Thursday 23 June 2016

क्या भगवान के भक्त चोर है ? क्या भगवान भी चोरों के चोर हैं

क्या भगवान के भक्त चोर है ? क्या भगवान भी चोरों के चोर हैं ?
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(१) भगवान का एक नाम "हरि" है जिसका अर्थ हरने वाला यानि चोर है|
"हरति पापानि भक्तानां मनांसि वा इति हरि:।"
भगवान अपने भक्तों के मन के सारे पाप हर लेते हैं, अतः उनका एक नाम "हरि" है|
भक्त को तो पता ही नहीं चलता कि उसके पापों की चोरी भी हो गयी है| अतः ऐसे चोर से पूज्य और कौन हो सकता है जो चोरी की इच्छा को ही चुरा लेते हैं|
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(२) गोपाल सहस्त्रनाम में भगवान को "चोरजारशिखामणि" अर्थान चोरों का सरदार कहा गया है|
चोर :-- "चोरयति सर्वविषयाभिलाषम् भक्तानाम् इति |
(चोर :-- जो भक्तों की सम्पूर्ण विषयों की अभिलाषा को चुरा लेते हैं)
जार:-- जारयति संसारबीजम् अविद्याम् इति|"
(जार :-- जो भजनपरायण की संसारकारणीभूता अविद्या को जला देते हैं वे जार हैं)

इन चोर और जारों के जो शिखामणि अर्थात् सर्वश्रेष्ठ हैं । वे भगवान् श्रीब्रजेन्द्रनन्दन ही चोरजारशिखामणि हैं।
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(३) चोर का लक्षण :--
"अतिभक्तिश्चौरलक्षणम् |"
अर्थात जिसने भक्ति का अतिक्रमण कर दिया उसे अतिभक्ति कहते हैं। यही चोर का लक्षण है।
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जब से भगवान ने हमारा ह्रदय (दिल) ही चुरा लिया है तब से हमारा ह्रदय उनका ह्रदय ही हो गया है| अब हमारे पास बचा ही क्या है ? अपना कहने को कुछ भी नहीं रहा है| सब कुछ उन्हीं का हो गया है| उनका ह्रदय जो सब हृदयों का ह्रदय है, वह ही अब हमारा घर हो गया है|
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अब किसको नमन करें ? जब से सर झुका है तब से झुका ही हुआ है, और उठता ही नहीं है |
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श्री हरि | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||

प्रेम मुदित मन से कहो ...राम राम राम ....

प्रेम मुदित मन से कहो ...राम राम राम ....
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सारी सृष्टि राममय है| इस राममय सृष्टि को देखने का एक तरीका यह भी है ..... मुदित होकर सब में राम के दर्शन करो, सब को प्रसन्नता से देखो और सब के सुख की कामना मन ही मन करो| किसी को भी कष्ट में देखो तो करुणावश मन ही मन 'राम' से उसके कल्याण की कामना करो| सब को देखकर प्रसन्न होवो और किसी की निंदा मत करो|
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आप सब से जुड़े हुए हो| आपसे पृथक कोई नहीं है| आप ही हैं जो दूसरों के रूप में व्यक्त हो रहे हो| सारी सृष्टि आप ही का प्रतिबिम्ब है| ॐ ॐ ॐ ||
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प्रेम मुदित मन से कहो राम राम राम,
राम राम राम, श्री राम राम राम ||१||
पाप कटें दुःख मिटें लेत राम नाम |
भव समुद्र सुखद नाव एक राम नाम ||२||
परम शांति सुख निधान नित्य राम नाम |
निराधार को आधार एक राम नाम ||३||
संत हृदय सदा बसत एक राम नाम |
परम गोप्य परम इष्ट मंत्र राम नाम ||४||
महादेव सतत जपत दिव्य राम नाम |
राम राम राम श्री राम राम राम ||५||
मात पिता बंधु सखा सब ही राम नाम |
भक्त जनन जीवन धन एक राम नाम ||६||

अहंकार व ब्रह्मभाव में अंतर ....

अहंकार व ब्रह्मभाव में अंतर ....
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ब्राह्मी चेतना से युक्त जब कोई योग साधक "शिवोSहम् शिवोSहम् अहम् ब्रह्मास्मि" कहता है तब यह उसकी अहंकार की यात्रा यानि कोई ego trip नहीं है| यह उसका वास्तविक अंतर्भाव है|
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शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि को निज स्वरुप समझना ही अहंकार है|
वास्तव में 'अहं' केवल सर्वव्यापि आत्म-तत्व का नाम है जिसे हम नहीं समझते इसलिए अपने शरीर, मन और बुद्धि आदि को ही हम स्वयं मान लेते हैं| यही अहंकार है|
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अहं ब्रह्मास्मि यानि मैं ब्रह्म हूँ यह कहना अहंकार नहीं है|
अहंकार है स्वयं को यह देह, मन, और बुद्धि समझ लेना|
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हम परमात्मा के अंश हैं, परमात्मा के अमृतपुत्र हैं, और सच्चिदानंद के साथ एक हैं| यह होते हुए भी स्वयं को शरीर समझते हैं, यह अहंकार है|
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शरीर के धर्म हैं ..... भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि| प्राणों का धर्म है बल आदि| मन का धर्म है राग-द्वेष, मद यानि घमंड आदि| चित्त का धर्म है वासनाएँ आदि| इन सब को अपना समझना अहंकार है|
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आत्मा का धर्म है ... परमात्मा के प्रति अभीप्सा और परम प्रेम| यही हमारा सही धर्म है| और भी आगे बढ़ें तो परमात्मा की सर्वव्यापकता के साथ एक होकर कह सकते हैं ..... शिवोंहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि |
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यह अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं, अतः इस विषय पर और अधिक लिखने की मेरी क्षमता नहीं है|
आप सब निजात्माओं में व्यक्त परमात्मा को मेरा नमन |
गुरु ॐ | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | अयमात्मा ब्रह्म |
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् || ॐ ॐ ॐ ||

कृपाशंकर‬ 23June2016‬

यह संसार ऐसे ही चलता रहेगा ..........

