> परमात्मा को परमात्मा न जानकर उसकी रचना यानि संसार को ही जान रहे हैं| आकारों के सौन्दर्य से हम इतने मतिभ्रम हैं कि मूल तत्व को विस्मृत कर गए हैं ..... यह विक्षेप दोष है|
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आवरण >>>>> हम अपने सच्चिदानंद स्वरुप को भूलकर स्वयं को यह देह मान बैठे हैं, यह आवरण दोष है|
मन को एकाग्र कर के सच्चिदानंद पर ध्यान करने से ही ये सब दोष दूर होते हैं| शिष्यत्व की पात्रता होते ही इसके लिए मार्गदर्शन परमात्मा स्वयं ही श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ गुरु के रूप में करते हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२४ जुलाई २०१७

भोजन एक प्रत्यक्ष वास्तविक यज्ञ और ब्रह्मकर्म है ......

भोजन एक प्रत्यक्ष वास्तविक यज्ञ और ब्रह्मकर्म है ......
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हम जो भोजन करते हैं, वास्तव में वह भोजन हम स्वयं नहीं करते, बल्कि भगवान स्वयं ही प्रत्यक्ष रूप से हमारे माध्यम से करते हैं|
भोजन इसी भाव से करना चाहिए कि भोजन का हर ग्रास हवि रूप ब्रह्म है जो वैश्वानर रूपी ब्रह्माग्नि को अर्पित है| भोजन कराने वाले भी ब्रह्म हैं और करने वाले भी ब्रह्म ही हैं| सब प्राणियों की देह में वैश्वानर अग्नि के रूप में, प्राण और अपान के साथ मिलकर चार विधियों से अन्न (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य) ग्रहण कर वे ही पचाते हैं|
अतः भोजन स्वयं की क्षुधा की शांति और इन्द्रियों की तृप्ति के लिए नहीं, बल्कि एक ब्रह्मयज्ञ रूपी ब्रह्मकर्म के लिए है| यज्ञ में एक यजमान की तरह हम साक्षिमात्र हैं| कर्ता और भोक्ता तो भगवान स्वयं ही हैं| गीता में भगवान ने इसे बहुत अच्छी तरह समझाया है|
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ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ||
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ||
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अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: |
प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ||
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>>> गहरे ध्यान में मेरुदंड में एक शीत और ऊष्ण प्रवाह की अनुभूति सभी साधकों को होती है जो ऊपर नीचे बहते रहते हैं, वे ही सोम और अग्नि है, वे ही प्राण और अपान है जिनके समायोजन की प्रक्रिया से प्रकट यज्ञाग्नि वैश्वानर है| भोजन हम नहीं बल्कि वैश्वानर के रूप में भगवान स्वयं करते हैं जिससे समस्त सृष्टि का पालन-पोषण होता है| जो भगवान को प्रिय है वही उन्हें खिलाना चाहिए| कर्ताभाव शनेः शनेः तिरोहित हो जाना चाहिए|
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जैसा मैनें अनुभूत किया और अपनी सीमित व अल्प बुद्धि से समझा वैसा ही मेरे माध्यम से यह लिखा गया| यदि कोई कमी या भूल है तो वह मेरी सीमित और अल्प समझ की ही है| कोई आवश्यक नहीं है कि सभी को ऐसा ही समझ में आये| किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए भगवान से क्षमा याचना करता हूँ|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

एकांत में रहते हुए अंतःकरण को परमात्मा में समाहित कैसे करें ? .....

एकांत में रहते हुए अंतःकरण को परमात्मा में समाहित कैसे करें ? .....
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निज जीवन का अवलोकन करता हूँ तो पाता हूँ कि मेरी ही नहीं सभी साधकों की सबसे बड़ी समस्या यही है| चाहते तो सभी साधक यही हैं कि परमात्मा की चेतना सदा अंतःकरण में रहे पर अवचेतन मन में छिपे हुए पूर्वजन्मों के संस्कार जागृत होकर साधक को चारों खाने चित्त गिरा देते हैं| सभी मानते हैं कि तृष्णा बहुत बुरी चीज है पर तृष्णा को जीतना एक जंगली हाथी से युद्ध करने के बराबर है| यह मन का लोभ सुप्त कामनाओं यानि तृष्णाओं को जगा देता है| तो पहला प्रहार मन के लोभ पर ही करना होगा|
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कहीं न कहीं से कुछ न कुछ तो करना ही होगा| एकमात्र कार्य यही कर सकते हैं कि परमात्मा को सदा स्मृति में रखें व उन्हें ही जीवन का कर्ता बनाएँ| प्रयास तो करना ही होगा|
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सर्वश्रेष्ठ उपाय .......
घर का एक कोना निश्चित कर लें जहाँ सबसे कम शोरगुल हो, और जहाँ परिवार के सदस्य कम ही आते हों| उस स्थान को अपना देवालय बना दें| अधिकाँश समय वहीं व्यतीत करें| जो भी साधन भजन करना हो वहीं करें| बार बार स्थान न बदलें| वह स्थान ही चैतन्य हो जाएगा| वहाँ बैठते ही हम परमात्मा को भी वहीं पायेंगे| और इधर उधर कहीं अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं है| वही स्थान सबसे बड़ा तीर्थ हो जाएगा|
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ नमःशिवाय | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२१ जुलाई २०१७

आज से ३५७ वर्ष पूर्व घटित वीरता की एक महान घटना :---

१३ जुलाई २०१७
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आज से ३५७ वर्ष पूर्व घटित वीरता की एक महान घटना :---
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१३ जुलाई १६६० को भारत के इतिहास में हिन्दू मराठा वीरों की वीरता की एक महान घटना घटित हुई थी जिसे धर्मनिरपेक्षों (सेक्युलरों) के इतिहास में कभी नहीं पढ़ाया जाएगा|
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पन्हाला के किले के पतन के पश्चात छत्रपति शिवाजी अपनी सुरक्षा के लिए विशालगढ़ के किले की ओर अपने सेनापती बाजी प्रभु देशपांडे और ३०० मराठा सैनिकों के साथ प्रस्थान कर रहे थे| उनका पीछा मुग़ल सेनापती सिद्दी जौहर अपने हजारों सिपाहियों के साथ कर रहा था| लगता था कि शत्रु सेना किसी भी क्षण पास में आ सकती है|
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बाजी प्रभु देशपांडे ने अति आग्रह कर के शिवाजी को विशालगढ़ सुरक्षित पहुँच जाने को कहा और स्वयं अपने ३०० सिपाहियों के साथ हजारों की संख्या वाली मुग़ल सेना का सामना करने को रुक गया| अपने सैनिकों के साथ दोनों हाथों में तलवारें लिए हुए उस वीर योद्धा ने मुग़ल सेना को तब तक रोके रखा जब तक शिवाजी के सुरक्षित पहुँचने की सूचना देने के लिए विशालगढ के किले से तोप नहीं दागी गयी| उसके पश्चात् युद्ध करते हुए वह योद्धा अपने सभी सिपाहियों के साथ वीर गति को प्राप्त हुआ|
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उसकी वीरता और बलिदान से शिवाजी महाराज के प्राण बचे और वे भारत की स्वाधीनता के लिए और अनेक युद्ध करने को जीवित रहे|
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हर हर महादेव ! भारत माता की जय !
१३ जुलाई २०१७

Saturday 15 July 2017

इफ्तार की दावतों का दौर .....

