Monday 2 January 2017

आत्मसूर्य .....

आत्मसूर्य .....
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एक सूर्य और है, वह है .... आत्म सूर्य जिसके दर्शन योगियों को कूटस्थ में होते हैं| उस कूटस्थ सूर्य में योगी अपने समस्त अस्तित्व को विलीन कर देता है| उस सूर्य को ज्योतिर्मय ब्रह्म भी कह सकते हैं| पहिले एक स्वर्णिम आभा के दर्शन होते हैं फिर उसके मध्य में एक नीला प्रकाश फिर उस नीले प्रकाश में एक श्वेत पंचकोणीय नक्षत्र जिस पर योगी ध्यान करते हैं| उस पंचकोणीय नक्षत्र का भेदन करने पर योगी परमात्मा के साथ एक हो जाता है| उसका कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता|
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पंचमुखी महादेव उसी पंचकोणीय नक्षत्र के प्रतीक हैं| यह योग मार्ग की सबसे बड़ी साधना है| यह श्वेत ज्योति ही कूटस्थ ब्रह्म है| आरम्भ में योगी अजपा जाप द्वारा कूटस्थ पर ध्यान करते हैं| फिर वहीं अनाहतनाद प्रणव सुनता है जिसका ध्यान करते करते सुक्ष्म देह्स्थ मेरुदंड के चक्र जागृत होने लगते हैं| सुषुम्ना में प्राण तत्व की अनुभूति होती है और शीतल (सोम) व उष्ण (अग्नि) धाराओं के रूप में ऊर्जा मूलाधार से मेरुशीर्ष व आज्ञाचक्र के मध्य प्रवाहित होने लगती है| सुषुम्ना में भी तीन उप नाड़ियाँ -- चित्रा, वज्रा और ब्राह्मी हैं जो अलग अलग अनुभूतियाँ देती हैं| गुरुकृपा से आज्ञाचक्र का भेदन होकर सहस्त्रार में प्रवेश होता है| गुरू प्रदत्त कुछ बीजमंत्रों के साथ इस ऊर्जा का सुषुम्ना में सचेतन प्रवाह ही क्रिया योग की साधना है| इसका उद्देश्य समस्त चक्रों की चेतना का कूटस्थ में विलय है|
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सबसे बड़ी शक्ति जो आपको ईश्वर की और ले जा सकती है वह है -- अहैतुकी परम प्रेम| उस प्रेम के जागृत होने पर साधक को स्वयं परमात्मा से ही मार्गदर्शन मिलने लगता है| वह अहैतुकी परम प्रेम आप सब में जागृत हो|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
January 02, 2013.

साधना का उद्देश्य है ..... आत्म समर्पण ......

साधना का उद्देश्य है ..... आत्म समर्पण ......
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जो भी साधना हम करते हैं वह हमारे लिये नहीं अपितु भगवान के लिये है|
उसका उद्देश्य व्यक्तिगत मुक्ति नहीं है|
साधना का उद्देश्य है ---- "आत्म समर्पण|"
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अपने समूचे ह्रदय और शक्ति के साथ अपने आपको भगवान के हाथों में सौंप दो| कोई शर्त मत रखो, कोई चीज़ मत मांगो, यहाँ तक कि योग में सिद्धि भी मत मांगो|
जो लोग भगवान से कुछ मांगते हैं, उन्हें वे वही चीज़ देते हैं जो वे मांगते हैं|
परन्तु जो अपने आप को दे देते हैं और कुछ भी नहीं मांगते उन्हें वे अपना सब कुछ दे देते हैं|
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भगवान का शाश्वत वचन है -- "मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि|"
यानी अपने आपको ह्रदय और मन से मुझे दे देने से तूँ समस्त कठिनाइयों और संकटों को मेरे प्रसाद से पार कर जाएगा|
"सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज | अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः|"
समस्त धर्मों (सभी सिद्धांतों, नियमों व हर तरह के साधन विधानों का) परित्याग कर और एकमात्र मेरी शरण में आजा ; मैं तुम्हें समस्त पापों और दोषों से मुक्त कार दूंगा --- शोक मत कर|
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हमारे से कहीं अधिक शक्तिशाली सत्ता इस कार्य में लगी हुई है| फिर भी अपने प्रयास में बराबर लगे रहो|
श्री अरविन्द के शब्दों में -- कर्म तो शक्तिशाली भगवान, स्वयं काली ही करती हैं और उसे यज्ञ रूप में श्रीकृष्ण को अर्पित करती हैं ; तुम तो केवल उस यजमान की तरह हो जो यज्ञ को संपन्न होते हुए देखता है ; जिसकी उपस्थिति यज्ञ की प्रत्येक क्रिया के लिये आवश्यक है और जो उसके फलों का रसास्वादन करता है|
न केवल कर्ताभाव, कर्मफल आदि बल्कि कर्म तक को उन्हें समर्पित कर दो| साक्षीभाव या दृष्टाभाव तक उन्हें समर्पित कर दो| साध्य भी वे ही हैं, साधक भी वे ही हैं और साधना भी वे ही है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
January 02, 2013.