यह संसार ऐसे ही चलता रहेगा ..........
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हमारी इस लोकयात्रा का आरम्भ परमात्मा से हुआ है, और अंत भी परमात्मा में ही होगा| प्रभु की यही इच्छा है, और उनकी इस लीला का उद्देश्य भी यही है|
हमारा अस्तित्व सिर्फ दो कारणों से है ......
(1) पहला कारण है ----- परमात्मा की इच्छा |
(2) दूसरा कारण है ----- पूर्व जन्म के कर्मफलों को भोगने की बाध्यता|
अन्य कोई कारण नहीं हो सकता|
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अपने ह्रदय से पूछें कि हमारा यहाँ अस्तित्व क्यों है, हमारा कर्तव्य और दायीत्व क्या है| ह्रदय सदा सही उत्तर देगा| बुद्धि भ्रमित कर सकती है पर ह्रदय नहीं| हृदय कभी झूठ नहीं बोलता|
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मृत्यु अंतिम सत्य नहीं है| मृत्यु का कोई अस्तित्व नहीं है| सब एक रूपान्तरण है|
अनेक रहस्य हैं जो बुद्धि द्वारा अगम हैं|
सब अतृप्त वासनाओं और अपूर्ण संकल्पों से पुनर्जन्म होता है|
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फिर हम मुक्त कैसे हों ?
>>> परम प्रेम यानि पूर्ण भक्ति को जागृत कर गहन ध्यान साधना द्वारा परमात्मा की शरणागति और समर्पण ही जीवन के उद्देश्य को पूर्ण कर आवागमन से मुक्ति प्रदान कर सकता है|
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यह एक ऐसा रहस्य है जिसको समझना बुद्धि से परे है| पर भगवान ने गहन जिज्ञासा दी है अतः सोचना ही पड़ता है| कुछ रहस्य ऐसे हैं जिन्हें सृष्टिकर्ता ही जानता है| अतः प्रेमपूर्वक शरणागति, समर्पण और भक्ति के अतिरिक्त और कुछ भी हमारी तो समझ से परे है| हे प्रभु, आपकी इच्छा पूर्ण हो|
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किन्हीं अनजान लोगों ने स्वामी रामतीर्थ से पूछाः
"आप देवों के देव हैं ?"
"हाँ|"
"आप ईश्वर हैं ?"
"हाँ, मैं ईश्वर हूँ.... ब्रह्म हूँ|"
"सूरज, चाँद, तारे आपने बनाये ?"
"हाँ, जब से हमने बनाये हैं तबसे हमारी आज्ञा में चल रहे हैं|"
"आप तो अभी आये| आप की उम्र तो तीस-इक्कतीस साल की है |"
"तुम इस विषय में बालक हो| मेरी उम्र कभी हो नहीं सकती| मेरा जन्म ही नहीं तो मेरी उम्र कैसे हो सकती है ? जन्म इस शरीर का हुआ| मेरा कभी जन्म नहीं हुआ|"
न मे मृत्युशंका न में जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता न जन्मः|
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ||
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | शिवोहं शिवोहं अयमात्माब्र्ह्म ||
ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर‬ 22June2016‬

नित्य गीता पाठ का महत्व .......

नित्य गीता पाठ का महत्व .......

" गीता पाठ समायुक्तो मृतो मानुषतां वृजेत् |
गीताभ्यासःपुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तमाम् || " (गीता महात्म्य)
अर्थात् .....
गीता-पाठ करनेवाला (अगर मुक्ति होनेसे पहले ही मर जाता है,तो) मरने पर फिर मनुष्य ही बनता है और फिर गीता अभ्यास करता हुआ उत्तम मुक्तिको प्राप्त कर लेता है |

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वर्षों पहिले मैंने एक नियम बनाया था .... गीता का एक पूरा अध्याय या क्रमशः कम से कम पाँच श्लोक अर्थ सहित नित्य पाठ करने का| पर इसे मेरा दुर्भाग्य कहिये या तमोगुण का प्रभाव कि वह नियम छूट गया| मुझे इससे बड़ी ग्लानि होती थी और बार बार प्रेरणा भी मिलती थी नित्य गीतापाठ की, पर वह नियम दुबारा प्रारम्भ नहीं हो पाया जिससे मुझे बड़ी अशांति रहती थी|
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प्रभु की कृपा थी कि कल शाम को जोधपुर से स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी (सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र) का अचानक फोन आया और वे गीता की महिमा बताने लगे, जिसे बताते बताते उन्होंने नित्य गीता पाठ का आदेश भी दे दिया और उसकी एक नई विधी भी बता दी|
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उन्होंने आदेश दिया कि गीता पाठ से पूर्व और पश्चात वैदिक शान्तिपाठ करना है और पिछले दिन जो पाठ किया उसकी भी पुनरावृति करनी है व अर्थ समझने के लिए शंकर भाष्य का मनन करना है|
अब इतने महान संत की अवज्ञा तो कर नहीं सकते अतः उनकी आज्ञा को शिरोधार्य कर लिया|
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मेरी दृष्टी में गीता भारत का प्राण है| सनातन हिन्दू संस्कृति का आधार ही गौ, गंगा, गीता और गायत्री है| गीता में सम्पूर्ण वेदों का सार निहित है| गीता की महत्ता को शब्दों में वर्णन करना असम्भव है क्योंकि यह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली है| गीता पाठ का महत्व उतना ही है जितना नित्य संध्या का|
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स्वयं भगवान श्रीकृष्ण इसका महत्व बताते हुए कहते हैं .... कि जो पुरुष प्रेमपूर्वक निष्काम भाव से इसे भक्तों को पढ़ाएगा अर्थात् उनमें गीता का प्रचार करेगा वह निश्चय ही मुझको (परमात्मा) प्राप्त होगा ।
जो पुरुष स्वयं इस जीवन में गीता शास्त्र को पढ़ेगा अथवा सुनेगा वह सब प्रकार के पापों से मुक्त हो जाएगा|
अतः गीता का नित्य पाठ परम कल्याणकारी है|
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स्वामी रामसुखदास जी तो अपने हर प्रवचन से पूर्व इन श्लोकों का नित्य पाठ करते थे ....
वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् | देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ||
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतनामीश्वरो$पि सन् |
प्रकृतिं स्वामधिष्ठायसम्भवाम्यात्ममायया ||
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन||
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः |
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ||
वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् | देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ||
कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ||

मेरी दृष्टी में योग का सार .........

