चेतावनी :--- धरती माँ रक्त-रंजित हो रही है, अब और भी बहुत अधिक होने वाली है। धरती माँ को विधिवत रूप से प्रणाम करें, और अपनी रक्षा की प्रार्थना करें। आपकी रक्षा होगी। यह कोई टोटका नहीं, सत्य है। संभावित विनाश से रक्षा -- "हमारे द्वारा स्वधर्म का पालन", और "धरती माता की कृपा" ही करेगी। प्रातःकाल उठते समय पृथ्वी पर पैर रखने से पूर्व प्रार्थना करें --
Thursday, 12 December 2024
धरती माँ रक्त-रंजित हो रही है, अब और भी बहुत अधिक होने वाली है ---
मेरा उद्देश्य ही परमात्मा के प्रति परमप्रेम (भक्ति) को सभी में जागृत करना है ---
पुनश्च --- १२ दिसंबर २०२४ जिन के हृदय में परमात्मा, सनातन-धर्म, और राष्ट्र के प्रति प्रेम नहीं है, वे तुरंत मुझे अमित्र और अवरुद्ध कर दें। मुझे उनसे कोई प्रयोजन नहीं है।
(प्रश्न) हिन्दू लड़कियों को लव-जिहाद, घर से भागने और लिव-इन-रिलेशनशिप से कैसे बचाएँ ??
(उत्तर) मेरा उत्तर मनोवैज्ञानिक और बायलोजिकल तथ्यों पर आधारित है। इसे कोई भी नकार नहीं सकता। किसी भी युवती और युवक में Opposite Sex के प्रति आकर्षण एक आयु विशेष में अपने चरम पर होता है। एक अवस्था ऐसी भी आती है कि नवयुवक और नवयुवतियाँ बिना यौन संबंध बनाए रह ही नहीं सकते। अपवाद कोई एक हज़ार में से एक व्यक्ति ही होता होगा। यह एक प्रकृति-प्रदत्त स्वाभाविक मांग है। इस आयु में लड़कों और लड़कियों का विवाह हो जाना चाहिए। अपना Career वे विवाह के पश्चात भी बना सकते हैं, और Settle भी विवाह के बाद हो सकते हैं।
नदी-नाव संयोग --
नदी-नाव संयोग
गीता का "कर्मयोग" - जैसा मेरी सीमित/अल्प बुद्धि से मुझे समझ में आया है ----
गीता का "कर्मयोग" - जैसा मेरी सीमित/अल्प बुद्धि से मुझे समझ में आया है --
.हमें सारे कर्म लोक-कल्याण के लिए ही करने चाहिए, स्वयं के अहंकार और लोभ की तृप्ति के लिए कुछ भी नहीं। स्वयं के लोभ और अहंकार की तृप्ति के लिए किए गए सारे कर्म, वास्तव में पापकर्म ही हैं।
ध्यान से देखा जाये तो परमात्मा की प्रकृति ही सब कुछ कर रही है, हम कुछ भी नहीं कर सकते। जहाँ कर्ताभाव आ जाता है वहाँ कर्मफलों का सिद्धान्त लागू हो जाता है जो हमारे सनातन धर्म के मुख्य आधारों में से एक है।
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मनुष्य का मन अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी सिद्धान्त को अपने विचारों के अनुकूल ढाल लेता है। हम अपनी इंद्रिय कामनाओं, लोभ, व अहंकार की तृप्ति के लिए अथक परिश्रम करते हैं, लेकिन दिखावा करते हैं कि गीता का कर्मयोग कर रहे हैं। यह स्वयं को धोखा देना है।
श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे और पांचवें अध्याय के स्वाध्याय से ही यह समझ में आ सकता है कि 'कर्मयोग' क्या है।
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हमें कर्मों का सम्यक् आचरण करते हुये दूसरों को भी वैसा ही करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। सद्कर्मों को तो हमें त्यागना नहीं चाहिए, क्योंकि सद्कर्मों के त्यागने पर तामसी और अधर्मी म्लेच्छ लोगों का राज्य इस संसार पर हो जायेगा। जब अच्छे लोग निष्क्रिय हो जाते हैं, तब बुरे लोग अपना वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं। जितनी हानि अधर्मियों के कामों से हो सकती है, उससे अधिक हानि तो धर्मियों के मौन से होती है।
यदि हम तत्वज्ञानी नहीं हैं, तब भी यदि हम अपने स्वधर्म का पालन करते हुए कर्तव्य भाव से कर्म करते हैं, तो हम भगवान को तो प्राप्त होंगे ही, हमारे चारों ओर अधर्म भी नहीं फैलेगा।
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भगवान कहते हैं --
"न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥३:५॥"
अर्थात् - कोई भी पुरुष कभी क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा अवश हुए सब (पुरुषों) से कर्म करवा लिया जाता है॥
"कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥३:६॥"
अर्थात् - जो मूढ बुद्धि पुरुष कर्मेन्द्रियों का निग्रह कर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण (चिन्तन) करता रहता है वह मिथ्याचारी (दम्भी) कहा जाता है॥
"प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते॥३:२७॥'
अर्थात् - सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, "मैं कर्ता हूँ" ऐसा मान लेता है॥
"मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥३:३०॥"
अर्थात् - सम्पूर्ण कर्मों का मुझ में संन्यास करके, आशा और ममता से रहित होकर, संताप रहित हुए तुम युद्ध करो॥
"ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥३:३१॥"
