Monday 24 January 2022

वाणलिंग क्या होता है? ----

 वाणलिंग क्या होता है? ----

.
ओंकारेश्वर के पास में एक "धावड़ी कुंड" नामक स्थान था। वह किसी युग में वाणासुर नाम के एक परम शिवभक्त असुर राक्षस का यज्ञकुंड हुआ करता था। उसने भगवान शिव को प्रसन्न कर के यह वरदान प्राप्त किया कि इस यज्ञकुंड से नर्मदा जी प्रवाहित हों, और यहाँ से निकले शिवलिंग सबसे अधिक पवित्र हों।
.
उसका यज्ञकुंड बहुत विशाल था, जिसमें ऊंची-नीची और घुमावदार बहुत सारी चट्टानें थीं। नर्मदा जी बहुत अधिक वेग से वहाँ से बहने लगीं, और वहाँ की ऊंची-नीची-घुमावदार चट्टानों से टूट टूट कर असंख्य शिवलिंग बनने लगे। वैसे तो नर्मदा का हर पत्थर शिवलिंग है जिनको किसी प्राण-प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन धावड़ी कुंड से निकला शिवलिंग वाणलिंग कहलाता है और सबसे अधिक पवित्र माना जाता है।
.
नर्मदा पर बांध बनने से अब तो वह धावड़ी कुंड पानी में डूब गया है, अतः वाणलिंग मिलने बंद हो गए हैं। लेकिन जब पानी का स्तर थोड़ा नीचे होता है तब आसपास के गांवों के कुछ गोताखोर तैराक आपसे कुछ रुपये लेकर गोता लगाकर नीचे से एक विलक्षण शिवलिंग ला देंगे।
.
वाणलिंग की पहिचान ---
वाणलिंग को एक तराजू में चावलों से चार-पाँच बार तौला जाता है। जितनी बार भी तोलोगे उतनी ही बार चावलों का परिमाण अलग अलग होगा। यही उसकी पहिचान है। नर्मदा तट पर तपस्या करने वाले अनेक साधु अपनी जटा में वाणलिंग बांध कर रखते हैं। उसकी नित्य पूजा कर बापस अपनी जटा में बांध लेते हैं।
.
एक बार घर में वाणलिंग स्थापित करने के बाद उसकी नित्य पूजा होनी चाहिए। घर में रखे वाणलिंग की पूजा न करने से गृहस्थ को पाप लगता है और उसका अनिष्ट होता है।
१० जनवरी २०२२

अपनी कमियों व कर्मों के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं, भगवान नहीं ---

 अपनी कमियों व कर्मों के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं, भगवान नहीं ---

.
भगवान की कोई इच्छा या अनिच्छा नहीं होती, उनकी कृपा सब पर बराबर है। हम अपनी असफलता/असमर्थता/असहायता के लिए भगवान को दोष देते हैं, यह गलत है। यह झूठ है कि -- वही होता है जैसी भगवान की इच्छा होती है। यहाँ भगवान की कोई इच्छा या अनिच्छा नहीं है, यह सृष्टि अपने नियमों के अनुसार चल रही ही। प्रकृति अपने नियमों से कोई समझौता नहीं करती। उन नियमों को न समझना हमारा अज्ञान है। जिसे हम नहीं समझते, उसे अपना भाग्य कह देते हैं। उस दुर्भाग्य या सौभाग्य के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं, भगवान नहीं।
.
गुरुकृपा से मैंने कर्मफलों व पुनर्जन्म को बहुत अच्छी तरह से समझा है, और बहुत कुछ अनुभूत किया है जो अनिर्वचनीय है। मेरी भी अपनी सीमाएँ हैं, विवशता है। अपनी अनुभूतियों को शब्द देने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। इसमें दोष किसी अन्य का या भगवान का नहीं है; मेरे अपने ही कर्मों का ही है, जिन का फल मैं भुगत रहा हूँ। अपने कई अनुभवों को मैं व्यक्त करना चाहता हूँ, लेकिन अपनी स्वयं कि कमजोरियों के कारण नहीं कर सकता। भगवान ने तो अपनी परमकृपा कर के अपने कई रहस्य मुझ पर अनावृत किए हैं -- जिनकी मुझमें पात्रता थी भी या नहीं, मुझे नहीं पता।
.
सब बंधनों को तोड़ने का एकमात्र उपाय है - भगवान की भक्ति (परमप्रेम) और समर्पण; जैसा भगवान ने गीता में बताया है ---
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
.
इस से अधिक कुछ लिखने की आंतरिक अनुमति मुझे नहीं है। आप सब में परमात्मा को नमन !! ॐ तत्सत् !! हरिः ॐ !!
कृपा शंकर
११ जनवरी २०२२ (23:32hrs.)

