Thursday, 31 October 2019

आतताई का बध शास्त्रसम्मत है .....

आततायी को चाहे वह गुरु हो या बालक,वृद्ध हो या बहुश्रुत-ब्राह्मण, बिना सोचे शीघ्र मार देना चाहिये| कोई आततायी आपको मारने आ रहा है या आपके राष्ट्र और धर्म का अहित करने आ रहा है, तब क्या आप उस में परमात्मा का भाव रखेंगे? मेरे आदर्श तो भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण हैं| कहीं भी कोई संदेह या भ्रम होता है तो मैं स्वयं से यह प्रश्न करता हूँ कि यदि भगवान् श्रीराम मेरे स्थान पर होते तो वे क्या करते? जो भगवान करते या भगवान ने किया है वही मेरा आदर्श है और वही मुझे करना चाहिए| इस से सारे भ्रम दूर हो जाते हैं|
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'वशिष्ठ-स्मृति' के अनुसार आततायी का लक्षण निम्नलिखित है―
*अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः । क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते आततायिनः ।।-(वशिष्ठ-स्मृति ३/१९)
आग लगाने वाला,विष देने वाला,हाथ में शस्त्र लेकर निरपराधों की हत्या करने वाला,दूसरों का धन छीनने वाला,पराया-खेत छीनने वाला,पर-स्त्री का हरण करने वाला-ये छह आततायी हैं।
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ऐसे आततायी के वध के लिए मनुजी का आदेश है―
गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् । आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् ।।--(मनु० ८/३५०)
आततायी को चाहे वह गुरु हो या बालक,वृद्ध हो या बहुश्रुत-ब्राह्मण, बिना सोचे शीघ्र मार देना चाहिये।
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भगवान् राम ने इसी मनुस्मृति वचन का उल्लेख रामायण में किया है-
श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चारित्रवत्सलौ।
गृहीतौ धर्मकुशलैस्तत्तथा चरितं हरे॥(किष्किन्धा काण्ड, १८/३१)
इसके पूर्व ताड़का (ताटका) के वध के लिये भी विश्वामित्र ने राम को कहा था कि स्त्री का वध करने में उनको संकोच नहीं होना चाहिये।
बालकाण्ड, (सर्ग २५)-न हि ते स्त्री वधकृते घृणा कार्या नरोत्तम॥१६॥
चातुर्वर्ण्य हितार्थाय कर्तव्यं राजसूनुना।
नृशंसमनृशंसं वा प्रजारक्षणकारणात्॥१७॥
पातकं वा सदोषं वा कर्तव्यं रक्षता सदा।
राज्यभारनियुक्तानामेष धर्मः सनातनः॥१८॥
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जय श्रीराम ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
२३ अक्टूबर २०१९

भगवान की भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है .....

