Sunday, 2 February 2020

हम जहाँ हैं, वहीं भगवान हैं .....

हम जहाँ हैं, वहीं भगवान हैं, वहीं सारे तीर्थ हैं, वहीं सारे संत-महात्मा हैं, कहीं भी किसी के भी पीछे-पीछे नहीं भागना है| भगवान हैं, यहीं हैं, इसी समय हैं, और सर्वदा हैं| वे ही इन नासिकाओं से सांस ले रहे हैं, वे ही इस हृदय में धड़क रहे हैं, वे ही इन आँखों से देख रहे हैं, और इस शरीर-महाराज और मन, बुद्धि व चित्त के सारे कार्य वे ही संपादित कर रहे हैं| उनके सिवाय अन्य किसी का कोई अस्तित्व नहीं है| बाहर की भागदौड़ एक मृगतृष्णा है, बाहर कुछ भी नहीं मिलने वाला| परमात्मा की अनुभूति निज कूटस्थ-चैतन्य में ही होगी|

जब परमात्मा की अनुभूति हो जाये तब इधर-उधर की भागदौड़ बंद हो जानी चाहिए. उन्हीं की चेतना में रहें|
किसी ने मुझ से पूछा कि मेरा सिद्धान्त, मत और धर्म क्या है?
मेरा स्पष्ट उत्तर था .....
मेरा कोई सिद्धान्त नहीं है, मेरा कोई मत या पंथ नहीं है, मेरा कोई धर्म नहीं है, और मेरा कोई कर्तव्य नहीं है| मेरा समर्पण सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के लिए है| स्वयं परमात्मा ही मेरे सिद्धान्त, मत/पंथ, धर्म और कर्तव्य हैं| उनसे अतिरिक्त मेरा कोई नहीं है| वे ही मेरे सर्वस्व हैं| मेरा कोई पृथक अस्तित्व भी नहीं है| यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति||

२ फरवरी २०२० 

किस किस से मिलें? किस किस के पीछे-पीछे भागें? .....

किस किस से मिलें? किस किस के पीछे-पीछे भागें? कहाँ-कहाँ जाएँ? कोल्हू का बैल उम्रभर घूमता है और वहीं-का-वहीं रहता है| कोल्हू के बैल की भांति भटकते भटकते कई जन्म बीत गए, पाया कि वहीं के वहीं है, कहीं भी नहीं पहुंचे| सारे स्थान तो उनके ही हैं| वे वहाँ हैं तो यहाँ भी हैं| कितने लोगों के पीछे पीछे भागे| किसी से कुछ भी नहीं मिला| सब में तो वे ही हैं| अब यह भटकाव समाप्त हो गया है| परमप्रिय तो सदा ही साथ थे, जहाँ भी मैं हूँ वहीं वे स्वयं भी हैं| वे उन्हीं से मिलाते हैं, जो उनकी याद दिलाते हैं| वे वहीं ले जाते हैं जहां उन का स्मरण होता है| कूटस्थ ब्रह्म के रूप में वे सदा समक्ष हैं| उनको छोड़कर जाने को अब कोई स्थान नहीं बचा है| आप की जय हो|

जिन के स्मरण मात्र से भगवान की भक्ति जागृत हो जाए, जिनके समक्ष जाते ही सुषुम्ना चैतन्य हो जाए, हृदय परमप्रेममय हो जाए, और हम स्वतः ही नतमस्तक हो जाएँ, वे ही सच्चे संत हैं| उन्हीं का सत्संग सार्थक है|
जो सिर्फ भगवान की बातें करते हैं, पर जिन में अहंकार, लोभ और असत्य व्यक्त हो रहा हो, उन का संग विष की तरह छोड़ देना चाहिए| वे संत नहीं हो सकते|


ॐ ॐ ॐ ||
२ फरवरी २०२० 

हमारा अन्तःकरण ही कुरुक्षेत्र का मैदान है .....

हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) ही कुरुक्षेत्र का मैदान है| यही धर्मक्षेत्र है और यही कुरुक्षेत्र है| महाभारत का युद्ध यहाँ निरंतर चल रहा है| एक ओर भगवान श्रीकृष्ण हैं, और दूसरी ओर दुर्योधन की सेना जिसे जीत पाना दुर्धर्ष है| हम किन के साथ रहें इस की हमें पूरी छूट है| यहाँ धर्म और अधर्म का युद्ध हो रहा है|
अब तो स्थिति ऐसी है कि न तो धर्म से मुझे कोई मतलब है और न ही अधर्म से| सत्य और असत्य, पाप और पुण्य .... ये सब महत्वहीन हो गए हैं| जब से भगवान श्रीकृष्ण हमारे समक्ष हुए हैं तभी से उनके प्रबल आकर्षण से सब कुछ उन ही का हो गया है| कुछ भी अपने पास नहीं बचा है| जैसे एक शक्तिशाली चुंबक लौह धातुओं को अपनी ओर खींच लेता है वैसे ही सब कुछ उन्होने अपनी ओर खींच लिया है| ऐसा प्रबल आकर्षण है उन सच्चिदानंद का| कहीं कोई भेद नहीं है| वे ही पारब्रहम् हैं, वे ही परमशिव हैं और वे ही आदिशक्ति हैं| वे साक्षात् हरिः हैं| अब अपना कहने को कुछ भी नहीं है, सब कुछ उन्हें समर्पित है| उनके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं| कहीं कोई दूरी नहीं है| कूटस्थ में वे नित्य बिराजमान है|
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१ फरवरी २०२०

आकाशस्थ सूर्यमण्डल में परम-पुरुष का सदा ध्यान करें ...

जीवन के सब अभाव दूर होंगे. आकाशस्थ सूर्यमण्डल में परम-पुरुष का सदा ध्यान करें ...
.
गीता में भगवान कहते हैं .....
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना| परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्||८:८||"
अर्थात् हे पार्थ ! अभ्यासयोग से युक्त अन्यत्र न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ (साधक) परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।
उपरोक्त श्लोक पर स्वनामधन्य भाष्यकार आचार्य शंकर कहते हैं ....
हे पार्थ, अभ्यासयोगयुक्त अनन्यगामी चित्त द्वारा अर्थात् चित्तसमर्पण के आश्रयभूत मुझ एक परमात्मा में ही विजातीय प्रतीतियों के व्यवधान से रहित तुल्य प्रतीति की आवृत्तिका नाम अभ्यास है, वह अभ्यास ही योग है| ऐसे अभ्यासरूप योग से युक्त उस एक ही आलम्बन में लगा हुआ विषयान्तर में न जाने वाला जो योगीका चित्त है उस चित्त द्वारा शास्त्र और आचार्य के उपदेशानुसार चिन्तन करता हुआ योगी परम निरतिशय -- दिव्य पुरुषको -- जो आकाशस्थ सूर्यमण्डलमें परम पुरुष है -- उसको प्राप्त होता है।
.
इस से आगे भगवान कहते हैं .....
"कविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः| सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्||८:९||"
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव| भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्||८:१०||"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः| यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये||८:११||"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च| मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्||८:१३||"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः| तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः||८:१४||"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्| नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः||८:१५||"
अर्थात् .... "जो पुरुष सर्वज्ञ, प्राचीन (पुराण), सबके नियन्ता, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर, सब के धाता, अचिन्त्यरूप, सूर्य के समान प्रकाश रूप और (अविद्या) अन्धकार से परे तत्त्व का अनुस्मरण करता है, वह (साधक) अन्तकाल में योगबल से प्राण को भ्रकुटि के मध्य सम्यक् प्रकार स्थापन करके निश्चल मन से भक्ति युक्त होकर उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता हैे वेद के जानने वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं; रागरहित यत्नशील पुरुष जिसमें प्रवेश करते हैं; जिसकी इच्छा से (साधक गण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं - उस पद (लक्ष्य) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा|
सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है| परम सिद्धि को प्राप्त हुये महात्माजन मुझे प्राप्त कर अनित्य दुःख के आलयरूप (गृहरूप) पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं|"
.
जिनके संकल्प से यह सृष्टि सृष्ट हुई है, जीवन उन परमपुरुष यानि परमशिव को समर्पित हो जाये तो क्या जीवन में कोई अभाव रह सकता है? हृदय विदीर्ण हो रहा है भगवान के बिना| जीवन की सबसे पहली आवश्यकता परमात्मा हैं|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
३१ जनवरी २०२०

बसंत पंचमी की शुभ कामनायें .....