मेरी दृष्टी में योग का सार .........
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अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर सभी का अभिनन्दन और शुभ कामनाएँ !
योग है ....जीवात्मा का परमात्मा से मिलन, महाशक्ति कुण्डलिनी का परमशिव से मिलन | मार्ग है .... प्रेम, प्रेम प्रेम प्रेम परमप्रेम और साधना |
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(1) स्वाध्याय ....
जितना आवश्यक हो उतना ही स्वाध्याय करो, अधिक नहीं | यानि पढो पर सिर्फ प्रेरणा प्राप्त करने के लिए ही | अधिक अध्ययन की आवश्यकता नहीं है |
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(2) खूब ध्यान करो .....
ध्यान के लिए शक्तिशाली देह, दृढ़ मनोबल, प्राण ऊर्जा और आसन की दृढ़ता चाहिए | साथ साथ परमात्मा से परम प्रेम, और शुद्ध आचार-विचार भी चाहिए |
किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य योगी से प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा के साथ साथ ध्यान की विधि सीख लें | प्रभु कृपा से यम नियम भी अपने आप सिद्ध हो जायेंगे | योग मार्ग में सर्वप्रथम और सबसे महत्व पूर्ण सिद्धि है .... "अंतःकरण की पवित्रता" | अंतःकरण पवित्र होगा तभी ह्रदय में प्रभु आयेंगे |
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(3) सर्वदा निरंतर परमात्मा का चिंतन करो ....
हर समय भगवान को अपनी स्मृति में रखो | सबसे बड़ी आवश्यकता भगवान की भक्ति है जिसके बिना कोई योगी नहीं हो सकता |

जिनके एक भृकुटी विलास मात्र से हज़ारों करोड़ ब्रह्मांडों की सृष्टि, स्थिति और विनाश हो सकता है, वे जब आपके ह्रदय में होंगे तो क्या संभव नहीं है|
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! अयमात्मा ब्रह्म ! ॐ ॐ ॐ !!

आने वाले विनाश के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं ...

आने वाले विनाश के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं ....
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जो विनाशकाल आ रहा है उसके बीज तो हमने ही बोये हैं| वर्षा न होने की जिम्मेदारी पूरी मनुष्य जाति पर है| विश्व के अधिकाँश वर्षावन हमने अपने लोभ की पूर्ति के लिए नष्ट कर दिए हैं जो पूरे विश्व को प्राणवायू देते हैं|
मध्य और दक्षिण अमेरिका के अमेज़न के वन का अधिकाँश भाग जो पृथ्वी पर सबसे अधिक प्राणवायू उत्पन्न करता है नष्ट कर दिया गया है| अमेज़न के वन में पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की सर्वाधिक प्रजातियाँ निवास करती हैं| पूरी पृथ्वी पर जितने वृक्ष हैं उनका 20 प्रतिशत तो सिर्फ अमेज़न के वन में ही था| और पृथ्वी पर जितने प्रकार के पशु-पक्षी हैं उनका 10 प्रतिशत भी सिर्फ अमेज़न में ही था|
इसी प्रकार दक्षिण-पूर्वी एशिया के सघन वर्षा वनों का भी भयानक विनाश हुआ है| मध्य-पश्चिमी अफ्रीका के सघन वर्षा वन भी मनुष्य के लालच की बली चढ़ गए हैं| भारत के पश्चिमी घाट और बंगाल-आसाम में भी घने वर्षा वन अब नहीं रहे हैं|
ऑस्ट्रेलिया के उत्तर में ग्रेट बैरियर रीफ का तेजी से क्षरण हो रहा है| अंटार्कटिक में बर्फ से बना एक बहुत विशाल भूखंड पिंघल कर टूट कर अलग हो गया जिससे लाखों पक्षी मर गए| आर्कटिका में बर्फ पिन्घ्ले लगी है| हिमालय के ग्लेशियर भी धीरे धीरे पिंघलने लगे हैं| समुद्र का जलस्तर बढेगा और अनेक तटीय क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे|
मनुष्य का आचार-विचार भी बहुत अधिक प्रदूषित हो गया है| मनुष्य का लोभ और अहंकार ही इस सभ्यता को शीघ्र नष्ट कर देगा| महाविनाश के बाद जो भी लोग बचेंगे उनसे एक नई सभ्यता का जन्म होगा|
महाविनाश अब अधिक दूर नहीं है|

क्या परमात्मा को जाना जा सकता है ? .....

क्या परमात्मा को जाना जा सकता है ? .....
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बाल्यकाल से ही मैं यही सुनता आया हूँ कि ईश्वर की खोज ही मनुष्य जीवन का प्रथम, अंतिम और एकमात्र उच्चतम उद्देश्य है| सौभाग्य से घर-परिवार से भी ऐसे ही संस्कार मिले| भक्ति का वातावरण भी खूब मिला| पूर्व जन्मों के अनेक पुण्यों का भी उदय हुआ| इस मामले में मैं स्वयं को परम भाग्यशाली मानता हूँ कि परमात्मा के प्रति प्रेम और उन्हें उपलब्ध होने की जिज्ञासा मेरे सहज स्वभाव में ही थी, जो कि एक दुर्लभतम भाव है| सदा से ही दो तरह की प्रकृतियाँ साथ में थीं एक तो निम्न प्रकृति थी जो निरंतर विषयों की ओर खींचती, और दूसरी एक उच्च प्रकृति थी जो सदा परमात्मा की ओर आकर्षित करती| इन दोनों के बीच सदा द्वंद्व चलता रहा|
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अब तक तो मैं यही मानता आ रहा था कि जीवन का एकमात्र उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति ही है| पर जैसे जैसे आध्यात्मिक परिपक्वता बढती गयी वैसे वैसे जीवन का दृष्टिकोण भी बदलता गया| अब बात दूसरी है|
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खोजा तो उसको जाता है जिसको हमने कभी खोया हो| परमात्मा हमें सदा ही प्राप्त हैं| सारी सृष्टी उनकी समग्रता और उनके मन की एक कल्पना मात्र है| सारा अस्तित्व ही परमात्मा है| हमारी चेतना अज्ञानान्धकार रुपी माया के आवरण से घिरी हुई है| आवश्यकता उस आवरण को भेदने की है| जब वह अज्ञानान्धकार रूपी माया का आवरण हटेगा तब जो कुछ भी होगा वह परमात्मा ही परमात्मा होगा|
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पहली बात तो यह है कि परमात्मा कोई विषय नहीं है जिसको जानने का प्रयत्न करें| परमात्मा किसी भी तरह के ज्ञान की सीमा से परे हैं| हम उन्हें किसी भी तरह के ज्ञान में नहीं बाँध सकते क्योंकि वे रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श से परे होने के कारण बुद्धि द्वारा अगम्य हैं| सिर्फ श्रुतियां ही प्रमाण हैं|
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जिस तरह एक नमक का कोई पुतला महासागर में डूब कर महासागर ही बन जाता है, जल का एक बुलबुला महासागर में मिल कर महासागर ही बन जाता है वैसे ही परमात्मा में पूर्ण रूपेण समर्पित होकर ही परमात्मा को जाना जा सकता है| Be still and know that I am God. जो उसे जानता है वह कहता नहीं है और जो कहता है वह उसे जानता नहीं है|
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आत्मानुसंधान करते करते व्यक्ति परमात्मा को उपलब्ध हो ही जाता है| और वैसे भी हम उसे उपलब्ध ही हैं| वह कौन है जो हमारे ह्रदय में धड़क रहा है, हमारी आँखों से देख रहा है, हमारे पैरों से चल रहा है, और देह की हर गतिविधि का संचालन कर रहा है? वह परमात्मा ही है|
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परमात्मा की प्राप्ति सर्वप्रथम माता-पिता के रूप में होती है| माता-पिता दोनों परमात्मा ही हैं| फिर भाई-बहिनों, सगे-सम्बन्धियों, शत्रु-मित्रों और सभी के रूपों में परमात्मा ही आते हैं| यह सारी समष्टि परमात्मा ही है| परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है| आप स्वयं भी यह देह नहीं अपितु परमात्मा ही हैं|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को प्रणाम !
ॐ तत्सत् ! अयमात्मा ब्रह्म !
ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हमारा उच्चतम दायीत्व .....

