Friday 16 June 2017

नैष्कर्म्यसिद्धि .....

नैष्कर्म्यसिद्धि   .....
--------------
श्रीमद्भगवद्गीता के मोक्ष-संन्यासयोग में भगवान श्रीकृष्ण ने नैष्कर्म्यसिद्धि की बात कही है .....
"असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः |
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ||"
यहाँ "सर्वत्र असक्तबुद्धिः", "विगतस्पृहः", और "नैष्कर्म्यसिद्धिं" इन तीन शब्दों पर विचार करना और समझना हम सब के लिए अति आवश्यक है| ये तीनों शब्द झकझोर कर रख देते हैं| इस पर हम स्वयं विचार करें और समझें|
.
हे प्रभु, मुझे सब प्रकार के राग-द्वेष और आसक्तियों से मुक्त करो, कोई किन्तु-परन्तु न हो| अन्तःकरण मुझ पर हावी हो रहा है, मैं अंतःकरण पर विजयी बनूँ| अप्राप्त को प्राप्त करने की कोई स्पृहा न रहे| इस भौतिक देह और इस के भोग्य पदार्थों के प्रति कोई तृष्णा न रहे| कोई कर्ता भाव न रहे| आपका सच्चिदान्द स्वरूप ही मैं हूँ, इससे कम कुछ भी नहीं| अस्तित्व सिर्फ आपका ही है, मेरा नहीं| मेरा आत्मस्वरूप आप ही हैं| आप ही कर्ता और भोक्ता हैं| आप की जय हो|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

ध्यान से पूर्व की एक धारणा .......


ध्यान से पूर्व की एक धारणा .......
------------------------------
आज्ञा चक्र में एक प्रकाश की कल्पना करें जो समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त है| पूरा ब्रह्मांड उसी प्रकाश के घेरे में है| फिर यह भाव करें कि मैं स्वयं ही वह प्रकाश हूँ, यह देह नहीं|
"परमात्मा की पूर्ण कृपा मुझ पर है| मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व, मेरा सम्पूर्ण प्रेम परमात्मा को समर्पित है| मेरा प्रेम पूरी समष्टि में व्याप्त है| पूरी समष्टि ही मेरा प्रेम है| समस्त प्रेम मैं स्वयं हूँ| जहां भी मैं हूँ, वहीं परमात्मा हैं| परमात्मा सदा मेरे साथ हैं| मेरे से पृथक कुछ भी नहीं है| मैं यह देह नहीं, परमात्मा की सर्वव्यापकता हूँ|".
"मैं ज्योतिषांज्योति हूँ, सारे सूर्यों का सूर्य हूँ, प्रकाशों का प्रकाश हूँ| जैसे भगवान भुवन भास्कर के समक्ष अन्धकार टिक नहीं सकता वैसे ही मेरे परम प्रेम रूपी प्रकाश के समक्ष अज्ञान, असत्य और अन्धकार की शक्तियां नहीं टिक सकतीं|"
"मैं पूर्ण हूँ, सम्पूर्ण पूर्णता हूँ, परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हूँ| मेरी पूर्णता ही सच्चिदानंद है, मेरी पूर्णता ही परमेश्वर है| मैं मेरे प्रियतम प्रभु के साथ एक हूँ|"
.
फिर परमात्मा के शिव रूप पर ध्यान करें ...
शिवोहं शिवोहं ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१६ जून २०१६

जीवन का मूल उद्देश्य है शिवत्व की प्राप्ति ...