"ॐ प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु|" "ॐ ऐं सरस्वत्यै नमः|"
बसंत पंचमी की शुभ कामनायें, माँ सरस्वती को नमन, और वीर बालक हकीकत राय का पुण्य स्मरण .....
.
माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी को ‘बसंत पंचमी’, श्रीपंचमी' और 'सरस्वती पूजा' के रूप में देशभर में मनाया जाता है| इस दिन से बसंत ऋतु का आगमन और शरद ऋतु की विदाई होती है| चालीस-पचास वर्षों पूर्व तक इस दिन प्रायः सभी मंदिरों में भजन-कीर्तन होते थे, गुलाल लगाई जाती थी और पुष्प-वर्षा होती थी| अब तो श्रद्धालु इसे सरस्वती पूजा के रूप में ही मनाते हैं, क्योंकि मान्यता है कि इसी दिन विद्या और बुद्धि की देवी माँ सरस्वती अपने हाथों में वीणा, पुस्तक व माला लिए अवतरित हुई थीं| माँ सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है| ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं| संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं| ‘बसंत पंचमी’ को गंगा का अवतरण दिवस भी माना जाता है| इस दिन गंगा स्नान करने का भी महत्व है| भारत के विभाजन से पूर्व लाहौर में वीर बालक हकीकत राय की स्मृति में एक मेला भी भरता था, वहीं जहाँ वीर बालक हकीकत राय ने धर्म-रक्षार्थ अपने प्राण दिये थे| अब लाहौर में बसंत पंचमी के दिन पतंगें उड़ाई जाती हैं|
.
माघ के महीने में हुई वर्षा को भी शुभ माना जाता है| कहते हैं कि माघ के माह में हुई वर्षा के जल की एक-एक बूंद अमृत होती है| बसंत पंचमी के दिन से प्रकृति का कण-कण खिल उठता है| वसन्त पञ्चमी के समय सरसों के पीले-पीले फूलों से आच्छादित धरती की छटा देखते ही बनती है| प्रकृति इस दिन अपना शृंगार स्वयं करती है|
.
बसंत पंचमी के दिन भगवान श्रीराम भीलनी शबरी की कुटिया में पधारे थे|
कुछ लोक-कथाओं के अनुसार बालक श्रीकृष्ण ने बसंत पंचमी के दिन श्रीराधा जी का शृंगार किया था|
राजा भोज का जन्मदिवस वसंत पंचमी को ही आता हैं| राजा भोज इस दिन एक बड़ा उत्सव करवाते थे जिसमें पूरी प्रजा के लिए एक बड़ा प्रीतिभोज रखा जाता था जो चालीस दिन तक चलता था|
बसंत पंचमी के ही दिन पृथ्वीराज चौहान ने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह मोहम्मद ग़ोरी के सीने में जा धंसा था| इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया था|
२३-०२-१७३४ बसंत पंचमी के ही दिन वीर बालक हकीकत राय ने अपना बलिदान दिया और उनकी पत्नी लक्ष्मी देवी सती हुईं|
१८१६ ई.की बसंत पंचमी के दिन गुरु रामसिंह कूका का जन्म हुआ था| उनके ५० शिष्यों को १७ जनवरी १८७२ को मलेरकोटला में अंग्रेजों ने तोपों के मुंह से बांधकर उड़ा दिया, और बचे हुए १८ शिष्यों को फांसी दे दी| उन्हें मांडले की जेल में भेज दिया गया जहाँ घोर अत्याचार सहकर १८८५ में उन्होने अपना शरीर त्याग दिया|
वसन्त पंचमी के ही दिन हिन्दी साहित्य की अमर विभूति महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्म २८-०२-१८९९ को हुआ था| श्रद्धा से लोग उन्हें 'महाप्राण' कहते थे|
पुनश्च: आप सब को नमन और बसंत-पंचमी की शुभ कामनाएँ| "ॐ ऐं"
२९ जनवरी २०२० 

परमात्मा के लिए "परमशिव" शब्द मुझे बहुत प्रिय है .....