हमारा उच्चतम दायीत्व .....
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हमारा उच्चतम दायीत्व परमात्मा के प्रति समर्पण है|
सृष्टि कि प्रत्येक शक्ति का स्त्रोत परमात्मा है| इस जन्म से पूर्व भी हमारा उन्हीं का साथ था और इस जन्म के पश्चात भी उन्हीं का साथ रहेगा| उनका साथ शाश्वत है|
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भौतिक मृत्यु के साथ सांसारिक दायीत्व समाप्त हो जाते हैं पर परमात्मा को उपलब्ध होने तक उनके प्रति दायीत्व बना ही रहता है| जब तक हम उन्हें उपलब्ध नहीं होते, हमारे ह्रदय की तड़फ बनी ही रहेगी| वे ही हमारे सम्बन्धी, शत्रु और मित्र हैं|
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सबसे बड़ी सेवा जो हम समाज, राष्ट्र और दूसरों के लिए कर सकते हैं, वह है परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण| हम स्वयं परमात्मा को उपलब्ध हो कर के, उस उपलब्धि के द्वारा बाहर के विश्व को एक नए साँचे में ढाल सकते हैं| सर्वप्रथम हमें स्वयं को परमात्मा के प्रति पूर्णतः समर्पित होना होगा|
फिर हमारा किया हुआ हर संकल्प पूरा होगा| तब प्रकृति की हरेक शक्ति हमारा सहयोग करने को बाध्य होगी| जिस प्रकार एक इंजन अपने ड्राइवर के हाथों में सब कुछ सौंप देता है, एक विमान अपने पायलट के हाथों में सब कुछ सौंप देता है वैसे ही हमें अपनी सम्पूर्ण सत्ता परमात्मा के हाथों में सौंप देनी चाहिए|
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जो लोग भगवान से कुछ माँगते हैं, भगवान उन्हें वो ही चीज देते हैं जिसे वे माँगते हैं| परन्तु जो लोग अपने आप को दे देते हैं और कुछ भी नहीं माँगते, उन्हें वे अपना सब कुछ दे देते हैं, उस व्यक्ति का हर संकल्प पूरा होता है|
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अपने लिए हमें कोई कामना नहीं रखनी चाहिये, जिससे परमात्मा हमारे माध्यम से कार्य कर सकें| परमात्मा एक प्रवाह हैं| उन्हें अपने भीतर प्रवाहित होने दें| सारे अवरोध नष्ट कर दें| हमारी एकमात्र कामना होनी चाहिए परमात्मा को उपलब्ध होना, अर्थात परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ
कृपाशंकर‬

परमात्मा अपरिभाष्य है ...

परमात्मा किसी भी तरह के ज्ञान की सीमा से परे हैं| हम उन्हें किसी भी तरह के ज्ञान में नहीं बाँध सकते क्योंकि वे रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श से परे होने के कारण बुद्धि द्वारा अगम्य हैं| सिर्फ श्रुतियां ही प्रमाण हैं|
जिसका अंतःकरण शुद्ध है, वही सिद्ध महात्मा है| अंतःकरण की शुद्धि ही सिद्धि है| अज्ञान की निवृत्ति ही ब्रह्म की प्राप्ति है|

पं.राम प्रसाद बिस्मिल

फाँसी पर ले जाते समय बड़े जोर से कहा .....
.........."वन्दे मातरम ! भारतमाता की जय !"
और शान्ति से चलते हुए कहा .....
"मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे,
बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे|
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे,
तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे||"


फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा .....
"I wish the downfall of British Empire! अर्थात मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ!"
उसके पश्चात यह शेर कहा --
"अब न अह्ले-वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,
एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है |"

फिर ईश्वर का ध्यान व प्रार्थना की और यह मन्त्र ---
"ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानी परासुवः यद् भद्रं तन्न आ सुवः"
पढ़कर अपने गले में अपने ही हाथों से फाँसी का फंदा डाल दिया|
रस्सी खींची गयी| पं.रामप्रसाद जी फाँसी पर लटक गये, आज जिनका ११९वाँ जन्मदिवस है|

"तेरा गौरव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें"
उन्हीं के इन शब्दों में भारत माँ के इन अमर सुपुत्र को श्रद्धांजलि|
जय जननी जय भारत | ॐ ॐ ॐ ||

पुनश्चः : >>> हिजड़ों को क्या समझ में आये आर्य वीरों की यशोगाथा !
हे पराशक्ति ! भारतवर्ष अब भ्रष्ट, कामचोर, राष्ट्र-धर्मद्रोही, झूठे और रिश्वतखोर कर्मचारियों व अधिकारियों का देश हो गया है ! इन सब का समूल नाश कर !
हे वीर प्रसूति वीरों को जन ! ॐ ॐ ॐ ||

जीवन में परमात्मा ही परमात्मा हो, अन्य कुछ भी नहीं .........

