Tuesday, 9 January 2018

पता नहीं वह दिन भारत में कब आयेगा ...

पता नहीं वह दिन भारत में कब आयेगा ...
जब शैशव काल से ही बच्चों को सिखाया जाएगा कि तुम ब्रह्मरूप हो, परमात्मा के अमृतपुत्र हो, परमात्मा से खूब प्रेम करो आदि आदि ?
बच्चों को वेदविरुद्ध शिक्षा नहीं दी जायेगी, बालक को बचपन से ही भगवान से प्रेम करने व भगवान का ध्यान करने का प्रशिक्षण दिया जाएगा ?
एक शाश्वत प्रश्न सभी में जागृत होगा कि हम भगवान को प्रिय कैसे बनें ?
जब ऐसा होगा तभी देश का उद्धार होगा| तभी देश में सभी नवयुवक और नवयुवतियाँ उच्च चरित्रवान होंगे ? पता नहीं इस जीवन काल में यह देख पायेंगे या नहीं ?
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
०९ जनवरी २०१८

चित्तवृत्तिनिरोध :----

चित्तवृत्तिनिरोध :----
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हमारा अंतःकरण स्वयं को मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के रूप में व्यक्त करता है| वहीं हमारा बहिःकरण स्वयं को पाँच ज्ञानेन्द्रियों ..... नेत्र, कान, जिह्वा, नाक और त्वचा के रूप में; और पाँच कर्मेन्द्रियों ..... वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा के रूप में व्यक्त करता है| यहाँ आलोच्य विषय चित्त है, अतः उसी पर यह अति लघु चर्चा अपनी अति अल्प और अति सीमित बुद्धि से कर रहा हूँ| यह विषय ऐसा है जिसे ठीक से वही समझ सकता है जिसमें इसे जानने की जिज्ञासा है और जिस पर भगवान की कृपा है| भगवान की कृपा के बिना इस विषय का ज्ञान असंभव है|
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शास्त्रों में चित्त की चार अवस्थाएँ बताई गयी हैं ...... क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ़, और एकाग्र| चित्त संस्काररूप है जो वासनाओं और श्वास-प्रश्वास के रूप में व्यक्त होता है| चित्त की जैसी अवस्था होती है वह उसी के अनुसार वासनाओं को व्यक्त करता है| वासनाएँ अति सूक्ष्म होती हैं जिन्हें प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित कर पाना असम्भव है, अतः श्वास-प्रश्वास के माध्यम से सूक्ष्म प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान द्वारा चित्त को निरुद्ध करने की साधना करते हैं| चित्त को निरुद्ध किये बिना आत्म-तत्व में स्थित होना असम्भव है| अतः चित्तः को निरुद्ध करने का विज्ञान ही योग-दर्शन है|
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योग मार्ग में ध्यान और सूक्ष्म प्राणायाम की कुछ क्रियाओं को जनहित में अति गोपनीय रखा गया है क्योंकि वे खांडे की दुधार की तरह हैं जो साधक को देवता भी बना सकती हैं और असुर भी| अतः शिष्य की पात्रता देखकर ही आचार्य उन्हें बताते हैं| चित्त जब क्षिप्त, विक्षिप्त, और मूढ़ अवस्था में होता है तब की गयी सूक्ष्म प्राणायाम व ध्यान आदि की साधनाएँ साधक को आसुरी जगत से जोड़ देती हैं, और वह आसुरी जगत का उपकरण यानी एक असुर बन जाता है| पवित्र और एकाग्र अवस्था में की गयी साधनाएँ ही साधक को देवत्व से जोड़ती हैं| इसीलिये यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्यं, अपरिग्रह) और नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान) अनिवार्य किये गए हैं| जो यम-नियमों का पालन नहीं कर सकता उसके लिए यह योग मार्ग नहीं है| सदविचारों और सदआचरण के बिना योग साधना का निषेध है, अन्यथा इस से मष्तिष्क की एक ऐसी विकृति हो सकती है जिस के ठीक होते होते कई जन्म व्यतीत हो सकते हैं|