मेरे आज्ञाकारी शिष्य, मेरे अनुयायी, मेरे मित्र, और मेरी संतान कौन हैं? ---

 मेरे आज्ञाकारी शिष्य, मेरे अनुयायी, मेरे मित्र, और मेरी संतान कौन हैं? ---

.
मेरे विचार ही अब मेरे आज्ञाकारी शिष्य, अनुयायी और मेरी संतान बन गए हैं। उन्हें मैं सजाऊँगा, संवारूंगा, और सर्वश्रेष्ठ बनाऊँगा। मुझे उन पर गर्व है कि वे परमशिव से प्रेम करने लगे हैं। उन्होने मेरा सदा साथ दिया है। उनके भरोसे ही मैं अब निश्चिंत होकर जीवित रहते हुए ही इस भौतिक देह की चेतना से भी बहुत ऊपर उठ सकता हूँ। रात्री में जब तक भगवान की गहनतन अनुभूति न हो तब तक मुझे सोना नहीं चाहिए। यह शरीर याद दिलाएगा कि मैं थक गया हूँ, और विश्राम की आवश्यकता है। लेकिन मुझे उसकी उपेक्षा कर देनी चाहिए, क्योंकि मैं यह शरीर नहीं हूँ। अधिक से अधिक क्या होगा? कुछ भी नहीं, क्योंकि इस शरीर का साथ तो तब तक नहीं छूट सकता जब तक इसके साथ रहने का प्रारब्ध है। लेकिन भगवान का नियमित ध्यान नहीं करने से भगवान को पाने की अभीप्सा ही समाप्त हो सकती है। नित्य नियमित परमशिव में स्थित रहने की उपासना अति अनिवार्य है। इस संसार में सबसे अधिक सुंदर कौन है? जिस के हृदय में भगवान के प्रति कूट कूट कर प्रेम भरा पड़ा है, वही इस संसार का सबसे अधिक सुन्दर व्यक्ति है, चाहे उस की भौतिक शक्ल-सूरत कैसी भी हो। जिसके हृदय में भगवान से प्रेम नहीं हैं है, वह सबसे अधिक वीभत्स और भयावह है।
.
"तेरे भावे जो करे भलो-बुरो संसार। नारायण तू बैठ के अपनो भुवन बुहार॥"
मेरे वश में कोई बात नहीं है तो मैं अपनी कमी को ढकने के लिए कभी सृष्टिकर्ता को दोष न दूँ। जो करेगा सो भरेगा। भगवान की चेतना में किया गया हरेक कार्य शुभ ही है। मेरा कार्य भगवान का प्रकाश फैलाना है, न कि अंधकार। जितना अधिक मैं भगवान का ध्यान करता हूँ, उतना ही अधिक मैं स्वयं का ही नहीं, पूरी समष्टि का उपकार करता हूँ। यही एकमात्र और सबसे बड़ी सेवा है जो मैं कर सकता हूँ। किसी भी परिस्थिति में निज विवेक से सर्वश्रेष्ठ कर्म करना मेरा अधिकार व कर्त्तव्य है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०२२

उत्तरायण और दक्षिणायण अब कहीं बाहर नहीं, मेरे सूक्ष्म शरीर में ही हरेक साँस के साथ घटित हो रहे हैं ---

 उत्तरायण और दक्षिणायण अब कहीं बाहर नहीं, मेरे सूक्ष्म शरीर में ही हरेक साँस के साथ घटित हो रहे हैं। मेरे सूक्ष्म शरीर में सहस्त्रार-चक्र -- उत्तर दिशा है; मूलाधार -- दक्षिण दिशा है; भ्रूमध्य -- पूर्व दिशा है; और बिन्दु जहाँ शिखा रखते हैं -- वह पश्चिम दिशा है। आज्ञा-चक्र मेरा आध्यात्मिक हृदय है। सुषुम्ना की ब्रह्मनाड़ी मेरा परिक्रमा पथ है।

.
आगे की बात एक गोपनीय परम रहस्य है जिसे मैं रहस्य ही रखना चाहता हूँ। परमशिव भी एक रहस्य हैं। अपना रहस्य वे स्वयं ही अनावृत करें तभी ठीक है।मेरे प्रारब्ध कर्मफल मुझे बापस इस देह में ले आते हैं। अभीप्सा तो परमशिव में उन के साथ ही हर समय स्थायी रूप से रहने की है, पर लौटना पड़ता है। यही मेरी पीड़ा है। आज नहीं तो कल, रहना तो उनके साथ ही है। इस मायाजाल से मुक्त करना या न करना, उन की समस्या है, मेरी नहीं। मैं तो अपने भाव-जगत में उनके साथ निश्चिंत होकर एक हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०२२

आप सब को उत्तरायण की मंगलमय शुभ कामनाएँ ---

 आप सब को उत्तरायण की मंगलमय शुभ कामनाएँ प्रेषित करते हुए मैं अपने हृदय के अंतरतम विचारों को भी सभी के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ ---