हमारा जीवन ही प्रभु की चेतना से भरा हुआ हो, जीवन में परमात्मा ही परमात्मा हो, अन्य कुछ भी नहीं .........
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प्रातःकाल भोर में उठते ही परमात्मा को पूर्ण ह्रदय से पूर्ण प्रेममय होकर नमन करें, और संकल्प करें ....... "आज का दिन मेरे इस जीवन का सर्वश्रेष्ठ दिन होगा| मेरा प्रभु को समर्पण बीते हुए कल से बहुत अधिक अच्छा होगा| आज के दिन प्रभु की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति मुझमें होगी| आज की ध्यान साधना बीते हुए कल से और भी अधिक अच्छी होगी|"
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साधना की गहनता और दीर्घता से कभी संतुष्ट नहीं होना चाहिए .......
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सदा ब्रह्मानंद में निमग्न रहने वाले योगी रामगोपाल मजूमदार ने बालक मुकुंद लाल घोष (जो बाद में परमहंस योगानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए) से कहा .......

"20 वर्ष तक मैं हिमालय की एक निर्जन गुफा में नित्य 18 घंटे ध्यान करता रहा| उसके पश्चात मैं उससे भी अधिक दुर्गम गुफा में चला गया| वहां 25 वर्ष तक नित्य 20 घंटे ध्यान में मग्न रहता| मुझे नींद की आवश्यकता नहीं पडती थी, क्योंकि मैं सदा ईश्वर के सान्निध्य में रहता था| ............ फिर भी ईश्वर की कृपा प्राप्त होने का विश्वास नहीं है|................. "
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परमात्मा अनंत रूप है| एक जीवन के कुछ वर्ष उसकी साधना में बीत जाना कोई बड़ी बात नहीं है| हमारा जीवन ही प्रभु की चेतना से भरा हुआ हो| जीवन में परमात्मा ही परमात्मा हो, अन्य कुछ भी नहीं|
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उस अनंत के स्वामी के दर्शन समाधी में अवश्य होंगे| उसकी कृपा भी अवश्य होगी| उसके आनंद सागर में स्थिति भी अवश्य होगी| उसके साथ स्थायी मिलन भी अवश्य होगा| जितना हम उसके लिए बेचैन हैं, उससे अधिक वह भी हमारे लिए व्याकुल है|

ॐ ॐ ॐ || ॐ गुरु ! ॐ गुरु ! ॐ गुरु !

शैवागम ..........

शैवागम‬ दर्शन के मूल वक्ता हैं स्वयं पशुपति भगवान शिव|
इसके श्रोता थे ऋषि दुर्वासा| शैवागम दर्शन के आचार्य भी दुर्वाषा ऋषि ही हैं|


इस दर्शन के अनुसार पदार्थ के तीन भेद होते हैं ----- पशु, पाश और पशुपति|
यह बहुत गहन दर्शन है इसलिय विस्तार भय से इसकी गहराई में न जाकर इसका परिचय मात्र यहाँ दे रहा हूँ|

जो पाश द्वारा आबद्ध है वह पशु है| पाशनाच्च पशवः| जीवात्मा अर्थात क्षेत्रज्ञ को ही पशु कहते हैं जो जन्म से नाना प्रकार के पाशों यानि बंधनों में बंधा रहता है| जब तक जीव सब प्रकार के पाशों यानि बंधनों से मुक्त न होकर अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त नहीं होता, वह पशु ही है|

पाश शब्द का और पशुपति का अर्थ भी यहाँ बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसे सब समझते है|

पशुपति सर्व समर्थ, नित्य, निर्गुण, सर्वव्यापी, स्वतंत्र, सर्वज्ञ, ऐश्वर्यस्वरुप, नित्यमुक्त, नित्यनिर्मल, अपार ज्ञान शक्ति के अधिकारी, क्रियाशक्तिसम्पन्न, परम दयावान शिव महेश्वर हैं|
शिवस्वरूप परमात्मा ही पशुपति के नाम से जाने जाते हैं| सृष्टि, स्थिति, विनाश, तिरोधान और अनुग्रह इनके पांच कर्म हैं|
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विद्या, क्रिया, योग और चर्या (आचरण) ये चार प्रकार की साधनाएँ हैं| शिष्य के देह में जो आध्यात्मिक चक्र हैं उन पर जन्म-जन्मान्तर के कर्मफल वज्रलेप की तरह चिपके हुए हैं| इस लिए जीव को शिव का बोध नहीं होता| गुरु शिष्य के चित्त में प्रवेश कर के उस आवरण को गला देते हैं| जब शिष्य के अंतर में दिव्य चेतना स्फुरित होती है तब वह साक्षात शिव भाव को प्राप्त होता है|
गुरु की चैतन्य शक्ति के बिना यह संभव नहीं है|
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उत्पलाचार्य प्रणीत "ईश्वरप्रत्यभिज्ञा", और लक्ष्मणाचार्य प्रणीत "शारदातिलक" ग्रन्थ, शैव साधना के प्रामाणिक ग्रन्थ हैं|
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शिष्य चाहे कितना भी पतित हो, सद्गुरु उसे ढूंढ निकालते हैं| फिर चेला जब तक अपनी सही स्थिति में नहीं आता, गुरु को चैन नहीं मिलता है| इसी को दया कहते हैं| यही गुरु रूप में शिवकृपा है|
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कश्मीर की महान शैव परंपरा के भी अनेक महान ग्रन्थ हैं| ये सब पहले नेपाल के राज दरबार में सुरक्षित थे| अब पता नहीं उनकी क्या स्थिति है| जिस प्रकार दुर्वासा ऋषि समस्त शैवागमों के आचार्य हैं, वैसे ही अगस्त्य ऋषि शाक्तागमों के प्रवर्तक | बिना राज्य के सहयोग के प्राचीन ग्रन्थों का संरक्षण अति कठिन है| भगवान शिव से प्रार्थना है की वे सब जीवों पर कृपा करें और अपना बोध सब को कराएं|

शिवमस्तु| ॐ तत्सत| ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय !
कृपाशंकर‬

कहीं हम भटक तो नहीं रहे हैं ? .....