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बुद्धि हमारे ज्ञान का केन्द्र है जो भले-बुरे का निर्णय करती है| जानना बुद्धि का काम है, और प्रवृत्ति कराना चित्त का कार्य है| बुद्धि हमें विवेक का मार्ग दिखाती है, और चित्त हमें अपने पूर्व जन्मों के संस्कारों के अनुरूप किसी भी कार्य में प्रवृत्त करता है| जहां बुद्धि और चित्त में अंतर्विरोध होता है वहीं मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है| यह किंकर्तव्यविमूढ़ता मनुष्य को दुविधा में डाल कर अवसादग्रस्त भी कर सकती है और पागल भी बना सकती है| दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम| अतः ऐसी स्थिति से बचना चाहिए| चित्त बहुत अधिक बलशाली है, और बुद्धि उसके सामने अति बलहीन| भगवान की कृपा से बुद्धि में दृढ़ता आ जाए तभी वह चित्त को निरुद्ध करने में सफल हो सकती है, अन्यथा नहीं| अतः भगवान से सदबुद्धि के लिए प्रार्थना करनी चाहिए| यहाँ "रोध" व "निरोध" के अंतर को भी समझना चाहिए| जो रुद्ध होता है वह अस्थायी होता है और अवसर मिलते ही और भी अधिक वेग से आघात करता है| जो निरुद्ध होता है वह स्थायी होता है| अतः चित्त की वृत्तियों का निरोध होना चाहिए, न कि रोध|
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मन हमें संकल्प और विकल्प कराता है| इन संकल्पों और विकल्पों के पीछे भी संस्कारों की भूमिका होती है| मन कभी संस्कारों के साथ हो जाता है और कभी बुद्धि के साथ| इसे ही मन की चंचलता कहते हैं| यह मन की चंचलता हमारे विवेक को क्षीण कर देती है, और हमें मूर्खतापूर्ण कार्य करने को विवश कर देती है| मन को समझना अति कठिन है| यह अपने चेतन और अवचेतन रूप में ही हम से ये सारे नाच नचवा रहा है| इसे वश में नहीं किया जा सकता| जो चीज अपने वश में नहीं है उसे भगवान को समर्पित कर देना चाहिए| अतः अपने मन को भगवान में लीन कर देना भी अपने आप में एक बहुत बड़ी साधना है| 
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हमारे बच्चे हमारा अनादर करते हैं या हमारे से घृणा करते हैं इसके पीछे एक बहुत बड़ा मनोविज्ञान है| जब एक बालक देखता है कि हम कहते तो कुछ और हैं, व करते कुछ और है, तब उसके मन में हमारे प्रति सम्मान समाप्त हो जाता है| यही चीज वह जब लम्बे समय तक देखता है तब उसके मन में हमारे प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है| अतः हमारा आचरण अपने बच्चों के सामने एक आदर्श होना चाहिए, तभी हमारे बालक हमारा सम्मान करेंगे|
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बच्चों को वेदविरुद्ध शिक्षा नहीं देनी चाहिए| बच्चों को सिखाना चाहिए कि तुम ब्रह्म रूप हो, भगवान के अमृत पुत्र हो, अतः भगवान से खूब प्रेम करो| उसे ऐसी शिक्षा भूल से भी नहीं देनी चाहिए जो उसे पापकर्मों की ओर प्रवृत्त करे| बालक को बचपन से ही भगवान से प्रेम करने व भगवान का ध्यान करने का प्रशिक्षण देना चाहिए|
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भगवान की कृपा से इस विषय पर जितना लिखने की मुझे भगवान से प्रेरणा मिली वह मैंने यहाँ व्यक्त कर दिया है| इससे आगे जो कुछ है वह मेरी सीमित बुद्धि से परे है| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन!
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०९ जनवरी २०१८
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पुनश्चः :--- योगियों के अनुसार चंचल प्राण ही मन है | चंचल प्राण को स्थिर कर के ही मन को वश में किया जा सकता है | प्राण तत्व की साधनाएँ हैं जो अति गोपनीय है और सिर्फ सिद्ध गुरु द्वारा ही शिष्य को पात्रतानुसार दी जाती हैं |

स्वयं में दृढ़ आस्था रखें, हमारी आस्था हमें निश्चित विजय दिलाएगी .....