इफ्तार की दावतों का दौर .....
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मैं तो फूल हूँ .. मुरझा गया तो मलाल कैसा, तुम तो महक हो...तुम्हें अभी हवाओं में समाना है....
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आजकल इफ्तार पार्टियों का खूब फैशन सा चल रहा है| जिस को देखो वो ही इफ्तार पार्टी दे रहा है| मेरे पास भी यदि खूब रुपये पैसे होते तो मैं भी खूब धूमधाम से इफ्तार पार्टी देता|
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मेरे ह्रदय में मेरे मुस्लिम मित्रों सहित सब के प्रति खूब प्रेम और सद्भावना है, किसी भी तरह का कोई द्वेष किसी के लिए भी नहीं है|
भगवान सब का कल्याण करे| सब का ह्रदय प्रेम, करुणा, शांति, भाईचारा, सब के भले और सब के प्रति सम्मान के भाव से कूट कूट कर भर दे| सब के प्रति सब के ह्रदय में सच्चा प्रेम हो और किसी के प्रति भी किसी में कोई द्वेष न हो| सारे अच्छे से अच्छे मानवीय गुण सब में आ जाएँ| सब अच्छे से अच्छे इंसान बनें और किसी में कोई भी बुराई का अवशेष ना रहे|
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जो राजनेता और व्यापारी लोग इफ्तार पार्टी देते हैं उन्हें उस दिन ईमानदारी से रोजा भी रखना चाहिए और सार्वजनिक रूप से नमाज़ भी पढनी चाहिए| समाचार पत्रों में छपे चित्रों के अनुसार ये लोग उस समय एक जालीदार तुर्की टोपी पहन कर एक लाल सा गमछा ओढ़ लेते हैं जिसका क्या उद्देश्य है यह मुझे पता नहीं| मेरा एक सुझाव है कि इनको जालीदार गोल तुर्की टोपी और लाल गमछे के साथ साथ एक चेक वाली तहमद या टखनों से ऊँची सलवार या पायजामा भी पहनना चाहिए| इससे वे और भी शानदार लगेंगे| पूरे दिन रोजा रखकर और सार्वजनिक नमाज़ पढ़कर ही इन्हें इफ्तार में शामिल होना चाहिए, इससे और भी अधिक सद्भाव बढेगा|
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इन इफ्तार पार्टी करने वाले राजनेताओं व्यापारियों को नवरात्रों में कन्याओं को भोजन भी कराना चाहिए, श्रावण के महीने में शिव जी पर जल भी चढ़ाना चाहिए और कभी कभी हिन्दू त्योहारों पर सार्वजनिक पूजा, गीताज्ञान यज्ञ और भंडारे भी करने चाहिएं|
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सद्भावना का उदाहरण देखना है तो हमारे नगर में रामनवमी के जुलुस में देखो जहाँ मुसलमान भाई जुलुस में शामिल सब हिन्दुओं को बोतलबंद शीतल पेय भी पिलाते हैं और मिश्री का प्रसाद भी बाँटते हैं| किसी भी तरह का कोई लड़ाई झगड़ा नहीं है| ऐसा सद्भाव और भाईचारा सब जगह हो|
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सब सुखी हों, सब निरोगी हों, किसी को कोई दुःख या पीड़ा ना हो, सब के ह्रदय में सद्भावना हो| भगवान सब का भला करे|
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यह लेख प्रस्तुत करने का मेरा एकमात्र उद्देश्य यह बताना है कि किसी को किसी के प्रति भी द्वेष नहीं रखना चाहिए| राग और द्वेष ये दो ही पुनर्जन्म यानि इस संसार में बारम्बार आने के कारण हैं| जिससे भी हम द्वेष रखते हैं, अगले जन्म में उसी के घर जन्म लेना पड़ता है| जिस भी परिस्थिति और वातावरण से भी हमें द्वेष हैं वह वातावरण और परिस्थिति हमें दुबारा मिलती है|
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बुराई का प्रतिकार करो, युद्धभूमि में शत्रु का भी संहार करो पर ह्रदय में घृणा बिलकुल भी ना हो|
परमात्मा को कर्ता बनाकर सब कार्य करो| कर्तव्य निभाते हुए भी अकर्ता बने रहो| सारे कार्य परमात्मा को समर्पित कर दो, फल की अपेक्षा या कामना मत करो|

ॐ शांति शांति शांति ||

१५ जुलाई २०१६

Friday 14 July 2017

पिंजरे में बँधे पक्षी और सामान्य मनुष्य में कोई अंतर नहीं है ......

पिंजरे में बँधे पक्षी और सामान्य मनुष्य में कोई अंतर नहीं है ........
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सामान्यतः मनुष्य का जन्म ही इसी कारण होता है कि वह अपनी अतृप्त कामनाओं का दास है| वह जन्म ही दास के रूप में लेता है| कामनाएँ सबसे विकट अति सूक्ष्म अदृष्य बंधन हैं|
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कामनाओं में बंध कर हम स्वतः ही गुलाम बन जाते हैं, इसके लिए किसी भी प्रयास की आवश्यकता नहीं पड़ती है| जब कि स्वतंत्रता के लिए हमें अत्यंत दीर्घकालीन प्रयास करने पड़ते हैं| जो निरंतर बिना थके प्रयासरत रहते हैं, वे ही स्वतंत्र हो पाते हैं|
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स्वतंत्रता अपना मूल्य माँगती हैं, वह निःशुल्क नहीं होती| जीवन में जो कुछ भी मूल्यवान है उसकी कीमत चुकानी पडती है| बंधन में बंधना कोई दुर्भाग्य नहीं है, दुर्भाग्य है ..... मुक्त न होने का प्रयास करना|
गुलाम होकर जन्म लेना कोई दुर्भाग्य नहीं है, पर गुलामी में मरना वास्तव में दुर्भाग्य है|
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जीवन में तब तक कोई आनंद या संतुष्टि नहीं मिल सकती जब तक हम अपनी आतंरिक स्वतंत्रता को प्राप्त ना कर लें|
कामनाओं में बंधे होना ही वास्तविक परतंत्रता है| कामनाओं में बंधे मनुष्य और पिंजरे में बंधे पक्षी में कोई अंतर नहीं है| पराधीन मनुष्य कभी मुक्ति का आनंद नहीं ले सकता| वास्तविक स्वतन्त्रता सिर्फ परमात्मा में ही है, अन्यत्र कहीं नहीं|

ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ ||

१५ जुलाई २०१६

आरम्भ तो स्वयं को ही करना होगा .....

आरम्भ तो स्वयं को ही करना होगा .....
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अंतःकरण की शुद्धि ही यम-नियमों का उद्देश्य है| अंतःकरण की शुद्धि के बिना कोई भी आध्यात्मिक साधना सफल नहीं हो सकती| विशुद्ध भक्ति व् सत्संग से भी अंतःकरण शुद्ध हो सकता है| हर प्रकार की कामनाओं से स्वयं को मुक्त करना ही होगा| अभ्यास और वैराग्य इसके लिए आवश्यक है| अभ्यास है अपने इष्ट देव की निरंतर उपस्थिति का बोध और निरंतर स्मरण, उसके सिवाय अन्य किसी का नहीं| किसी भी तरह के संकल्प-विकल्प से बचना होगा| संकल्प ही कामनाओं को जन्म देते हैं|
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हमें स्वयं को ही स्वयं का उद्धार करना होगा, कोई दूसरा नहीं आयेगा| हम स्वयं ही अपने शत्रु और मित्र हैं| ईश्वर को भी उपलब्ध हम स्वयं ही स्वयं को करा सकते हैं, कोई दूसरा यह कार्य नहीं कर सकता| सांसारिक कार्यों में बंधू-बांधव व मित्र काम आ सकते हैं, पर आध्यात्मिक साधनाओं में अधिक से अधिक वे इतना ही कर सकते हैं की हम को परेशान नहीं करें| बाकी का काम तो स्वयं हमारा ही है|
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प्रमाद और दीर्घसूत्रता से बचें| भक्तिसुत्रों के आचार्य देवर्षि नारद के गुरु और ब्रह्मविद्या के आचार्य भगवान सनत्कुमार ने प्रमाद और दीर्घसूत्रता को साधक का सबसे बड़ा शत्रु बताया है| स्वाध्याय में प्रमाद कदापि नहीं करना चाहिए|
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जब हम स्वयं पूर्ण निष्ठा से साधना करेंगे तो गुरु महाराज और स्वयं परमात्मा भी हमारा स्थान ले लेंगे| फिर साधना वे ही करेंगे| पर आरम्भ तो स्वयं को ही करना होगा|
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ॐ तत्सत | ॐ ॐ ॐ ||

१४ जुलाई २०१७

Thursday 13 July 2017

मैं अहर्निश किस का चिंतन करूँ ? .....