जीवन का मूल उद्देश्य है शिवत्व की प्राप्ति .....
----------------------------------------------
श्रुति भगवती का आदेश है ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’, अर्थात शिव बनकर शिव की आराधना करो| हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस पर गहन चिंतन करें| शिवत्व का चिंतन कामनाओं/वासनाओं का शमन करता है|
जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि कामनाओं पर विजय है| पूर्ण निष्काम भाव मनुष्य का देवत्व है|
.
परमात्मा सदा मौन है| यही उसका स्वभाव है| परमात्मा ने कभी अपना नाम नहीं बताया| उसके सारे नाम ज्ञानियों व् भक्तों के रचे हुए हैं| यह परमात्मा का स्वभाव है जो हमारा भी स्वभाव होना चाहिए| मौन ही सत्य और सबसे बड़ी तपस्या है| जो मौन की भाषा समझता है और जिसने मौन को साध लिया वह ही मुनि है|
.
वास्तव में परमात्मा अपरिभाष्य और अचिन्त्य है| उसके बारे में जो कुछ भी कहेंगे वह सत्य नहीं होगा| सिर्फ श्रुतियाँ ही प्रमाण है, बाकि सब अनुमान| सबसे बड़ा प्रमाण तो आत्म साक्षात्कार ही है|
.
सीमित व अशांत मन ही सारे प्रश्नों को जन्म देता है| जब मन शांत व विस्तृत होता है तब सारे प्रश्न तिरोहित हो जाते हैं| चंचल प्राण ही मन है| प्राणों में जितनी स्थिरता आती है, मन उतना ही शांत और विस्तृत होता है| प्राणों में स्थिरता आती है प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान से| अशांत चित्त ही वासनाओं को जन्म देता है| अहंकार एक अज्ञान है| ह्रदय में भक्ति (परम प्रेम) और शिवत्व की अभीप्सा भी आवश्यक है|
.
शिवत्व एक अनुभूति है| उस अनुभूति को उपलब्ध होकर हम स्वयं भी शिव बन जाते हैं| शिव है जो सब का कल्याण करे| हमारा भी अस्तित्व समष्टि के लिए वरदान होगा| हमारा अस्तित्व भी सब का कल्याण करेगा| हम उस शिवत्व को प्राप्त हों|
.
कूटस्थ में ओंकार रूप में शिव के गहन ध्यान से हम शिवत्व को उपलब्ध होते हैं| इससे किसी कामना की पूर्ति नहीं अपितु कामनाओं का शमन होता है| आते जाते हर साँस के साथ उनका चिंतन-मनन और समर्पण ..... उनकी परम कृपा की प्राप्ति करा कर आगे का मार्ग प्रशस्त कराता है| जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है .... कामना और इच्छा की समाप्ति| जीवन अति अल्प है, क्या हम इसे वासनाओं/कामनाओं की पूर्ती में ही नष्ट कर देंगे?
.
जिनसे जगत की रचना, पालन और नाश होता है, जो इस सारे जगत के कण कण में व्याप्त हैं, जो समस्त प्राणधारियों की हृदय-गुहा में निवास करते हैं, जो सर्वव्यापी और सबके भीतर रम रहे हैं, वे ही शिव हैं| शिव शब्द का अर्थ मंगल एवं कल्याण है| जो सबका मंगल और कल्याण करने वाले हैं, वे ही शिव हैं|
.
ॐ नमः शम्भवाय च | मयोभवाय च | नमः शङ्कराय च | मयस्कराय च | नमः शिवाय च | शिवतराय च || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१६ जून २०१६
.
पुनश्चः --- पतंग उड़ता है और चाहता है कि वह उड़ता ही रहे और उड़ते उड़ते आसमान को छू ले| पर वह नहीं जानता कि एक डोर से वह बंधा हुआ है जो उसे खींच कर बापस भूमि पर ले आती है| असहाय है बेचारा ! और कर भी क्या सकता है? वैसे ही जीव भी चाहता है शिवत्व को प्राप्त करना, यानि परमात्मा को समर्पित होना| उसके लिए शरणागत भी होता है और साधना भी करता है पर अवचेतन में छिपी कोई वासना अचानक प्रकट होती है और उसे चारों खाने चित गिरा देती है| पता ही नहीं चलता कि अवचेतन में क्या क्या कहाँ कहाँ छिपा है| कोई Short Cut यानि लघु मार्ग नहीं है जो इन वासनाओं से मुक्त कर दे| मार्ग एक ही है जो उपासना और समर्पण का है जिससे शिवकृपा प्राप्त होती है| अन्य कोई मार्ग मेरी दृष्टी में तो नहीं है| ॐ ॐ ॐ ||