स्वयं में दृढ़ आस्था रखें, हमारी आस्था हमें निश्चित विजय दिलाएगी .....
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हम स्वयं में दृढ़ आस्था रखें, सफलता के सारे गुण हम में हैं | वर्तमान काल में सफल व्यक्ति उसी को मानते हैं जिसने अधिकाधिक रुपये बनाए हैं, और खूब धन-संपत्ति एकत्र की है | पर वास्तव में यह सत्य नहीं है | दुनियाँ जिनको सर्वाधिक सफल व्यक्ति मानती है, इन में से अधिकांश व्यक्ति कुण्ठाग्रस्त होकर मरते हैं, कई तो आत्म-ह्त्या कर के मरते हैं, क्योंकि उन्हें जीवन में कोई संतुष्टि नहीं मिलती | वास्तव में सफल व्यक्ति वह है जिसने अपने निज जीवन में परमात्मा को प्राप्त किया है | परमात्मा की खोज एक शाश्वत जिज्ञासा है और यह जिज्ञासा विवेकशील व्यक्तियों में ही होती है | वह सबसे अधिक बुद्धिमान व्यक्ति है, जो परमात्मा को प्राप्त करने की उपासना कर रहा है | अंततः हमें सुख, शांति, संतुष्टि और सुरक्षा परमात्मा में ही मिलती हैं |
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असफलता का मुख्य कारण हमारे नकारात्मक विचार हैं | ये नकारात्मक विचार हमारे आत्मबल को नष्ट कर देते हैं | नकारात्मक विचारों से बचने के लिए हमें प्रातःकाल में उठते ही महापुरुषों का स्मरण करना चाहिए और परमात्मा का चिंतन करना चाहिए | व्यक्ति उसी समय से आत्मबल खोने लगता है जब उसकी आसक्ति परमात्मा से भिन्न वस्तुओं में होने लगती है| यह आसक्ति ही सबसे बड़ा बन्धन है| इसे ही राग कहते हैं| आसक्ति का विषय जब उपलब्ध नहीं होता तब हमें द्वेष और क्रोध आता है | ये हमारे विवेक को नष्ट कर देते हैं |
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मैंने पाया है कि जिस दिन भी मैंने प्रातःकाल में उठते ही प्रातःस्मरणीय महापुरुषों का स्मरण किया और परमात्मा का ध्यान किया उस के बाद लगभग पूरे दिन ही कोई नकारात्मक विचार नहीं आया | जब किसी नकारात्मक व्यक्ति से मिलना होता है या उसकी स्मृति आती है, तब थोड़ी देर में ही एक गहरी नकारात्मकता भी आ जाती है | इसीलिए शास्त्रों में कहा है कि कुसंग का सर्वदा त्याग करना चाहिए | किसी नकारात्मक व्यक्ति का स्मरण भी कुसंग होता है | परमात्मा के निरंतर चिंतन का अभाव ही नकारात्मकता को जन्म देता है| अतः हमें अपने दिन का प्रारम्भ भी परमात्मा के चिंतन से करना चाहिए, और समापन भी परमात्मा के चिंतन से करना चाहिए| हर समय परमात्मा की स्मृति भी रहनी चाहिए| परमात्मा में यानि स्वयं में आस्था निश्चित विजय दिलाएगी |
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०८ जनवरी २०१८

आध्यात्मिक साधना में आने वाली बाधाएँ और उनसे मुक्ति के उपाय .....

आध्यात्मिक साधना में आने वाली बाधाएँ और उनसे मुक्ति के उपाय .....
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आध्यात्मिक साधना में आने वाली आने वाली बाधाओं और कमियों को निश्चित रूप से दूर किया जा सकता है| साधना के मार्ग में आने वाली सबसे बड़ी ये बाधाएँ हैं....
(१) काम वासना. (२) यश यानी प्रसिद्धि की चाह. (३) दीर्घसूत्रता यानी कार्य को आगे के लिए टालने की प्रवृत्ति. (४) प्रमाद. (५) उत्साह का अभाव.
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उपरोक्त बाधाओं को दूर करने के लिए दो उपाय हैं .....
(१) सात्विक आहार और शास्त्रोक्त विधि से भोजन. (२) कुसंग का त्याग और निरंतर सत्संग.
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भक्ति सूत्रों में नारद जी स्पष्ट कहते हैं कि भक्ति के मार्ग में किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग सर्वदा अनिवार्य है| कोई भी व्यक्ति या कोई भी परिस्थिति जो हमें हरि से विमुख करती है, उसका दृढ़ निश्चय से त्याग करने में कोई विलम्ब नहीं करना चाहिए| सनातन धर्म के सभी आचार्यों ने यह बात कही है| चला कर उन्हीं लोगों का साथ करें जो आध्यात्मिक साधना में सहायक हैं, अन्यथा चाहे अकेले ही रहना पड़े| निरंतर हरि-स्मरण का स्वभाव बनाना पडेगा|
भोजन भी पूरी तरह से सात्विक होना चाहिए| हर किसी के हाथ का बना हुआ, या हर किसी के साथ बैठकर भोजन नहीं करना चाहिए| भोजन करने की शास्त्रोक्त विधि है उसका पालन करना चाहिए| आजकल यह बात किसी को कहेंगे तो वह बुरा मानेगा, पर दूसरों से अपेक्षा न करते हुए, स्वयं के निज जीवन में इसका पालन करना चाहिए|
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हरि ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
०८ जनवरी २०१८

हमारी सृष्टि हमारी स्वयं की ही रचना है ......