मैं अहर्निश किस का चिंतन करूँ ? .....
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भगवान आचार्य शंकर स्वयं से यह प्रश्न पूछते हैं ...... अहर्निशं किं परिचिन्तनीयम् ?
फिर स्वयं ही इसका उत्तर भी दे देते हैं ..... संसार मिथ्यात्वशिवात्मतत्त्वम् |
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यह संसार एक मृगतृष्णा है| इसे पार करने के लिए न तो किसी नौका की आवश्यकता है और न ही तैरने की| अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही इसे पार करना है|
पर आत्मस्वरूप में स्थित कैसे हों ? इसका उत्तर भी यही होगा कि संसार की अनित्यता का बार बार चिंतन कर के परमात्मा परमशिव का आत्मस्वरूप से अनुसंधान करें|
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यह देह एक साधन मात्र है| इसको व्यस्त रखो और उतना ही खाने को दो जितना इसके लिए आवश्यक है, अन्यथा यह एक धोखेबाज मित्र है जो कभी भी धोखा दे सकता है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कूटस्थ चैतन्य ..... (संशोधित व पुनर्प्रस्तुत लेख)..


..................................... (संशोधित व पुनर्प्रस्तुत लेख) ......................
कूटस्थ चैतन्य .....
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, और जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करते रहें| कुछ महिनों की साधना के पश्चात् विद् युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से एक है|
(इसकी साधना श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ महात्मा के सान्निध्य में ही करें).
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आज्ञाचक्र ही योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होता है, वह स्थान कूटस्थ बिंदु (शिखा स्थान) है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष के ऊपर खोपड़ी के मध्य में पीछे की ओर का भाग है जहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ आकर मस्तिक से मिलती हैं| यहीं जीवात्मा का निवास है|
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कूटस्थ में परमात्मा सदा हमारे साथ हैं| हम सदा कूटस्थ चैतन्य में रहें| कूटस्थ में समर्पित होने पर ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है जिसमें हमारी चेतना परम प्रेममय हो समष्टि के साथ एकाकार हो जाती है| हम फिर परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं| परमात्मा सब गुरुओं के गुरु हैं| उनसे प्रेम करो, सारे रहस्य अनावृत हो जाएँगे| हम भिक्षुक नहीं हैं, परमात्मा के अमृत पुत्र हैं| एक भिखारी को भिखारी का ही भाग मिलता है, पुत्र को पुत्र का| पुत्र के सब दोषों को पिता क्षमा तो कर ही देते हैं, साथ साथ अच्छे गुण कैसे आएँ इसकी व्यवस्था भी कर ही देते हैं|
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भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं ....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं" ||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|
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आगे भगवान कहते हैं .....
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च,
मूधर्नायाधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम् |
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्,
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्" ||
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|
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पढने में तो यह सौदा बहुत सस्ता और सरल लगता है कि जीवन भर तो मौज मस्ती करेंगे, फिर मरते समय भ्रूमध्य में ध्यान कर के ॐ का जाप कर लेंगे तो भगवान बच कर कहाँ जायेंगे? उनका तो मिलना निश्चित है ही| पर यह सौदा इतना सरल नहीं है| देखने में जितना सरल लगता है उससे हज़ारों गुणा कठिन है| इसके लिए अनेक जन्म जन्मान्तरों तक अभ्यास करना पड़ता है, तब जाकर यह सौदा सफल होता है|
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यहाँ पर महत्वपूर्ण बात है निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना| यह एक दिन का काम नहीं है| इसके लिए हमें आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा| उपरोक्त तथ्य के समर्थन में किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, भगवान का वचन तो है ही, और सारे उपनिषद्, शैवागम और तंत्रागम इसी के समर्थन में भरे पड़े हैं|
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ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ ||

कूटस्थ चैतन्य .....

कूटस्थ चैतन्य .....
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीपतम लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) पूर्व में (२८ जून को) बताई विधि से प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करते रहें| विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धी में से है|
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आज्ञाचक्र ही योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होता है, वह स्थान कूटस्थ बिंदु है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष के ऊपर खोपड़ी के मध्य में पीछे की ओर है| यही जीवात्मा का निवास है|
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इसकी साधना ब्रह्मनिष्ठ महात्मा के सान्निध्य में ही करें|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||


१३ जुलाई २०१५

कर्म और कर्म फल .......

कर्म और कर्म फल .......
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कितने भी संचित कर्मों का अवशेष हो इसकी चिंता न कर सर्वप्रथम प्रभु को उपलब्ध हों, यानि ईश्वर को प्राप्त करने के निमित्त बनें अपनी पूर्ण शक्ति से| कर्मों की चिंता जगन्माता को करने दो| सृष्टि को जगन्माता अपने हिसाब से चला रही है| वे अपनी सृष्टि चलाने में सक्षम हैं, उन्हें हमारी सलाह की आवश्यकता नहीं है|
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कर्मों के बंधन तभी तक हैं जब तक अहंकार और मोह है| इनके नष्ट होने पर हम अच्छे-बुरे सभी कर्मों से मुक्त हैं|
>
छोटी मोटी प्रार्थनाओं से कुछ नहीं होने वाला, गहन ध्यान में उतरो|
अहैतुकी परम प्रेम और पूर्ण समर्पण ................ इससे कम कुछ भी नहीं |
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||


जुलाई १३, २०१५

ध्यान साधना में आत्म निरीक्षण .......

ध्यान साधना में आत्म निरीक्षण .......
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साधना के हर क़दम पर साधक को पता होना चाहिए कि वह कितने पानी में है| स्वयं को धोखा नहीं देना चाहिए| ध्यान की हम कितनी गहराई में हैं, इसका निश्चित मापदंड है| उस मापदंड की कसौटी पर हम स्वयं को कस कर देख सकते हैं कि हम प्रगति कर रहे हैं या अवनति|
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ध्यान में ज्योति का दिखाई देना और नाद का सुनाई देना तो अति सामान्य बात है, कोई बड़ी प्रगति की निशानी नहीं| असली कसौटी है ..... "निरंतर अलौकिक आनंद और प्रफुल्लता की अनुभूति"| यदि जीवन में उदासी है, आनंद और प्रफुल्लता नहीं है, तो यह निश्चित है कि हम उन्नति नहीं कर रहे हैं, बल्कि हमारी अवनति ही हो रही है|
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कौन परमात्मा के आनंद में है और कौन नहीं इसका भी स्पष्ट लक्षण है इससे हम स्वयं को या किसी को भी जाँच सकते हैं| जो व्यक्ति जीवन में आनंदित और प्रसन्न है, उसके ये लक्षण हैं ....

(१) उसके भोजन की मात्रा संयमित हो जाती है| थोड़े से अल्प सात्विक भोजन से ही उसे तृप्ति हो जाती है| स्वाद में उसकी रूचि नहीं रहती| उसकी देह को अधिक भोजन की आवश्यकता भी नहीं पड़ती| वह उतना ही खाता है जितना देश के पालन-पोषण के लिए आवश्यक है, उससे अधिक नहीं|
(२) उसकी वाचालता लगभग समाप्त हो जाती है| वह फालतू बातचीत नहीं करता| गपशप में उसकी कोई रूचि नहीं रहती| परमात्मा की स्मृति उसे निरंतर बनी रहती है| फालतू की बातचीत से परमात्मा की स्मृति समाप्त हो जाती है|
(३) उसमें दूसरों के प्रति दुर्भावना और वैमनस्यता समाप्त हो जाता है| सभी के प्रति सद्भावना उसमें जागृत हो जाती है| उसकी सजगता, संवेदनशीलता और करुणा बढ़ जाती है| दूसरों को सुखी देखकर उसे प्रसन्नता होती है| दूसरों के दुःख से उसे पीड़ा होती है| उसे किसी से द्वेष नहीं होता|
(४) उसके श्वास-प्रश्वास की मात्रा कम हो जाती है और उसे विस्तार की अनुभूतियाँ होने लगती हैं| बार बार उसे यह लगता है कि वह यह शरीर नहीं है बल्कि समष्टि के साथ एक है|
(५) सगे-सम्बन्धियों, घर-परिवार, धन-संपत्ति और मान-बडाई में उसका मोह लगभग समाप्त होता है| मोह का समाप्त होना बहुत बड़ी उपलब्धि है|
(६) उसकी इच्छाएँ और कामनाएँ लगभग समाप्त हो जाती हैं| वह जीवन में सदा संतुष्ट रहता है| जीवन में संतोष धन का होना बहुत बड़ी उपलब्धि है| उसकी कोई पृथक इच्छा नहीं रहती, परमात्मा की इच्छा ही उसकी इच्छा हो जाती है| इससे उसके जीवन में कोई दुःख नहीं रहता, और वह सदा सुखी रहता है|
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है .... "यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||" इस विषय में किसी को कोई भी संदेह है तो उसे गीता के छठे अध्याय का अर्थ सहित पाठ और मनन करना चाहिए| भगवान श्रीकृष्ण ने इस विषय पर बहुत अधिक प्रकाश डाला है| भगवान् श्रीकृष्ण सभी गुरुओं के गुरु हैं| उनसे बड़ा कोई अन्य गुरु नहीं है| गीता के अध्ययन से सारे संदेह दूर हो जाते हैं|
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उपरोक्त आत्म-निरीक्षण से यानि उपरोक्त कसौटियों पर कसकर हम स्वयं में या किसी अन्य में भी जाँच सकते हैं कि कितनी आध्यात्मिक उन्नति हुई है|
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आप सब को सादर प्रणाम ! परमात्मा की आप सब साक्षात् साकार अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब मेरे भी प्राण हैं| आप सब की जय हो|
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१३ जुलाई २०१७