भगवान की भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है .....
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हरिःकृपा से मुझे सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों के अच्छे से अच्छे संत-महात्माओं के सत्संग का अवसर मिला है| हर संप्रदाय में अच्छे से अच्छे विद्वान और परोपकारी तपस्वी महात्मा हैं, इसलिये मैं किसी संप्रदाय की या किसी संत-महात्मा की निंदा नहीं करता| मानवीय कमजोरी तो सभी में होती हैं, हम स्वयं भी उस से मुक्त नहीं हैं, अतः जो बात अच्छी नहीं लगती हो वह निज जीवन में नहीं आनी चाहिए, पर सार की बात सभी की ग्रहण कर लेनी चाहिए| सबसे बड़ी सार की बात है .... "भगवान से परमप्रेम यानि भक्ति, और भगवान को पाने की अभीप्सा|" इस से अधिक बड़ी कोई दूसरी बात नहीं है| कोई यह कहे कि उसका मत ही सही है और बाकी सब गलत, तो ऐसे व्यक्तियों से उसी क्षण दूर हट जाना चाहिए| अपनी स्वयं की गुरु-परंपरा, आस्था और उद्देश्य के प्रति मैं निष्ठावान और पूर्णतः समर्पित हूँ|
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अब तो सारी प्रेरणा, मार्गदर्शन और ज्ञान, भगवान की परम कृपा से प्रत्यक्ष उन्हीं से मिल जाता है| बौद्धिक स्तर पर कहीं भी किसी भी तरह की कोई शंका और संदेह नहीं है| छोटी से छोटी हर तरह की जिज्ञासा की पूर्ति भगवान स्वयं कर देते हैं, अतः पूर्ण संतोष और तृप्ति है| कहीं भी इधर-उधर देखने की आवश्यकता नहीं है| अपनी इस वर्तमान शारीरिक आयु में इस स्वास्थ्य के साथ किसी भी तरह की भागदौड़ और बड़ी गतिविधी अब संभव नहीं है| इस लिए अकेला ही हूँ और अकेला ही आनंदमय, संतुष्ट और तृप्त रहूँगा, किसी भी तरह की कोई आकांक्षा नहीं है|
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साधना के क्षेत्र में मेरा अनुभव यह है कि शब्द ब्रह्म प्रणव सबसे बड़ा मंत्र है, और आत्मानुसंधान सबसे बड़ा तंत्र| बीज मंत्रों, नाद, कुंडलिनी जागरण, चक्रभेद, व विभिन्न मुद्राओं और साधनाओं आदि का ज्ञान भगवान स्वयं किसी न किसी माध्यम से करा देते हैं| अतः सारा ध्यान भक्ति पर ही होना चाहिए| भक्ति से ही ज्ञान और वैराग्य का जन्म होता है| गीता में भगवान ने जिस अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति को बताया है, वह सर्वश्रेष्ठ है .....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी|
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३::११||"
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जैसे जैसे भौतिक आयु बढ़ती जा रही है, इस शरीर, मन और बुद्धि की क्षमता भी कम होती जा रही है| धीरे धीरे सब और से ध्यान हटा कर भगवान में ही अब लगाना है| जिस दिन भी ईश्वर की इच्छा होगी उस दिन व उस क्षण यह जीवात्मा ब्रह्मरंध्र को भेदकर इस देह से मुक्त हो परमशिव में विलीन हो जाएगी|
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आनंद ही आनंद और मंगल ही मंगल है| हे सर्वव्यापी परमशिव आपकी जय हो| सभी का कल्याण हो| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ अक्तूबर २०१९

भारत का स्वतन्त्रता दिवस २१ अक्तूबर को या ३० दिसंबर को क्यों नहीं मनाना चाहिए?

एक ज्वलंत प्रश्न :----- अब हमें भारत का स्वतन्त्रता दिवस २१ अक्तूबर को या ३० दिसंबर को क्यों नहीं मनाना चाहिए?
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आज से ७६ वर्ष पूर्व २१ अक्तूबर १९४३ को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी थी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मंचूरिया और आयरलैंड ने मान्यता दे दी थी| जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप समूह इस अस्थायी सरकार को दे दिये| सुभाष बोस उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया| अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप तथा निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा गया|
३० दिसंबर १९४३ को पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना मैदान में स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया था|
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इससे पहले प्रथम विश्व युद्ध के बाद अफ़ग़ानिस्तान में महान् क्रान्तिकारी राजा महेन्द्र प्रताप ने आज़ाद हिन्द सरकार और फ़ौज बनायी थी जिसमें ६००० सैनिक थे|
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द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इटली में क्रान्तिकारी सरदार अजीत सिंह ने 'आज़ाद हिन्द लश्कर' बनाई तथा 'आज़ाद हिन्द रेडियो' का संचालन किया|
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जापान में रासबिहारी बोस ने भी आज़ाद हिन्द फ़ौज बनाकर उसका जनरल कैप्टेन मोहन सिंह को बनाया था|
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इन सभी का लक्ष्य भारत को अंग्रेज़ों के चंगुल से सैन्य बल द्वारा मुक्त कराना था| पर स्वतंत्र सरकार की स्थापना नेताजी ने ही ७६ वर्ष पूर्व आज ही के दिन की थी| अतः वास्तविक स्वतंत्रता दिवस तो आज ही है|
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१५ अगस्त १९४७ तो भारत का विभाजन दिवस था| १५ अगस्त १९४७ का दिन भारत के लिए एक कलंक था क्योंकि उस दिन भारत के दो टुकड़े हुए, लाखों लोगों की हत्या हुई, लाखों महिलाओं के साथ बलात्कार हुए और करोड़ों लोग विस्थापित हुए| इस दिन लाशों से भरी हुई कई ट्रेन पाकिस्तान से आईं जिन पर खून से लिखा था .... Gift to India from Pakistan. १९७६ में छपी पुस्तक Freedom at midnight में उनके चित्र दिये दिये हुए थे| वह कलंक का दिन भारत का स्वतन्त्रता दिवस नहीं हो सकता|
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तेरा गौरव अमर रहे माँ हम दिन चार रहें न रहें| भारत माता की जय !
वन्दे मातरं ! जय हिन्द !
कृपा शंकर
२१ अक्तूबर २०१९