हमारी सृष्टि हमारी स्वयं की ही रचना है ......
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हमारे विचार ही घनीभूत होकर हमारे चारों ओर सृष्ट हो रहे हैं| जैसा हम सोचते हैं, वैसी ही सृष्टि हमारे लिए सृष्ट हो जाती है| हर क्रिया की प्रतिक्रया भी होती है| यही कर्मफलों का सिद्धांत है| हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं| हम परमात्मा के अंश हैं, अतः हमारे सब के विचार ही इस सृष्टि का निर्माण कर रहे हैं| जैसे हमारे विचार होंगे वैसी ही यह सृष्टि होगी| यह सृष्टि जितनी विराट है उतनी ही सूक्ष्म है| हर अणु अपने आप में एक ब्रह्मांड है| हम कुछ भी संकल्प या विचार करते हैं, उसका प्रभाव सृष्टि पर पड़े बिना नहीं रह सकता| इसलिए हमारा हर संकल्प शिव संकल्प हो, और हर विचार शुभ विचार हो|
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति | दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु || (शुक्लयजुर्वेद, ३४, १)
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आध्यात्मिक दृष्टी से यह सृष्टि नटराज भगवान परमशिव का एक नृत्य मात्र है जिसमें निरंतर ऊर्जा खण्डों और अणुओं का विखंडन और सृजन हो रहा है| जो बिंदु है वह प्रवाह बन जाता है और प्रवाह बिंदु बन जाता है| ऊर्जा कणों की बौछार और निरंतर प्रवाह समस्त भौतिक सृष्टि का निर्माण कर रहे हैं| इन सब के पीछे एक परम चैतन्य है और उसके भी पीछे एक विचार है| समस्त सृष्टि परमात्मा के मन का एक स्वप्न या विचार मात्र है| हम भी परमात्मा के अंश हैं अतः हमारे विचार भी हमारी सृष्टि का निर्माण कर रहे हैं| हम अपने परमशिव चैतन्य में हम रहें तो सब ठीक है अन्यथा सब गलत|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०७ जनवरी २०१८

हं सः / सोSहं / ॐ ॐ ॐ ......

हं सः / सोSहं / ॐ ॐ ॐ ......
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निज चेतना को इस देह तक ही सीमित न रखकर सर्वव्यापी, असीम, अनन्त, पूर्ण, परब्रह्म, परमात्मा के साथ अपरिछिन्न बनाए रखने की निरंतर साधना हमें करते रहना चाहिए| यह साधना ही हमें सुखी बना सकती है, अन्यथा हम सदा दुखी ही रहेंगे| हम यह देह नहीं, परमात्मा की अपरिछिन्न अनंतता हैं| 'ख' यानि आकाश तत्व रूपी परमात्मा की विराटता के साथ एक होकर ही हम सुखी हैं, अन्यथा हम सदा दुःखी ही हैं| दुःख का अर्थ है ... 'ख' यानि आकाश तत्व रूपी परमात्मा की अनंतता से दूरी|
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परमात्मा की इस अनंतता से अपरिछिन्न होने की चेतना को श्रुति भगवती ने "भूमा" कहा है| सारा सुख जो है वह भूमा में ही है| सामवेद की कौमुथी शाखा का छान्दोग्योपनिषद यही उद्घोष करता है....
"यो वै भूमा तत्सुखम्"
(छान्दोग्योपनिषद् ७ / २३ / १)
इस भूमा तत्व से एक होने की साधना अजपाजप और ओंकार पर ध्यान है, जिसे किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से सीखनी चाहिए|
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"रहिमन कुआँ एक है, पनिहारी अनेक| बर्तन सब न्यारे भये जल घटियन में एक"|
माँ-बाप, भाई-बहिन, सगे-सम्बन्धी, मित्र, परिचित-अपरिचित सभी से प्राप्त प्रेम .... परमात्मा का ही प्रेम है जो हमें विभिन्न स्त्रोतों से प्राप्त हो रहा है| अन्य सब नश्वर हैं, सिर्फ परमात्मा ही शाश्वत हैं, अतः शाश्वत प्रेम के लिए हमें परमात्मा से ही जुड़ना होगा, न कि विभिन्न घटकों से| परिछिन्नता के भाव को त्यागना ही होगा|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जनवरी २०१८

गुरु पूजा व गुरु का ध्यान .....