परमात्मा के लिए "परमशिव" शब्द मुझे बहुत प्रिय है .....
मैं परमात्मा के लिए "परमशिव" शब्द का प्रयोग करता हूँ| परमात्मा के सम्बोधन के लिए पता नहीं क्यों "परमशिव" शब्द व्यक्तिगत रूप से मुझे सबसे अधिक प्रिय लगता है| वर्षों पहिले जब से इस शब्द को सुना था तभी से इस शब्द पर और इस से हुई अनुभूतियों पर मैं मोहित हूँ| दर्शनशास्र अति गहन हैं| उनका वास्तविक ज्ञान तो परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति से ही होता है| हमें दर्शनशास्त्रों के बृहद अरण्य में विचरण के स्थान पर परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति पर ही पूरा ध्यान देना चाहिए| दर्शनशास्त्र हमें दिशा दे सकते हैं पर अनुभूति तो परमशिव की परमकृपा से ही होती है| उनकी परमकृपा होने पर सारा ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है|
.
परमशिव का शाब्दिक अर्थ होता है ..... परम कल्याणकारी| पर वास्तव में यह एक अनुभूति है जो तब होती है जब हमारे प्राणों की गहनतम चेतना (जिसे तंत्र में कुण्डलिनी महाशक्ति कहते हैं) सहस्त्रार चक्र और ब्रह्मरंध्र का भी भेदन कर परमात्मा की अनंतता में विचरण कर बापस लौट आती है| परमात्मा की वह अनंतता ही "परमशिव" है| यह मुझ बुद्धिहीन अकिंचन को गुरुकृपा से ही समझ में आया है| वह अनन्तता ही परमशिव है जो परम कल्याणकारी है|
.
जहाँ तक मुझे ज्ञात है, इस शब्द का प्रयोग एक तो स्वनामधन्य आचार्य शंकर ने अपने ग्रंथ "सौंदर्य लहरी" में किया है .....
"सुधा सिन्धोर्मध्ये सुरविटपवाटी परिवृते, मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणि गृहे|
शिवाकारे मञ्चे परमशिव पर्यङ्क निलयाम्, भजन्ति त्वां धन्यां कतिचन चिदानन्द लहरीम्||"
प्रख्यात वैदिक विद्वान श्री अरुण उपाध्याय के अनुसार अनाहत चक्र में कल्पवृक्ष के नीचे शिव रूपी मञ्च है| उसका पर्यङ्क परमशिव है| आकाश में सूर्य से पृथ्वी तक रुद्र, शनि कक्षा (१००० सूर्य व्यास तक सहस्राक्ष) तक शिव, उसके बाद १ लाख व्यास दूर तक शिवतर, सौर मण्डल की सीमा तक शिवतम है| आकाशगंगा में सदाशिव तथा उसके बाहर विश्व का स्रोत परमशिव है जिसने सृष्टि के लिये सङ्कल्प किया|
कश्मीर शैव दर्शन के आचार्य अभिनवगुप्त ने भी प्रत्यभिज्ञा दर्शन में "परमशिव" शब्द का प्रयोग किया है| "प्रत्यभिज्ञा" कश्मीर शैव दर्शन का बहुत प्यारा शब्द है जिसका अर्थ है ..... पहले से देखे हुए को पहिचानना, या पहले से देखी हुई वस्तु की तरह की कोई दूसरी वस्तु देखकर उसका ज्ञान प्राप्त करना|
.
एक शब्द "सदाशिव" है जिसका शाब्दिक अर्थ तो है सदा कल्याणकारी और नित्य मंगलमय| पर यह भी एक अनुभूति है जो विशुद्धि चक्र के भेदन के पश्चात होती है|
ऐसे ही एक "रूद्र" शब्द है जिस में ‘रु’ का अर्थ है .... दुःख, तथा ‘द्र’ का अर्थ है .... द्रवित करना या हटाना| दुःख को हरने वाला रूद्र है|
दुःख का भी शाब्दिक अर्थ है .... 'दुः' यानि दूरी, 'ख' यानि आकाश तत्व रूपी परमात्मा| परमात्मा से दूरी ही दुःख है और समीपता ही सुख है| रुद्र भी एक अनुभूति है जो ध्यान में गुरुकृपा से ही होती है|
.
हमारे स्वनामधन्य महान आचार्यों को ध्यान में जो प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ हुईं उनके आधार पर ही उन्होंने गहन दर्शन शास्त्रों की रचना की| हमारा जीवन अति अल्प है, पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो, अतः अपने हृदय के परमप्रेम को जागृत कर यथासंभव अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में ही व्यतीत करना चाहिए| वे जो ज्ञान करा दें वह भी ठीक है, और जो न कराएँ वह भी ठीक है| उन परमात्मा को ही मैं 'परमशिव' के नाम से ही संबोधित करता हूँ ..... यही परमशिव शब्द का रहस्य है| उन परमशिव का भौतिक स्वरूप ही शिवलिंग है जिसमें सब का लीन यानि विलय हो जाता है, जिस में सब समाहित है|
.
और भी कई बाते हैं जिनको लिखने की अनुमति नहीं है| जो भी ज्ञान मुझे है, उसका पूरा श्रेय मैं गुरुकृपा को देता हूँ| गुरुकृपा ही निजानुभूतियों द्वारा यह सब ज्ञान करा देती है| सहस्त्रार गुरु स्थान है जहाँ उनके चरण कमलों का ध्यान होता है| ब्रह्मरंध्र से परे जो है वह परमशिव है| गुरु तत्व ही शिव तत्व का बोध कराता है|
किसी को विस्तार से सिद्धान्त रूप में ही कुछ जानना है तो शिवपुराण, लिंगपुराण और स्कन्दपुराण जैसे विशाल ग्रन्थ हैं; कश्मीर शैवदर्शन और वीरशैवदर्शन जैसी परम्पराओं के भी अनेक ग्रन्थ है जिन का स्वाध्याय करते रहें|
आप सब में अन्तस्थ परमशिव को मैं साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का समर्पण करता हूँ| ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय |ॐ नमः शिवाय || हर हर महादेव || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२९ जनवरी २०२०