.
मैं स्वयं को जलाकर ही उस प्रकाश को उत्पन्न कर रहा हूँ, जो मेरे लिए परमात्मा के मार्ग को आलोकित कर रहा है। मेरे और परमात्मा के मध्य का मार्ग -- मेरे हृदय का परमप्रेम व अभीप्सा है, और सबसे बड़ी बाधा -- सत्यनिष्ठा का अभाव है। जिन्हें मैं ढूँढ़ रहा हूँ, वह तो मैं 'स्वयं' हूँ, और वह 'स्वयं' ही मुझे ढूँढ़ रहा है।
.
परमात्मा ही परम सत्य है जिसकी खोज से पूर्व मुझे अपने भीतर असत्य के उन सभी अवरोधों को दूर कर देना चाहिए, जिन्होंने मुझे परमात्मा से पृथक कर रखा है। जो भी अनावश्यक विचार हैं, वे पतझड़ के पत्तों की तरह जितनी शीघ्र गिर जाये, उतना ही अच्छा है।
.
कुछ भी कहने से पूर्व मैं विचार करूँ कि जो मैं कहने जा रहा हूँ, क्या यह सत्य है, आवश्यक है, और प्रिय है? अनावश्यक और अप्रिय विचारों का मेरे चित्त में जन्म ही न हो। मेरे हृदय में सब के प्रति सद्भावना हो, और मेरी अभिव्यक्ति अपने उच्चतम स्तर पर हो।
.
मैं ही वह आकाश हूँ, जहाँ मैं विचरण करता हूँ। चारों ओर छाई हुई शांति का साम्राज्य भी मैं स्वयं ही हूँ। आप में और मुझ में कोई अंतर नहीं है। जो आप हैं, वह ही मैं हूँ। जब तक हमारे पैरों में लोहे की जंजीरें बंधी हुई हैं तब तक हम असहाय हैं। सर्वोपरी आवश्यकता उन सब बंधनों से मुक्त होना है जिन्होंने हमें असहाय बना रखा है।
.
मंगलमय शुभ कामनाएँ और सप्रेम नमन॥ ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०२२

मकर संक्रांति/पोंगल के शुभ अवसर पर तीर्थराज त्रिवेणी संगम में स्नान करें ---

 मकर संक्रांति/पोंगल के शुभ अवसर पर तीर्थराज त्रिवेणी संगम में स्नान करें ---

.
गुरु महाराज ने बलात् मुझे उठाकर तीर्थराज त्रिवेणी-संगम नामक अमृत-कुंड में बड़ी ज़ोर से अपनी पूरी ताकत लगाकर फेंक दिया, और स्वयं अदृश्य हो गये। अदृश्य होकर भी उन्होने सुनिश्चित किया कि मेरा जीवन उत्तरायण, धर्म-परायण व राममय हो जाये। अब तक तो वह त्रिवेणी-संगम बहुत पीछे छूट गया है। पता नहीं तब से अब तक गंगाजी में कितना पानी बह चुका है। वह त्रिवेणी-संगम था -- भ्रूमध्य में कूटस्थ-बिन्दु, जहाँ इड़ा भगवती गंगा, पिंगला भगवती यमुना, और सुषुम्ना भगवती सरस्वती नदियों का संगम होता है। इस तीर्थराज में स्नान करने से क्या मिला यह तो वे ही जानें, लेकिन मेरा जीवन तो धन्य हो गया है। अपनी चेतना को भ्रूमध्य में और उससे ऊपर रखना त्रिवेणी संगम में स्नान करना है। आने-जाने वाली हर सांस के प्रति सजग रहें, और निज चेतना का निरंतर विस्तार करते रहें।
.
उस कूटस्थ-चैतन्य में हम अनंत, सर्वव्यापक, असम्बद्ध, अलिप्त व शाश्वत हैं। हमारे हृदय की हर धड़कन, हर आती जाती साँस, -- परमात्मा की कृपा है। हमारा अस्तित्व ही परमात्मा है। हम जीवित हैं सिर्फ परमात्मा के लिए ही। अब तो परमशिव परमात्मा ने सारा भार अपने ऊपर ले लिया है, वे जानें और उनका काम जानें।
.
अब तक की यह यात्रा तरह तरह के भटकाओं और बाधाओं से भरी एक गड़बड़झाला की तरह थी, जिसे उनकी परम कृपा से ही पार कर पाये। खुद का बल कोई काम नहीं आया। अपने जीवन का ध्रुव, भगवान को ही बनाया, तो सारी बाधाएँ दूर हो गईं। गुरुजी के ही शब्दों में --
I have made thee polestar of my life
Though my sea is dark, and my stars are gone
Still, I see the path through thy mercy
.
जब भी भगवान की याद आये वही सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है। उसी क्षण स्वयं प्रेममय बन जाओ, यही सर्वश्रेष्ठ साधना है. अपनी व्यक्तिगत साधना/उपासना में एक नए संकल्प और नई ऊर्जा के साथ गहनता लायें। >>> रात्रि को सोने से पूर्व भगवान का ध्यान कर के निश्चिन्त होकर जगन्माता की गोद में सो जाएँ। >>> दिन का प्रारम्भ परमात्मा के प्रेम रूप पर ध्यान से करें। >>>पूरे दिन परमात्मा की स्मृति रखें। >>> यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः स्मरण करते रहें। एक दिन पाओगे कि भवसागर तो कभी का पीछे निकल गया, कुछ पता ही नहीं चला।
.
गीता में भगवान कहते हैं --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
अर्थात् - "(तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥९:३४॥"
"तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,(क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो॥१८:६५॥"
.
अभीप्सा, परमप्रेम और पूर्ण समर्पण -- यही वेदान्त है, यही ज्ञान है, यही भक्ति है, और यही सनातन धर्म है। बाकी सब इन्हीं का विस्तार है। इनके सिवाय मुझे तो अन्य कुछ भी दृष्टिगत नहीं होता। सर्वत्र भगवान वासुदेव हैं। वे ही श्रीराम हैं, वे ही परमशिव पारब्रह्म हैं, और वे ही सर्वस्व हैं। कहीं कोई पृथकता नहीं है। अन्य कुछ है ही नहीं। ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०२२