ॐ श्रीगुरवे नमः ....
"ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं | द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् ||
एकं नित्यं विमलंचलं सर्वधीसाक्षीभूतम् | भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि ||"
"गुरु" कोई देह नहीं हो सकती| उनकी देह तो एक वाहन है जिस पर वे यह लोकयात्रा करते हैं| देह का विग्रह तो एक प्रतीक मात्र है| देह तो समय के साथ नष्ट हो जाती है पर गुरु तो अमर हैं, वे परमात्मा के साथ एक हैं| वे सब प्रकार के आकार और देश-काल से परे हैं| जब तक वे देह पर आरूढ़ हैं तब तक तो वे देहरूप में हैं, पर वास्तव में वे देह नहीं, देहातीत हैं| जब तक उनसे पृथकता का बोध है तब तक तो उन की देह को ही गुरु मानना चाहिए पर जब कोई भेद नहीं रहे तब गुरु और शिष्य एक ही हैं| आध्यात्मिक दृष्टी से आत्म-तत्व ही गुरु है| गहराई से विचार करें तो गुरु, शिष्य और परमात्मा में कोई भेद नहीं है| सभी एक हैं|
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गुरु पूजा : ..... प्रतीकात्मक रूप से गुरु-पूजा उनकी चरण-पादुका की ही होती है, उनके विग्रह की नहीं| जो मेरे विचारों से असहमत हैं वे मुझे क्षमा करें, मेरे इस विचार के लिए कि गुरु के विग्रह की पूजा गलत है|
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गुरु का ध्यान : .... जब तक कूटस्थ का बोध नहीं होता तब तक गुरु के विग्रह का ही ध्यान करना चाहिए| पर जब ज्योतिर्मय कूटस्थ ब्रह्म और कूटस्थ अक्षर का बोध हो जाए तब से कूटस्थ ही गुरु है| उसी की ज्योतिर्मय अनंतता का ध्यान करना चाहिए| कूटस्थ ब्रह्म ही गुरु हैं, वे ही शिष्य हैं, वे ही परमात्मा हैं, वे ही उपासक हैं, वे ही उपास्य हैं और वे ही उपासना हैं| सहस्त्रार ही गुरु के चरण हैं, व सहस्त्रार में स्थिति ही गुरु चरणों में आश्रय है| गुरु के ध्यान में गुरु महाराज एक विराट ज्योति का रूप ले लेते हैं, जिसकी अनंतता में समस्त ब्रह्मांड समा जाता है, जिस से परे अन्य कुछ भी नहीं है| कहीं पर भी कोई पृथकता नहीं होती| वे ही सब कुछ हैं, कोई अन्य नहीं है| उस अनन्यता से एकाकार होकर ही हम कह सकते हैं ... "एकोहम् द्वितीयो नास्ति"| उस चेतना में ही कोई "शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि" का उद्घोष कर सकता है|
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गुरु को नमन : .... गीता में अर्जुन ने जिन शब्दों में नमन किया उन्हीं शब्दों में गुरु महाराज को मैं नमन करता हूँ ....
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्‍क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
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हे परात्पर गुरु महाराज, आप ही सम्पूर्ण अस्तित्व हो, आप ही यह सारी अनंतता, व अनन्यता हो| यह सम्पूर्ण समष्टि आपका ही घनीभूत रूप है और आप ही यह "मैं" हूँ| आप ही इन हवाओं में बह रहे हो, आप ही इन झोंकों में मुस्करा रहे हो, आप ही इन सितारों में चमक रहे हो, आप ही हम सब के विचारों में नृत्य कर रहे हो, आप ही यह समस्त जीवन हो| हे परमात्मा, हे गुरु रूप परब्रह्म परमशिव, आपकी जय हो|
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम|
तस्मात कारुण्य भावेन रक्षस्व परमेश्वरः||
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ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०४ जनवरी २०१८

वर्तमान समय की आवश्यकता धर्म-प्रचार की है .....

वर्तमान परिस्थिति में समय की आवश्यकता धर्म प्रचार की है| परमात्मा से प्रेम, ध्यान साधना, धर्म के लक्षणों के ज्ञान, अपने सनातन धर्म और संस्कृति पर स्वाभिमान आदि से धर्म प्रचार होगा| हम अपने निज जीवन में भी गीता में बताये हुए स्वधर्म का पालन करें| इसी से धर्म की रक्षा होगी|
धर्म-निरपेक्षता यानि सेकुलरिज्म के नाम पर झूठा इतिहास पढ़ाकर हिन्दुओं में आत्महीनता का बोध उत्पन्न किया गया है| दुर्भाग्य से आज के अधिकांश हिन्दू युवा वर्ग को अपने धर्म का ज्ञान ही नहीं है|
मुझे पूरा विश्वास है कि आने वाला समय सत्य सनातन धर्म का ही होगा| 

ॐ ॐ ॐ !!
०३ जनवरी २०१८