अर्थात् - जो मनुष्य दोष बुद्धि से रहित (अनसूयन्त:) और श्रद्धा से युक्त हुए सदा मेरे इस मत (उपदेश) का अनुष्ठानपूर्वक पालन करते हैं, वे कर्मों से (बन्धन से) मुक्त हो जाते हैं॥
"इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥३"३४॥"
अर्थात् - इन्द्रियइन्द्रिय (अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय) के विषय के प्रति (मन में) रागद्वेष रहते हैं; मनुष्य को चाहिये कि वह उन दोनों के वश में न हो; क्योंकि वे इसके (मनुष्य के) शत्रु हैं॥
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् - सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
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कामना हमारी सबसे बड़ी शत्रु है। भगवान कहते हैं --
"तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥३:४१॥"
अर्थात् - इसलिये हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! तुम पहले इन्द्रियों को वश में करके, ज्ञान और विज्ञान के नाशक इस कामरूप पापी को नष्ट करो॥
"ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥५:३॥"
अर्थात् - जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है; क्योंकि, हे महाबाहो ! द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है॥
"योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥५:७॥"
अर्थात् - जो पुरुष योगयुक्त, विशुद्ध अन्तकरण वाला, शरीर को वश में किये हुए, जितेन्द्रिय तथा भूतमात्र में स्थित आत्मा के साथ एकत्व अनुभव किये हुए है वह कर्म करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता॥
"नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यन् श्रृणवन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन् श्वसन्॥५:८॥"
"प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्॥५:९॥"
अर्थात् - तत्त्ववित् युक्त पुरुष यह सोचेगा कि "मैं किंचित् मात्र कर्म नहीं करता हूँ" देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और बन्द करता हुआ (वह) निश्चयात्मक रूप से जानता है कि सब इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में विचरण कर रही हैं॥
"ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥५:१०॥"
अर्थात् - जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है, वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता॥
"कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये॥५:११॥"
अर्थात् - योगीजन, शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा आसक्ति को त्याग कर आत्मशुद्धि (चित्तशुद्धि) के लिए कर्म करते हैं॥
"युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥५:१२॥"
अर्थात् - युक्त पुरुष कर्मफल का त्याग करके परम शान्ति को प्राप्त होता है; और अयुक्त पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा बँधता है॥
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यह सम्पूर्ण सृष्टि ही परमात्मा है, और हम भी परमात्मा के ही अंश, निमित्त मात्र हैं। सारे कार्य तो परमात्मा की प्रकृति कर रही है। ईश्वर मुझ पर प्रसन्न हों -- इस भाव का त्याग कर के, ईश्वर को कर्ता बना कर और स्वयं निमित्त मात्र बन कर, सारे कर्म फलतृष्णारहित सम्पन्न करने को "कर्मयोग" कहते हैं।
इस से अन्तःकरण की शुद्धि होती है। अन्तःकरण की शुद्धि से ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञानप्राप्ति को ही सिद्धि कहते हैं, और ज्ञानप्राप्ति का न होना ही असिद्धि है। ऐसी सिद्धि और असिद्धि में भी सम होकर अर्थात् दोनों को तुल्य समझकर कर्म करना ही समत्व है।
जो कर्म निष्काम भाव से ईश्वर के लिए किये जाते हैं वे बंधन नहीं उत्पन्न करते, अपितु मोक्षरूप परमपद की प्राप्ति में सहायक होते हैं। इस प्रकार कर्मफल तथा आसक्ति से रहित होकर ईश्वर के लिए कर्म करना वास्तविक रूप से कर्मयोग है, जिसके अनुसरण करने से मनुष्य को अभ्युदय तथा नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है।
भगवान कहते हैं --
"सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥२:३८॥"
अर्थात् - सुख-दु:ख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ; इस प्रकार तुमको पाप नहीं होगा॥
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हमें यह जान लेना चाहिए कि हम यह शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हैं। सुख दुःख तो केवल इस शरीर के लिए है जो यहीं पर छूट जानेवाला है। सारा संसार माया के अज्ञान रूपी आवरण और विक्षेप से ढका हुआ है, जिससे हमें पार जाना है।
भगवान श्रीकृष्ण की कृपा आप सब पर बनी रहे।
ॐ स्वस्ति ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ दिसंबर २०२२