शुभ काम में देरी नहीं .....

शुभ काम में देरी नहीं| जो कल करना है सो आज करो, और जो आज करना है वह अभी करो| सर्वाधिक शुभ कार्य है ..... भक्तिपूर्वक परमात्मा का ध्यान, जिसे आगे पर ना टालें| भगवान की अपार कृपा बरस रही है| भगवान अपनी परम कृपा लूटा रहे हैं| दोनों हाथों से खूब लूट लो, अन्यथा बाद में पछताना होगा| कोई कहता है कि हमारा समय नहीं आया है, उनका समय कभी नहीं आएगा| किसी ने पूछा कि संसार में उलझे हुए हैं, भगवान के लिए फुर्सत कैसे निकालें? उनके लिए हमारा उत्तर है .....
जब हम साइकिल चलाते हैं तब पैडल भी मारते हैं, हेंडल भी पकड़ते हैं, ब्रेक पर अंगुली भी रखते है, सामने भी देखते हैं, और यह भी याद रखते हैं कि कहाँ जाना है| इतने सारे काम एक साथ करने पड़ते हैं अन्यथा हम साइकिल नहीं चला पाएंगे| वैसे ही यह संसार भी चल रहा है| संसार में इस देह रूपी मोटर साइकिल को भी चलाओ पर याद रखो कि जाना कहाँ है|

निज जीवन सतोगुण प्रधान हो .....

निज जीवन सतोगुण प्रधान हो .....
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सतोगुण की प्रधानता निज जीवन में हो, यह गीता में भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है, इसलिए इसका प्रयास निरंतर करते रहना चाहिए| जीवन में भक्ति और ज्ञान, सतोगुण द्वारा ही संभव है| रजोगुण प्रधान व्यक्ति कर्मयोगी तो हो सकता है, पर भक्त और ज्ञानी नहीं| सतोगुण के लिए अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) की शुद्धि आवश्यक है जिस के लिए प्रथम आवश्यकता "आहार शुद्धि" है| हमारा भोजन ही हमारा आहार नहीं है; आँखों का आहार ... दृश्य, कानों का आहार ... श्रवण, नासिका का आहार ... गंध, और मन का आहार ... विचार हैं| इन सब की शुद्धि आवश्यक है तभी जीवन में सतोगुण की प्रधानता होगी|
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साधना में विक्षेप यानि चंचलता और भटकाव का कारण रजोगुण है| जड़ता और प्रमाद यानि आलस्य और दीर्घसूत्रता यानि काम को आगे के लिए टालने की प्रवृत्ति का कारण तमोगुण है| तमोगुण प्रधान व्यक्ति कभी आध्यात्मिक हो ही नहीं सकता| सत्संग द्वारा उसमें कुछ अच्छे गुण तो या सकते हैं, पर आध्यात्म नहीं|
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भक्ति से ही ज्ञान और वैराग्य का जन्म होता है| ज्ञान और वैराग्य सतोगुण के लक्षण हैं| ज्ञान और वैराग्य ही किसी को जीवनमुक्त बना सकते हैं| भगवान श्रीकृष्ण तो नित्यसत्वस्थ यानि नित्य सतोगुण में ही स्थित रहने और उस से भी परे जाने का का आदेश देते हैं .....
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन| निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्||२:४५||"
निस्त्रैगुण्य होने के लिए भगवान ने यहाँ निर्द्वन्द्व, नित्यसत्त्वस्थ, निर्योगक्षेम और आत्मवान् होने की चार शर्तें भी रख दी हैं| यहाँ हम नित्य सत्वस्थ होने की ही चर्चा कर रहे हैं, अतः इस चर्चा के मूल विषय से भटकेंगे नहीं|
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अगली आवश्यकता अच्छे वातावरण की है जिसका निर्माण या तो हमें स्वयं करना पड़ेगा, या उसकी खोज कर उसमें रहना होगा| इससे आगे की आवश्यकता स्वाध्याय, सत्संग और साधना की है| सबसे बड़ी आवश्यकता हरिःकृपा है जिसके बिना कुछ भी संभव नहीं है|
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भगवान का सदा स्मरण करें, उनके नाम का जप करें, उनका ध्यान करें और उन्हें अपने जीवन का केंद्र-बिन्दु बनाएँ| फिर निश्चित रूप से उनकी कृपा होगी| यही सन्मार्ग है|
भगवान की कृपा थी इसलिए ये चार पंक्तियाँ लिख पाया अन्यथा मुझ अकिंचन की क्या औकात है? कुछ भी नहीं| हे प्रभु, आपकी जय हो, आप ही इस जीवन को जीते रहें, आपकी कृपा बनी रहे| हरिः ॐ तत्सत्! ॐ ॐ ॐ!!
कृपा शंकर
२१ अक्तूबर २०१९