शिवो भूत्वा शिवं यजेत् .....

शिवो भूत्वा शिवं यजेत् .....
.
श्रुति भगवती कहती है ..... ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ यानि शिव बनकर शिव की उपासना करो| जिन्होने वेदान्त को निज जीवन में अनुभूत किया है वे तो इस तथ्य को समझ सकते हैं, पर जिन्होने गीता का गहन स्वाध्याय किया है वे भी अंततः इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे| तत्व रूप में शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है| गीता के भगवान वासुदेव ही वेदान्त के ब्रह्म हैं| वे ही परमशिव हैं|
.
मेरे इस जीवन का अब संध्याकाल है, बहुत कम समय बचा है, करने को तो बहुत कुछ बाकी है, पर अब कुछ भी स्वाध्याय करने का समय नहीं है| अतः सब कुछ भगवान पर छोड़ दिया है| जो करेंगे सो वे ही करेंगे, स्वयं पर कोई भी भार लेने में असमर्थ हूँ| अब सारी उपासना, उपास्य और उपासक वे ही हैं| स्वयं का पता नहीं जो सांसें चल रही हैं, वे कब तक चलेंगी| अब तो ये सांसें भी वे ही ले रहे हैं| जन्म-जन्मांतरों के सारे कर्म, उनके फल, सारी बुराइयाँ/अच्छाइयाँ सब कुछ उन्हें बापस सौंप दिया है| स्वयं को भी उन्हें समर्पित कर दिया है| मेरी कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं है| जो उन की इच्छा है वह ही मेरी इच्छा है|
.
जीवन का मूल उद्देश्य है ..... शिवत्व की प्राप्ति| हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस का उत्तर है ..... कूटस्थ में ओंकार रूप में शिव का ध्यान| यह किसी कामना की पूर्ती के लिए नहीं है बल्कि कामनाओं के नाश के लिए है| आते जाते हर साँस के साथ उनका चिंतन-मनन और समर्पण ..... उनकी परम कृपा की प्राप्ति करा कर आगे का मार्ग प्रशस्त कराता है| जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है --- कामना और इच्छा की समाप्ति|
.
"शिव" का अर्थ शिवपुराण के अनुसार ..... जिन से जगत की रचना, पालन और नाश होता है, जो इस सारे जगत के कण कण में संव्याप्त है, वे शिव हैं| जो समस्त प्राणधारियों की हृदय-गुहा में निवास करते हैं, जो सर्वव्यापी और सबके भीतर रम रहे हैं, वे ही शिव हैं|
अमरकोष के अनुसार 'शिव' शब्द का अर्थ मंगल एवं कल्याण होता है|
विश्वकोष में भी शिव शब्द का प्रयोग मोक्ष में, वेद में और सुख के प्रयोजन में किया गया है|
अतः शिव का अर्थ हुआ आनन्द, परम मंगल और परम कल्याण| जिसे सब चाहते हैं और जो सबका कल्याण करने वाला है वही ‘शिव’ है|
.
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय ||
शिवोहं शिवोहं अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर बावलिया
झुंझुनूं (राजस्थान)
२७ जनवरी २०२०

भारत को तोड़ने की बात करना एक देशद्रोह है ....