मुक्ति व सेवा का राजमार्ग .....

मुक्ति व सेवा का राजमार्ग .....
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अपनी बुराई-भलाई, बुरे-अच्छे सभी प्रारब्ध-संचित कर्म, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी अपना सम्पूर्ण अस्तित्व बापस परमात्मा को सौंप दो और उन्हीं के हो जाओ ..... बस यही मुक्ति का एकमात्र मार्ग है व यही सबसे बड़ी सेवा है जो हम किसी के लिए कर सकते हैं| जब परमात्मा के प्रति प्रेम जागृत होगा और पात्रता आएगी तब स्वतः ही मार्गदर्शन भी भगवान स्वयं करते हैं|
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अपने समाज का और भारतवर्ष का पतन और बिखराव हुआ, इसका कारण कलि के प्रभाव से षड़रिपु .... काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और अहंकार रूपी अज्ञानता का समाज में वर्चस्व होना था| इसी कारण से सद् गुण विकृतियाँ आईं| अन्य कोई कारण नहीं था|
इस स्थिति को सबसे पहिले समझा आचार्य चाणक्य ने| उनके प्रयासों से भारत में सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता स्थापित हुई| शताब्दियों तक भारत की ओर बुरी दृष्टी से आँख उठाकर देखने का किसी में साहस नहीं हुआ|
भारत का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पतन और बिखराव समय के प्रभाव से फिर हुआ| इस तामसिक प्रभाव को समझ कर दूर किया आचार्य शंकर के प्रयासों ने|
समय के प्रभाव से भारत फिर पदाक्रांत हुआ और अभारतीय कुटिल, क्रूर, निर्दय व दुर्दांत सांस्कृतिक व राजनीतिक सत्ताएँ भारत में छा गईं| भारत ने कभी उनको स्वीकार नहीं किया, सदा प्रतिकार किया और उनके विरुद्ध संघर्ष जारी रखा|
उनके विरुद्ध भारत में अनेकानेक भक्तों व संत-महात्माओं ने जन्म लिया और अपने प्रयासों से भारत की सांस्कृतिक व आध्यात्मिक एकता बनाए रखी| हम सदा कृतज्ञ और आभारी रहेंगे उनका|
भारत के भीतर एक अभारत के रूप में पाकिस्तान का जन्म हुआ और भारत की सत्ता पर प्रभाव भी विदेशियों के मानसपुत्रों व अभारतीय विचारधारा के लोगों का हुआ| यहाँ भी भारत की आत्मा ने अपना प्रतिकार जारी रखा| इस बात को श्रीअरविन्द, वीर सावरकर व डा.हेडगेवार जैसे लोग तो बहुत पहिले ही समझ गए थे, फिर डा.श्यामाप्रसाद मुखर्जी और पं.दीनदयाल उपाध्याय जैसों ने समझा| उन्होंने अपने प्रयासों से भारतीयता के लिए संघर्ष जारी रखा|
सौभाग्य से आज भी भारत में अनेक अज्ञात साधू-संत-महात्मा हैं जो भारत की सांस्कृतिक व आध्यात्मिक एकता और भारत की आत्मा की रक्षा के लिए साधना और संघर्ष कर रहे हैं|
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भारतीयता की रक्षा तभी होगी जब हम अपने निज जीवन में स्वधर्म को समझेंगे और उसका पालन करेंगे| धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा करता है, अन्य कोई साधन या मार्ग नहीं है| जो धर्म की रक्षा करेगा, धर्म भी उसकी रक्षा करेगा|
इस के लिए हमें अपने निज जीवन में इन षड़रिपुओं ..... काम. क्रोध, लोभ. मोह, मद व मत्सर्य का प्रभाव कम से कम करना होगा, और निज जीवन में ही परमात्मा को अवतरित करना होगा|
सभी को पूर्ण ह्रदय से शुभ कामनाएँ और अहैतुकी प्रेम|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

जीवन में गुरु का अवतरण ........