साधना में उत्साह कम हो जाये तो क्या करें ?

साधना में उत्साह कम हो जाये तो क्या करें ?
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चाहे हम कितने भी बड़े वेदांती हों, एक बार तो साकार साधना में बापस आना ही पड़ेगा| शुद्ध देसी घी का दीपक जलायें और अपने इष्ट देव के विग्रह के समक्ष निवेदित करें| उस दीपक को प्रज्ज्वलित रहने दें और अपने पवित्र आसन पर बैठकर हाथ में जप माला लें और भगवान श्रीगणेश व गुरु महाराज को मानसिक नमन करते हुए यथासंभव अधिकाधिक अपने उपासना मंत्र का पूरी भक्ति से जप करें| प्रज्ज्वलित शुद्ध देसी घी के दीपक के समक्ष मंत्रशक्ति कई गुणा अधिक बढ़ जाती है|
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चलते फिरते हर समय जप योग का अभ्यास करें| श्रीगुरुचरणों का ध्यान करें, स्वाध्याय और सत्संग करें, कुसंग का त्याग करें व तनाव-मुक्त जीवन जीयें| साधना के अतिरिक्त कुछ न कुछ लोक-कल्याण का कार्य भी करते रहें|
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इस से एक नये उत्साह का जन्म होगा और हरिः कृपा से सारे विक्षेप दूर होंगे| निराकार अनंत की साधना भी धीरे धीरे बापस प्रारम्भ हो जाएगी| शुभ कामनाएँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० अक्तूबर २०१९

हृदय की यह वेदना स्वतः ही फूट पड़ती है .....

हृदय की यह वेदना स्वतः ही फूट पड़ती है .....
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हे प्रभु, हमारे में तो इतनी शक्ति नहीं है कि आपकी इस दुस्तर माया को पार कर सकें| आप ही अनुग्रह कर के हमारी रक्षा करें और अपने श्रीचरणों में आश्रय दें| हमारे में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि अंत समय में आपका स्मरण कर सकें| यह देह तो भस्म हो जाएगी आप ही अनुग्रह कर के हमारा स्मरण कर लेना| आपकी कृपा हमें पार लगा देगी| हम आपकी कृपा और अनुग्रह पर ही निर्भर हैं|
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम्‌| ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर||"
(ईशावास्योपनिषद मंत्र १७)
मेरा प्राण सर्वात्मक वायु रूप सूत्रात्मा को प्राप्त हो क्योकि वह शरीरों में आने जाने वाला जीव अमर है; और यह शरीर केवल भस्म पर्यन्त है इसलिये अन्त समय में हे मन ! ॐ का स्मरण कर, अपने द्वारा किए हुये कर्मों का स्मरण कर, ॐ का स्मरण कर, अपने द्वारा किये हुए कर्मों का स्मरण कर||
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गीता में आप ने ही कहा है .....
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्| साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः||९:३०||"
अर्थात यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है||
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||"
अर्थात मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे||
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
अर्थात अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२० अक्तूबर २०१९