भारत को तोड़ने की बात करना एक देशद्रोह है जिसके लिए देशद्रोहियों को प्रकृति कभी क्षमा नहीं करेगी| जिन्होंने भी इस देश को तोड़ा है, इसका विभाजन किया है, वे सब नर्कगामी नरपिशाच थे|
.
मैनें अपने इसी जीवन में इन ग्यारह घोषित रूप से मुस्लिम देशों का भ्रमण किया है ..... मोरक्को, सऊदी अरब, मिश्र, तुर्की, बांग्लादेश, मलयेशिया, इंडोनेशिया, यमन, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत और ईरान| अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि भारत में जितनी सुख-शांति है उतनी विश्व के किसी भी मुस्लिम देश में नहीं है, और भारत में मुसलमान जितने सुखी हैं उतने विश्व के अन्य किसी भी मुस्लिम देश में नहीं हैं| घोषित रूप से मुस्लिम देशों में अन्य मतावलंबियों (धार्मिक अल्पसंख्यकों) को कोई नागरिक अधिकार नहीं हैं|
.
तीस-बत्तीस वर्ष पूर्व यूक्रेन के ओडेशा नगर में एक वयोवृद्धा विदुषी तातार मुस्लिम महिला और उनके परिवार से मेरी मित्रता थी जिनसे मुझे ऐतिहासिक रूप से बहुत कुछ जानने को मिला| कई भाषाओं की ज्ञाता वह तातार मुस्लिम महिला मूल रूप से मंचूरिया में एक मेडिकल डॉक्टर थी जिसका पति व्यापारी था| मंचूरिया पर चीन के अधिकार के बाद चीन ने उसके पति को मार दिया और उसे जापान समर्थक होने का आरोप लगाकर दस वर्ष तक राजनीतिक बंदी के रूप में कारावास में रखा| अमेरिका के दबाव से वह मुक्त हुई और अपनी खोयी हुई एकमात्र संतान अपनी बेटी की खोज की तो अपनी बेटी को यूक्रेन में पाया जहाँ वह विवाह कर के बस गई थी| वह महिला भी अपनी अमेरिकी नागरिकता को छोड़कर यूक्रेन के ओडेशा नगर में अपनी बेटी के पास ही बस गई थी| गजब का ऐतिहासिक ज्ञान था उन्हें जिस पर मेरे साथ उन्होंने काफी चर्चा की| उन्होने सप्रमाण बताया कि पूरा मध्य एशिया इस्लाम के आगमन से पूर्व बौद्ध मत का अनुयायी था| उन्होने अहिंसा पर इतना अधिक ज़ोर दिया कि इस्लामी तलवार का सामना नहीं कर सके| सब को इस्लाम कबूल करना पड़ा, जिन्होने नहीं किया, वे काट डाले गए|
अपनी रुचि से इतिहास में मैंने सल्तनत-ए-उस्मानिया के इतिहास का, और अन्य कई मत-मतांतरों का अध्ययन भी किया है|
.
अपनी अंतर्प्रज्ञा से कह सकता हूँ कि भारत के भीतर और बाहर के शत्रुओं का नाश होगा, और भारत विजयी होगा| मैं उस दिन को देखने जीवित रहूँ या न रहूँ पर एक न एक दिन भारत अवश्य ही अपने द्वीगुणित परम वैभव को प्राप्त कर अखंड होगा| कोई असत्य और अंधकार यहाँ नहीं रहेगा| अमर शहीद पंडित रामप्रसाद विस्मिल की एक बहुत पुरानी कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ ....
"भारत जननि तेरी जय हो विजय हो ।
तू शुद्ध और बुद्ध ज्ञान की आगार,
तेरी विजय सूर्य माता उदय हो ।।
हों ज्ञान सम्पन्न जीवन सुफल होवे,
सन्तान तेरी अखिल प्रेममय हो ।।
आयें पुनः कृष्ण देखें द्शा तेरी,
सरिता सरों में भी बहता प्रणय हो ।।
सावर के संकल्प पूरण करें ईश,
विध्न और बाधा सभी का प्रलय हो ।।
गांधी रहे और तिलक फिर यहां आवें,
अरविंद, लाला महेन्द्र की जय हो ।।
तेरे लिये जेल हो स्वर्ग का द्वार,
बेड़ी की झन-झन बीणा की लय हो ।।
कहता खलल आज हिन्दू-मुसलमान,
सब मिल के गाओं जननि तेरी जय हो ।।"
भारत माता की जय | वंदे मातरम् ||
२६ जनवरी २०२०

जय भारतवर्ष .....