भगवान की भक्ति, अहैतुकी प्रेम, शरणागति और समर्पण आदि और वेदांत व योग दर्शन की बड़ी बड़ी बातें सुनने में और चर्चा करने में बहुत मीठी और अमृत के समान लगती हैं| पर व्यवहारिक रूप से करने में साधना पक्ष अति कठिन और विष के समान लगता है| यह बात दूसरी है कि साधना का परिणाम अमृत जैसा होता है|
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परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग ऐसा है जिसमें साधना तो करनी ही पड़ती है जो अत्यधिक कष्टमय परिश्रम है| गुरु तो मार्गदर्शन करते हैं, पर चलना तो स्वयं को ही पड़ता है| इसमें कोई लघुमार्ग यानि Short cut नहीं है|
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प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उठना, संध्या, नामजप, अष्टांग योग आदि में बहुत अधिक उत्साह और ऊर्जा चाहिए| कहीं हम साधना के स्थान पर आध्यात्मिक/धार्मिक मनोरंजन में न फँस जाएँ|
अतः सतर्क रहें|
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सभी को शुभ कामनाएँ| ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय !
सभी का कल्याण हो | ॐ ॐ ॐ ||

निकट भविष्य में भारतवर्ष निश्चित रूप से एक घोषित हिन्दू राष्ट्र होगा ...

निकट भविष्य में भारतवर्ष निश्चित रूप से एक घोषित हिन्दू राष्ट्र होगा ...
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महाराष्ट्र के परात्पर गुरु डा.जयंत आठवले जैसे महान तपस्वी गृहस्थ संत और उनके डा.चारुदत्त पिंगले जैसे अनेक गृहस्थ तपस्वी शिष्यों, और पूरे भारत के अनेक विरक्त तपस्वी साधू-संतों का ---- साधना द्वारा भारतवर्ष को हिन्दू राष्ट्र बनाने का संकल्प पूर्ण हो, यह मेरी जगन्माता से प्रार्थना है| अनेक साधक अपनी आध्यात्मिक साधना द्वारा भारतवर्ष को धर्म आधारित हिन्दू राष्ट्र बनाने को कृतसंकल्प हैं|
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भारत में सनातन धर्म आधारित राज्य व्यवस्था हो और सनातन धर्म ही भारत की राजनीति हो ----- उनके इस संकल्प में मैं मेरा भी यही संकल्प जोड़ता हूँ| असत्य और अन्धकार की शक्तियों का पूर्ण पराभव हो, सनातन धर्म की सम्पूर्ण विश्व में पुनर्स्थापना हो, और भारत माँ अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर बिराजमान हो --- यही हमारी कामना है|
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अगर ईश्वर और धर्म का अस्तित्व है तो हमारा यह संकल्प अवश्य पूर्ण होगा|
सनातन धर्म और संस्कृति पर जो मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं उनका प्रतिकार करने के लिए भारत का हिन्दू राष्ट्र होना और सनातन धर्म आधारित राज्य व्यवस्था अति आवश्यक है|

जय जननी, जय भारत | ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा .......

साकार रूप में परमात्मा मेरे समक्ष सर्वप्रथम माता-पिता के रूप में आये| मेरे माता और पिता दोनों साक्षात् परमात्मा थे| कोई कुछ भी कहे पर मेरे लिए वे साक्षात् उमा-महेश्वर थे|

फिर वे सभी सम्बन्धियों के रूप में, सभी मित्रों और परिचितों के रूप में आये|
सारे तथाकथित शत्रु-मित्र, परिचित और अपरिचित सभी उसी परमात्मा के रूप हैं|
सारी सृष्टि, सम्पूर्ण अस्तित्व परमात्मा का ही रूप है| मेरा होना या न होना भी परमात्मा का ही रूप है| परमात्मा से पृथक कुछ भी नहीं है|


परमात्मा‬ को निराकार या साकार किसी भी रूप में सीमित नहीं किया जा सकता|

वर्तमान चेतना में अब यदि कुछ भी साध्य है तो वह है उनकी सर्वव्यापकता, परम प्रेम, आनंद और समर्पण|

ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ शिव !

आज हमें एक ब्रह्मशक्ति की आवश्यकता है....

भारत में आसुरी शक्तियों को पराभूत करने के लिए हमें साधना द्वारा दैवीय शक्तियों को जागृत कर उनकी सहायता लेनी ही होगी| आज हमें एक ब्रह्मशक्ति की आवश्यकता है| जब ब्रह्मत्व जागृत होगा तो क्षातृत्व भी जागृत होगा| अनेक लोगों को इसके लिए साधना करनी होगी, अन्यथा हम लुप्त हो जायेंगे|
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युवा वर्ग को चाहिए कि वे अपनी देह को तो शक्तिशाली बनाए ही, बुद्धिबल और विवेक को भी बढ़ाएँ|
उपनिषद तो स्पष्ट कहते हैं --- "नायमात्मा बलहीनेनलभ्यः|" यानी बलहीन को परमात्मा नहीं मिलते|

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उपनिषदों का ही उपदेश है --- "अश्मा भव, पर्शुर्भव, हिरण्यमस्तृताम् भव|"
यानी तूँ पहिले तो चट्टान की तरह बन, चाहे कितने भी प्रवाह और प्रहार हों पर अडिग रह|
फिर तूँ परशु की तरह तीक्ष्ण हो, कोई तुझ पर गिरे वह भी कटे और तूँ जिस पर गिरे वह भी कटे|
पर तेरे में स्वर्ण की पवित्रता भी हो, तेरे में कोई खोट न हो|
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हमारे शास्त्रों में कहीं भी कमजोरी का उपदेश नहीं है|
हमारे तो आदर्श हनुमानजी हैं जिनमें अतुलित बल भी हैं और ज्ञानियों में अग्रगण्य भी हैं|
धनुर्धारी भगवान श्रीराम और सुदर्शनचक्रधारी भगवन श्रीकृष्ण हमारे आराध्य देव हैं|
हम शक्ति के उपासक हैं, हमारे हर देवी/देवता के हाथ में अस्त्र शस्त्र हैं|
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भारत का उत्थान होगा तो एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति से ही होगा जो हमें ही जागृत करनी होगी|

ॐ ॐ ॐ ||

वीर शैव मत ...........