Wednesday 12 July 2017

एक विचार ..... (समाज और राष्ट्र की अवधारणा)

एक विचार ..... (समाज और राष्ट्र की अवधारणा)
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भारत में समाज और राष्ट्र की अवधारणा दुर्भाग्य से लगभग चौदह-पंद्रह सौ वर्षों पूर्व क्षीण हो गयी थी| वह एक घोर अज्ञान व अन्धकार का युग था इसीलिए हमें पिछले एक हज़ार वर्षों में पराजित और विदेशी लुटेरों का शिकार होना पडा| इसका दोष हम दूसरों पर नहीं डाल सकते| यदि पर्वत शिखर से बहता हुआ जल नीचे खड्डों में आता है तो खड्डे पहाड़ से क्या शिकायत कर सकते है? स्वयं की रक्षा के लिए खड्डे को ही शिखर बनना पडेगा| निर्बल को सब सताते हैं| संगठित और सशक्त राष्ट्र की ओर आँख उठाकर देखने का साहस किसी में नहीं होता|
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भारत में जब तक राष्ट और समाज हित की अवधारणा थी, तब तक किसी का साहस नहीं हुआ भारत की ओर आँख उठाकर देखने का| बिना किसी पूर्वाग्रह के यदि हम इतिहास का अध्ययन और विश्लेषण करें तो पायेंगे कि हमारी ही कमी थी जिसके कारण हम गुलाम हुए| वे कारण अब भी अस्तित्व में हैं पर कुछ कुछ चेतना अब धीरे धीरे समाज में आ रही है|
>
आप चाहे कितनी भी सद्भावना सब के लिए रखो पर हिंसक और दुष्ट प्राणियों के साथ नही रह सकते| ऐसे ही हमारे सारे कार्य यदि राष्ट्रहित में हों तो हमें प्रगति के शिखर पर जाने से कोई नहीं रोक सकता| इस बिंदु पर सब को स्वयं मंथन करना पड़ेगा|
>
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सब राष्ट्र अपना निज हित देखते हैं| कोई किसी का स्थायी शत्रु और मित्र नहीं होता| जो भावुकता में निर्णय लिए जाते हैं वे आत्म घातक होते हैं| वैसे ही यदि हम अपने लोभ लालच, जातिवाद और प्रांतवाद से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में कार्य करें तो हमें विकसित होने से कोई नहीं रोक सकता|
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भारत का वेदान्त दर्शन समष्टि के हित की बात करता है| यदि पूरा विश्व ही समष्टि के हित की सोचे तो यह सृष्टि ही स्वर्ग बन जाएगी पर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि यह सृष्टि विपरीत गुणों से बनी है| सारा भौतिक जगत ही सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा से निर्मित है| बुराई और भलाई दोनों ही विद्यमान रहेगी| हमें ही इस द्वंद्व से ऊपर उठना पडेगा|
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सभी निजात्मगण को नमन| सब का कल्याण हो|
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ॐ तत्सत ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
जुलाई ०८, २०१६

अंतःकरण शुद्ध कैसे हो ? .....

अंतःकरण शुद्ध कैसे हो ? .....
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निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा|
परमात्मा की कृपा प्राप्त हो इसके लिए अंतःकरण की शुद्धि प्रथम आवश्यकता है| यही चित्त-वृत्तियों का निरोध और मन चंगा करने की बात का भावार्थ है|
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मन ही हम मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है| घर में कोई अतिथि आने वाला हो तो हम घर की साफ़-सफाई करते हैं, यहाँ तो हम साक्षात् परमात्मा को निमंत्रित कर रहे हैं| भगवान तो सर्वत्र हैं , फिर भी दिखाई नहीं देते| इसका कारण हमारे मन रूपी अंतःकरण की मलिनता है| और कुछ भी नहीं|
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अंतःकरण में परमात्मा की निरंतर उपस्थिति ही हमारे अंतकरण को शुद्ध कर सकती है, अन्य कोई उपाय नहीं है| लौकिक चेतना में हमारे समस्त कर्म हमारी कामनाओं द्वारा ही संचालित होते हैं, और हमारी कामनाओं का कारण हमारा अज्ञान है| हमें सच्चिदानंद और अपनी आनंदरूपता का बोध न होना ही हमारा अज्ञान है| जब तक अंतःकरण की शुद्धि नहीं होगी तब तक अज्ञान दूर नहीं हो सकता| यह अज्ञान ही हमारे सब बंधनों का कारण है|
पर अंतःकरण शुद्ध कैसे हो?

हम निश्चय कर के निरंतर प्रयास से परमात्मा को हर समय अपने ह्रदय में रखें, परमात्मा की ह्रदय में निरंतर उपस्थिति ही हमारे अंतकरण को शुद्ध कर सकती है, अन्य कोई उपाय नहीं है|

उस अवर्णनीय अनंत अगम्य अगोचर अलक्ष्य अपार प्रेमास्पद परमात्मा को नमन, जो मेरा अस्तित्व है, और मेरे ही नहीं, सभी के ह्रदयों में बिराजमान है|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा का निरंतर ध्यान ही हमारा वास्तविक Business है .....

परमात्मा का निरंतर ध्यान ही हमारा वास्तविक Business है .....
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"Business" शब्द का सही अर्थ होता है .... "सरोकार", यानि वह कार्य जिसमें कोई स्वयं को व्यस्त रखता है| हिंदी में उसका अनुवाद .... "व्यापार" .... शब्द गलत है|
एक बार एक भारतीय साधू से किसी ने अमेरिका में पूछा .... Sir, What is your business ?
उस साधू का उत्तर था .... I have made it my business to find God.
हमारी व्यक्तिगत साधना हमारा सरोकार है, व्यापार नहीं| परमात्मा को पाने का सतत प्रयास ही हमारा वास्तविक Business है |
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व्यवहारिक रूप से व्यापार तो कुछ लाभ पाने के लिए होता है| पर आध्यात्म में तो कुछ पाने के लिए हैं ही नहीं, यहाँ तो सब कुछ देना ही देना पड़ता है| यहाँ तो अपने अहंकार और राग-द्वेष को मिटाना यानि समर्पित करना पड़ता है| वास्तविक भक्ति अहैतुकी होती है| कुछ माँगना तो एक व्यापार है, प्रेम नहीं| परम प्रेम ही भक्ति है, भक्ति में कोई माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है| जहाँ कोई माँग उत्पन्न हो गयी वहाँ तो व्यापार हो गया|
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योग साधना में ..... सुषुम्ना में जागृत पराशक्ति विचरण करते हुए हमें ही जगाती है | सभी चक्रों को भेदते हुए सहस्त्रार में परमशिव तक जाकर बापस लौट आती है | इसके आरोहण और अवरोहण के साक्षी मात्र रहें, कर्ताभाव से मुक्त हों | गुरु प्रदत्त बीज मन्त्र का जप गुरुप्रदत्त विधि से निरंतर चलता रहे | चेतना को आज्ञाचक्र से ऊपर रखते हुए ही ध्यानस्थ हो जाएँ |
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हे अगम्य, अगोचर, अलक्ष्य, अपार, सर्वव्यापी परमात्मा परम शिव, हे नारायण, यह सर्वव्यापी हृदय ही तुम्हारा घर है| तुम्हारी सर्वव्यापकता ही मेरा हृदय और मेरा अस्तित्व है| तुम अपरिभाष्य और अवर्णनीय हो| तुम्हे भी नमन, और स्वयं को भी नमन ! ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ ||