----------------------------------------------
श्रुति भगवती का आदेश है ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’, अर्थात शिव बनकर शिव की आराधना करो| हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस पर गहन चिंतन करें| शिवत्व का चिंतन कामनाओं/वासनाओं का शमन करता है|
जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि कामनाओं पर विजय है| पूर्ण निष्काम भाव मनुष्य का देवत्व है|
.
परमात्मा सदा मौन है| यही उसका स्वभाव है| परमात्मा ने कभी अपना नाम नहीं बताया| उसके सारे नाम ज्ञानियों व् भक्तों के रचे हुए हैं| यह परमात्मा का स्वभाव है जो हमारा भी स्वभाव होना चाहिए| मौन ही सत्य और सबसे बड़ी तपस्या है| जो मौन की भाषा समझता है और जिसने मौन को साध लिया वह ही मुनि है|
.
वास्तव में परमात्मा अपरिभाष्य और अचिन्त्य है| उसके बारे में जो कुछ भी कहेंगे वह सत्य नहीं होगा| सिर्फ श्रुतियाँ ही प्रमाण है, बाकि सब अनुमान| सबसे बड़ा प्रमाण तो आत्म साक्षात्कार ही है|
.
सीमित व अशांत मन ही सारे प्रश्नों को जन्म देता है| जब मन शांत व विस्तृत होता है तब सारे प्रश्न तिरोहित हो जाते हैं| चंचल प्राण ही मन है| प्राणों में जितनी स्थिरता आती है, मन उतना ही शांत और विस्तृत होता है| प्राणों में स्थिरता आती है प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान से| अशांत चित्त ही वासनाओं को जन्म देता है| अहंकार एक अज्ञान है| ह्रदय में भक्ति (परम प्रेम) और शिवत्व की अभीप्सा भी आवश्यक है|
.
शिवत्व एक अनुभूति है| उस अनुभूति को उपलब्ध होकर हम स्वयं भी शिव बन जाते हैं| शिव है जो सब का कल्याण करे| हमारा भी अस्तित्व समष्टि के लिए वरदान होगा| हमारा अस्तित्व भी सब का कल्याण करेगा| हम उस शिवत्व को प्राप्त हों|
.
कूटस्थ में ओंकार रूप में शिव के गहन ध्यान से हम शिवत्व को उपलब्ध होते हैं| इससे किसी कामना की पूर्ति नहीं अपितु कामनाओं का शमन होता है| आते जाते हर साँस के साथ उनका चिंतन-मनन और समर्पण ..... उनकी परम कृपा की प्राप्ति करा कर आगे का मार्ग प्रशस्त कराता है| जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है .... कामना और इच्छा की समाप्ति| जीवन अति अल्प है, क्या हम इसे वासनाओं/कामनाओं की पूर्ती में ही नष्ट कर देंगे?
.
जिनसे जगत की रचना, पालन और नाश होता है, जो इस सारे जगत के कण कण में व्याप्त हैं, जो समस्त प्राणधारियों की हृदय-गुहा में निवास करते हैं, जो सर्वव्यापी और सबके भीतर रम रहे हैं, वे ही शिव हैं| शिव शब्द का अर्थ मंगल एवं कल्याण है| जो सबका मंगल और कल्याण करने वाले हैं, वे ही शिव हैं|
.
ॐ नमः शम्भवाय च | मयोभवाय च | नमः शङ्कराय च | मयस्कराय च | नमः शिवाय च | शिवतराय च || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१६ जून २०१६
.
पुनश्चः --- पतंग उड़ता है और चाहता है कि वह उड़ता ही रहे और उड़ते उड़ते आसमान को छू ले| पर वह नहीं जानता कि एक डोर से वह बंधा हुआ है जो उसे खींच कर बापस भूमि पर ले आती है| असहाय है बेचारा ! और कर भी क्या सकता है? वैसे ही जीव भी चाहता है शिवत्व को प्राप्त करना, यानि परमात्मा को समर्पित होना| उसके लिए शरणागत भी होता है और साधना भी करता है पर अवचेतन में छिपी कोई वासना अचानक प्रकट होती है और उसे चारों खाने चित गिरा देती है| पता ही नहीं चलता कि अवचेतन में क्या क्या कहाँ कहाँ छिपा है| कोई Short Cut यानि लघु मार्ग नहीं है जो इन वासनाओं से मुक्त कर दे| मार्ग एक ही है जो उपासना और समर्पण का है जिससे शिवकृपा प्राप्त होती है| अन्य कोई मार्ग मेरी दृष्टी में तो नहीं है| ॐ ॐ ॐ ||

'वयं तव' (हम तुम्हारे हैं) .....

'वयं तव' (हम तुम्हारे हैं) .....
--------------------------
जब हम अपने प्रेम को व्यक्त करते हुए इस निर्णय पर पहुँच जाते हैं कि हे प्रभु हम सदा सिर्फ तुम्हारे हैं, तब माँगने के लिए बाकी कुछ भी नहीं रह जाता|
कुछ माँगना ही क्यों? प्रेम में कोई माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है|
कुछ माँगना एक व्यापार होता है, देना ही सच्चा प्रेम है|
.
'वयं तव' ..... एक सिद्ध वेदमन्त्र है|
इस स्वयंसिद्ध वाणी में साधना की चरम सच्चाई निहित है|
यह भाव ..... परम भाव है|
.
मनुष्य के जीवन का केंद्र बिंदु परब्रह्म परमात्मा है जिसमें शरणागति और समर्पण अनिवार्य है| जिस क्षण जीवन के हर कर्म के कर्ता परब्रह्म परमात्मा बन जायेंगे, उसी क्षण से हमारा अस्तित्व मात्र ही इस सृष्टि के लिए वरदान बन जायेगा
यह उच्चतम भाव है|
.
मनुष्य की देह का केंद्र नाभि है| जब नाभि अपने केंद्र से हट जाती है तब देह की सारी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है| वैसे ही जब हम अपने जीवन के केंद्रबिंदु परमात्मा को अपने जीवन से हटा देते हैं तब हमारा जीवन भी गड़बड़ा जाता है|
.
भगवान के पास सब कुछ है, पर एक चीज नहीं है, जिसके लिए वे भी तरसते हैं|
हमारे पास जो कुछ भी है वह भगवान का ही दिया हुआ है| हमारे पास अपना कहने के लिए सिर्फ एक ही चीज है, जिसे हम भगवान को अर्पित कर सकते हैं, और वह है हमारा अहैतुकी पूर्ण परम प्रेम| भगवान सदा हमारे प्रेम के लिए तरसते हैं| अपना समस्त अहंभाव, अपनी पृथकता का बोध, अपना पूर्ण प्रेम परमात्मा को समर्पण कर दीजिये| यही जीवन की सार्थकता है|
.
भक्त और भगवान..... एक दुसरे में डूबे हुए ..... दोनों कितने प्यारे हैं ..... बिना एक दूसरे के दोनों अधूरे हैं ..... जीवन कैसा भी हो, सौंदर्य यही है ..... सचमुच... जीवन यही है|
.
हम तुम्हारे हैं, मैं तुम्हारा हूँ | यह कभी ना भूलें |
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ||

कृपाशंकर
14June2016