मुझे सुधारने की कौशिस न करें ---

 जिनको मेरे विचार पसंद नहीं हैं, वे मुझे unfriend और block कर दें। मेरे लेख पढ़ कर अपना समय नष्ट न करें। मुझे मेसेन्जर पर वीडियो और अनावश्यक लेख और अभिवादन न भेजें। मैं उन्हें कभी नहीं देखता।

.
मुझे सुधारने की कौशिस न करें। भारत के अनेक बड़े अच्छे-अच्छे विचारकों और ज्ञानियों से मेरा खूब सत्संग हुआ है। विदेशों में कई बड़े-बड़े यूरोपीय व अमेरिकी पादरियों से मेरी खूब मगजमारी भी हुई है। काली कंबल पर कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ सकता। अतः किसी की भी मुझे तथाकथित रूप से सुधारने की कौशिस कभी सफल नहीं हो सकती। किसी को कोई शिकायत है तो मुझसे स्पष्ट कहे।
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०२२

सनातन-धर्म का पुनरोत्थान व वैश्वीकरण अवश्यंभावी है, जिसे कोई रोक नहीं सकता ---

 सनातन-धर्म का पुनरोत्थान व वैश्वीकरण अवश्यंभावी है, जिसे कोई रोक नहीं सकता ---

.
सनातन धर्म की निंदा को मैं सहन नहीं कर सकता। ऐसे निंदक लोगों की शक्ल भी मैं नहीं देखता। भारत पर अंग्रेजों और पूर्तगालियों का राज्य राक्षसों का ही राज्य था, जिन्होंने सनातन धर्म को नष्ट करने का अपनी पूरी शक्ति से पूरा प्रयास किया। उन्होंने भारत से सारे भारतीयों को मारने का भी उसी तरह प्रयास किया था जैसा सामूहिक नर संहार उन्होंने उत्तरी-अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया महाद्वीपों में किया। वहाँ की लगभग सारी स्थानीय आबादी की हत्या कर उनके स्थान पर यूरोप के गोरों को बसा दिया। सन १८५७ के असफल प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के बाद करोड़ों भारतीयों की हत्या की गई। दुबारा फिर उसके बाद कृत्रिम अकाल की स्थिति उत्पन्न कर करोड़ों भारतीयों को भूख से मारा गया। पुर्तगालियों द्वारा गोवा में लगभग सारे ब्राह्मण पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की सामूहिक हत्या की गई। वे ही बचे जो किसी तरह स्वयं को छिपा सके। लेकिन पश्चिमी राक्षस लोग अपने प्रयास में सफल नहीं हुए। उससे पूर्व, मध्य एशिया से आए लुटेरों ने भी करोड़ों भारतीयों का सामूहिक नर-संहार कर ऐसा ही प्रयास किया था।
.
भारत की सबसे बड़ी हानि तो यह की गई कि भारत की शिक्षा-व्यवस्था को बड़ी क्रूर निर्दयता व धूर्तता से अंग्रेजों द्वारा नष्ट कर दिया गया। गुरुकुलों की शिक्षा को अमान्य कर दिया, गुरुकुलों को प्रतिबंधित कर उनमें आग लगा दी गई। अनेक आचार्यों की हत्या कर दी गई, उनके ग्रंथ छीनकर उन्हें विपन्न कर दिया गया। उन्हे इतना अधिक दरिद्र बना दिया गया कि वे स्वयं के बच्चों को भी पढ़ाने में भी असमर्थ हो गए। फिर उनके बचे-खुचे ग्रंथ भी उनसे रद्दी के भाव खरीद लिए गए।
.
इससे भी अधिक निकृष्ट काम अंग्रेजों के वेतनभोगी पादरियों ने यह किया कि उन्होने संस्कृत भाषा सीखकर हिंदुओं के धर्म-ग्रन्थों में मिलावट कर के अर्थ का अनर्थ कर दिया। ब्राह्मणों को अत्याचारी बताकर उनमें और समाज के अन्य वर्गों में एक शत्रुता उत्पन्न कर दी। सनातन धर्म को बहुत ही अधिक बदनाम करने का काम भी पादरियों ने ही किया है।
.
भारत को स्वतंत्र कराने में अंततः सबसे बड़ी भूमिका वीर सावरकर और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जैसों की थी। लेकिन कुटिलता से उनके स्थान पर हिन्दू द्रोही काले अंग्रेज़ सत्तासीन हुए और खुल कर हिन्दू द्रोह हुआ। भारत को धर्म-निरपेक्ष (अधर्म-सापेक्ष) बना कर संविधान में ऐसी धारायें जोड़ी गईं जिनके अनुसार हिंदुओं को अपने धर्म की शिक्षा देने का अधिकार, मान्यता प्राप्त विद्यालयों में नहीं रहा। उनके मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में ले लिया गया। मंदिरों का जो धन धर्म-प्रचार में लगना चाहिए था वह अधर्म के कार्यों में खर्च किया जाने लगा। कुल मिलाकर भारतीयों को अपने धर्म से विमुख करने का पूरा प्रयास हुआ।