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"Business" शब्द का सही अर्थ होता है .... "सरोकार", यानि वह कार्य जिसमें कोई स्वयं को व्यस्त रखता है| हिंदी में उसका अनुवाद .... "व्यापार" .... शब्द गलत है|
एक बार एक भारतीय साधू से किसी ने अमेरिका में पूछा .... Sir, What is your business ?
उस साधू का उत्तर था .... I have made it my business to find God.
हमारी व्यक्तिगत साधना हमारा सरोकार है, व्यापार नहीं| परमात्मा को पाने का सतत प्रयास ही हमारा वास्तविक Business है |
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व्यवहारिक रूप से व्यापार तो कुछ लाभ पाने के लिए होता है| पर आध्यात्म में तो कुछ पाने के लिए हैं ही नहीं, यहाँ तो सब कुछ देना ही देना पड़ता है| यहाँ तो अपने अहंकार और राग-द्वेष को मिटाना यानि समर्पित करना पड़ता है| वास्तविक भक्ति अहैतुकी होती है| कुछ माँगना तो एक व्यापार है, प्रेम नहीं| परम प्रेम ही भक्ति है, भक्ति में कोई माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है| जहाँ कोई माँग उत्पन्न हो गयी वहाँ तो व्यापार हो गया|
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योग साधना में ..... सुषुम्ना में जागृत पराशक्ति विचरण करते हुए हमें ही जगाती है | सभी चक्रों को भेदते हुए सहस्त्रार में परमशिव तक जाकर बापस लौट आती है | इसके आरोहण और अवरोहण के साक्षी मात्र रहें, कर्ताभाव से मुक्त हों | गुरु प्रदत्त बीज मन्त्र का जप गुरुप्रदत्त विधि से निरंतर चलता रहे | चेतना को आज्ञाचक्र से ऊपर रखते हुए ही ध्यानस्थ हो जाएँ |
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हे अगम्य, अगोचर, अलक्ष्य, अपार, सर्वव्यापी परमात्मा परम शिव, हे नारायण, यह सर्वव्यापी हृदय ही तुम्हारा घर है| तुम्हारी सर्वव्यापकता ही मेरा हृदय और मेरा अस्तित्व है| तुम अपरिभाष्य और अवर्णनीय हो| तुम्हे भी नमन, और स्वयं को भी नमन ! ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ ||

यहूदी मज़हब बदनाम क्यों हुआ ? .....

यहूदी मज़हब बदनाम क्यों हुआ ? .....
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यहूदी, ईसाईयत और इस्लाम .... ये तीनों ही अब्राहमिक मत हैं| यहूदी एक व्यापारी कौम थी जिनका पश्चिमी एशिया, उत्तरी अफ्रीका और प्रायः सारे यूरोप में खूब बोलबाला था| अधिकाँश व्यापार इन लोगों के हाथ में ही था, और ये लोग जबरदस्त सूदखोर थे| ईसा मसीह स्वयं एक यहूदी थे पर उनको इन सूदखोर लोगों से इतनी घृणा थी कि उन्होंने सूदखोरी का सदा विरोध किया|
इनकी सूदखोरी के कारण ही इस्लाम ने भी सदा इनका विरोध किया| सूद बसूलने में ये यहूदी बड़े निर्दयी थे| यहूदियों ने सूदखोरी कर कर के लोगों को खूब लूटा, इसी कारण अन्य मतावलंबियों में इनके प्रति घृणा भर गयी|
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अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक शेक्सपीयर ने अपना नाटक Merchant of Venice यहूदियों की सूदखोरी के विरुद्ध ही लिखा था| इनको अपने सूद यानी ब्याज की रकम से इतना अधिक प्यार था कि उसके समक्ष इनका राष्ट्रीय हित भी गौण था| इसीलिये जर्मनी में ईसाईयों को इनसे घृणा हो गयी थी|
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इन्होनें अन्य सब मतों का सदा विरोध किया और उन्हें बदनाम करने का भी प्रयास किया| East India Company में भी अधिकाँश धन यहूदियों का ही था| वे इस कंपनी के लगभग मालिक ही थे| कार्ल मार्क्स भी एक यहूदी था| इतिहास में इनके धर्मगुरु भी सदा से ही सनातन धर्म के विरोधी रहे है
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आज भारत को अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए इजराइल का साथ आवश्यक है| इसलिए मैं भारत-इजराइल मित्रता का समर्थक हूँ| पर हमें अधिक अपेक्षा उनसे नहीं रखनी चाहिए| जितनी हमें इजराइल की आवश्यकता है, उस से अधिक इजराइल को भारत की आवश्यकता है| हमें उन से सैन्य और कृषि तकनीक लेकर आत्मनिर्भर हो जाना चाहिए| अंततः यहूदी हैं तो असुर ही, पता नहीं उनका असुरत्व कब जागृत हो जाए| अन्य असुरों के विरुद्ध ही हमें उनकी सहायता चाहिए| पर लम्बे समय में ये हमारे मित्र और समर्थक नहीं रहेंगे|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
५ जुलाई २०१७

मानसिक व्यभिचार से बचें .....

मानसिक व्यभिचार से बचें .....
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मन में बुरी बुरी कल्पनाओं का आना, और उन कल्पनाओं में मन का लगना मानसिक व्यभिचार है| यह मानसिक व्यभिचार ही भौतिक व्यभिचार में बदल जाता है| यह मानसिक व्यभिचार आध्यात्म मार्ग की सबसे बड़ी बाधा तो है ही लौकिक रूप से भी समाज में दुराचार फैलाता है|
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इससे कैसे बचें इसका निर्णय प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ले| आजकल किसी को कुछ कहना भी अपना अपमान करवाना है| समाज का वातावरण बहुत अधिक खराब है| बड़े बड़े धर्मगुरु भी अपनी बात कहते हुए संकोच करते हैं|
फेसबुक पर तो अपनी वॉल पर यह बात लिख सकता हूँ, पर किसी को कुछ कहने का अर्थ है गालियाँ, तिरस्कार और अनेक अपमानजनक शब्दों को निमंत्रित करना| आज के युग में व्यक्ति स्वयं को बचाकर रखे, और उपदेश ही देना है तो अपने बच्चों को ही दे, और किसी को नहीं| आजकल तो स्वयं के बच्चे भी नहीं सुनते| इतना लिख दिया यही बहुत है|
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"तेरे भावें कछु करे भलो बुरो संसार |
नारायण तून बैठ के अपनों भवन बुहार ||"
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

विरही को कहीं सुख नहीं है ...

विरही को कहीं सुख नहीं है ....
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"कबीर बिछड्या राम सूँ , ना सुख धूप न छाँह" |
सुख सिर्फ राम में ही है, बाकी सब मृगतृष्णा है| विरही को कहीं सुख नहीं है|
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नैनन की करि कोठरी पुतली पलंग विछाय | पलकों की चिक डारिकै पिय को लिया रिझाय ||
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पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात | देखत ही छिप जाएगा ज्यों तारा परभात ||
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ॐ ॐ ॐ ||

अंतमति सो गति, पर अंतमति कैसी होती है ......

अंतमति सो गति, पर अंतमति कैसी होती है ......
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भगवान का वचन है कि अंतकाल में जो मेरा स्मरण करते हुए मरते हैं वे मुझे ही प्राप्त होते हैं| अब प्रश्न यह है कि प्रयाणकाल में क्या भगवान सचमुच याद आते हैं ?
भगवान के वचन हैं ....
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||
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हम स्वयं को यह सोचकर मूर्ख न बनाएँ कि जीवन भर तो मौज-मस्ती करेंगे और जब हाथ-पैर नहीं चलेंगे तब अपना समय आयेगा और भगवान का नाम लेते लेते मर जायेंगे|
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अंतिम समय बड़ा भयंकर होता है| मनुष्य शारीरिक या मानसिक कष्ट या मूर्छा में ही प्राण त्यागता है| उस समय भगवान तभी याद आते हैं यदि जीवन में दीर्घकाल तक उनका स्मरण चिंतन करते करते हम देहाभिमान से मुक्त हो गए हों, अन्यथा नहीं|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

दो मिनट का मौन .....