जीवन में गुरु का अवतरण ........
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जीवन में सद्गुरु कहीं ढूँढने से नहीं मिलते| जब पात्रता होती है तब सद्गुरु स्वयं ही जीवन में अवतरित हो जाते हैं| कोई आवश्यक नहीं है कि सद्गुरु वर्तमान में भौतिक देह में ही हो| अपने प्रारब्ध के अनुसार सूक्ष्म जगत की आत्माएँ भी गुरु रूप में आ जाती हैं, जिनसे व्यक्ति का किसी पूर्व जन्म में सम्बन्ध रहा हो| मैं इस बारे में सब कुछ अपने निजी अनुभवों से कह रहा हूँ, अन्य लोगों की धारणाओं का मेरे इस लेख से कोई सम्बन्ध नहीं है| गुरु कभी स्वयं को गुरु नहीं कहता पर जीवन में उसका आविर्भाव होते ही पता चल जाता है|
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मुझे गुरुलाभ भी समुद्र में ही हुआ और गुरु से जो भी आरम्भिक प्रेरणाएँ और ज्ञान मिला वह भी समुद्रों में ही मिला| फरवरी सन १९७९ ई. की बात है, मैं एक जलयान में लम्बी यात्रा कर रहा था| मेरे पास बहुत समय से 'Autobiography of a Yogi' नाम की एक पुस्तक पड़ी थी जिसे मैंने कभी नहीं पढ़ा था| उस दिन सायंकाल में उस पुस्तक को मैनें कौतूहलवश ही पढना आरम्भ किया तो वह पुस्तक इतनी अच्छी लगी कि रात भर सोया नहीं, वह पुस्तक ही पढ़ता रहा| जब अगले दिन प्रातःकाल में वह पुस्तक समाप्त हुई तब मैनें अपने कमरे (Cabin) की खिड़की (Port hole) खोली और बाहर नीरव शांत समुद्र में छाई हुई चाँदनी का आनंद लेने लगा और उस पुस्तक की दिव्यता के बारे में सोचता रहा| अचानक ही मुझे ऐसे लगा जैसे हज़ारों लाखों वोल्ट की विद्युत् मेरे सिर से पैर तक गुज़र गयी हो| यह अनुभव बड़ा आनंददायक था| इससे कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि शक्तिपात के बारे में एक अन्य पुस्तक में पढ़ चुका था| अगले चार-पांच दिन बड़े गहन आनंद में निकले| इस अनुभव से पता चला कि पूर्व जन्म के गुरु ही अब इस जन्म में भी हैं और उन्होंने सम्भाल लिया है| गुरु का साथ शाश्वत है|
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सन १९८१ की बात है| एक समुद्री यात्रा में ही ध्यान करते करते अचानक एक ऐसी अवस्था में पहुँच गया जो न तो जागृत थी और न ही सुप्त| सूक्ष्म देह में गुरु की अनुभूति हुई और बहुत कुछ उन्होंने बता दिया और दीक्षित भी कर दिया| यह पूरी प्रक्रिया कुछ मिनटों में ही समाप्त हो गयी| फिर धीरे धीरे समय समय पर कई रहस्य खुलते गये और अनेक बार बड़ी दुर्घटनाओं से रक्षा भी हुई| चमत्कारों का जीवन में कोई महत्व नहीं है, चमत्कार तो सामान्य घटनाएँ हैं|
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जीवन में कई दुःखों, कष्टों और यंत्रणाओं से निकला हूँ और अभी भी निकल रहा हूँ, पर मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि ये सब मेरे प्रारब्ध का भाग है| जीवन में जितनी यंत्रणाएं झेली हैं उनसे कई गुना अधिक तो आनंद प्राप्त किया है|
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सन १९८५ के आसपास का समय तो ऐसा प्रेममय था जो काश अब भी होता| रात्रि को जब सोता तब ऐसे लगता था जैसे जगन्माता की गोद में निश्चिन्त होकर सो रहा हूँ| हर समय परमात्मा की अनुभूतियाँ रहती| पर वह एक अलग ही समय था| बहुत अधिक वैराग्य हो गया था पर प्रारब्ध में बहुत कुछ अन्य ही भोगना बाकी था|
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गुरु भी एक ऐसे तट पर छोड़ देते हैं जहाँ से आगे का मार्ग परमात्मा की कृपा से स्वयं ही तय करना पड़ता है| हालाँकि गुरु का आशीर्वाद, अदृश्य साथ और सतत मार्गदर्शन बना रहता है|
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जीवन में बहुत अधिक बड़ी बड़ी भूलें भी की हैं ..... हिमालय से भी बड़ी भूलें और गलतियाँ| पर करुणामयी जगन्माता का प्रेमसिन्धु इतना विराट है कि वे हिमालय सी भूलें भी वहाँ कंकर-पत्थर से अधिक नहीं हैं| सांसारिक माता ही अपने पुत्र के कई अपराध क्षमा कर देती हैं तो जगन्माता का ह्रदय तो बहुत अधिक उदार है|
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प्रेममयी जगन्माता कृपा करके सभी बन्धनों से मुक्त करेंगी और अपनी पूर्णता से एकाकार भी अवश्य करेंगी| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
पौष कृ.८, वि.सं.२०७२ // २ जनवरी २०१६