वीर शैव मत पर श्री Jaganath Karanje द्वारा पूछे जाने पर जितना मुझे इसके बारे में ज्ञान है वह प्रस्तुत कर रहा हूँ| मैं न तो इस मत का अनुयायी हूँ और ना ही कोइ विद्वान| जितना एक जिज्ञासु को पता हो सकता है उतना ही पता है| सिद्धांतों की गहराई में न जाकर जो ऊपरी सतह है उसी की चर्चा कर रहा हूँ|
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इस सम्प्रदाय का नाम "वीरशैव", भगवन शिव के गण 'वीरभद्र' के नाम पर पड़ा है जिन्होंने रेणुकाचार्य के रूप में अवतृत होकर वीरपीठ की स्थापना की और इस मत को प्रतिपादित किया|
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स्कन्द पुराण के अंतर्गत शंकर संहिता और माहेश्वर खंड के केदारखंड के सप्तम अध्याय में दिए हुए सिद्धांत और साधन मार्ग ही वीर शैव मत द्वारा स्वीकार्य हैं|
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इस मत के अनुयायियों का मानना है कि ------ वीरभद्र, नंदी, भृंगी, वृषभ और कार्तिकेय ---- इन पाँचों ने पांच आचार्यों के रूप में जन्म लेकर इस मत का प्रचार किया| इस मत के ये ही जगत्गुरू हैं| इन पांच आचार्यों ने भारत में पांच मठों की स्थापना की|
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(1) भगवान रेणुकाचार्य ने वीरपीठ की स्थापना कर्णाटक में भद्रा नदी के किनारे मलय पर्वत के निकट रम्भापुरी में की|
(2) भगवान दारुकाचार्य ने सद्धर्मपीठ की स्थापना उज्जैन में महाकाल मन्दिर के निकट की|
(3) भगवान एकोरामाराध्याचार्य ने वैराग्यपीठ की स्थापना हिमालय में केदारनाथ मंदिर के पास की|
(4) भगवान पंडिताराध्य ने सूर्यपीठ की स्थापना श्रीशैलम में मल्लिकार्जुन मंदिर के पास की|
(5) भगवान विश्वाराध्य ने ज्ञानपीठ की स्थापना वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर के पास की| इसे जंगमवाटिका या जंगमवाड़ी भी कहते हैं|
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वीरशैव मत की तीन शाखाएँ हैं ------- (1) लिंगायत, (2) लिंग्वंत, (३) जंगम|
सन 1160 ई. में वीरशैव सम्प्रदाय के एक ब्राह्मण परिवार में आचार्य बासव का जन्म हुआ| उन्होंने भगवान शिव की गहन साधना की और भगवान शिव का साक्षात्कार किया| उन्होंने इसी सम्प्रदाय में एक और उप संप्रदाय --- जंगम -- की स्थापना की| जंगम उपसंप्रदाय में शिखा, यज्ञोपवीत, शिवलिंग, व रुद्राक्ष धारण और भस्म लेपन को अनिवार्य मानते हैं|
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वीरशैव के अतिरिक्त अन्य भी अनेक महान शैव परम्पराएँ हैं| सब के दर्शन अति गहन हैं| सब में गहन आध्यात्मिकता है अतः उन पर इन मंचों पर चर्चा करना असंभव है| कौन सी परंपरा किस के अनुकूल है इसका निर्णय तो स्वयं सृष्टिकर्ता परमात्मा या उनकी शक्ति माँ भगवती ही कर सकती है|
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कुछ शैवाचार्यों के अनुसार सभी शैवागमों के आचार्य दुर्वासा ऋषि हैं| इति|

ॐ स्वस्ति ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव शिव शिव शिव शिव !

माँ ...

वैसे तो परमात्मा --- माता. पिता, बन्धु, सखा और सर्वस्व है पर माँ के रूप में उसकी अभिव्यक्ति सर्वाधिक प्रिय है| माँ के रूप में जितनी करुणा और प्रेम व्यक्त हुआ है वह अन्य किसी रूप में नहीं| अतः परमात्मा का मातृरूप ही सर्वाधिक प्रिय है| माँ का प्रेममय ह्रदय एक महासागर की तरह इतना विस्तृत है कि उसमें हमारी हिमालय सी भूलें भी एक कंकर पत्थर से अधिक नहीं प्रतीत होतीं|
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ह्रदय की भावनाओं को व्यक्त करना चाहूँ तो मातृरूप में भी परमात्मा को कोई मानवी आकार नहीं दे सकता| जगत्जननी माँ हमारे ह्रदय का सम्पूर्ण प्रेम है जिसे पाना ही हमारे जीवन का लक्ष्य हो सकता है|
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माँ के अनेक रूप हैं पर जब साकार सौम्य रूपों की बात करते हैं तो माँ सीता जी का ही मूर्त रूप सामने आता है| हनुमान जी सीता जी की खोज में लंका गए थे, मार्ग में अनेक बाधाएँ आईं| पर सब को पार करते हुए माँ सीता जी को खोज ही लिया| हमारा जीवन भी माँ सीता जी की ही खोज है, उन्हें पाने की अभीप्सा है|
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सीता तत्व हमारे लिए जीवन की पूर्णता है, जिसे पाने के बाद और कुछ भी प्राप्य नहीं है|
वे पूर्ण प्रकाशमय प्रेममय वह अनंत हैं जिसमें सारी सृष्टि समाई है, जिसके परे अन्य कुछ भी नहीं है|
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जगन्माता ..... जीवन में यदि कुछ प्राप्त करने योग्य है तो वे ही हैं| उनसे परे कुछ भी नहीं है|
हमारा स्थान उनके ह्रदय में है| उनका साक्षात्कार, उनका प्रेम हमारे पृथक अस्तित्व की सबसे बड़ी उपलब्धि है| उनको उपलब्ध होना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार और परम कर्तव्य है|
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माँ, तुन्हारी जय हो, हमारा समर्पण स्वीकार करो|
ॐ ॐ ॐ ||

साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण ..... इन सब में भेद करना मात्र अज्ञानता है ...

साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण .......... इन सब में भेद करना मात्र अज्ञानता है|
इस सृष्टि में कुछ भी निराकार नहीं है| जो भी सृष्ट हुआ है वह साकार है|
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एक बालक चौथी कक्षा में पढ़ता है, और एक बालक बारहवीं में पढता है, सबकी अपनी अपनी समझ है| जो जिस भाषा और जिस स्तर पर पढता है उसे उसी भाषा और स्तर पर पढ़ाया जाता है| जिस तरह शिक्षा में क्रम होते हैं वैसे ही साधना और आध्यात्म में भी क्रम हैं| एक सद्गुरू आचार्य को पता होता है कि किसे क्या उपदेश और साधना देनी है, वह उसी के अनुसार शिष्य को शिक्षा देता है|
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जो लोग समाज में बड़े आक्रामक होकर मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, वे भी या तो अपने गुरु के भौतिक चेहरे का ध्यान करते हैं, या किसी मन्त्र का जप करते हैं| क्या यह साकार साधना नहीं है?
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वेदांत में जो ब्रह्म है, जिसे परब्रह्म भी कहते हैं, साकार रूप में वे ही भगवान श्रीकृष्ण हैं| उनकी शिक्षाएँ श्रुतियों का सार है|
किसी भी तरह के वाद-विवाद में न पड़ कर अपना समय नष्ट न करें और उसका सदुपयोग परमात्मा के अपने प्रियतम रूप के ध्यान में लगाएँ|
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ॐ तत्सत् | ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ शिव !