दो मिनट का मौन .....
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दो मिनट मौन रखकर किसी भी दिवंगत आत्मा के लिए श्रद्धांजली देने से मृतात्मा को कोई शांति नहीं मिलती है| यह एक पाश्चात्य परम्परा और दिखावा मात्र है, जिसका सनातन धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है|
अगर किसी दिवंगत आत्मा को वास्तव में शान्ति पहुँचानी है तो उसके लिए संकल्प कर के कम से कम एक घंटे तक भगवान का नाम-जप करना चाहिए, और किसी अच्छे पुरोहित से यज्ञ/हवन और श्राद्ध करवाना चाहिए|
यज्ञ/हवनआदि संभव न हो तो भी दिवंगत आत्मा की शांति के लिए संकल्प लेकर कुछ देर नाम-जप व गीता या रामचरितमानस का पाठ तो तो अवश्य ही करना चाहिए|

शरणागति .....

शरणागति .....
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भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समस्त ज्ञान देकर अंत में परम गोपनीय से गोपनीय, और गूढ़तम से गूढ़ रहस्य बताते हैं कि सम्पूर्ण धर्मों के आश्रय का त्याग करके एक मेरी शरण में आ जा| मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर|
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः " ||गीता 18/66||
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गीता का सार अठारहवाँ अध्याय है और अठारहवें अध्याय का भी सार उसका 66 वाँ श्लोक है| इस श्लोक में भगवान् ने सम्पूर्ण धर्मों का त्याग करके अपनी शरण में आने की आज्ञा दी है, जिसे अर्जुन ने ‘करिष्ये वचनं तव’ कहकर स्वीकार किया और अपने क्षात्र-धर्म के अनुसार युद्ध भी किया|
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यहाँ जिज्ञासा होती है कि सम्पूर्ण धर्मों का त्याग करने की जो बात भगवान् ने कही है, उसका तात्पर्य क्या है ?
दूसरी बात, जब अर्जुन ‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (गीता 2/7) कहकर भगवान् की शरण हुए तो लगता है कि उस शरणागति में कुछ कमी रही होगी तभी उस कमी की पूर्ति अठारहवें अध्याय के 66वें श्लोक में हुई है|
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अब प्रश्न यह उठता है कि शरणागति क्या है ?
कैसे शरणागत हों ?
कैसे समर्पित हों ?
क्या सिर्फ हाथ जोड़कर सर झुकाने ही शरणागति प्राप्त हो सकती है ? मन तो पुनश्चः कुछ क्षणों में संसार की वासनाओं और अहंकार में डूब जाएगा| ऐसा क्या उपाय है जिससे स्थायी शरणागति प्राप्त हो?
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‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ..... भगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय, धर्म के निर्णय का विचार भी छोड़कर अर्थात् क्या करना है और क्या नहीं करना है, इसको छोड़कर केवल एक मेरी ही शरण में आ जा|
स्वयं भगवान् के शरणागत हो जाना ..... यह सम्पूर्ण साधनों का सार है| इसमें शरणागत भक्त को अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता; जैसे ..... पतिव्रता स्त्री का अपना कोई काम नहीं रहता| वह अपने शरीर की सार-सँभाल भी पति के लिये ही करती है| वह घर, कुटुम्ब, वस्तु, पुत्र-पुत्री और अपने कहलाने वाले शरीर को भी अपना नहीं प्रत्युत पतिदेव का मानती है, पति के गोत्र में ही अपना गोत्र और जाति मिला देती है और पति के ही घर पर रहती है, उसी प्रकार शरणागत भक्त भी शरीर को लेकर माने जाने वाले गोत्र, जाति, नाम आदि को भगवान् के चरणों में समर्पित करके निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक और निःशंक हो जाता है|
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हमारी जाति वही है जो परमात्मा की है| यह भी कह सकते हैं कि हमारी जाति अच्युत है| हमारा गौत्र और धर्म भी वही है जो परमात्मा का है| अपना कहने को हमारा कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी है वह परमात्मा का है|
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यह तभी संभव है जब हमारे ह्रदय में परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम यानि पूर्ण भक्ति हो| रामचरितमानस में कहा गया है ....
"बार बार बर माँगऊ हरषि देइ श्रीरंग|
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग||"
"अनपायनी" शब्द का अर्थ है ..... "शरणागति" |
महान तपस्वी, योगी, देवों के देव भगवान शिव भी झोली फैलाकर मांग रहे हैं, हे मेरे श्रीरंग, अर्थात श्री के साथ रमण करने वाले नारायण, मुझे भिक्षा दीजिए|
भगवान बोले, क्या दूं?
तपस्वी बने शिव बोले, आपके चरणों का सदा अनुपायन करता रहूँ| अर्थात आपके चरणों की शरणागति कभी न छूटे|
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ऐसी ही शरणागति की महिमा है देवता भी इससे अछूते नहीं हैं|
शरणागति का प्रसंग वेदों में, स्मृतियों में, पुराणों में, और मीमांसा में भी आयाहै|
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अर्जुन तब तक दुखी रहे, जब तक भगवान का प्रतिपादन तर्क- वितर्क से करते रहे| जब शरणागति की महिमा समझ ली तो बिलकुल शान्त हो गए, जैसे दूध के ऊपर पानी के छींटे देने से झाग बैठ जाती है|
तमाम सन्तों को शांति तभी मिली, जब वे शरणागत हुए|
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जहाँ तक मुझे मेरी सीमित अल्प बुद्धि से समझ में आया है,
शरणागति है ..... पूर्ण भक्ति के साथ गहन ध्यान साधना द्वारा अपने अहंकार यानि अपनी पृथकता के बोध को परमात्मा में समर्पित कर देना|
परमात्मा का वाचक ओंकार यानि ॐ है| ओंकार पर गुरु प्रदत्त विधि से ध्यान ..... ब्रह्मरन्ध्र में "ॐ" ध्वनि के सागर में स्वयं को विलीन कर देना है|
सारे उपनिषद् ओंकार की महिमा से भरे पड़े हैं| भगवान श्री कृष्ण ने गीता में --- प्रयाणकाल में भ्रूमध्य में ओंकार का स्मरण करते हुए देह त्याग करने की महिमा बताई है| मध्यकाल के संतों का सारा साहित्य इस साधना की महिमा से भरा पड़ा है|
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आप सभी निजात्मगण को शुभ कामनाएँ और और प्रेम ! आप सब में परमात्मा को प्रणाम !
ॐ गुरू ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! अयमात्मा ब्रह्म ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
01July2016

निजी क्षेत्र में भी समान सुविधाओं के साथ सरकारी कर्मचारियों के समान वेतन वृद्धि होनी चाहिए .....

 निजी क्षेत्र में भी समान सुविधाओं के साथ सरकारी कर्मचारियों के समान वेतन वृद्धि होनी चाहिए ....
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सरकारी कर्मचारियों के जो वेतन और भत्ते बढ़ रहे हैं, उसी अनुपात में निजी क्षेत्र में भी समान सुविधाओं के साथ वेतन वृद्धि होनी चाहिए|
निजी क्षेत्र में इतना भयंकर शोषण है कि सरकारी कर्मचारी को जो वेतन मिलता है उससे एक चौथाई में निजी क्षेत्र का एक कर्मचारी किसी भी सरकारी कर्मचारी से चौगुना कार्य करता है|
निजी क्षेत्र में आजकल कर्मचारियों को दैनिक वेतन पर रखते हैं| सप्ताह में सात दिन कार्य, न तो कोई छुट्टी मिलती है और न कोई भविष्य निधि| जरा सा विरोध करते ही बाहर निकाल देते हैं|
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ार बार हड़ताल कर के सरकारी कर्मचारी वेतनवृद्धि के लिए सरकार को बाध्य कर देते हैं| बढती हुई मँहगाई का यह भी एक कारण है| निजी क्षेत्र में कोई हडताल की सोच ही नहीं सकता| ये भी देश के नागरिक हैं| इनके साथ भेदभाव क्यों?
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बिना घूस दिए किसी भी सरकारी कार्यालय में कुछ भी कार्य नहीं होता| जितना वेतन सरकारी कर्मचारियों को जिस काम का मिलता है क्या वे सचमुच उतना काम करते हैं? ईमानदार सरकारी कर्मी बहुत कम हैं, और उनसे अफसर भी खफा रहते हैं, उन पर काम का भी बोझ बहुत ज्यादा होता है|
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एक सामान्य नागरिक के लिए "सरकार" उच्च शासक वर्ग नहीं, बल्कि एक पुलिस का सिपाही और दफ्तर का बाबु होती है| देश को धर्म-परायण या ईमानदार तभी कहा जाएगा जब पुलिस का हर सिपाही और दफ्तर का हर बाबु पूर्ण ईमानदार होगा|

उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग .......

उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग .......
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आसमान में एक उलटा कुआँ लटक रहा है जिसका रहस्य सिर्फ प्रभु कृपा से ही ध्यान साधक योगी समझ पाते हैं| उस कुएँ में एक चिराग यानि दीपक सदा प्रज्ज्वलित रहता है| उस दीपक में न तो कोई ईंधन है, और ना ही कोई बत्ती है फिर भी वह दीपक दिन रात छओं ऋतु और बारह मासों जलता रहता है|
उस दीपक की अखंड ज्योति में से एक अखंड ध्वनि निरंतर निकलती है जिसे सुनते रहने से साधक समाधिस्थ हो जाता है| संत पलटूदास जी कहते हैं कि उस ध्वनी को सुनने वाला बड़ा भाग्यशाली है| पर उस ज्योति के दर्शन और उस नाद का श्रवण सद् गुरु के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं करा सकता|
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उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ......
तिसमें जरै चिराग, बिना रोगन बिन बाती |
छह ऋतु बारह मास, रहत जरतें दिन राती ||
सतगुरु मिला जो होय, ताहि की नजर में आवै |
बिन सतगुरु कोउ होर, नहीं वाको दर्शावै ||
निकसै एक आवाज, चिराग की जोतिन्हि माँही |
जाय समाधी सुनै, और कोउ सुनता नांही ||
पलटू जो कोई सुनै, ताके पूरे भाग |
उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग ||
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उलटा कुआँ मनुष्य कि खोपड़ी है जिसका मुँह नीचे की ओर खुलता है| उस कुएँ में हमारी आत्मा यानि हमारी चैतन्यता का निवास है| उसमें दिखाई देने वाली अखंड ज्योति ----- ज्योतिर्मय ब्रह्म है, उसमें से निकलने वाली ध्वनि ---- अनाहत नादब्रह्म है, यही राम नाम की ध्वनी है|
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'कूटस्थ' में इनके साथ एकाकार होकर और फिर इनसे भी परे जाकर जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त होती है| इसका रहस्य समझाने के लिए परमात्मा श्रोत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सद्ग गुरु के रूप में अवतरित होते हैं| यह चैतन्य का दीपक ही हमें जीवित रखता है, इसके बुझ जाने पर देह मृत हो जाती है|
बाहर हम जो दीपक जलाते हैं ---- वे प्रतीक मात्र हैं| बाहर कि घंटा, घड़ियाल, टाली और शंख आदि की ध्वनी उस अनाहत नाद की ही प्रतीक हैं|
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ह्रदय में गहन भक्ति और अभीप्सा ही हमें राम से मिलाती हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
२९ जून २०१५
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पुनश्चः :--
ज्योतिर्मय ब्रह्म पर ध्यान करते करते हम शब्द ब्रह्म तक पहुँच जाते हैं| मेरे अपने अनुभव के अनुसार जब हम शिवनेत्र होकर भ्रूमध्य में ध्यान करते हैं तब गुरुकृपा से ज्योति के भी दर्शन होते हैं और और नाद भी सुनाई देने लगता है| जैसे जैसे अज्ञान दूर होता है, कामनाएँ भी नष्ट होने लगती हैं और हम जीवन मुक्ति की ओर अग्रसर होने लगते हैं| ॐ ॐ ॐ ||

हम विजयी हैं ......

हम विजयी हैं ......
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हम पराजित राष्ट्र नहीं हैं| यह राष्ट्र सदा विजयी रहा है और विजयी रहेगा| अनंत काल में कुछ समय के लिए यहाँ अन्धकार छा जाता है पर हमारा विजयी भाव निश्चित रूप से उसे पराभूत कर देता है| अन्धकार का समय निकल चुका है| भारत की आत्मा, भारत की अस्मिता अब निश्चित रूप से विजयी होगी|
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हमें हमारे राष्ट्र की परम्पराओं, संस्कृति, धर्म और आध्यात्म पर अभिमान है| अभी जो अन्धकार दिखाई दे रहा है वह सूर्योदय से पूर्व का है| असत्य और अन्धकार की शक्तियों का नाश होगा| भारत जागेगा और अपने द्वीगुणित परम वैभव को प्राप्त होगा|
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हमें सिर्फ एक ही काम करना है कि कैसे भी स्वधर्म का पालन कर स्वधर्म की रक्षा करें| बाकी काम प्रकृति करेगी| हमें अपने राष्ट्र और धर्म की आलोचना करने वालों का मुँह बंद करना होगा| भारत की अधिकांश मीडिया, प्रेस और राजनीतिक शक्तियाँ विदेशियों के हाथों में बिकी हुई है, उन्हें प्रभावहीन करें| निज विवेक के प्रकाश में अपना सर्वश्रेष्ठ करें अपने परिवार में और युवा पीढ़ी में अच्छे संस्कार दें| हर प्रकार की नकारात्मकता का परित्याग करें, भगवान हमारे साथ हैं|
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हम विजयी थे, विजयी हैं और सदा विजयी रहेंगे| परमात्मा की शक्ति हमारे साथ है|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

अब कोई कामना न रहे ......

अब कोई कामना न रहे ......
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पिछले चार-पाँच वर्षों से जो भी आध्यात्मिक प्रेम के भाव आते थे वे फेसबुक के इस सार्वजनिक मंच पर व्यक्त हो जाया करते थे| अब पूर्ण संतुष्टि है, कोई कामना नहीं रही है, आगे कोई कामना हो भी नहीं, यही भगवान से प्रार्थना है|
इस मंच पर अनेक दिव्य और महान आत्माओं से मिलना हुआ है, बहुत अच्छा सत्संग मिला है, और सभी से अत्यधिक प्रेम मिला है| मैं सभी का आभारी हूँ और सब को सप्रेम साभार नमन करता हूँ|
अब परात्पर गुरु और परमशिव के प्रति परम प्रेम और उन्हें पाने की अभीप्सा बढ़ती ही जा रही है| अन्य सब भाव अब शनै शनै लुप्त हो रहे हैं| थोड़ा बहुत प्रारब्ध बचा है वह भी एक दिन कट ही जाएगा|
ध्यान साधना की दीर्घता और गहराई और अधिक बढाने की निरंतर प्रेरणा मिल रही है| जीवन अब परमात्मा को समर्पित है, जैसा वे चाहें वैसा करें| मेरी कभी कोई कणमात्र भी कामना न रहे यही उनसे प्रार्थना है|
आप सब से भी हार्दिक प्रार्थना है कि अपना अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में व्यतीत करें|
ॐ सह नाववतु| सह नौ भुनक्तु| सह वीर्यं करवावहै| तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै| ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
हरि ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा की कृपा ही सार है, बाकी सब निःसार है .....

परमात्मा की कृपा ही सार है, बाकी सब निःसार है .....
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कर्मफल और संस्कार ये दोनों ही अतीन्द्रिय हैं ये भगवान की कृपा से ही समझ में आते हैं| हम जैसा सोचते हैं, जैसे वातावरण में व जैसे लोगों के साथ रहते हैं, और जैसा खाते-पीते हैं, वैसे ही संस्कार पड़ते हैं|
हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं, जिनका फल भुगतना ही पड़ता है| प्रकृति अपना कार्य सतत निष्पक्ष भाव से करती रहती है| प्रकृति के नियमों को न समझना हमारी ही कमी है इसके लिए भगवान को दोष देना अनुचित है| हाँ, भगवान की शरण लेने से और अहंकार का त्याग करने से कर्मफलों से मुक्ति मिल सकती है| हमारा स्वभाव भी हमारे कर्मों का ही फल है| यदि स्वभाव प्रकृति की और है तो वह बंधन में डालता है, यदि परमात्मा की ओर है तो स्वतंत्रता दिलाता है| वास्तविक स्वतन्त्रता परमात्मा में ही है| अहंकार से मुक्ति परमात्मा की कृपा से ही मिलती है| मोक्ष कहो या मुक्ति .... ये सब भगवान की कृपा से ही प्राप्त होते हैं, न कि निज प्रयास से|
जितना मेरे सामर्थ्य में था उतना ही लिख पाया हूँ, बाकी मेरे सामर्थ्य से परे है| परमात्मा की कृपा सब पर बनी रहे|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

शबद अनाहत बागा ...........

