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सनातन धर्म की निंदा को मैं सहन नहीं कर सकता। ऐसे निंदक लोगों की शक्ल भी मैं नहीं देखता। भारत पर अंग्रेजों और पूर्तगालियों का राज्य राक्षसों का ही राज्य था, जिन्होंने सनातन धर्म को नष्ट करने का अपनी पूरी शक्ति से पूरा प्रयास किया। उन्होंने भारत से सारे भारतीयों को मारने का भी उसी तरह प्रयास किया था जैसा सामूहिक नर संहार उन्होंने उत्तरी-अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया महाद्वीपों में किया। वहाँ की लगभग सारी स्थानीय आबादी की हत्या कर उनके स्थान पर यूरोप के गोरों को बसा दिया। सन १८५७ के असफल प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के बाद करोड़ों भारतीयों की हत्या की गई। दुबारा फिर उसके बाद कृत्रिम अकाल की स्थिति उत्पन्न कर करोड़ों भारतीयों को भूख से मारा गया। पुर्तगालियों द्वारा गोवा में लगभग सारे ब्राह्मण पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की सामूहिक हत्या की गई। वे ही बचे जो किसी तरह स्वयं को छिपा सके। लेकिन पश्चिमी राक्षस लोग अपने प्रयास में सफल नहीं हुए। उससे पूर्व, मध्य एशिया से आए लुटेरों ने भी करोड़ों भारतीयों का सामूहिक नर-संहार कर ऐसा ही प्रयास किया था।
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भारत की सबसे बड़ी हानि तो यह की गई कि भारत की शिक्षा-व्यवस्था को बड़ी क्रूर निर्दयता व धूर्तता से अंग्रेजों द्वारा नष्ट कर दिया गया। गुरुकुलों की शिक्षा को अमान्य कर दिया, गुरुकुलों को प्रतिबंधित कर उनमें आग लगा दी गई। अनेक आचार्यों की हत्या कर दी गई, उनके ग्रंथ छीनकर उन्हें विपन्न कर दिया गया। उन्हे इतना अधिक दरिद्र बना दिया गया कि वे स्वयं के बच्चों को भी पढ़ाने में भी असमर्थ हो गए। फिर उनके बचे-खुचे ग्रंथ भी उनसे रद्दी के भाव खरीद लिए गए।
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इससे भी अधिक निकृष्ट काम अंग्रेजों के वेतनभोगी पादरियों ने यह किया कि उन्होने संस्कृत भाषा सीखकर हिंदुओं के धर्म-ग्रन्थों में मिलावट कर के अर्थ का अनर्थ कर दिया। ब्राह्मणों को अत्याचारी बताकर उनमें और समाज के अन्य वर्गों में एक शत्रुता उत्पन्न कर दी। सनातन धर्म को बहुत ही अधिक बदनाम करने का काम भी पादरियों ने ही किया है।
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भारत को स्वतंत्र कराने में अंततः सबसे बड़ी भूमिका वीर सावरकर और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जैसों की थी। लेकिन कुटिलता से उनके स्थान पर हिन्दू द्रोही काले अंग्रेज़ सत्तासीन हुए और खुल कर हिन्दू द्रोह हुआ। भारत को धर्म-निरपेक्ष (अधर्म-सापेक्ष) बना कर संविधान में ऐसी धारायें जोड़ी गईं जिनके अनुसार हिंदुओं को अपने धर्म की शिक्षा देने का अधिकार, मान्यता प्राप्त विद्यालयों में नहीं रहा। उनके मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में ले लिया गया। मंदिरों का जो धन धर्म-प्रचार में लगना चाहिए था वह अधर्म के कार्यों में खर्च किया जाने लगा। कुल मिलाकर भारतीयों को अपने धर्म से विमुख करने का पूरा प्रयास हुआ।
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लेकिन अधर्मियों को यह नहीं पता कि यह पूरी सृष्टि ही धर्म से चल रही है। धर्म को नष्ट करने का प्रयास करने वाले अंततः स्वयं ही नष्ट हो जाएँगे। धर्म की पुनर्स्थापना तो भगवान स्वयं करेंगे, और अधर्मियों का नाश भी वे ही करेंगे। भगवान का वचन है --
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्॥४:७॥"
"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥४:८॥"
अर्थात् - हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ॥
साधु पुरुषों के रक्षण, दुष्कृत्य करने वालों के नाश, तथा धर्म संस्थापना के लिये, मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ॥"
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धर्म का पालन कर के हम धर्म की रक्षा ही नहीं परमात्मा का कार्य भी कर रहे हैं।
हमारा स्वधर्म है -- भगवत्-प्राप्ति। यही सनातन धर्म का सार है। परधर्म में मरने की अपेक्षा स्वधर्म में मरना अधिक श्रेयस्कर है। यह भगवान का कथन है --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् -- सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
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थोड़ा-बहुत धर्म का पालन भी महाभय से हमारी रक्षा करेगा। भगवान कहते हैं --
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् - इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥
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>>> धर्म क्या है? <<< वैशेषिक सूत्रों में महर्षि कणाद के अनुसार --
“यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि:स धर्म:।“
अर्थात् - "जिस माध्यम से हमारा सर्वांगीण विकास हो, और सभी प्रकार के दुःखों-कष्टों से मुक्ति मिले, उसी को धर्म कहते हैं।"
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जो सत्य से युक्त, न्याय से परिचालित, पक्षपात रहित, और ईश्वरोक्त वेदाज्ञा के अनुकूल है, उसे ही मैं धर्म मानता हूँ। इसके विपरीत जो है, वह अधर्म है। धर्म-निरपेक्षता भी अधर्म है।
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धर्म के दस लक्षण है। जहां ये लक्षण हैं, वहीं धर्म है ---
"धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रिय निग्रहः।
धीः विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥"
अर्थात् -- धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना )। यही धर्म के दस लक्षण है।
(इनकी मैं यहाँ व्याख्या नहीं कर सकता, क्योंकि व्याख्या करेंगे तो अलग से एक पूरी पुस्तक ही लिखी जायेगी। किसी लेख में इनका समापन नहीं हो सकता)
इन का स्वाध्याय अलग से करें।
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महर्षि याज्ञवल्क्य ने याज्ञवल्क्य स्मृति में धर्म के नौ लक्षण बताए हैं।
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में धर्म के तीस लक्षण बतलाये गए हैं।
महाभारत में धर्मात्मा विदुर ने धर्म के आठ अंग बताए हैं।
रामचरितमानस में अनेक बार भगवान राम ने भी धर्म की व्याख्या की है।
पद्म पुराण में तो धर्म की बहुत विस्तार से व्याख्या की गई है।
तीर्थंकर महावीर द्वारा "दश लक्षण धर्म" बताया गया है।
भारत के सभी अवतारों ने धर्म की विस्तृत व्याख्या की है। भारत में "धर्म" शब्द की जितनी चर्चा हुई हुई है, उतनी अन्यत्र कहीं भी नहीं हुई है।
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इस लेख का समापन यहीं कर रहा हूँ। अधिक बड़े लेखों को कोई नहीं पढ़ता। इसे लिखने का जो मेरा उद्देश्य था वह इस लेख से पूर्ण हो गया है।
आप सभी महानुभावों को सादर सप्रेम नमन॥ ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१५ जनवरी २०२२