गुरु चरणों में आश्रय और सच्ची गुरु दक्षिणा .....

गुरु चरणों में आश्रय और सच्ची गुरु दक्षिणा .....
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गुरु तो वे हैं जो सब प्रकार का अज्ञानान्धकार दूर करते हैं| वे सब नाम-रूपों से परे हैं| अंततः वे एक अनुभूति हैं, कूटस्थ ब्रह्म हैं|
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सहस्त्रार में सहस्त्रदल कमल में परम ज्योतिर्मय गुरु का निरंतर ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ गुरु-दक्षिणा है| हमारे सर्वस्व पर सिर्फ उन्हीं का अधिकार है| वे ही इस देह रूपी नौका के कर्णधार हैं| सहस्त्रार में उनकी चेतना में निरंतर बने रहना ही वास्तव में गुरु-चरणों में आश्रय है|
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ॐ गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ !

यथा ब्रज गोपिकानाम् ....

"यथा ब्रज गोपिकानाम्"
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कभी कभी ईश्वर से विछोह भी अच्छा है क्योंकि उसमें मिलने का आनंद समाया होता है| मिलने में वियोग की पीड़ा भी होती है|
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वह स्थिति सब से अच्छी है जहाँ ना कोई मिलना है और ना कोई विछुड़ना| क्योंकि की जो मिलता और विछुड़ता है वह तो आप स्वयं ही हो| आपसे पृथक कुछ है ही नहीं|
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कभी जब आप एक अति उत्तुंग पर्वत के शिखर से नीचे की गहराई में झांकते हो तो वह डरावनी गहराई भी आपमें झाँकती है| ऐसे ही जब आप नीचे से अति उच्च पर्वत को घूरते हो तो वह पर्वत भी आपको घूरता है| जिसकी आँखों में आप देखते हो वे आँखें भी आपको देखती हैं| जिससे भी आप प्रेम या घृणा करते हो उससे वैसी ही प्रतिक्रिया कई गुणा होकर आपको ही प्राप्त होती है|
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वैसे ही जब आप प्रभु को प्रेम करते हो तो वह प्रेम अनंत गुणा होकर आपको ही प्राप्त होता है| वह प्रेम आप स्वयं ही हो| प्रभु में आप समर्पण करते हो तो प्रभु भी आपमें समर्पण करते हैं| जब आप उनके शिवत्व में विलीन हो जाते हो तो आप में भी वह शिवत्व विलीन हो जाता है और आप स्वयं साक्षात् शिव बन जाते हो| जहाँ ना कोई क्रिया-प्रतिक्रिया है, ना कोई मिलना-बिछुड़ना, जहाँ कोई अपेक्षा या माँग नहीं है, जो बैखरी मध्यमा पश्यन्ति और परा से भी परे है, वह असीमता, अनंतता व सम्पूर्णता आप स्वयं ही हो|
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आपका पृथक अस्तित्व उस परम प्रेम और परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है|
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ॐ शिव | शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | ॐ ॐ ॐ ||

मेरा अपना स्वराज्य ......

मेरा अपना स्वराज्य .....
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परमात्मा का दिया हुआ एक मेरा अपना स्वराज्य है जिसमें किसी का भी हस्तक्षेप नहीं है| मैं अपने राज्य में बहुत सुखी हूँ| उस साम्राज्य में सारी सृष्टि .... सारी आकाश गंगाएँ, सारे चाँद, तारे, नक्षत्र और परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| जो भी सृष्ट हुआ है, वह सब उस साम्राज्य के भीतर है| उस से बाहर कुछ भी नहीं है|
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वह साम्राज्य भाव-जगत से भी परे कूटस्थ चैतन्य का है| जगन्माता के रूप में परमात्मा स्वयं उसका संचालन और रक्षा कर रहे हैं|
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उस साम्राज्य में सिर्फ प्रेम ही प्रेम और आनंद ही आनंद है| परमात्मा सदा मुझे उसी चेतना में रखे जहाँ समस्त सृष्टि मेरा परिवार है, और समस्त ब्रह्मांड मेरा घर| वही मेरा संसार है| मेरा केंद्र सर्वत्र है, पर परिधि कहीं भी नहीं|
वहाँ कोई अन्धकार नहीं है, सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश है|

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ॐ तत्सत् | ॐ श्री गुरवे नमः | ॐ ॐ ॐ ||

ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत परमात्मा है ......

ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत है ---- 'परमात्मा'|
पुस्तकों से ज्ञान नहीं मिलता है| पुस्तकों से सूचना मात्र मिलती है|
ज्ञान बाहर नहीं है|
समस्त ज्ञान आपके स्वयं के भीतर है जो परमात्मा की कृपा से ही अनावृत होता है|
ॐ तत्सत्|

पूर्णता कहाँ है ?

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

पूरे जीवन में मैं अब तक अपने से बाहर ही पूर्णता ढूंढता रहा पर पूर्णता का कहीं आभास भी नहीं मिला| पर अब लग रहा है कि -------- पूर्णता कहीं मिलेगी तो अंतर में ही मिलेगी|
अब तक मिली तो नहीं है पर लग रहा है कि अवश्य ही मिल जाएगी|
पर अंतर से कोई बहुत सारी शर्तें थोप रहा है| लगता है पूर्णता ही अपनी कीमत माँग रही है| निःशुल्क तो कुछ भी नहीं है|
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अतः आप सब से यही कह सकता हूँ कि पूर्णता को ढूंढें तो अवश्य पर उसकी कीमत भी चुकाने को तैयार रहें|
चलो बता ही देता हूँ कि इसकी क्या कीमत है|
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इसकी कीमत है ------- "प्रभु के प्रति अहैतुकी सम्पूर्ण समर्पण"
यानि Total unconditional surrender to the Divine.

ॐ तत्सत | ॐ शांति शांति शांति ||