.
लेकिन अधर्मियों को यह नहीं पता कि यह पूरी सृष्टि ही धर्म से चल रही है। धर्म को नष्ट करने का प्रयास करने वाले अंततः स्वयं ही नष्ट हो जाएँगे। धर्म की पुनर्स्थापना तो भगवान स्वयं करेंगे, और अधर्मियों का नाश भी वे ही करेंगे। भगवान का वचन है --
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्॥४:७॥"
"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥४:८॥"
अर्थात् - हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ॥
साधु पुरुषों के रक्षण, दुष्कृत्य करने वालों के नाश, तथा धर्म संस्थापना के लिये, मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ॥"
.
धर्म का पालन कर के हम धर्म की रक्षा ही नहीं परमात्मा का कार्य भी कर रहे हैं।
हमारा स्वधर्म है -- भगवत्-प्राप्ति। यही सनातन धर्म का सार है। परधर्म में मरने की अपेक्षा स्वधर्म में मरना अधिक श्रेयस्कर है। यह भगवान का कथन है --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् -- सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
.
थोड़ा-बहुत धर्म का पालन भी महाभय से हमारी रक्षा करेगा। भगवान कहते हैं --
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् - इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥
.
>>> धर्म क्या है? <<< वैशेषिक सूत्रों में महर्षि कणाद के अनुसार --
“यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि:स धर्म:।“
अर्थात् - "जिस माध्यम से हमारा सर्वांगीण विकास हो, और सभी प्रकार के दुःखों-कष्टों से मुक्ति मिले, उसी को धर्म कहते हैं।"
.
जो सत्य से युक्त, न्याय से परिचालित, पक्षपात रहित, और ईश्वरोक्त वेदाज्ञा के अनुकूल है, उसे ही मैं धर्म मानता हूँ। इसके विपरीत जो है, वह अधर्म है। धर्म-निरपेक्षता भी अधर्म है।
.
धर्म के दस लक्षण है। जहां ये लक्षण हैं, वहीं धर्म है ---
"धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रिय निग्रहः।
धीः विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥"
अर्थात् -- धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना )। यही धर्म के दस लक्षण है।
(इनकी मैं यहाँ व्याख्या नहीं कर सकता, क्योंकि व्याख्या करेंगे तो अलग से एक पूरी पुस्तक ही लिखी जायेगी। किसी लेख में इनका समापन नहीं हो सकता)
इन का स्वाध्याय अलग से करें।
.
महर्षि याज्ञवल्क्य ने याज्ञवल्क्य स्मृति में धर्म के नौ लक्षण बताए हैं।
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में धर्म के तीस लक्षण बतलाये गए हैं।
महाभारत में धर्मात्मा विदुर ने धर्म के आठ अंग बताए हैं।
रामचरितमानस में अनेक बार भगवान राम ने भी धर्म की व्याख्या की है।
पद्म पुराण में तो धर्म की बहुत विस्तार से व्याख्या की गई है।
तीर्थंकर महावीर द्वारा "दश लक्षण धर्म" बताया गया है।
भारत के सभी अवतारों ने धर्म की विस्तृत व्याख्या की है। भारत में "धर्म" शब्द की जितनी चर्चा हुई हुई है, उतनी अन्यत्र कहीं भी नहीं हुई है।
.
इस लेख का समापन यहीं कर रहा हूँ। अधिक बड़े लेखों को कोई नहीं पढ़ता। इसे लिखने का जो मेरा उद्देश्य था वह इस लेख से पूर्ण हो गया है।
आप सभी महानुभावों को सादर सप्रेम नमन॥ ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१५ जनवरी २०२२