शबद अनाहत बागा ...........
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जब राम नाम यानि प्रणव की अनाहत ध्वनी अंतर में सुनाई देना आरम्भ कर दे तब पूरी लय से उसी में तन्मय हो जाना चाहिए| सदा निरंतर उसी को पूरी भक्ति और लगन से सुनना चाहिए|
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भोर में मुर्गे की बाँग सुनकर हम जान जाते हैं कि अब सूर्योदय होने ही वाला है, वैसे ही जब अनाहत नाद अंतर में बांग मारना यानि सुनना आरम्भ कर दे तब सारे संशय दूर हो जाने चाहिएँ और जान लेना चाहिए कि परमात्मा तो अब मिल ही गए हैं| अवशिष्ट जीवन उन्हीं को केंद्र बिंदु बनाकर, पूर्ण भक्तिभाव से उन्हीं को समर्पित होकर व्यतीत करना चाहिए|
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कबीर दास जी के जिस पद की यह अंतिम पंक्ति है वह पूरा पद इस प्रकार है ----
"अवधूत गगन मंडल घर कीजै,
अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नाल रस पीजै॥
मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमनि यों तन लागी।
काम क्रोध दोऊ भये पलीता, तहाँ जोगिनी जागी॥
मनवा जाइ दरीबै बैठा, मगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, सबद अनाहद बागा॥"
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जब भी समय मिले एकांत में पवित्र स्थान में सीधे होकर बैठ जाएँ| दृष्टी भ्रूमध्य में हो, दोनों कानों को अंगूठे से बंद कर लें, छोटी अंगुलियाँ आँखों के कोणे पर और बाकि अंगुलियाँ ललाट पर| आरम्भ में अनेक ध्वनियाँ सुनाई देंगी| जो सबसे तीब्र ध्वनी है उसी को ध्यान देकर सुनते रहो| उसके साथ मन ही मन ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ या राम राम राम राम राम का मानसिक जाप करते रहो| ऐसी अनुभूति करते रहो कि मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्‍वनि के मध्य में यानि केंद्र में स्‍नान कर रहे हो| धीरे धीरे एक ही ध्वनी बचेगी उसी पर ध्यान करो और साथ साथ ओम या राम का निरंतर मानसिक जाप करते रहो| दोनों का प्रभाव एक ही है| कोहनियों के नीचे कोई सहारा लगा लो| कानों को अंगूठे से बंद कर के नियमित अभ्यास करते करते कुछ महीनों में आपको खुले कानों से भी वह प्रणव की ध्वनी सुनने लगेगी| यही नादों का नाद अनाहत नाद है|
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इसकी महिमा का वर्णन करने में वाणी असमर्थ है| धीरे धीरे आगे के मार्ग खुलने लगेंगे| प्रणव परमात्मा का वाचक है| यही भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी की ध्वनि है जिससे समस्त सृष्टि संचालित हो रही है| इस साधना को वे ही कर पायेंगे जिन के ह्रदय में परमात्मा के प्रति परम प्रेम है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
२८ जून २०१३

सभी मित्रों से मेरी व्यक्तिगत प्रार्थना :---

सभी मित्रों से मेरी व्यक्तिगत प्रार्थना :---
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(१) रात्री में शीघ्र सो जाएँ| सोने से पूर्व परमात्मा का गहनतम ध्यान कर के जगन्माता की गोद में निश्चिन्त होकर ही सोएँ| अपनी सारी चिंताएँ जगन्माता को सौंप दें|

(२) प्रातः परमात्मा की चेतना में ही उठें| हरिस्मरण करते हुए थोड़ा जल पीकर शौचादि से निवृत होकर कुछ मिनट तक कुछ प्राणायाम जैसे अनुलोम-विलोम व उज्जयी आदि, और शरीर की क्षमतानुसार कुछ आसन जैसे सूर्य नमस्कार, पश्चिमोत्तानासन, महामुद्रा, आदि कर के ऊनी आसन या कुशासन पर पूर्व या उत्तर की और मुँह कर के कमर सीधी रखते हुए स्थिर होकर सुख पूर्वक सुखासन/पद्मासन/सिद्धासन जैसे किसी आसन में बैठ जाएँ| यदि सीधे बैठने में कठिनाई हो तो नितम्बों के नीचे कोई छोटा तकिया लगा लें| शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों के गोलकों को बिना किसी तनाव के भ्रूमध्य के निकटतम लाकर आँखें बंद रखते हुए दृष्टी भ्रूमध्य पर ही निरंतर रखें| पूर्ण भक्ति (परम प्रेम) के साथ अपने गुरु व गुरु-परम्परा को प्रणाम करते हुए अपनी अपनी गुरुपरम्परानुसार ध्यान करें|

(३) प्रातः 03:30 से 05.30 तक मैं भी आपके साथ साथ लगातार ध्यान करूँगा आप मुझे उस समय अपने साथ ही पाओगे| आपका साथ मुझे अत्यधिक संबल देगा| आप मेरा साथ दोगे तो यह आपकी मुझ पर बड़ी कृपा होगी और आप पर परमात्मा के आशीर्वादों की बड़ी वर्षा होगी|

(४) ध्यान का समापन शान्तिमंत्र और समष्टि के कल्याण की कामना के साथ करें| ध्यान के बाद कुछ देर तक उठें नहीं| अपने इष्टदेव के मन्त्र का जप करते रहें||

(५) उसके उपरांत प्रातः भ्रमण, व्यायाम आदि करें | ध्यान से पूर्व यदि स्नान आदि न भी कर सकें तो कोई बात नहीं, भगवान शिव को स्मरण कर चुटकी भर भस्म अपने सिर पर छिड़क लें और ध्यानस्थ हो जाएँ|

ॐ ॐ ॐ ||

25 जून 1975 का वह काला दिन .....

25 जून 1975 का वह काला दिन .....
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इंदिरा गाँधी ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के अपने विरुद्ध किये गए एक फैसले को पलटने के लिए देश में आपात्काल लगा दिया था| नेहरू खानदान की और कोंग्रेस की, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से पता नहीं क्या शत्रुता थी जो सब से पहिले संघ पर ही प्रहार किया गया| संघ पर प्रतिबंध लगाकर सारे स्वयंसेवकों को गिरफ्तार कर लिया गया| वे ही बच पाए जो समय पर भूमिगत हो गए थे| इस आपातकाल का सर्वाधिक विरोध और प्रतिकार भी संघ के स्वयंसेवकों ने ही किया था| जहाँ भी संघ का साहित्य मिलता उसे पुलिस द्वारा जला दिया जाता था| किसी स्वयंसेवक के घर में सब्जी काटने का चाक़ू मिला उस पर भी आर्म्स एक्ट लगा दिया| 

सारे विरोधी दलों के नेता बंदी बना लिए गए| २६ जून को सारे समाचार पत्रों के सम्पादकीय या तो खाली थे या काली स्याही से पुते हुए थे| लोगों ने आल इंडिया रेडियो सुनना छोड़कर BBC लन्दन सुनना शुरू कर दिया था| एक स्वयंसेवक की बेटी की का विवाह था, पुलिस उसे कन्यादान से पहिले ही विवाह में से उठाकर ले गयी|
इस तरह से बहुत अधिक अवर्णनीय अत्याचार हुए| मेरे परिचित लगभग सारे स्वयंसेवक मित्र बंदी बना लिए गए थे, जो बचे उन्होंने बाद में आन्दोलन कर के स्वयं को गिरफ्तार करवा लिया|


मुझे सितम्बर में ही विदेश जाने का अवसर मिल गया था अतः पूरे उन्नीस महीनों के पश्चात ही मैं भारत बापस आया, तब तक सरकार बदल चुकी थीऔर आपात्काल समाप्त हो गया था|


भगवान करे वैसे दिन बापस भारत में न आयें|