भारतवर्ष ..... जिस देश में गंगा, गोमति, गोदावरी, सिन्धु, सरस्वती, सतलज, यमुना, नर्मदा, कावेरी, कृष्णा व ब्रह्मपुत्र जैसी पवित्र नदियाँ बहती हैं; जहाँ हिमालय जैसे अति विस्तृत और उत्तुंग पर्वत शिखर और अनेक पावन पर्वतमालाएँ; सप्त पुरियाँ, द्वादश ज्योतिर्लिंग, बावन शक्तिपीठ; अनगिनत पवित्र तीर्थ, वन, गुफाएँ, वैदिक संस्कृति, सनातन धर्म की परम्परा, अनेक ऊर्ध्वगामी मत-मतान्तर, तपस्वी संत-महात्मा व ऐसे अनगिनत लोग भी हैं जो दिन-रात निरंतर परमात्मा का चिन्तन करते हैं और परमात्मा का ही स्वप्न देखते हैं; हम सब धन्य हैं जिन्होनें इस पावन भूमि में जन्म लिया है| मैं उन सब का सेवक, उन सब को नमन करता हूँ जिन के ह्रदय में परमात्मा को पाने की प्रचंड अभीप्सा है, और जो निरंतर प्रभु प्रेम में मग्न हैं| उन के श्रीचरणों की धूल मेरे माथे की शोभा है|
.
हर चौबीस हज़ार वर्षों के कालखंड में चौबीस सौ वर्षों का एक ऐसा समय आता है जब इस भूमि पर अन्धकार व असत्य की शक्तियाँ हावी रहती हैं| वह समय अब व्यतीत हो चुका है| ऐसी शक्तियाँ अब पराभूत हो रही हैं| आने वाला समय सतत प्रगति का है| कोई चाहे या न चाहे अब हमारी चेतना को ऊर्ध्वगामी होने से कोई नहीं रोक सकता| भारतवर्ष निश्चित रूप से एक आध्यात्मिक राष्ट्र होगा और अपने परम वैभव को प्राप्त करेगा, अतः चिंता की कोई बात नहीं है| अपना दृष्टिकोण बदल कर अपना अहैतुकी परम प्रेम परमात्मा को दें| अपने जीवन का केंद्रबिंदु परमात्मा को बनायें| जीवन में अपना सर्वश्रेष्ठ करते रहें| सब अच्छा ही अच्छा होगा|
.
गणतंत्र दिवस की पुनश्च: शुभ कामनाएँ और अभिनंदन | ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
२५ जनवरी २०२०

आध्यात्म में सर्वोपरी महत्व कुछ होने का है, करने का नहीं .....

आध्यात्म में सर्वोपरी महत्व कुछ होने का है, करने का नहीं| हम कुछ होने के लिए ही कुछ करते हैं| योगसूत्रों व आगम ग्रन्थों के अनुसार हम वही हो जाते हैं जैसा हम निरंतर सोचते है| निरंतर परमात्मा का चिंतन करने से परमात्मा के गुण हमारे में आ जाते हैं| तभी शिव-संकल्पों पर ज़ोर दिया गया है| ऐसे ही लोगों के साथ मेलजोल रखें जो सदा परमात्मा के बारे में सोचते हैं| उन लोगों का साथ विष की तरह छोड़ दें जो परमात्मा से विमुख हैं| उनसे मिलना तो क्या उनकी और आँख उठाकर देखना भी बड़ा दुःखदायी होता है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ जनवरी २०२०

भारत के राष्ट्रपिता कौन हो सकते हैं ? .....

भारत के राष्ट्रपिता कौन हो सकते हैं ? .....
---------------------------------------
पिता वह है जो अपने बच्चों का उचित पालन-पोषण, विकास और रक्षा करे| भारत के राष्ट्रपिता स्वयं भगवान विष्णु ही हो सकते हैं, अन्य कोई नहीं. वे ही हमारा पालन-पोषण और रक्षा कर रहे हैं|
या फिर ऋषभदेव के पुत्र भरत हो सकते हैं जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा है|
राष्ट्र की अवधारणा वैदिक है जिसके अनुसार इस पृथ्वी पर एकमात्र राष्ट्र सिर्फ भारतवर्ष ही है|
२५ जनवरी २०२०