ॐ विश्वं विष्णु: ----

 विष्णु सहस्त्रनाम का आरंभ "ॐ विश्वं विष्णु:" शब्दों से होता है। इन तीन शब्दों में ही सारा सार आ जाता है। आगे सब इन्हीं का विस्तार है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह पूरी सृष्टि यानि सम्पूर्ण ब्रह्मांड ही विष्णु है। जो कुछ भी सृष्ट या असृष्ट है, वह सब विष्णु है। हम विष्णु में विष्णु को ढूंढ रहे हैं। ढूँढने वाला भी विष्णु है। एक महासागर की बूंद, महासागर को ढूंढ रही है। यह बूंद समर्पित होकर स्वयं विष्णु है।

.
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥"
जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता है उसे वषट्कार कहते हैं। भूतभव्यभवत्प्रभुः का अर्थ भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी होता है। सब जीवों के निर्माता को भूतकृत् कहते हैं, और सभी जीवों के पालनकर्ता को भूतभृत्। आगे कुछ बचा ही नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!
.
"ॐ विश्वं विष्णु: ॐ ॐ ॐ" --- बस इतना ही पर्याप्त है पुरुषोत्तम के गहरे ध्यान में जाने के लिए।।
१५ जनवरी २०२२

हे प्रभु तुम कितने सुन्दर हो ---

 हे प्रभु तुम कितने सुन्दर हो! तुम्हारी सुन्दरता शब्दों में नहीं बंध सकती। मैं तुम्हारे साथ एक हूँ। मुझे कभी भी स्वयं से पृथक ना करो।

.
मेरे में बहुत अधिक कमियाँ हैं, जिन्हें दूर करने के लिए अनेक जन्म चाहियें। तब तक और प्रतीक्षा नहीं कर सकता। आप की आवश्यकता तो मुझे अभी इसी क्षण है। गीता में आपने हमें सर्वप्रथम राग-द्वेष आदि का त्याग करने का आदेश दिया है। फिर संयम और वैराग्य की आवश्यकता बताई है --
"बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।
शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥१८:५१॥"
"विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥१८:५२॥"
"अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१८:५३॥"
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥१८:५४॥"
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥१८:५५॥"
"सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥१८:५६॥"
"चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥१८:५७॥"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
.
लेकिन राग-द्वेष-अहंकार-काम-क्रोध-परिग्रह, व ममत्व का त्याग अभी तक नहीं कर पाया हूँ। संयम और वैराग्य का नामोनिशान मुझ में नहीं है। अतः असहाय होकर अब आप की ही शरण ले रहा हूँ। अतः जो भी हूँ, जैसा भी हूँ, स्वयं को समर्पित कर रहा हूँ। यह चित्त अब आपका ही है। मेरे पास इस चित्त के सिवाय और कुछ अर्पण करने के लिए है ही नहीं। आपका ही आदेश और आश्वासन है --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
.
अब आप के सिवाय अन्य कोई आश्रय नहीं है। त्राहिमाम् त्राहिमाम् !!
लेकिन निराश नहीं हूँ। आप मेरे हृदय-मंदिर में बिराजमान हैं। आपकी कृपा से सब कुछ संभव है।
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥"
.
जहाँ आप स्वयं हैं, वहाँ मुझे अन्य किसी की भी आवश्यकता नहीं है। आप सदैव मेरे कूटस्थ हृदय-मंदिर में बिराजमान रहो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ जनवरी २०२२

योगक्षेमं वहाम्यहम् ---

 योगक्षेमं वहाम्यहम् ---

.
यदि श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न श्लोक में मेरी सत्यनिष्ठा, पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से हो जाये तो संसार में मेरे लिए कभी किसी भी परिस्थिति में कोई चिंता की बात ही नहीं है। लेकिन स्वयं में ही एक बहुत बड़ी कमी दृष्टिगोचर होती है, जिसे दूर करना है। भगवान श्रीकृष्ण ने यहाँ दो शर्तें रख दी हैं -- एक तो नित्ययुक्त होने की, और दूसरी अनन्यभाव की। दोनों की ही सिद्धि पूर्ण समर्पण माँगती हैं। वेदान्त के दृष्टिकोण से हर बात को बौद्धिक स्तर पर तो बहुत अच्छी तरह समझता हूँ, लेकिन व्यवहार रूप में लाना हरिःकृपा से ही संभव है।
भगवान कहते हैं ---
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
.
यह श्लोक गीता का मध्यबिन्दु है। यदि यह जीवन में चरितार्थ हो जाये तो आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्र में निश्चित रूप से महान सफलता प्राप्त की जा सकती है। भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में जो कहा है, उसका सार यह है --
"जो निष्कामी अनन्यभाव से युक्त हुए मुझ नारायण को आत्मरूप से जानते हुए मेरा निरन्तर चिन्तन करते हुए मेरी श्रेष्ठ -- निष्काम उपासना करते हैं; निरन्तर मुझ में ही स्थित उन परमार्थज्ञानियों का योगक्षेम मैं चलाता हूँ। अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम योग है और प्राप्त वस्तुकी रक्षाका नाम क्षेम है। उनके ये दोनों काम मैं स्वयं किया करता हूँ। ज्ञानी को तो मैं अपना आत्मा ही मानता हूँ, और वह मेरा प्यारा है। इसलिये वे उपर्युक्त भक्त मेरे आत्मरूप और प्रिय हैं। अन्य भक्तों का योगक्षेम भी तो भगवान् ही चलाते हैं, यह बात ठीक है; अवश्य भगवान् ही चलाते हैं किंतु उसमें यह भेद है कि जो दूसरे भक्त हैं, वे स्वयं भी अपने लिये योगक्षेम सम्बन्धी चेष्टा करते हैं। पर अनन्यदर्शी भक्त अपने लिये योगक्षेम सम्बन्धी चेष्टा नहीं करते; क्योंकि वे जीने और मरने में भी अपनी वासना नहीं रखते। केवल भगवान् ही उनके अवलम्बन रह जाते हैं। अतः उनका योगक्षेम स्वयं भगवान् ही चलाते हैं।"
.
यहाँ एक सामान्य साधक के लिए आचार्य शंकर को समझना कठिन है, लेकिन मुझे तो वे ही समझ में आते हैं। अब मेरा समय आ गया है। इस आयु में स्मृति तेजी से कम होने लगी है। अब निज स्वाध्याय यानि उपासना को क्रमशः गुणवत्ता के हिसाब से भी, और समय की दीर्घता के हिसाब से भी बढ़ाना है। आज ही दिन में मैं एक संबंधी के दाह-संस्कार में गया हुआ था जहाँ अनेक पूर्व घनिष्ठ परिचित मिले। मैंने पाया कि मैं अधिकांश के नाम भूल गया हूँ। मुझे उनके नाम याद करने के लिए चलभास (मोबाइल) की सहायता लेनी पड़ी। यह खतरनाक स्थिति है। अब उपासना काल को यथासंभव अधिकाधिक हर दृष्टि से बढ़ाना है। पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो।
.
अंत समय में परमात्मा की पूर्ण चेतना में स्थित, सचेतन रूप से, योगस्थ होकर ही मैं देह-त्याग करूंगा। यह मेरा संकल्प है, कोई अहंकार नहीं। परमात्मा को पूर्णतः समर्पित तो इसी क्षण से होना पड़ेगा।
.
आप सब का आशीर्वाद प्रार्थित है। ॐ नमो नारायण !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१६ जनवरी २०२१

वास्तविक मृत्यु तो परमात्मा से विमुखता है ---

शास्त्रों के अनुसार प्रमाद ही मृत्यु है, पर वास्तविक मृत्यु तो परमात्मा से विमुखता हैे। परमात्मा का ध्यान भ्रूमध्य में ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में अजपा-जप (हंस-योग/ हंसवती-ऋक) के साथ कीजिये। इसकी विधि किसी अच्छे संत-महात्मा से सीख लें।

.
साथ साथ यह भी आदेश और अनुमति भी किसी अच्छे संत-महात्मा से ले लें कि आपको कम से कम जप इतनी संख्या में अपने स्वभाव के अनुकूल किसी मंत्र का करना ही है। उस संख्या को धीरे धीरे क्रमशः बढ़वाते रहें। मंत्र की दीक्षा भी किसी अच्छे संत-महात्मा से लें।
.
देश में अच्छे-अच्छे संत-महात्माओं की कोई कमी नहीं है। जैसी आपकी भावना होगी वैसे ही संत आपको मिलेंगे। भगवान को आप ठगना चाहते हैं तो ठग गुरु ही मिलेंगे। सत्यनिष्ठापूर्वक भगवान से प्रेम करते हैं, तो आपको अच्छे संत मिलेंगे।
मंगलमय शुभ कामनाएँ !!
१७ जनवरी २०२२

मुझे सिर्फ तीन बातें कहनी हैं। कोई चौथी बात नहीं है ---

 मुझे सिर्फ तीन बातें कहनी हैं। कोई चौथी बात नहीं है।

(१) भगवान से प्रेम करो। (२) भगवान से खूब प्रेम करो। (३) भगवान से हर समय प्रेम करो।
अब और कहने को कुछ भी नहीं है। इतना ही पर्याप्त है। . मुझे पिछले साठ-पैंसठ वर्षों से अधिक की स्पष्ट स्मृतियां हैं। देशभक्ति की और भगवान की भक्ति की जो भावनाएं पिछले पाँच-छह वर्षों में बढ़ी हैं, वे अभूतपूर्व हैं। पहले ऐसे कभी भी नहीं हुआ था। लोगों की समझ बढ़ी है। अब का समाज पहले से अधिक जागरूक है। विशेषकर आज की युवा पीढ़ी पहले की युवा पीढ़ी से बहुत अधिक समझदार है।.
.
"Free" की राजनीति बंद हो। मुफ्तखोरी देश को बर्बाद कर देगी। सारा बोझ देश के सामान्य श्रेणी के निम्न-मध्यम-वर्ग पर पड़ रहा है। उनकी ही जेब काट कर उन्हीं को देशसेवा, और त्याग-बलिदान का उपदेश दिया जाता है। सभी को समान सुविधाएं दो, या फिर मुफ्तखोरी वाली योजनाएँ बंद करो। चाहते तो यही हैं कि वृद्धावस्था शांति से व्यतीत हो और भगवान का भजन ही करें। लेकिन घर का खर्च ही बड़ी मुश्किल से चला पाते हैं।
.
ॐ तत्सत् !!
१७ जनवरी २०२२

देवता हमारी सहायता क्यों नहीं करते? ---

 (प्रश्न) --(प्रश्न) -- देवता हमारी सहायता क्यों नहीं करते? ---

.
(उत्तर) -- क्योंकि उनकी दृष्टि में हम चोर हैं। देवताओं को हमारा कल्याण करने की शक्ति हमारे द्वारा किए हुए यज्ञों आदि से ही प्राप्त होती है। हम उन्हें यज्ञ आदि द्वारा शक्ति देंगे तो वे उचित समय पर वृष्टि आदि से हमारा कल्याण करेंगे। गीता में भगवान कहते हैं --
"देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥३:११॥"
"इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥३:१२॥"
"यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥३:१३॥"
अर्थात् -- तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवतागण तुम्हारी उन्नति करें। इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुये परम श्रेय को तुम प्राप्त होगे॥ --
यज्ञ द्वारा पोषित देवतागण तुम्हें इष्ट भोग प्रदान करेंगे। उनके द्वारा दिये हुये भोगों को जो पुरुष उनको दिये बिना ही भोगता है वह निश्चय ही चोर है॥ --
यज्ञ के अवशिष्ट अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो लोग केवल स्वयं के लिये ही पकाते हैं वे तो पापों को ही खाते हैं॥
.
इतना ही लिखना बहुत है। यज्ञ क्या है? इसका स्वाध्याय भी गीता से कर लें। इस पृथ्वी पर रहने वाला कोई भी मनुष्य भगवान को माने या न माने, लेकिन गीता के अनुसार चलने से उसका कल्याण निश्चित रूप से हो जाएगा। यज्ञ और उसके अवशिष्ट का अर्थ बहुत व्यापक है। कुछ वर्ष पूर्व इस विषय पर बहुत कुछ लिख चुका हूँ। अब आप स्वयं स्वाध्याय करें।
मंगलमय शुभ कामनायें और सप्रेम नमन !!
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ जनवरी २०२२
.
(उत्तर) -- क्योंकि उनकी दृष्टि में हम चोर हैं। देवताओं को हमारा कल्याण करने की शक्ति हमारे द्वारा किए हुए यज्ञों आदि से ही प्राप्त होती है। हम उन्हें यज्ञ आदि द्वारा शक्ति देंगे तो वे उचित समय पर वृष्टि आदि से हमारा कल्याण करेंगे। गीता में भगवान कहते हैं --
"देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥३:११॥"
"इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥३:१२॥"
"यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥३:१३॥"
अर्थात् -- तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवतागण तुम्हारी उन्नति करें। इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुये परम श्रेय को तुम प्राप्त होगे॥ --
यज्ञ द्वारा पोषित देवतागण तुम्हें इष्ट भोग प्रदान करेंगे। उनके द्वारा दिये हुये भोगों को जो पुरुष उनको दिये बिना ही भोगता है वह निश्चय ही चोर है॥ --
यज्ञ के अवशिष्ट अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो लोग केवल स्वयं के लिये ही पकाते हैं वे तो पापों को ही खाते हैं॥
.
इतना ही लिखना बहुत है। यज्ञ क्या है? इसका स्वाध्याय भी गीता से कर लें। इस पृथ्वी पर रहने वाला कोई भी मनुष्य भगवान को माने या न माने, लेकिन गीता के अनुसार चलने से उसका कल्याण निश्चित रूप से हो जाएगा। यज्ञ और उसके अवशिष्ट का अर्थ बहुत व्यापक है। कुछ वर्ष पूर्व इस विषय पर बहुत कुछ लिख चुका हूँ। अब आप स्वयं स्वाध्याय करें।
मंगलमय शुभ कामनायें और सप्रेम नमन !!
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ जनवरी २०२२